अंग : 668
धनासरी महला ४ ॥ कलिजुग का धरमु कहहु तुम भाई किव छूटह हम छुटकाकी ॥ हरि हरि जपु बेड़ी हरि तुलहा हरि जपिओ तरै तराकी ॥१॥ हरि जी लाज रखहु हरि जन की ॥ हरि हरि जपनु जपावहु अपना हम मागी भगति इकाकी ॥ रहाउ ॥ हरि के सेवक से हरि पिआरे जिन जपिओ हरि बचनाकी ॥ लेखा चित्र गुपति जो लिखिआ सभ छूटी जम की बाकी ॥२॥ हरि के संत जपिओ मनि हरि हरि लगि संगति साध जना की ॥ दिनीअरु सूरु त्रिसना अगनि बुझानी सिव चरिओ चंदु चंदाकी ॥३॥ तुम वड पुरख वड अगम अगोचर तुम आपे आपि अपाकी ॥ जन नानक कउ प्रभ किरपा कीजै करि दासनि दास दसाकी ॥४॥६॥
अर्थ: हे भाई! मुझे वह धर्म बता जिस के साथ जगत के विकारों के झँझटों से बचा जा सके। मैं इन झँझटों से बचना चाहता हूँ। बता; मैं कैसे बचूँ ? (उत्तर-) परमात्मा के नाम का जाप नाव है, नाम ही तुलहा है। जिस मनुष्य ने हरी-नाम जपा वह तैराक बन कर (संसार-समुँद्र से) पार निकल जाता है ॥१॥ हे प्रभू जी! (दुनिया के विकारों के झँझटों में से) अपने सेवक की इज़्ज़त बचा ले। हे हरी! मुझे अपना नाम जपने की समर्था दे। मैं (तेरे से) सिर्फ़ तेरी भक्ति का दान मांग रहा हूँ ॥ रहाउ ॥ हे भाई! जिन मनुष्यों ने गुरू के वचनों के द्वारा परमात्मा का नाम जपा, वह सेवक परमात्मा को प्यारे लगते हैं। चित्र गुप्त ने जो भी उन (के कर्मो) का लेख लिख रखा था, धर्मराज का वह सारा हिसाब ही ख़त्म हो जाता है ॥२॥ हे भाई! जिन संत जनों ने साध जनों की संगत में बैठ कर अपने मन में परमात्मा के नाम का जाप किया, उन के अंदर कल्याण रूप (परमात्मा प्रगट हो गया, मानों) ठंडक पहुँचाने वाला चाँद चढ़ गया, जिस ने (उन के हृदय में से) तृष्णा की अग्नि बुझा दी; (जिस ने विकारों का) तपता सूरज (शांत कर दिया) ॥੩॥ हे प्रभू! तूँ सब से बड़ा हैं, तूँ सर्व-व्यापक हैं; तूँ अपहुँच हैं; ज्ञान-इन्द्रियों के द्वारा तेरे तक पहुँच नहीं हो सकती। तूँ (हर जगह) आप ही आप, आप ही आप हैं। हे प्रभू! अपने दास नानक पर मेहर कर, और, अपने दासों के दासों का दास बना ले ॥४॥६॥