अंग : 669-670
धनासरी महला ४ ॥ इछा पूरकु सरब सुखदाता हरि जा कै वसि है कामधेना ॥ सो ऐसा हरि धिआईऐ मेरे जीअड़े ता सरब सुख पावहि मेरे मना ॥१॥ जपि मन सति नामु सदा सति नामु ॥ हलति पलति मुख ऊजल होई है नित धिआईऐ हरि पुरखु निरंजना ॥ रहाउ ॥ जह हरि सिमरनु भइआ तह उपाधि गतु कीनी वडभागी हरि जपना ॥ जन नानक कउ गुरि इह मति दीनी जपि हरि भवजलु तरना ॥२॥६॥१२॥
अर्थ: हे मेरी जिंदे! जो हरि सारी ही कामनाएं पूरी करने वाला है, जो सारे ही सुख देने वाला है, जिसके वश में (स्वर्ग में रहने वाली समझी गई) कामधेनु है उस ऐसी स्मर्था वाले परमात्मा का स्मरण करना चाहिए। हे मेरे मन! (जब तू परमात्मा का स्मरण करेगा) तब सारे सुख हासिल कर लेगा।1।हे मन! सदा स्थिर प्रभु का नाम सदा जपा कर। हे भाई! सर्व-व्यापक निर्लिप हरि का सदा ध्यान धरना चाहिए, (इस तरह) लोक-परलोक में इज्जत कमा ली जाती है। रहाउ। हे भाई! जिस हृदय में परमात्मा की भक्ति होती है उसमें से हरेक किस्म का झगड़ा-बखेड़ा निकल जाता है। (फिर भी) बहुत भाग्य से ही परमात्मा का भजन हो सकता है। हे भाई! दास नानक को (तो) गुरु ने ये समझ दी है कि परमात्मा का नाम जप के संसार समुंदर से पार लांघ जाना है।2।6।12।