जैतसरी महला ४ घरु १ चउपदे*
*ੴ सतिगुर प्रसादि ॥*
*मेरै हीअरै रतनु नामु हरि बसिआ गुरि हाथु धरिओ मेरै माथा ॥ जनम जनम के किलबिख दुख उतरे गुरि नामु दीओ रिनु लाथा ॥१॥ मेरे मन भजु राम नामु सभि अरथा ॥ गुरि पूरै हरि नामु द्रिड़ाइआ बिनु नावै जीवनु बिरथा ॥ रहाउ ॥ बिनु गुर मूड़ भए है मनमुख ते मोह माइआ नित फाथा ॥ तिन साधू चरण न सेवे कबहू तिन सभु जनमु अकाथा ॥२॥ जिन साधू चरण साध पग सेवे तिन सफलिओ जनमु सनाथा ॥ मो कउ कीजै दासु दास दासन को हरि दइआ धारि जगंनाथा ॥३॥ हम अंधुले गिआनहीन अगिआनी किउ चालह मारगि पंथा ॥ हम अंधुले कउ गुर अंचलु दीजै जन नानक चलह मिलंथा ॥४॥१॥*
*☬ अर्थ ☬*
*राग जैतसरी, घर १ में गुरू रामदास जी की चार-बन्दों वाली बाणी।*
*अकाल पुरख एक है और सतिगुरू की कृपा द्वारा मिलता है।*
*(हे भाई! जब) गुरू ने मेरे सिर ऊपर अपना हाथ रखा, तो मेरे हृदय में परमात्मा का रत्न (जैसा कीमती) नाम आ वसा। (हे भाई! जिस भी मनुष्य को) गुरू ने परमात्मा का नाम दिया, उस के अनेकों जन्मों के पाप दुःख दूर हो गए, (उस के सिर से पापों का) कर्ज़ा उतर गया ॥१॥ हे मेरे मन! (सदा) परमात्मा का नाम सिमरा कर, (परमात्मा) सारे पदार्थ (देने वाला है)। (हे मन! गुरू की श़रण में ही रह) पूरे गुरू ने (ही) परमात्मा का नाम (ह्रदय में) पक्का किया है, और, नाम के बिना मनुष्या जीवन व्यर्थ चला जाता है ॥ रहाउ ॥ हे भाई! जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलते है वह गुरू (की श़रण) के बिना मुर्ख हुए रहते हैं, वह सदा माया के मोह में फंसे रहते है। उन्होंने कभी भी गुरू का आसरा नहीं लिया, उनका सारा जीवन व्यर्थ चला जाता है ॥२॥ हे भाई! जो मनुष्य गुरू के चरणों का आसरा लेते हैं, वह गुरू वालेे बन जाते हैं, उनकी ज़िदंगी सफल हो जाती है। हे हरी! हे जगत के नाथ! मेरे ऊपर मेहर कर, मुझे अपने दासों के दासों का दास बना ले ॥३॥ हे गुरू! हम माया मे अँधे हो रहे हैं, हम आत्मिक जीवन की सूझ से अनजान हैं, हमें सही जीवन-जुगत की सूझ नही है, हम आपके बताए हुए जीवन-राह पर चल नही सकते। हे दास नानक जी! (कहो-) हे गुरू! हम अँधियों के अपना पल्ला पकड़ा, ताकि आपके पल्ले लग कर हम आपके बताए हुए रास्ते पर चल सकें ॥४॥१॥*