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ਪਲ ਪਲ ਯਾਦ ਕਰਾ ਮੈ ਤੈਨੂੰ ਹੋਰ ਨਾ ਦਿਸੇ ਸਹਾਰਾ ਮੈਨੂੰ 🙏☺
ਜਦਵੀ ਕੋਈ ਸੰਕਟ ਆਵੇ ਦੇਕੇ ਹੱਥ ਬਚਾਈ 🙏☺🙏☺🙏
ਤੂੰ ਮੇਰਾ ਰਾਖਾ ਸਭਨੀ ਥਾਈ



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ਦੂਖ ਦੀਨ ਨ ਭਾਉ ਬਿਆਪੈ ਮਿਲੈ ਸੁਖ ਬਿਸ੍ਰਾਮੁ ॥
ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਨਾਨਕੁ ਬਖਾਨੈ ਹਰਿ ਭਜਨੁ ਤਤੁ ਗਿਆਨੁ ॥



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ਮੇਰੇ ਬਾਜ਼ਾਂ ਵਾਲੇ ਸ਼ਹਿਨਸ਼ਾਹ ਤੂੰ ਜੋਤ ਅਗੰਮੀ ।
ਤੂੰ ਲਾਜ਼ ਧਰਮ ਦੀ ਰੱਖ ਲਈ ਦੇ ਸਿਰਾ ਦੀ ਥੰਮੀ ।
ਤੇਰੀ ਅਮਰ ਕਹਾਣੀ ਪਾਤਿਸ਼ਾਹ ਹੈ ਬਹੁਤ ਹੀ ਲੰਮੀ ।
ਤੇਰੇ ਵਰਗਾ ਪੁੱਤਰ ਕੋਈ ਜੰਮ ਲਵੇ ਮਾਂ ਅਜੇ ਨਾ ਜੰਮੀ ।



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गोंड महला ५ ॥ धूप दीप सेवा गोपाल ॥ अनिक बार बंदन करतार ॥ प्रभ की सरणि गही सभ तिआगि ॥ गुर सुप्रसंन भए वड भागि ॥१॥ आठ पहर गाईऐ गोबिंदु ॥ तनु धनु प्रभ का प्रभ की जिंदु ॥१॥ रहाउ ॥ हरि गुण रमत भए आनंद ॥ पारब्रहम पूरन बखसंद ॥ करि किरपा जन सेवा लाए ॥ जनम मरण दुख मेटि मिलाए ॥२॥ करम धरम इहु ततु गिआनु ॥ साधसंगि जपीऐ हरि नामु ॥ सागर तरि बोहिथ प्रभ चरण ॥ अंतरजामी प्रभ कारण करण ॥३॥ राखि लीए अपनी किरपा धारि ॥ पंच दूत भागे बिकराल ॥ जूऐ जनमु न कबहू हारि ॥ नानक का अंगु कीआ करतारि ॥४॥१२॥१४॥

अर्थ :- हे भाई ! जिस परमात्मा का दिया हुआ हमारा यह शरीर है, यह जीवन है और धन है, उस की सिफ़त-सालाह आठो पहिर (हर समय) करनी चाहिए।1।रहाउ। (हे भाई ! कर्म कांडी लोक देवी देवताओ की पूजा करते हैं, उन के आगे धूप धुखाते हैं और दीवे जलाते हैं, पर) जिस मनुख के ऊपर बड़ी किस्मत के साथ गुरु मेहरबान हो गए, वह (धूप दीप आदि वाली) सारी क्रिया छोड़ के भगवान का सहारा लेता है, परमात्मा के दर पर हर समय सिर झुकाना, परमात्मा की भक्ति करनी ही उस मनुख के लिए ‘धूप दीप’ की क्रिया है।1। हे भाई ! परमात्मा कृपा कर के अपने सेवकों को अपनी भक्ति में जोड़ता है, उन के जन्म से ले के मरन तक के सारे दु:ख मिटा के उनको अपने चरणों में मिला लेता है। सर्व-व्यापक बख्शंद परमात्मा के गुण गाते हुए उनके अंदर आनंद बना रहता है।2। हे भाई ! गुरु की संगत में टिक के परमात्मा का नाम जपते रहना चाहिए, यही है धार्मिक कर्म और यही है असल ज्ञान। हे भाई ! सब के दिल की जानने वाले और जगत के पैदा करने वाले परमात्मा के चरणों को जहाज बना के इस संसार-सागर में से पार निकल।3। हे भाई ! भगवान अपनी कृपा कर के जिनकी रक्षा करता है, (कामादिक) पाँचो भयानक दुश्मन उन से दूर भाग जाते हैं। गुरू नानक जी कहते हैं, हे नानक ! जिस भी मनुख का पक्ष परमात्मा ने किया है, वह मनुख (विकारों के) जूए में अपना जीवन कभी भी नहीं गवाँता।4।12।14।



