अंग : 952
सलोक मः १ ॥ ना सति दुखीआ ना सति सुखीआ ना सति पाणी जंत फिरहि ॥ ना सति मूंड मुडाई केसी ना सति पड़िआ देस फिरहि ॥ ना सति रुखी बिरखी पथर आपु तछावहि दुख सहहि ॥ ना सति हसती बधे संगल ना सति गाई घाहु चरहि ॥ जिसु हथि सिधि देवै जे सोई जिस नो देइ तिसु आइ मिलै ॥ नानक ता कउ मिलै वडाई जिसु घट भीतरि सबदु रवै ॥ सभि घट मेरे हउ सभना अंदरि जिसहि खुआई तिसु कउणु कहै ॥ जिसहि दिखाला वाटड़ी तिसहि भुलावै कउणु ॥ जिसहि भुलाई पंध सिरि तिसहि दिखावै कउणु ॥१॥
अर्थ: (तप आदि से) दुखी होने में (सिद्धि और महानता की प्राप्ति) नहीं है, सुख में भी नहीं, और पानी में खड़े हो के भी नहीं है (अगर ऐसा होता तो बेअंत) जीव जो पानी में ही विचरते हैं (उन्हें सहज ही सिद्धि मिल जाती)। सिर के केश मुनाने में (भाव, रुंड-मुंड हो जाने पर) सिद्धि नहीं है; इस बात में भी (जीवन-मनोरथ की) सिद्धि नहीं कि विद्वान बन के (और लोगों को चर्चा में जीतने के लिए) देश-देशांतरों में फिरें। रुखों-वृक्षों और पत्थरों पर भी सिद्धि नहीं है ये अपने आप को कटाते हैं और (कई किस्म के) दुख बर्दाश्त करते हैं (भाव, रुखो-वृक्षों व पत्थरों की तरह ही जड़ हो के अपने ऊपर कई तरह के कष्ट सहने से भी जनम-मनोरथ की सिद्धि प्राप्त नहीं होती)। (कमर के साथ संगल बाँधने से भी) सिद्धि नहीं है, हाथी संगलों से ही बँधे होते हैं; (कंद-मूल खाने में भी) सिद्धि नहीं है, गाएं घास चुगती ही हैं (भाव, हाथियों की तरह संगल बाँधने में और गायों की तरह कंद-मूल खाने में भी सिद्धि की प्राप्ति नहीं है)। जिस प्रभू के हाथ में सफलता है अगर वह स्वयं दे और जिसको देता है उसको प्राप्त होती है। हे नानक! महानता (आदर व वडिआई) उस जीव को मिलता है जिसके हृदय में (प्रभू की सिफतसालाह का) शबद हर वक्त मौजूद है। (प्रभू तो ऐसे कहता है कि जीवों के) सारे शरीर मेरे (शरीर) हैं, मैं सबमें बसता हूँ, जिस जीव को मैं गलत रास्ते पर डाल देता हूँ उसको कौन समझा सकता है? जिसको मैं सुंदर (बढ़िया) रास्ता दिखा देता हूँ उसको कौन भुला सकता है? जिसको मैंने (जिंदगी के) सफर के आरम्भ में भटका दिया उसको रास्ता कौन दिखा सकता है?।1।