अंग : 692
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥*
*दिन ते पहर पहर ते घरीआं आव घटै तनु छीजै ॥ कालु अहेरी फिरै बधिक जिउ कहहु कवन बिधि कीजै ॥१॥ सो दिनु आवन लागा ॥ मात पिता भाई सुत बनिता कहहु कोऊ है का का ॥१॥ रहाउ ॥ जब लगु जोति काइआ महि बरतै आपा पसू न बूझै ॥ लालच करै जीवन पद कारन लोचन कछू न सूझै ॥२॥ कहत कबीर सुनहु रे प्रानी छोडहु मन के भरमा ॥ केवल नामु जपहु रे प्रानी परहु एक की सरनां ॥३॥२॥
अर्थ: दिनों से प्रहर एवं प्रहरों से घड़ियों होकर मनुष्य की आयु कम होती जाती है और उसका शरीर कमजोर होता रहता है। काल रूपी शिकारी उसके आस-पास हत्यारे की तरह फिरता रहता है। बताओ, मृत्यु से बचने के लिए वह कौन-सी विधि का प्रयोग करे ? ॥१॥ वह दिन निकट आने वाला है, जब मृत्यु ने उसके प्राण छीन लेने हैं। बताओ, माता-पिता, भाई, पुत्र एवं स्त्री इन में से कौन किस का है ?॥१॥ रहाउ॥ जब तक जीवन की ज्योति अर्थात् आत्मा शरीर में रहती है, तब तक यह पशु जैसा मूर्ख मनुष्य अपने आत्म-स्वरूप को नहीं समझता। वह और अधिक जीवन जीने की लालच करता है परन्तु उसे अपनी ऑखों से कुछ भी नहीं सूझता ॥२॥ कबीर जी कहते हैं कि हे प्राणी ! सुनो, अपने मन के सारे भृम छोड़ दो। हे प्राणी ! एक परमेश्वर की शरण में जाओ और केवल उसके नाम का ही भजन करो ॥३॥२॥