अंग : 739
सूही महला ५ ॥ लालनु राविआ कवन गती री ॥ सखी बतावहु मुझहि मती री ॥१॥ सूहब सूहब सूहवी ॥ अपने प्रीतम कै रंगि रती ॥१॥ रहाउ ॥ पाव मलोवउ संगि नैन भतीरी ॥ जहा पठावहु जांउ तती री ॥२॥ जप तप संजम देउ जती री ॥ इक निमख मिलावहु मोहि प्रानपती री ॥३॥ माणु ताणु अहंबुधि हती री ॥ सा नानक सोहागवती री ॥४॥४॥१०॥
अर्थ: हे सखी ! तूंने किस तरीके के साथ सुंदर लाल का मिलाप प्राप्त किया है ? हे सखी ! मुझे भी वह समझ बता।1। हे सखी ! तेरे मुख पर लाली भख रही है, तूं आपने प्यारे के प्रेम-रंग में रंगी हुई हैं।1।रहाउ। हे सखी ! (मुझे भी बता) मैं तेरे पैर अपनी आँखें की पुतलीआँ के साथ मलूगी, तूं मुझे जहाँ भी (किसी काम) भेजेंगी मैं (खुशी के साथ) जाऊँगी।2। हे सखी ! आँख झपकने जितने समय के लिए ही तूं मुझे जीवन का स्वामी भगवान मिला दे, मैं उस के बदले में सारे जप तप संजम दे दूंगी।3। हे नानक ! जो जीव-स्त्री (किसी भी अपने मिथे हुए पदार्थ या उधम आदि का) माण और सहारा छोड़ देती है, हऊमै वाली समझ त्याग देती है, वह सुहाग-भाग वाली हो जाती है।4।4।10।