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ਅੰਗ : 866

ਗੋਂਡ ਮਹਲਾ ੫ ॥ ਧੂਪ ਦੀਪ ਸੇਵਾ ਗੋਪਾਲ ॥ ਅਨਿਕ ਬਾਰ ਬੰਦਨ ਕਰਤਾਰ ॥ ਪ੍ਰਭ ਕੀ ਸਰਣਿ ਗਹੀ ਸਭ ਤਿਆਗਿ ॥ ਗੁਰ ਸੁਪ੍ਰਸੰਨ ਭਏ ਵਡ ਭਾਗਿ ॥੧॥ ਆਠ ਪਹਰ ਗਾਈਐ ਗੋਬਿੰਦੁ ॥ ਤਨੁ ਧਨੁ ਪ੍ਰਭ ਕਾ ਪ੍ਰਭ ਕੀ ਜਿੰਦੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ ਹਰਿ ਗੁਣ ਰਮਤ ਭਏ ਆਨੰਦ ॥ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ਪੂਰਨ ਬਖਸੰਦ ॥ ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਜਨ ਸੇਵਾ ਲਾਏ ॥ ਜਨਮ ਮਰਣ ਦੁਖ ਮੇਟਿ ਮਿਲਾਏ ॥੨॥ ਕਰਮ ਧਰਮ ਇਹੁ ਤਤੁ ਗਿਆਨੁ ॥ ਸਾਧਸੰਗਿ ਜਪੀਐ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ॥ ਸਾਗਰ ਤਰਿ ਬੋਹਿਥ ਪ੍ਰਭ ਚਰਣ ॥ ਅੰਤਰਜਾਮੀ ਪ੍ਰਭ ਕਾਰਣ ਕਰਣ ॥੩॥ ਰਾਖਿ ਲੀਏ ਅਪਨੀ ਕਿਰਪਾ ਧਾਰਿ ॥ ਪੰਚ ਦੂਤ ਭਾਗੇ ਬਿਕਰਾਲ ॥ ਜੂਐ ਜਨਮੁ ਨ ਕਬਹੂ ਹਾਰਿ ॥ ਨਾਨਕ ਕਾ ਅੰਗੁ ਕੀਆ ਕਰਤਾਰਿ ॥੪॥੧੨॥੧੪॥

