*धनासरी महला १ घरु २ असटपदीआ*
*ੴ सतिगुर प्रसादि ॥*
*गुरु सागरु रतनी भरपूरे ॥ अंम्रितु संत चुगहि नही दूरे ॥ हरि रसु चोग चुगहि प्रभ भावै ॥ सरवर महि हंसु प्रानपति पावै ॥१॥ किआ बगु बपुड़ा छपड़ी नाइ ॥ कीचिड़ डूबै मैलु न जाइ ॥१॥ रहाउ ॥ रखि रखि चरन धरे वीचारी ॥ दुबिधा छोडि भए निरंकारी ॥ मुकति पदारथु हरि रस चाखे ॥ आवण जाण रहे गुरि राखे ॥२॥ सरवर हंसा छोडि न जाइ ॥ प्रेम भगति करि सहजि समाइ ॥ सरवर महि हंसु हंस महि सागरु ॥ अकथ कथा गुर बचनी आदरु ॥३॥ सुंन मंडल इकु जोगी बैसे ॥ नारि न पुरखु कहहु कोऊ कैसे ॥ त्रिभवण जोति रहे लिव लाई ॥ सुरि नर नाथ सचे सरणाई ॥४॥ आनंद मूलु अनाथ अधारी ॥ गुरमुखि भगति सहजि बीचारी ॥ भगति वछल भै काटणहारे ॥ हउमै मारि मिले पगु धारे ॥५॥ अनिक जतन करि कालु संताए ॥ मरणु लिखाइ मंडल महि आए ॥ जनमु पदारथु दुबिधा खोवै ॥ आपु न चीनसि भ्रमि भ्रमि रोवै ॥६॥ कहतउ पड़तउ सुणतउ एक ॥ धीरज धरमु धरणीधर टेक ॥ जतु सतु संजमु रिदै समाए ॥ चउथे पद कउ जे मनु पतीआए ॥७॥ साचे निरमल मैलु न लागै ॥ गुर कै सबदि भरम भउ भागै ॥ सूरति मूरति आदि अनूपु ॥ नानकु जाचै साचु सरूपु ॥८॥१॥*
*अर्थ: राग धनासरी, घर २ में गुरू नानक देव जी की आठ-बंदों वाली बाणी।*
*अकाल पुरख एक है और सतिगुरू की कृपा द्वारा* *मिलता है।*
*गुरू (मानों) एक समुँद्र (है जो प्रभू की सिफ़त-सलाह के) रत्नों से नकों-नक भरा हुआ है। गुरमुख सिक्ख (उस सागर से) आतमिक जीवन देने वाली खुराक (प्राप्त करते हैं जैसे हंस मोती) चुगते हैं, (और गुरू से) दूर नहीं रहते। प्रभू की कृपा अनुसार संत-हंस हरी-नाम रस (की) चोग चुगते हैं। (गुरसिक्ख) हंस (गुरू-) सरोवर में (टिके रहते हैं, और) जिंद के मालिक प्रभू को ढूंढ़ लेते हैं ॥१॥ बेचारा बगुला तालाब में किस लिए नहाता है ? (कुछ नहीं कमाता, बल्कि, तालाब में नहा कर) कीचड़ में डूबता है, (उस की यह) मैल दूर नहीं होती (जो मनुष्य गुरू-समुँद्र को छोड़ कर देवी देवतों आदि अन्य अन्य सहारे खोजते हैं वह, मानों तालाब में ही नहा रहे हैं। वहाँ से वह ओर माया-मोह की मैल ले लेते हैं ॥१॥ रहाउ ॥ गुरसिक्ख बड़ा सुचेत हो कर पूरी विचार के साथ (जीवन-सफ़र में) पैर रखता है। परमात्मा के बिना किसी ओर आसरे की खोज छोड़ कर परमात्मा का ही बन जाता है। परमात्मा के नाम का रस चख कर गुरसिक्ख वह पदार्थ हासिल कर लेता है जो माया के मोह से आजादी दिला देता है। जिस की गुरू ने मदद कर दी उस के जन्म मरन के चक्र खत्म हो गए ॥२॥ (जैसे) हंस मानसरोवर को छोड़ कर नहीं जाता, (वैसे जो सिक्ख गुरू का द्वार छोड़ कर नहीं जाता वह) प्रेम भगती की बरकत से अडोल आतमिक अवस्था में लीन हो जाता है। जो गुरसिक्ख-हंस गुरू-सरोवर में टिकता है, उस के अंदर गुरू-सरोवर अपना आप प्रगट करता है (उस सिक्ख के अंदर गुरू वस जाता है)- यह कथा अकथ है (भावार्थ, इस आतमिक अवस्था को बताया नहीं जा सकता। सिर्फ यह कह सकते हैं कि) गुरू के वचनों पर चल कर वह (लोग-परलोक में) आदर पाता है ॥३॥ जो कोई विरला प्रभू-चरणों में जुड़ा मनुष्य अफुर अवस्था में टिकता है, उस के अंदर स्त्री मर्द वाली समझ नहीं रहती (भावार्थ, उस के अंदर काम चेष्टा ज़ोर नहीं पाती)। बताउ, कोई यह संकल्प कर भी कैसे सकता है ? क्योंकि वह तो सदा उस परमात्मा में सुरती जोड़ी रखता है जिस की ज्योत तीनों भवनों में व्यापक है, और देवते मनुष्य नाथ आदि सब जिस सदा-थिर की शरण लिए रखते हैं ॥४॥ (गुरमुख-हंस गुरू-सागर में टिक कर उस प्राणपती-प्रभू को मिलता है) जो आतमिक आनंद का श्रोत है जो अनाथों का सहारा है। गुरमुख उस की भगती के द्वारा और उसके गुणों की विचार के द्वारा अडोल आतमिक अवस्था में टिके रहते हैं। वह प्रभू (अपने सेवकों की) भगती से प्यार करता है, उनके सारे डर दूर करने के समर्थ हैं। गुरमुख हउमै मार कर और (साध संगत में) टिक कर उस आनंद-मूल प्रभू (के चरणों) में जुड़ते हैं ॥५॥ अनेकों अन्य अन्य यत्न करने के कारण (सही हुई) आतमिक मौत उस को (सदा) दुखी करती है। वह (पिछले किए कार्यों के अनुसार धुरों) आतमिक मौत (का लेखा ही अपने माथे पर) लिखा कर इस जगत में आया (और यहाँ भी आतमिक मौत ही सहता रहा)। वह मनुष्य (हउमै में) भटक भटक कर दुखी होता है; परमात्मा के बिना किसी ओर आसरे की खोज में वह अमोलक मनुष्य जन्म को गंवा लेता है; जो-मनुष्य (विचारे बगुले की तरह हउमै की छपड़ी में ही नहाता रहता है, और) अपने आतमिक जीवन को नहीं पहचानता ॥६॥ (परन्तु) जो मनुष्य एक परमात्मा की सिफ़त-सलाह ही (नित) उचारता है पढ़ता है और सुनता है, और धरती के आसरे प्रभू की टेक लेता है वह गंभीर स्वभाव गृहण करता है वह (मनुष्य जीवन के) फ़र्ज को (पहचानता है)। जत सत और संजम उस मनुष्य के हृदय में (सोए हुए ही) लीन रहते हैं, अगर वह (गुरू की शरण में रह कर) अपने मन को उस आतमिक अवस्था में टिका लए जहाँ माया के तीनों ही गुण जोर नहीं पा सकते ॥७॥ सदा-थिर प्रभू में टिक कर पवित्र हुए मनुष्य के मन को विकारों की मैल नहीं लगती। गुरू के श़ब्द की बरकत से* *उस की भटकना दूर हो जाती है उस का (दुनिया वाला) डर-सहम खत्म हो जाता है। जिस जैसा ओर कोई नहीं है जिस की (सुंदर) सूरत और जिस का अस्तित्व शुरू से चला आ रहा है, नानक जी (भी) उस सदा-थिर हस्ती वाले प्रभू (के द्वार से नाम की दात) मांगते हैं ॥८॥१॥*