*सलोक ॥*
*राज कपटं रूप कपटं धन कपटं कुल गरबतह ॥ संचंति बिखिआ छलं छिद्रं नानक बिनु हरि संगि न चालते ॥१॥*
हे नानक जी! यह राज रूप धन और (ऊँची) कुल का अभिमान-सब छल-रूप है। जीव छल कर के दूसरों पर दोष लगा लगा कर (कई तरीकों से) माया जोड़ते हैं, परन्तु प्रभू के नाम के बिना कोई भी वस्तु यहाँ से साथ नहीं जाती ॥१॥
*पेखंदड़ो की भुलु तुमा दिसमु सोहणा ॥ अढु न लहंदड़ो मुलु नानक साथि न जुलई माइआ ॥२॥*
तुम्मा देखने में तो मुझे सुंदर दिखा। क्या यह ऊकाई लग गई ? इस का तो आधी कोडी भी मुल्य नहीं मिलता। हे नानक जी! (यही हाल माया का है, जीव के लिए तो यह भी कोड़ी मुल्य की नहीं होती क्योंकि यहाँ से चलने के समय) यह माया जीव के साथ नहीं जाती ॥२॥
*पउड़ी ॥*
*चलदिआ नालि न चलै सो किउ संजीऐ ॥ तिस का कहु किआ जतनु जिस ते वंजीऐ ॥ हरि बिसरिऐ किउ त्रिपतावै ना मनु रंजीऐ ॥ प्रभू छोडि अन लागै नरकि समंजीऐ ॥ होहु क्रिपाल दइआल नानक भउ भंजीऐ ॥१०॥*
उस माया को इकट्ठी करने का क्या लाभ, जो (जगत से चलने समय) साथ नहीं जाती, जिस से आखिर विछुड़ ही जाना है, उस की खातिर बताओ क्या यत्न करना हुआ ? प्रभू को भुला हुआ (बहुती माया से) तृप्त भी नहीं और ना ही मन प्रसन्न होता है। परमात्मा को छोड़ कर अगर मन अन्य जगह लगाया तो नर्क में समाता है। हे प्रभू! कृपा कर, दया कर, नानक का सहम दूर कर दे ॥१०॥