अंग : 862
रागु गोंड महला ५ चउपदे घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जीअ प्रान कीए जिनि साजि ॥ माटी महि जोति रखी निवाजि ॥ बरतन कउ सभु किछु भोजन भोगाइ ॥ सो प्रभु तजि मूड़े कत जाइ ॥१॥ पारब्रहम की लागउ सेव ॥ गुर ते सुझै निरंजन देव ॥१॥ रहाउ ॥ जिनि कीए रंग अनिक परकार ॥ ओपति परलउ निमख मझार ॥ जा की गति मिति कही न जाइ ॥ सो प्रभु मन मेरे सदा धिआइ ॥२॥ आइ न जावै निहचलु धनी ॥ बेअंत गुना ता के केतक गनी ॥ लाल नाम जा कै भरे भंडार ॥ सगल घटा देवै आधार ॥३॥ सति पुरखु जा को है नाउ ॥ मिटहि कोटि अघ निमख जसु गाउ ॥ बाल सखाई भगतन को मीत ॥ प्रान अधार नानक हित चीत ॥४॥१॥३॥
अर्थ: हे भाई! मैं तो परमात्मा की भक्ति में लगना चाहता हॅूँ। गुरू से ही उस प्रकाश-रूप माया-रहित प्रभू की भगती की समझ पड़ सकती है।1। रहाउ।
हे मूर्ख! जिस प्रभू ने (तुझे) पैदा करके तुझे जिंद दी, तुझे प्राण दिए, जिस प्रभू ने मेहर करके शरीर में (अपनी) ज्योति रख दी है, बरतने के लिए हरेक चीज दी है, और अनेकों किस्मों के भोजन तुझे खिलाता है, उस प्रभू को बिसार के (तेरा मन) और कहाँ भटकता है?।1।
हे मेरे मन! सदा उस प्रभू का ध्यान धरा कर, जिसने (जगत में) अनेकों किस्मों के रंग (-रूप) पैदा किए हुए हैं, जो अपनी पैदा की हुई रचना को आँख झपकने जितने समय में नाश कर सकता है, और जिसकी बाबत ये नहीं कहा जा सकता कि वह कैसा है और कितना बड़ा है।2।
हे मन! वह मालिक प्रभू सदा कायम रहने वाला है, वह ना पैदा होता है ना मरता है। मैं उसके कितने गुण गिनूँ? वह बेअंत गुणों का मालिक है। उसके घर में उसके गुण-रूपी रत्न-जवाहरात के खजाने भरे पड़े हैं। वह प्रभू सब जीवों को आसरा देता है।3।
हे मन! जिस प्रभू का नाम (ही बताता है कि वह) सदा कायम रहने वाला है और सर्व-व्यापक है, उसका यश हर वक्त गाया कर, (उसकी सिफत-सालाह की बरकति से) करोड़ों पाप मिट जाते हैं। हे नानक! अपने चिक्त में उस प्रभू का प्यार पैदा कर, वह (हरेक जीव का) आरम्भ से ही साथी है, भक्तों का मित्र है और (हरेक की) जीवात्मा का आसरा है।4।1।3।