संधिआ ​​वेले का हुक्मनामा – 3 फरवरी 2025

सोरठि महला ५ ॥ माइआ मोह मगनु अंधिआरै देवनहारु न जानै ॥ जीउ पिंडु साजि जिनि रचिआ बलु अपुनो करि मानै ॥१॥ मन मूड़े देखि रहिओ प्रभ सुआमी ॥ जो किछु करहि सोई सोई जाणै रहै न कछूऐ छानी ॥ रहाउ ॥ जिहवा सुआद लोभ मदि मातो उपजे अनिक बिकारा ॥ बहुतु जोनि भरमत दुखु पाइआ हउमै बंधन के भारा ॥२॥ देइ किवाड़ अनिक पड़दे महि पर दारा संगि फाकै ॥ चित्र गुपतु जब लेखा मागहि तब कउणु पड़दा तेरा ढाकै ॥३॥ दीन दइआल पूरन दुख भंजन तुम बिनु ओट न काई ॥ काढि लेहु संसार सागर महि नानक प्रभ सरणाई ॥४॥१५॥२६॥ {पन्ना 616}
पद्अर्थ: मगनु = मस्त। अंधिआरै = अंधेरे में। न जानै = गहरी सांझ नहीं डालता। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। साजि = बना के। रचिआ = पैदा किया। मानै = मानता है।1।
मन = हे मन! मूढ़े = हे मूर्ख। करहि = तू करता है। कछूअै = कोई करतूत। छानी = छुपी। रहाउ।
मदि = नशे में। मातो = मस्त। उपजे = पैदा हो गए। भरमत = भटकते। बंधन = जंजीर।2।
देइ = दे के। देइ किवाड़ = दरवाजे बंद करके। दारा = स्त्री। संगि = साथ। फाकै = कुकर्म करता है। चित्र गुपतु = धर्मराज के मुंशी। मागहि = मांगते हैं, मांगेंगे।3।
दुख भंजन = हे दुखों का नाश करने वाले! ओट = आसरा। सागर = समुंद्र।4।
अर्थ: हे मूर्ख मन! मालिक प्रभू (तेरी सारी करतूतें हर वक्त) देख रहा है। तू जो कुछ करता है, (मालिक प्रभू) वही वही जान लेता है, (उससे तेरी) कोई भी करतूत छुपी नहीं रह सकती। रहाउ।
हे भाई! जिस परमात्मा ने शरीर-जिंद बना के जीव को पैदा किया हुआ है, उस सब दातें देने वाले प्रभू के साथ जीव गहरी सांझ नहीं डालता। माया के मोह के (आत्मिक) अंधकार में मस्त रहके अपनी ताकत को बड़ा समझता है।1।
हे भाई! मनुष्य जीभ के स्वादों में, लोभ के नशे में मस्त रहता है (जिसके कारण इसके अंदर) अनेकों विकार पैदा हो जाते हैं, मनुष्य अहंकार की जंजीरों के भार तले दब जाता है, बहुत जूनियों में भटकता फिरता है, और दुख सहता रहता है।2।
(माया के मोह के अंधकार में फसा मनुष्य) दरवाजे बंद करके अनेकों पर्दों के पीछे पराई स्त्री के साथ कुकर्म करता है। (पर, हे भाई!) जब (धर्मराज के दूत) चित्र और गुप्त (तेरी करतूतों का) हिसाब मांगेंगे, तब कोई भी तेरी करतूतों पर पर्दा नहीं डाल सकेगा।3।
हे नानक! कह– दीनों पर दया करने वाले! हे सर्व-व्यापक! हे दुखों का नाश करने वाले! तेरे बग़ैर और कोई आसरा नहीं है। हे प्रभू! मैं तेरी शरण आया हूँ। संसार समुंद्र में (डूबते हुए की मेरी बाँह पकड़ के) निकाल ले।4।15।26।

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