रागु सोरठि बानी भगत रविदास जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ दुलभ जनमु पुंन फल पाइओ बिरथा जात अबिबेकै ॥ राजे इंद्र समसरि ग्रिह आसन बिनु हरि भगति कहहु किह लेखै ॥१॥ न बीचारिओ राजा राम को रसु ॥ जिह रस अन रस बीसरि जाही ॥१॥ रहाउ ॥ जानि अजान भए हम बावर सोच असोच दिवस जाही ॥ इंद्री सबल निबल बिबेक बुधि परमारथ परवेस नही ॥२॥ कहीअत आन अचरीअत अन कछु समझ न परै अपर माइआ ॥ कहि रविदास उदास दास मति परहरि कोपु करहु जीअ दइआ ॥३॥३॥
अर्थ: राग सोरठि में भगत रविदास जी की बाणी। अकाल पुरख एक है और सतिगुरू की कृपा द्वारा मिलता है। यह मनुष्य जन्म बहुत मुश्किल से मिलता है, (पहले किए) भले कामों के फल स्वरूप हमें मिला है, परन्तु हमारी अज्ञानता में यह व्यर्थ ही जा रहा है, (हमने कभी सोचा ही नहीं कि) जे प्रभू की बंदगी से दूर रहे तो (देवतायों के) राजा इन्दर के स्वर्ग के महल भी किसी काम न आएंगे ॥१॥ (हम मायाधारी जीवों ने) जगत-प्रभू परमात्मा के नाम के उस आनंद को कभी नहीं विचारा, जिस आनंद की बरकत से (माया के) और सारे चस्के दूर हो जाते हैं ॥१॥ रहाउ ॥ (हे प्रभू!) जानते बुझते हुए भी हम पागल और मुर्ख बने हुए हैं, हमारी उम्र के दिन (माया की ही) अच्छी बुरी विचारों में बीत रहे हैं, हमारी काम-वाश़ना बढ रही है, विचार-शक्ति घट रही है, इस बात को हमने कभी नहीं सोचा की हमारी सब से बड़ी जरुरत क्या है ॥२॥ हम कहते कुछ हैं और करते कुछ ओर हैं, माया इतनी बलवान हो रही है कि हमें (अपनी मुर्खता की) समझ ही नहीं होती। (हे प्रभू!) तेरा दास रविदास कहता है – मैं अब इस (मुर्ख-पुने) से निरलेप हो गया हूँ, (मेरे अनजानपुने पर) गुस्सा ना करना और मेरी आत्मा पर मेहर करना ॥३॥३॥