ਅਰਥ: ਹੇ ਭਾਈ! ਜਿਸ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਦਿੱਤਾ ਹੋਇਆ ਸਾਡਾ ਇਹ ਸਰੀਰ ਹੈ, ਇਹ ਜਿੰਦ ਹੈ ਅਤੇ ਧਨ ਹੈ, ਉਸ ਦੀ ਸਿਫ਼ਤਿ-ਸਾਲਾਹ ਅੱਠੇ ਪਹਿਰ (ਹਰ ਵੇਲੇ) ਕਰਨੀ ਚਾਹੀਦੀ ਹੈ।1। ਰਹਾਉ। (ਹੇ ਭਾਈ! ਕਰਮ ਕਾਂਡੀ ਲੋਕ ਦੇਵੀ ਦੇਵਤਿਆਂ ਦੀ ਪੂਜਾ ਕਰਦੇ ਹਨ, ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਅੱਗੇ ਧੂਪ ਧੁਖਾਂਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਦੀਵੇ ਬਾਲਦੇ ਹਨ, ਪਰ) ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਉਤੇ ਵੱਡੀ ਕਿਸਮਤ ਨਾਲ ਗੁਰੂ ਮੇਹਰਬਾਨ ਹੋ ਪਏ, ਉਹ (ਧੂਪ ਦੀਪ ਆਦਿਕ ਵਾਲੀ) ਸਾਰੀ ਕ੍ਰਿਆ ਛੱਡ ਕੇ ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਆਸਰਾ ਲੈਂਦਾ ਹੈ, ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਦਰ ਤੇ ਹਰ ਵੇਲੇ ਸਿਰ ਨਿਵਾਣਾ, ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਭਗਤੀ ਕਰਨੀ ਹੀ ਉਸ ਮਨੁੱਖ ਵਾਸਤੇ ‘ਧੂਪ ਦੀਪ’ ਦੀ ਕ੍ਰਿਆ ਹੈ।1। ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਮੇਹਰ ਕਰ ਕੇ ਆਪਣੇ ਸੇਵਕਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਭਗਤੀ ਵਿਚ ਜੋੜਦਾ ਹੈ, ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਜਨਮ ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ ਮਰਨ ਤਕ ਦੇ ਸਾਰੇ ਦੁੱਖ ਮਿਟਾ ਕੇ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਚਰਨਾਂ ਵਿਚ ਮਿਲਾ ਲੈਂਦਾ ਹੈ। ਸਰਬ-ਵਿਆਪਕ ਬਖ਼ਸ਼ੰਦ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਗੁਣ ਗਾਂਦਿਆਂ ਦੇ ਅੰਦਰ ਆਨੰਦ ਬਣਿਆ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ।2। ਹੇ ਭਾਈ! ਗੁਰੂ ਦੀ ਸੰਗਤਿ ਵਿਚ ਟਿਕ ਕੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ ਜਪਦੇ ਰਹਿਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ, ਇਹੀ ਹੈ ਧਾਰਮਿਕ ਕਰਮ ਅਤੇ ਇਹੀ ਹੈ ਅਸਲ ਗਿਆਨ। ਹੇ ਭਾਈ! ਸਭ ਦੇ ਦਿਲ ਦੀ ਜਾਣਨ ਵਾਲੇ ਅਤੇ ਜਗਤ ਦੇ ਪੈਦਾ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਚਰਨਾਂ ਨੂੰ ਜਹਾਜ਼ ਬਣਾ ਕੇ ਇਸ ਸੰਸਾਰ-ਸਮੁੰਦਰ ਵਿਚੋਂ ਪਾਰ ਲੰਘ।3। ਹੇ ਭਾਈ! ਪ੍ਰਭੂ ਆਪਣੀ ਮੇਹਰ ਕਰ ਕੇ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਰੱਖਿਆ ਕਰਦਾ ਹੈ, (ਕਾਮਾਦਿਕ) ਪੰਜੇ ਡਰਾਉਣੇ ਵੈਰੀ ਉਹਨਾਂ ਤੋਂ ਪਰੇ ਭੱਜ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਜੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ, ਹੇ ਨਾਨਕ! ਜਿਸ ਭੀ ਮਨੁੱਖ ਦਾ ਪੱਖ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨੇ ਕੀਤਾ ਹੈ, ਉਹ ਮਨੁੱਖ (ਵਿਕਾਰਾਂ ਦੇ) ਜੂਏ ਵਿਚ ਆਪਣਾ ਜੀਵਨ ਕਦੇ ਭੀ ਨਹੀਂ ਗਵਾਂਦਾ।4।12।14।



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SIMRANJOT SINGH : Waheguru Ji🙏🌹



