अंग : 518
सलोक मः ५ ॥
साजन तेरे चरन की होइ रहा सद धूरि ॥ नानक सरणि तुहारीआ पेखउ सदा हजूरि ॥१॥ मः ५ ॥पतित पुनीत असंख होहि हरि चरणी मनु लाग ॥ अठसठि तीरथ नामु प्रभ जिसु नानक मसतकि भाग ॥२॥पउड़ी ॥ नित जपीऐ सासि गिरासि नाउ परवदिगार दा ॥ जिस नो करे रहम तिसु न विसारदा ॥ आपि उपावणहार आपे ही मारदा ॥सभु किछु जाणै जाणु बुझि वीचारदा ॥ अनिक रूप खिन माहि कुदरति धारदा ॥ जिस नो लाइ सचि तिसहि उधारदा ॥ जिस दै होवै वलि सु कदे न हारदा ॥ सदा अभगु दीबाणु है हउ तिसु नमसकारदा ॥४॥
अर्थ: हे मेरे साजन ! मैं सदा ही तेरे चरणों की धूलि बना रहूँ।नानक की प्रार्थना है कि हे प्रभु जी ! मैंने तेरी ही शरण ली है और मैं हमेशा ही तुझे अपने पास देखता रहूँ॥ १॥महला ५॥हरि के चरणों में अपने मन को लगाकर असंख्य पतित जीव पवित्र-पावन हो गए हैं।हे नानक ! प्रभु का नाम ही अड़सठ तीर्थ (के समान) है लेकिन यह उसे ही प्राप्त होता है जिसके मस्तक पर भाग्य लिखा होता है॥ २ ॥पउड़ी।अपनी प्रत्येक सांस एवं ग्रास से परवरदिगार का नाम जपना चाहिए।जिस पर वह रहम करता है, वह उसे नहीं भुलाता।वह स्वयं ही दुनिया की रचना करने वाला है और स्वयं ही बिनाशक है।जाननहार प्रभु सब कुछ जानता है एवं समझ कर अपनी रचना की तरफ ध्यान देता है। वह अपनी कुदरत द्वारा एक क्षण में ही अनेक रूप धारण कर लेता है और जिसे सत्य के साथ लगाता है, उसका उद्धार कर देता है।जिसके पक्ष में वह परमात्मा है, वह कदाचित नहीं हारता।उसका दरबार सदा अटल है, मैं उसे कोटि-कोटि नमन करता हूँ॥ ४ ॥