अंग : 652-653
सलोकु मः ४ ॥ अंतरि अगिआनु भई मति मधिम सतिगुर की परतीति नाही ॥ अंदरि कपटु सभु कपटो करि जाणै कपटे खपहि खपाही ॥ सतिगुर का भाणा चिति न आवै आपणै सुआइ फिराही ॥ किरपा करे जे आपणी ता नानक सबदि समाही ॥१॥ मः ४ ॥ मनमुख माइआ मोहि विआपे दूजै भाइ मनूआ थिरु नाहि ॥ अनदिनु जलत रहहि दिनु राती हउमै खपहि खपाहि ॥ अंतरि लोभु महा गुबारा तिन कै निकटि न कोई जाहि ॥ ओइ आपि दुखी सुखु कबहू न पावहि जनमि मरहि मरि जाहि ॥ नानक बखसि लए प्रभु साचा जि गुर चरनी चितु लाहि ॥२॥ पउड़ी ॥ संत भगत परवाणु जो प्रभि भाइआ ॥ सेई बिचखण जंत जिनी हरि धिआइआ ॥ अम्रितु नामु निधानु भोजनु खाइआ ॥ संत जना की धूरि मसतकि लाइआ ॥ नानक भए पुनीत हरि तीरथि नाइआ ॥२६॥
अर्थ: (मनमुख के) हृदय में अज्ञान है, (उस की) अक्ल मंदी होती है और सतिगुरू के ऊपर उस को सिदक नहीं होता; मन में धोखा (होने के कारण संसार में भी) वह सारा धोखा ही धोखा होता समझता है। (मनमुख मनुष्य खुद) दुःखी होते हैं (और अन्यों को) दुःखी करते हैं; सतिगुरू का हुक्म उनके चित में नही आता (भावार्थ, हुक्म नही मानते) और अपनी मत के पीछे भटकते रहते हैं; हे नानक जी! अगर हरी अपनी मेहर करे, तो ही वह गुरू के श़ब्द में लीन होते हैं ॥१॥ माया के मोह में फंसे हुए मनमुखों का मन माया के प्यार में एक जगह नहीं टिकता। हर समय दिन रात (माया में) जलते रहते हैं। अहंकार में आप दुःखी होते हैं, अन्यों को दुःखी करते हैं। उनके अंदर लोभ-रूपी बड़ा अंधेरा होता है, कोई मनुष्य उनके पास नही जाता। वह अपने अाप ही दुःखी रहते हैं, कभी सुखी नही होते, सदा जन्म मरण के चक्रों में पड़े रहते हैं। हे नानक जी! अगर वह गुरू के चरणों में चित जोड़न, तो सच्चा हरी उनको बख़्श़ लएगा ॥२॥ जो मनुष्य प्रभू को प्यारे हैं, वह संत हैं, वह भगत हैं वही कबूल हैं। वही मनुष्य सियाने हैं जो हरी-नाम सिमरते हैं। आत्मिक जीवन देने वाला नाम ख़ज़ाना-रूपी भोजन खाते हैं, और संतो की चरण-धूल अपने माथे पर लगाते हैं। हे नानक जी! (इस तरह के मनुष्य) हरी (के भजन-रूपी) तीर्थ में नहाते हैं और पवित्र हो जाते हैं ॥२६॥