धनासरी, भगत रवि दास जी की ੴ सतिगुर परसाद हम सरि दीनु दइआल न तुम सरि अब पतिआरू किया कीजे ॥ बचनी तोर मोर मनु माने जन कऊ पूरण दीजे ॥१॥ हउ बलि बलि जाउ रमईआ कारने ॥ कारन कवन अबोल ॥ रहाउ ॥ बहुत जनम बिछुरे थे माधउ इहु जनमु तुम्हारे लेखे ॥ कहि रविदास आस लगि जीवउ चिर भइओ दरसनु देखे ॥२॥१॥

(हे माधो मेरे जैसा कोई दीन और कंगाल नहीं हे और तेरे जैसा कोई दया करने वाला नहीं, (मेरी कंगालता का) अब और परतावा करने की जरुरत नहीं (हे सुंदर राम!) मुझे दास को यह सिदक बक्श की मेरा मन तेरी सिफत सलाह की बाते करने में ही लगा रहे।१। हे सुंदर राम! में तुझसे सदके हूँ, तू किस कारण मेरे साथ नहीं बोलता?||रहाउ|| रविदास जी कहते हैं- हे माधो! कई जन्मो से मैं तुझ से बिछुड़ा आ रहा हूँ (कृपा कर, मेरा) यह जनम तेरी याद में बीते; तेरा दीदार किये बहुत समां हो गया है, (दर्शन की) आस में जीवित हूँ॥२॥१॥



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ਅੰਗ : 694

ਧਨਾਸਰੀ ਭਗਤ ਰਵਿਦਾਸ ਜੀ ਕੀ ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ਹਮ ਸਰਿ ਦੀਨੁ ਦਇਆਲੁ ਨ ਤੁਮ ਸਰਿ ਅਬ ਪਤੀਆਰੁ ਕਿਆ ਕੀਜੈ ॥ ਬਚਨੀ ਤੋਰ ਮੋਰ ਮਨੁ ਮਾਨੈ ਜਨ ਕਉ ਪੂਰਨੁ ਦੀਜੈ ॥੧॥ ਹਉ ਬਲਿ ਬਲਿ ਜਾਉ ਰਮਈਆ ਕਾਰਨੇ ॥ ਕਾਰਨ ਕਵਨ ਅਬੋਲ ॥ ਰਹਾਉ ॥ ਬਹੁਤ ਜਨਮ ਬਿਛੁਰੇ ਥੇ ਮਾਧਉ ਇਹੁ ਜਨਮੁ ਤੁਮ੍ਹ੍ਹਾਰੇ ਲੇਖੇ ॥ ਕਹਿ ਰਵਿਦਾਸ ਆਸ ਲਗਿ ਜੀਵਉ ਚਿਰ ਭਇਓ ਦਰਸਨੁ ਦੇਖੇ ॥੨॥੧॥

