अंग : 800
बिलावलु महला ४ ॥
खत्री ब्राहमणु सूदु वैसु को जापै हरि मंत्रु जपैनी ॥ गुरु सतिगुरु पारब्रहमु करि पूजहु नित सेवहु दिनसु सभ रैनी ॥१॥हरि जन देखहु सतिगुरु नैनी ॥ जो इछहु सोई फलु पावहु हरि बोलहु गुरमति बैनी ॥१॥ रहाउ ॥
अनिक उपाव चितवीअहि बहुतेरे सा होवै जि बात होवैनी ॥ अपना भला सभु कोई बाछै सो करे जि मेरै चिति न चितैनी ॥२॥मन की मति तिआगहु हरि जन एहा बात कठैनी ॥ अनदिनु हरि हरि नामु धिआवहु गुर सतिगुर की मति लैनी ॥३॥मति सुमति तेरै वसि सुआमी हम जंत तू पुरखु जंतैनी ॥ जन नानक के प्रभ करते सुआमी जिउ भावै तिवै बुलैनी ॥४॥५॥
अर्थ: बिलावलु महला ४ ॥
हे भाई ! क्षत्रिय, ब्राहाण, शूद्र एवं वैश्य में से हर कोई हरि-मंत्र जप सकता है, जो सभी के लिए जपने योग्य है।
परब्रह्म का रूप मानकर गुरु की पूजा करो और नित्य दिन-रात सेवा में लीन रहो॥ १॥
हे भक्तजनो ! नयनों से सतगुरु के दर्शन करो।
गुरु के उपदेश द्वारा हरि-नाम बोलो और मनोवांछित फल पा लो॥ १॥ रहाउ॥
आदमी अनेक उपाय मन में सोचता रहता है लेकिन वही होता है, जो बात होनी होती है।
हर कोई अपनी भलाई की कामना करता है लेकिन भगवान् वही करता है, जो हमारे चित में याद भी नहीं होता ॥ २॥
हे भक्तजनो ! अपने मन की मति त्याग दो, पर यह बात बड़ी कठिन है।
गुरु का उपदेश लेकर नित्य हरि-नाम का ध्यान करते रहो॥ ३॥
हे स्वामी ! मति अथवा सुमति यह सब तेरे ही वश में है। हम जीव तो यंत्र हैं और तू यंत्र चलाने वाला पुरुष है।
हे नानक के प्रभु, हे कर्ता स्वामी ! जैसे तुझे अच्छा लगता है, वैसे ही हम बोलते हैं॥ ४ ॥ ५ ॥