अमृत ​​वेले का हुक्मनामा – 19 जुलाई 2025

अंग : 626
सोरठि महला ५ ॥ तापु गवाइआ गुरि पूरे ॥ वाजे अनहद तूरे ॥ सरब कलिआण प्रभि कीने ॥ करि किरपा आपि दीने ॥१॥ बेदन सतिगुरि आपि गवाई ॥ सिख संत सभि सरसे होए हरि हरि नामु धिआई ॥ रहाउ ॥ जो मंगहि सो लेवहि ॥ प्रभ अपणिआ संता देवहि ॥ हरि गोविदु प्रभि राखिआ ॥ जन नानक साचु सुभाखिआ ॥२॥६॥७०॥
अर्थ: पूरे गुरु ने (हरि-नाम की दवाई दे के जिस मनुख के अंदर से) ताप दूर कर दिया, (उस के अंदर आत्मिक आनंद के, मानो) एक-रस बाजे बजने लग गए। भगवान ने कृपा कर के आप ही वह सारे सुख आनंद बख्श दिये।१। हे भाई ! सारे सिक्ख संत परमात्मा का नाम सिमर सिमर के आनंद-भरपूर हुए रहते हैं। (जिस ने भी परमात्मा का नाम सुमिरा) गुरु ने आप (उस की हरेक) पीड़ा दूर कर दी ।रहाउ। हे भगवान! (तेरे दर से तेरे संत जन) जो कुछ माँगते हैं, वह हासिल कर लेते हैं। तूं आपने संतो को (आप सब कुछ) देता हैं। (हे भाई! बालक) हरि गोबिंद को (भी) भगवान ने (आप) बचाया है (किसी देवी आदि ने नहीं) हे दास नानक ! (बोल-) मैं तो सदा-थिर रहने वाले भगवान का नाम ही उचारता हूँ।२।६।७०।

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