सलोकु मः ३ ॥ पूरबि लिखिआ कमावणा जि करतै आपि लिखिआसु ॥ मोह ठगउली पाईअनु विसरिआ गुणतासु ॥ मतु जाणहु जगु जीवदा दूजै भाइ मुइआसु ॥ जिनी गुरमुखि नामु न चेतिओ से बहणि न मिलनी पासि ॥ दुखु लागा बहु अति घणा पुतु कलतु न साथि कोई जासि ॥ लोका विचि मुहु काला होआ अंदरि उभे सास ॥ मनमुखा नो को न विसही चुकि गइआ वेसासु ॥ नानक गुरमुखा नो सुखु अगला जिना अंतरि नाम निवासु ॥१॥ मः ३ ॥ से सैण से सजणा जि गुरमुखि मिलहि सुभाइ ॥ सतिगुर का भाणा अनदिनु करहि से सचि रहे समाइ ॥ दूजै भाइ लगे सजण न आखीअहि जि अभिमानु करहि वेकार ॥ मनमुख आप सुआरथी कारजु न सकहि सवारि ॥ नानक पूरबि लिखिआ कमावणा कोइ न मेटणहारु ॥२॥ पउड़ी ॥ तुधु आपे जगतु उपाइ कै आपि खेलु रचाइआ ॥ त्रै गुण आपि सिरजिआ माइआ मोहु वधाइआ ॥ विचि हउमै लेखा मंगीऐ फिरि आवै जाइआ ॥ जिना हरि आपि क्रिपा करे से गुरि समझाइआ ॥ बलिहारी गुर आपणे सदा सदा घुमाइआ ॥३॥
अर्थ: (पूर्व किए कर्मो अनुसार) आरम्भ से जो (संसार-रूप लेख) लिखा (भाव-लिखा) हुआ है और जो करतार ने आप लिख दिया है वह (जरूर) कमाना पड़ता है; (उस लेख अनुसार ही) मोह की ठगबूटी (जिस को) मिल गयी है उस को गुणों का खज़ाना हरी विसर गया है। (उस) संसार को जीवित न समझो (जो) माया के मोह मे मुर्दा पड़ा है, जिन्होंने सतगुरु के सनमुख हो कर नाम नहीं सिमरा, उनको प्रभु पास बैठना नहीं मिलता। वह मनमुख बहुत ही दुखी होते हैं, (क्योंकि जिन की खातिर माया के मोह में मुर्दा पड़े थे, वह) पुत्र स्त्री तो कोई साथ नहीं जाएगा, संसार के लोगों में भी उनका मुख काला हुआ (भाव, शर्मिंदा हुए) और रोते रहे, मनमुख का कोई विसाह नहीं करता, उनका इतबार खत्म हो जाता है। हे नानक जी! गुरमुखों को बहुत सुख होता है क्योंकि उनके हृदय में नाम का निवास होता है ॥१॥ सतिगुरु के सनमुख हुए जो मनुष्य (आपा भुला कर प्रभू में सुभावक ही) लीन हो जाते हैं वह भले लोग हैं और (हमारे) मित्र हैं; जो सदा सतिगुरू का हुक्म मानते है, वह सच्चे हरी में समाए रहते हैं। उन को संत जन नहीं कहते जो माया के मोह में लग कर अंहकार और विकार करते हैं। मनमुख अपने मतलब के प्यारे (होन कर के) किसे का काम नहीं सवार सकते; (पर) हे नानक जी! (उन के सिर क्या दोष ?) (पुर्व किए कार्य अनुसार) आरम्भ से लिखा हुआ (संस्कार-रूप लेख) कमाना पड़ता है, कोई मिटाने-योग नहीं ॥२॥ हे हरी! तूँ आप ही संसार रच कर आप ही खेल बनाई है; तूँ आप ही (माया के) तीन गुण बनाए हैं और आप ही माया का मोह (जगत में) अधिक कर दिया है। (इस मोह से पैदा) अंहकार में (लगने से) (दरगाह में) लेखा मांगते हैं और फिर जम्मना मरना पड़ता है; जिन पर हरी आप कृपा करता है उन को सतिगुरू ने (यह) समझ दे दी है। (इस लिए) मैं अपने सतिगुरू से सदके जाता हूँ और सदा बलिहारे जाता हूँ ॥३॥