अंग : 584
वडहंसु महला ३ ॥ इहु सरीरु जजरी है इस नो जरु पहुचै आए ॥ गुरि राखे से उबरे होरु मरि जमै आवै जाए ॥ होरि मरि जमहि आवहि जावहि अंति गए पछुतावहि बिनु नावै सुखु न होई ॥ ऐथै कमावै सो फलु पावै मनमुखि है पति खोई ॥ जम पुरि घोर अंधारु महा गुबारु ना तिथै भैण न भाई ॥ इहु सरीरु जजरी है इस नो जरु पहुचै आई ॥१॥ काइआ कंचनु तां थीऐ जां सतिगुरु लए मिलाए ॥ भ्रमु माइआ विचहु कटीऐ सचड़ै नामि समाए ॥ सचै नामि समाए हरि गुण गाए मिलि प्रीतम सुखु पाए ॥ सदा अनंदि रहै दिनु राती विचहु हंउमै जाए ॥ जिनी पुरखी हरि नामि चितु लाइआ तिन कै हंउ लागउ पाए ॥ कांइआ कंचनु तां थीऐ जा सतिगुरु लए मिलाए ॥२॥ सो सचा सचु सलाहीऐ जे सतिगुरु देइ बुझाए ॥ बिनु सतिगुर भरमि भुलाणीआ किआ मुहु देसनि आगै जाए ॥ किआ देनि मुहु जाए अवगुणि पछुताए दुखो दुखु कमाए ॥ नामि रतीआ से रंगि चलूला पिर कै अंकि समाए ॥ तिसु जेवडु अवरु न सूझई किसु आगै कहीऐ जाए ॥ सो सचा सचु सलाहीऐ जे सतिगुरु देइ बुझाए ॥३॥ जिनी सचड़ा सचु सलाहिआ हंउ तिन लागउ पाए ॥ से जन सचे निरमले तिन मिलिआ मलु सभ जाए ॥ तिन मिलिआ मलु सभ जाए सचै सरि नाए सचै सहजि सुभाए ॥ नामु निरंजनु अगमु अगोचरु सतिगुरि दीआ बुझाए ॥ अनदिनु भगति करहि रंगि राते नानक सचि समाए ॥ जिनी सचड़ा सचु धिआइआ हंउ तिन कै लागउ पाए ॥४॥४॥
अर्थ: यह सरीर नास हो जाने वाला है, इस को बुढ़ापा आ दबाता है। जिनकी गुरु ने रक्षा की, वह (मोह में गर्क होने से)बच जाते हैं पर और जनम मरण में रहते हैं। और अंत समय पछताते हैं; हरी नाम के बिना आत्मिक जीवन का सुख नहीं मिलता। इस लोक में जीव जो करनी कमाता है वोही फल भोगता है। अपने मन के पीछे चलने वाला (प्रभु दरबार में) अपनी इज्जत गवा लेता है। (उनके लिए) जम राज की पूरी में भी घोर अँधेरा, घोर अँधेरा ही बना रहता है, उधर बहिन या भाई कोई सहायता नहीं कर सकता। यह सरीर पुराना हो जाने वाला है, इस को भुदापा (जरूर) आ जाता है॥1॥ हे भाई! (मनुष्य का) ये शरीर तब सोने जैसा पवित्र होता है जब गुरु (मनुष्य को) परमात्मा के चरणों में जोड़ देता है। (तब मनुष्य) सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम में लीन हो जाता है, और इसके अंदर माया के प्रति भटकना दूर हो जाती है। मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के नाम में लीन हो जाता है, परमात्मा के गुण गाता रहता है, प्रभु-प्रीतम को मिल के आनंद लेता है। इस आनंद में दिन-रात टिका रहता है और इसके अंदर से अहंकार दूर हो जाता है। हे भाई! जिस मनुष्यों ने परमात्मा के नाम में चिक्त जोड़ा हुआ है, मैं उनके चरण लगता हूँ। (मनुष्य का ये) शरीर तब सोने की तरह पवित्र हो जाता है, जब गुरु मनुष्य को परमात्मा के चरणों में जोड़ देता है।2। हे भाई! उस सदा रहने वाले परमात्मा की महिमा तब ही की जा सकती है, अगर गुरु (महिमा करने की) बुद्धि दे। गुरु की शरण के बिना (जीव-सि्त्रयाँ माया की) भटकना में गलत रास्ते पर पड़ जाती हैं, और परलोक में जा के शर्म-सार होती हैं। परलोक में जा के वे मुँह नहीं दिखा सकतीं। हे भाई! जो जीव-स्त्री अवगुण में फंस जाती है, वह आखिर पछताती है, वह सदा दुख ही दुख सहेड़ती है। परमात्मा के नाम में रंगी हुई जीव-स्त्रीयां परमात्मा के चरणों में लीन हो के गाढ़े प्रेम-रंग में (मस्त रहती हैं)। हे भाई! उस परमात्मा के बराबर का (जगत में) कोई और नहीं दिखता (इस वास्ते परमात्मा के बिना) किसी और के आगे (कोई दुख-सुख) बताया नहीं जा सकता। (पर) उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा की महिमा तभी की जा सकती है, अगर गुरु (महिमा करने की) समझ बख्श दे।3। जिन्होंने सदा स्थिर-प्रभु की महिमा की, मैं उनके चरणों में लगता हूँ। वह मनुष्य अडोल-चिक्त हो जाते हैं, पवित्र हो जाते हैं, उनके दर्शन करने से (विकारों की) सारी मैल उतर जाती है। (जो मनुष्य उनका दर्शन करता है, वह मनुष्य) सदा-स्थिर प्रभु के नाम सरोवर मे स्नान करता है, वह सदा-स्थिर हरि में लीन हो जाता है, आत्मिक अडोलता में टिक जाता है, प्रेम-रंग में मस्त रहता है। हे भाई! परमात्मा का नाम माया की कालिख से रहित (करने वाला) है, पर प्रभु (समझदारी चतुराई से) नहीं पाया जा सकता (पहुँच से परे है), ज्ञान-इंद्रिय की भी उस तक पहुँच नहीं। जिनको गुरु ने (प्रभु की) सूझ दी, वे, हे नानक! सदा-स्थिर प्रभु में लीन हो के हर वक्त नाम-रंग में रंगे हुए प्रभु की भक्ति करते रहते हैं। हे भाई! जिन्होंने सदा कायम रहने वाले परमात्मा की महिमा करने का उद्यम पकड़ लिया, मैं उनके चरणों में लगता हूँ।4।4।