संधिआ ​​वेले का हुक्मनामा – 25 अप्रैल 2025

अंग : 644
सलोकु मः ३ ॥*
*सतिगुर की सेवा सफलु है जे को करे चितु लाइ ॥ मनि चिंदिआ फलु पावणा हउमै विचहु जाइ ॥ बंधन तोड़ै मुकति होइ सचे रहै समाइ ॥ इसु जग महि नामु अलभु है गुरमुखि वसै मनि आइ ॥ नानक जो गुरु सेवहि आपणा हउ तिन बलिहारै जाउ ॥१॥ मः ३ ॥ मनमुख मंनु अजितु है दूजै लगै जाइ ॥ तिस नो सुखु सुपनै नही दुखे दुखि विहाइ ॥ घरि घरि पड़ि पड़ि पंडित थके सिध समाधि लगाइ ॥ इहु मनु वसि न आवई थके करम कमाइ ॥ भेखधारी भेख करि थके अठिसठि तीरथ नाइ ॥ मन की सार न जाणनी हउमै भरमि भुलाइ ॥ गुर परसादी भउ पइआ वडभागि वसिआ मनि आइ ॥ भै पइऐ मनु वसि होआ हउमै सबदि जलाइ ॥ सचि रते से निरमले जोती जोति मिलाइ ॥ सतिगुरि मिलिऐ नाउ पाइआ नानक सुखि समाइ ॥२॥ पउड़ी ॥ एह भूपति राणे रंग दिन चारि सुहावणा ॥ एहु माइआ रंगु कसु्मभ खिन महि लहि जावणा ॥ चलदिआ नालि न चलै सिरि पाप लै जावणा ॥ जां पकड़ि चलाइआ कालि तां खरा डरावणा ॥ ओह वेला हथि न आवै फिरि पछुतावणा ॥६॥*

अर्थ: अगर कोई मनुष्य चित लगा कर सेवा करे, तो सतिगुरू की (बताई) सेवा जरूर फल लगाती है; मन-इच्छत फल मिलता है, अहंकार मन में से दूर होता है; (गुरू की बताई कार माया के) बंधनों को तोड़ती है (बंधनों से) खलासी हो जाती है और सच्चे हरी में मनुष्य समाया रहता है। इस संसार में हरी का नाम दुर्लभ है, सतिगुरू के सनमुख मनुष्य के मन में आ कर वसता है; हे नानक जी! (कहो-) मैं सदके हूँ उन से जो अपने सतिगुरू की बताई कार करते हैं ॥१॥ मनमुख का मन उस के काबू से बाहर है, क्योंकि वह माया में जा कर लगा हुआ है; (नतीजा यह कि) उस को सपने में भी सुख नहीं मिलता, (उस की उम्र) सदा दुख में ही गुज़रती है। अनेकों पंडित लोग पढ़ पढ़ कर और सिध समाधियाँ लगा लगा कर थक गए हैं, कई कर्म कर के थक गए हैं; (पढ़ने से और समाधियों से) यह मन काबू नहीं आता। भेख करने वाले मनुष्य (भावार्थ, साधू लोग) कई भेख कर के और अठाहठ तीरर्थों पर नहा कर थक गए हैं; हउमै और भ्रम में भुले होया को मन की सोझी नहीं आई। बड़े भाग्य से सतिगुरू की कृपा द्वारा प्रभू का डर पैदा होता है और प्रभू मन में आ कर वसता है। (हरी का) डर पैदा होने से ही, और हउमै सतिगुरू के श़ब्द से जला कर ही मन वस में आता है। जो मनुष्य ज्योती-प्रभू में अपनी बिरती मिला कर सच्चे में रंगे गए हैं, वह निर्मल हो गए हैं; (पर) हे नानक जी! सतिगुरू के मिलने पर ही नाम मिलता है और सुख में लीन हो जाते हैं ॥२॥ राजों और राणों के यह रंग चार दिनों (भावार्थ, थोड़े समय) के लिए शोभनीय होते हैं; माया का यह रंग कसुंभे का रंग है (भावार्थ कसुंभे की तरह खिन में उत्तर जाता है), थोड़े समय में लह जाता है, (संसार से) चलने के समय माया साथ नहीं जाती, (पर इस के कारण किए) पाप अपने सिर पर लै जाते हैं। जब जम-काल ने पकड़ कर आगे ला लिया, तो (जीव) बहुत भय-भीत होता है; (मनुष्य-जन्म वाला) वह समय फिर मिलता नहीं, इस लिए पछताता है ॥६॥

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