ਅਰਥ: (ਹੇ ਮਾਧੋ!) ਮੇਰੇ ਵਰਗਾ ਕੋਈ ਨਿਮਾਣਾ ਨਹੀਂ, ਤੇ, ਤੇਰੇ, ਵਰਗਾ ਹੋਰ ਕੋਈ ਦਇਆ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਨਹੀਂ, (ਮੇਰੀ ਕੰਗਾਲਤਾ ਦਾ) ਹੁਣ ਹੋਰ ਪਰਤਾਵਾ ਕਰਨ ਦੀ ਲੋੜ ਨਹੀਂ। (ਹੇ ਸੋਹਣੇ ਰਾਮ!) ਮੈਨੂੰ ਦਾਸ ਨੂੰ ਇਹ ਪੂਰਨ ਸਿਦਕ ਬਖ਼ਸ਼ ਕਿ ਮੇਰਾ ਮਨ ਤੇਰੀ ਸਿਫ਼ਤਿ-ਸਾਲਾਹ ਦੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਵਿਚ ਪਰਚ ਜਾਇਆ ਕਰੇ।੧। ਹੇ ਸੋਹਣੇ ਰਾਮ! ਮੈਂ ਤੈਥੋਂ ਸਦਾ ਸਦਕੇ ਹਾਂ; ਤੂੰ ਕਿਸ ਗੱਲੇ ਮੇਰੇ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਬੋਲਦਾ?।ਰਹਾਉ। ਰਵਿਦਾਸ ਜੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ -ਹੇ ਮਾਧੋ! ਕਈ ਜਨਮਾਂ ਤੋਂ ਮੈਂ ਤੈਥੋਂ ਵਿਛੁੜਿਆ ਆ ਰਿਹਾ ਹਾਂ (ਮਿਹਰ ਕਰ, ਮੇਰਾ) ਇਹ ਜਨਮ ਤੇਰੀ ਯਾਦ ਵਿਚ ਬੀਤੇ; ਤੇਰਾ ਦੀਦਾਰ ਕੀਤਿਆਂ ਬੜਾ ਚਿਰ ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ, (ਦਰਸ਼ਨ ਦੀ) ਆਸ ਵਿਚ ਹੀ ਮੈਂ ਜੀਊਂਦਾ ਹਾਂ ॥੨॥੧॥



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SIMRANJOT SINGH : Waheguru Ji🙏

बिलावलु महला १ ॥ मन का कहिआ मनसा करै ॥ इहु मनु पुंनु पापु उचरै ॥ माइआ मदि माते त्रिपति न आवै ॥ त्रिपति मुकति मनि साचा भावै ॥१॥ तनु धनु कलतु सभु देखु अभिमाना ॥ बिनु नावै किछु संगि न जाना ॥१॥ रहाउ ॥ कीचहि रस भोग खुसीआ मन केरी ॥ धनु लोकां तनु भसमै ढेरी ॥ खाकू खाकु रलै सभु फैलु ॥ बिनु सबदै नही उतरै मैलु ॥२॥ गीत राग घन ताल सि कूरे ॥ त्रिहु गुण उपजै बिनसै दूरे ॥ दूजी दुरमति दरदु न जाइ ॥ छूटै गुरमुखि दारू गुण गाइ ॥३॥ धोती ऊजल तिलकु गलि माला ॥ अंतरि क्रोधु पड़हि नाट साला ॥ नामु विसारि माइआ मदु पीआ ॥ बिनु गुर भगति नाही सुखु थीआ ॥४॥ सूकर सुआन गरधभ मंजारा ॥ पसू मलेछ नीच चंडाला ॥ गुर ते मुहु फेरे तिन्ह जोनि भवाईऐ ॥ बंधनि बाधिआ आईऐ जाईऐ ॥५॥ गुर सेवा ते लहै पदारथु ॥ हिरदै नामु सदा किरतारथु ॥ साची दरगह पूछ न होइ ॥ माने हुकमु सीझै दरि सोइ ॥६॥ सतिगुरु मिलै त तिस कउ जाणै ॥ रहै रजाई हुकमु पछाणै ॥ हुकमु पछाणि सचै दरि वासु ॥ काल बिकाल सबदि भए नासु ॥७॥ रहै अतीतु जाणै सभु तिस का ॥ तनु मनु अरपै है इहु जिस का ॥ ना ओहु आवै ना ओहु जाइ ॥ नानक साचे साचि समाइ ॥८॥२॥

