अमृत ​​वेले का हुक्मनामा – 11 जून 2025

अंग : 686
धनासरी महला १ ॥ सहजि मिलै मिलिआ परवाणु ॥ ना तिसु मरणु न आवणु जाणु ॥ ठाकुर महि दासु दास महि सोइ ॥ जह देखा तह अवरु न कोइ ॥१॥ गुरमुखि भगति सहज घरु पाईऐ ॥ बिनु गुर भेटे मरि आईऐ जाईऐ ॥१॥ रहाउ ॥ सो गुरु करउ जि साचु द्रिड़ावै ॥ अकथु कथावै सबदि मिलावै ॥ हरि के लोग अवर नही कारा ॥ साचउ ठाकुरु साचु पिआरा ॥२॥
अर्थ: जो मनुख गुरु के द्वारा अडोल अवस्था में रह के प्रभु के चरणों में जुड़ता है, उस का प्रभु चरणों में जुड़ना काबुल होता है। उस मनुख को न आत्मिक मौत्त आती है, न ही जनम मरण। ऐसा प्रभु का दास प्रभु में लीन रहता है, प्रभु इस प्रकार के सेवक में प्रकट हो जाता है। वह सेवक जिधर देखता है उस को परमातम के बिना और कोई नहीं दीखता है। गुरु की सरन आ के परमात्मा की भक्ति करके वह (आत्मिक) टिकाना मिल जाता है जहाँ मन सदा अडोल अवस्था में टिका रहता है। (परन्तु) गुरु को मिलने के बिना आत्मिक मौत मर कर, जनम-मरण के चक्र में फसा रहता है।१।रहाउ। मैं (भी) वोही गुरु धारण करना कहता हूँ जो सदा-थिर प्रभु को (मेरे हृदय में) पक्की तरह टिका दे, जो मुझसे अकथ गुरु की सिफत-सलाह करावे, और अपने शब्द के द्वारा मुझे प्रभु-चरणों में जोड़ दे। परमात्मा के भगत को (सिफत-सलाह के बिना) कोई और कार नहीं (सूझती)। भगत सदा-थिर प्रभु के ही याद करता है, सदा-थिर प्रभु उस को प्यारा लगता है।२।

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