अंग : 702
जैतसरी महला ९ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ भूलिओ मनु माइआ उरझाइओ ॥ जो जो करम कीओ लालच लगि तिह तिह आपु बंधाइओ ॥१॥ रहाउ ॥ समझ न परी बिखै रस रचिओ जसु हरि को बिसराइओ ॥ संगि सुआमी सो जानिओ नाहिन बनु खोजन कउ धाइओ ॥१॥ रतनु रामु घट ही के भीतरि ता को गिआनु न पाइओ ॥ जन नानक भगवंत भजन बिनु बिरथा जनमु गवाइओ ॥२॥१॥
अर्थ: हे भाई! (सही जीवन-राह) भूला हुआ मन माया (के मोह में) फंसा रहता है। (फिर, ये) लालच में फस के जो-जो काम करता है, उनसे अपने आप को (माया के मोह में और) फसा लेता है।1। रहाउ।
(हे भाई! सही जीवन से राह से टूटे हुए मनुष्य को) आत्मि्क जीवन की समझ नहीं होती। विषियों के स्वाद में मस्त रहता है, परमात्मा की सिफत सालाह भुलाए रहता है। परमात्मा (तो इसके) अंग-संग (बसता है) उसके साथ गहरी सांझ नहीं डालता, जंगल में ढूँढने के लिए दौड़ पड़ता है।1।
हे भाई! रत्न (जैसा कीमती) हरी-नाम हृदय के अंदर ही बसता है (पर भूला हुआ मनुष्य) उससे सांझ नहीं बनाता। हे दास नानक! (कह–) परमात्मा के भजन के बिना मनुष्य अपना जीवन व्यर्थ गवा लेता है।2।1।