धनासरी महला ३ घरु २ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ इहु धनु अखुटु न निखुटै न जाइ ॥ पूरै सतिगुरि दीआ दिखाइ ॥ अपुने सतिगुर कउ सद बलि जाई ॥ गुर किरपा ते हरि मंनि वसाई ॥१॥ से धनवंत हरि नामि लिव लाइ ॥ गुरि पूरै हरि धनु परगासिआ हरि किरपा ते वसै मनि आइ ॥ रहाउ ॥ अवगुण काटि गुण रिदै समाइ ॥ पूरे गुर कै सहजि सुभाइ ॥ पूरे गुर की साची बाणी ॥ सुख मन अंतरि सहजि समाणी ॥२॥ एकु अचरजु जन देखहु भाई ॥ दुबिधा मारि हरि मंनि वसाई ॥ नामु अमोलकु न पाइआ जाइ ॥ गुर परसादि वसै मनि आइ ॥३॥ सभ महि वसै प्रभु एको सोइ ॥ गुरमती घटि परगटु होइ ॥ सहजे जिनि प्रभु जाणि पछाणिआ ॥ नानक नामु मिलै मनु मानिआ ॥४॥१॥
अर्थ: राग धनासरी, घर २ में गुरू अमरदास जी की चार-बंदों वाली बाणी। अकाल पुरख एक है और सतिगुरू की कृपा से मिलता है। हे भाई! यह नाम-खजाना कभी खत्म होने वाला नहीं, ना यह (खर्च करने से) खत्म होता है, ना यह गुम होता है। (इस धन की यह सिफ़त मुझे) पूरे गुरु ने दिखा दी है। (हे भाई!) मैं अपने गुरु से सदा सदके जाता हूँ, गुरु की कृपा के साथ परमात्मा (का नाम-धन आपने) मन में बसाता हूँ ॥१॥ (हे भाई! जिन मनुष्यों के मन में) पूरे गुरु ने परमात्मा के नाम का धन प्रकट कर दिया, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में सुरति जोड़ के (आतमिक जीवन के) शाह बन गए। हे भाई! यह नाम-धन परमात्मा की कृपा के साथ मन में आ के बसता है ॥ रहाउ ॥ (हे भाई! गुरु शरण आ मनुष्य के) औगुण दूर कर के परमात्मा की सिफ़त-सालाह (उस के) हृदय में वसा देता है। (हे भाई!) पूरे गुरु की (उचारी हुई) सदा-थिर भगवान की सिफ़त-सालाह वाली बाणी (मनुष्य के) मन में आतमिक हुलारे पैदा करती है। (इस बाणी की बरकत के साथ) आतमिक अढ़ोलता हृदय में समाई हुई रहती है ॥२॥ हे भाई जनों! एक हैरान करन वाला तमाश़ा देखो। (गुरू मनुष्य के अंदरों) तेर-मेर मिटा के परमात्मा (का नाम उस के) मन में वसा देता है। हे भाई! परमात्मा का नाम अमुल्य है, (किसे भी दुनियावी कीमत से) नहीं मिल सकता। गुरू की कृपा से मन में आ वसता है ॥३॥ (हे भाई! जाहे) वह एक परमात्मा आप ही सब में वसता है, (पर) गुरू की मत पर चलिया ही (मनुष के) हिरदे में प्रगट होता है। आतमिक अडोलता में टिक के जिस मनुष्य ने प्रभू से गहरी सांझ पा कर (उस को अपने अंदर वसता) पछाण लिया है, नानक जी! उस को परमात्मा का नाम (सदा के लिए) प्रापत हो जाता है, उस का मन (परमात्मा की याद में) लगा रहता है ॥४॥१॥