अर्थ: (प्रभु-नाम से बिसरे हुए मनुख की) बुद्धि (भी) मन के कहे अनुसार चलती है, और यह मन केवल यही बातें सोचता है की (शास्त्रों की मर्यादा अनुसार) पुन्य क्या है और पाप क्या है। माया के नशे में मस्त हुए मनुख को (माया की तरफ) से सब्र नहीं होता। माया का सब्र और माया के मोह से खलासी तभी होती है जब मनुख को सदा-थिर रहने वाला प्रभु मन में प्यारा लगने लग जाता है॥१॥ हे अभिमानी जीव! देख, यह शरीर, यह धन, यह स्त्री-यह सब (सदा साथ निभने वाले नहीं है)। परमात्मा के नाम के बिना कोई वस्तु (जीव के) साथ नहीं जाती॥१॥रहाउ॥ हम माया के रस का भोग करते हैं, माया की मौज मनाते हैं, (परन्तु मौत आने पर) धन (ओर) लोगों का बन जाता है और यह शारीर मिटटी की ढेरी हो जाता है। यह सारा ही पसारा (अंत) मिटटी में मिल जाता है। (मन पर विषे-विकारों की मैल इकठ्ठा होती रहती है, वह) मैल गुरु के शब्द के बिना नहीं उत्तरती॥२॥ (प्रभू के नाम से टूट के) मनुष्य अनेकों किस्मों के गीत राग व ताल आदि में मन परचाता है पर ये सब झूठे उद्यम हैं (क्योंकि नाम के बिना जीव) तीन गुणों के असर तले पैदा होता मरता रहता है और (प्रभू-चरणों से) विछुड़ा रहता है। (इन गीतों-रागों की सहायता से जीव की) और चाहत (ज्यादा से ज्यादा मिलने के लालच, झाक) व दुमर्ति दूर नहीं होती, आत्मिक रोग नहीं जाता। (इस दूसरी झाक व दुमर्ति से, आत्मिक रोग से वह मनुष्य) खलासी पा लेता है जो गुरू के सन्मुख हो के परमात्मा के गुण गाता है (ये सिफत-सालाह ही इन रोगों का) दारू है। जो मनुष्य सफेद धोती पहनते हैं (माथे पर) तिलक लगाते हैं, गले में माला डालते हैं और (वेद आदि के मंत्र) पढ़ते हैं पर उनके अंदर क्रोध प्रबल है उनका उद्यम यूँ ही है जैसे किसी नाट्य-घर में (नाट्य-विद्या की सिखलाई कर करा रहे हैं)। जिन मनुष्यों ने परमात्मा का नाम भुला के माया (के मोह) की शराब पी हुई हो, (उनको सुख नहीं हो सकता)। गुरू के बिना प्रभू की भगती नहीं हो सकती, और भगती के बिना आत्मिक आनंद नहीं मिलता।4। जिन लोगों ने अपना मुँह गुरू से मोड़ा हुआ है उन्हें सूअर-कुत्ते-गधे-बिल्ले-पशू-मलेछ-नीच-चण्डाल आदिक की जूनों में घुमाया जाता है। माया के मोह के बंधन में बंधा हुआ मनुष्य जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है।5। गुरू की बताई हुई सेवा के द्वारा ही मनुष्य नाम-सरमाया प्राप्त करता है। जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम सदा बसता है वह (जीवन-यात्रा में) सफल हो गया है। परमात्मा की दरगाह में उससे लेखा नहीं मांगा जाता (क्योंकि उसके जिंमें कुछ भी बकाया नहीं निकलता)। जो मनुष्य परमात्मा की रजा को (सिर माथे) मानता है वह परमात्मा के दर पर कामयाब हो जाता है।6। जब मनुष्य को गुरू मिल जाता है तो यह उस परमात्मा के साथ गहरी सांझ बना लेता है, परमात्मा की रजा को समझता है और रज़ा में (राज़ी) रहता है। सदा-स्थिर प्रभू की रजा को समझ के उसके दर पर जगह हासिल कर लेता है। गुरू के शबद के द्वारा उसके जनम-मरण (के चक्र) खत्म हो जाते हैं।7। (सिमरन की बरकति से) जो मनुष्य (अंतरात्मे माया के मोह की ओर से) उपराम रहता है वह हरेक चीज को परमात्मा की (दी हुई) ही समझता है। जिस परमात्मा ने ये शरीर और मन दिया है उसके हवाले करता है।1। हे नानक! वह मनुष्य जनम मरण के चक्कर से बच जाता है, वह सदा-सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन रहता है।8।2।



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