सूही महला ३ ॥ काइआ कामणि अति सुआल्हिउ पिरु वसै जिसु नाले ॥ पिर सचे ते सदा सुहागणि गुर का सबदु सम्हाले ॥ हरि की भगति सदा रंगि राता हउमै विचहु जाले ॥१॥ वाहु वाहु पूरे गुर की बाणी ॥ पूरे गुर ते उपजी साचि समाणी ॥१॥ रहाउ ॥
हे भाई! (गुरु की बनी की बरकत नाम) जिस देह में प्रभु-पति आ बस्ता है, वह काया-स्त्री बहुत सुंदर बन जाती है। जो जिव-स्त्री गुरु के शब्द को अपने ह्रदय में बसाती है, सदा-थिर प्रभु-पति के मिलाप के कारन वह सदा के लिए सुहाग भाग्य वाली बन जाती है। हे भाई! (बाणी की बरकत के साथ जो मनुख) अपने अंदर से हुमाय जला देता है, वह सदा के लिए परमात्मा की भक्ति के रंग में रंग जाता है।१। हे भाई! पूरे गुरु की बाणी धन्य है धन्य है। यह बाणी पूरे गुरु के ह्रदय में पैदा होती है और (जो मनुख इस को अपने ह्रदय में बसता है उस को) सदा-थिर रहने वाले परमात्मा में लीं कर देती है।१।रहाउ।