अंग : 504
गूजरी महला १ ॥ ऐ जी ना हम उतम नीच न मधिम हरि सरणागति हरि के लोग ॥ नाम रते केवल बैरागी सोग बिजोग बिसरजित रोग ॥१॥ भाई रे गुर किरपा ते भगति ठाकुर की ॥ सतिगुर वाकि हिरदै हरि निरमलु ना जम काणि न जम की बाकी ॥१॥ रहाउ॥ हरि गुण रसन रवहि प्रभ संगे जो तिसु भावै सहजि हरी ॥ बिनु हरि नाम ब्रिथा जगि जीवनु हरि बिनु निहफल मेक घरी ॥२॥ ऐ जी खोटे ठउर नाही घरि बाहरि निंदक गति नही काई ॥ रोसु करै प्रभु बखस न मेटै नित नित चड़ै सवाई ॥३॥ ऐ जी गुर की दाति न मेटै कोई मेरै ठाकुरि आपि दिवाई ॥ निंदक नर काले मुख निंदा जिन्ह गुर की दाति न भाई ॥४॥ ऐ जी सरणि परे प्रभु बखसि मिलावै बिलम न अधूआ राई ॥ आनद मूलु नाथु सिरि नाथा सतिगुरु मेलि मिलाई ॥५॥ ऐ जी सदा दइआलु दइआ करि रविआ गुरमति भ्रमनि चुकाई ॥ पारसु भेटि कंचनु धातु होई सतसंगति की वडिआई ॥६॥ हरि जलु निरमलु मनु इसनानी मजनु सतिगुरु भाई ॥ पुनरपि जनमु नाही जन संगति जोती जोति मिलाई ॥७॥ तूं वड पुरखु अगम तरोवरु हम पंखी तुझ माही ॥ नानक नामु निरंजन दीजै जुगि जुगि सबदि सलाही ॥८॥४॥
अर्थ: हे भाई! जो लोग परमात्मा की भक्ति करते हैं जो परमात्मा की शरण आते हैं उन्हें ना ये गुमान होता है कि हम सबसे ऊँची या बीच की जाति के हैं, ना ये सहम होता है कि हम नीच जाति के हैं। सिर्फ प्रभु नाम में रंगे रहने के कारण वह (इस ऊँच नीच आदि से) निर्मोह रहते हैं। चिन्ता, विछोड़ा रोग आदि वह सब भुला चुके होते हैं।1। हे भाई! परमात्मा की भक्ति गुरु की मेहर से ही हो सकती है। जिस मनुष्य ने सतिगुरु के शब्द के द्वारा अपने हृदय में परमात्मा का पवित्र नाम बसा लिया है, उसको जम की अधीनता नहीं रहती, उसके जिम्मे पिछले किए कर्मों का कोई ऐसा बाकी लेखा नहीं रह जाता जिसके कारण जमराज उस पर कोई जोर डाल सके।1। रहाउ। (परमात्मा के भक्त) परमात्मा की संगति में टिक के अपनी जीभ से परमात्मा के गुण गाते हैं (वे यही समझते हैं कि) सहज ही (जगत में वही घटित होता है) जो उस परमात्मा का भाता है। परमात्मा के नाम के बिना जगत में जीना उन्हें व्यर्थ दिखाई देता है, परमात्मा की भक्ति के बिना उन्हें एक भी घड़ी निष्फल प्रतीत होती है।2। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के भक्तों के वास्ते अपने मन में खोट रखता है और उनकी निंदा करता है उसे ना घर में ना ही बाहर कहीं भी आत्मिक शांति की जगह नहीं मिलती क्योंकि उसकी अपनी आत्मक अवस्था ठीक नहीं है। (परमात्मा अपने भक्तों पर सदा बख्शिशें करता है) अगर निंदक (ये बख्शिशें देख के) खिझे, तो भी परमात्मा अपनी बख्शिशें बंद नहीं करता, वह बल्कि सदा ही बढ़ती जाती है।3। हे भाई! (प्रभु की महिमा) गुरु की दी हुई दाति है, इसको कोई मिटा नहीं सकता; ठाकुर प्रभु ने खुद ही ये (नाम की) दाति दिलवाई होती है। जिस निंदकों को (भक्त-जनों को दी हुई) गुरु की दाति पसंद नहीं आती (और वह भक्तों की निंदा करते हैं) निंदा के कारण उन निंदकों के मुंह काले (दिखते हैं)।4। हे भाई! जो मनुष्य (प्रभु की) शरण पड़ते हैं, प्रभु मेहर करके उन्हें अपने चरणों में जोड़ लेता है, रत्ती भर भी ढील नहीं करता। वह प्रभु आत्मिक आनंद का श्रोत है, सबसे बड़ा नाथ है, गुरु (की शरण पड़े मनुष्य को) परमात्मा के मेल में मिला देता है।5। हे भाई! परमात्मा दया का श्रोत है (सब जीवों पे) सदा दया करता है। जो मनुष्य गुरु की मति ले के उसको स्मरण करता है, प्रभु उसकी भटकना मिटा देता है। जैसे (लोहा आदि) धात पारस को छू के सोना बन जाती है वैसे ही साधु-संगत में भी यही इनायत है।6। परमात्मा (मानो) पवित्र जल है (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, उसका) मन (इस पवित्र जल में) स्नान करने के लायक बन जाता है। जिस मनुष्य को अपने मन में सतिगुरु प्यारा लगता है उसका मन (इस पवित्र जल में) डुबकी लगाता है। साधु-संगत में रह के उसका बार-बार जन्म नहीं होता, (क्योंकि गुरु) उसकी ज्योति प्रभु की ज्योति में मिला देता है।7। हे प्रभु! तू सबसे बड़ा है, तू सर्व-व्यापक है, तू अगम्य (पहुँच से परे) है। तू (मानो) एक श्रेष्ठ वृक्ष है जिसके आसरे रहने वाले हम सभी जीव पक्षी हैं। हे निरंजन प्रभु! मुझ नानक को अपना नाम बख्श, ता कि मैं सदा ही गुरु के शब्द में (जुड़ के) तेरी महिमा करता रहूँ।8।4।