सोरठि महला ५ ॥ राजन महि राजा उरझाइओ मानन महि अभिमानी ॥ लोभन महि लोभी लोभाइओ तिउ हरि रंगि रचे गिआनी ॥१॥ हरि जन कउ इही सुहावै ॥ पेखि निकटि करि सेवा सतिगुर हरि कीरतनि ही त्रिपतावै ॥ रहाउ ॥ अमलन सिउ अमली लपटाइओ भूमन भूमि पिआरी ॥ खीर संगि बारिकु है लीना प्रभ संत ऐसे हितकारी ॥२॥
(हे भाई!) जैसे राज के कामों में राजा मगन रहता है, जैसे मान बढ़ाने वाले कामों में आदर-मान का भूखा मनुख मस्त रहता है, जैसे लालची मनुख लालच बढ़ाने वाले कर्मों में फँसा रहता है, उसी प्रकार जीवन के सूझ वाला मनुख प्रेम-रंग में मस्त रहता है।१। परमात्मा के भागर को यही कर्म अच्छा लगता है। (भक्त परमात्मा को) अंग-संग देख कर, और, गुरु की सेवा करके परमात्मा की सिफत सलाह में प्रसन रहता है।रहाउ। हे भाई! नशे करने का प्रेमी मनुख नशों के साथ जुड़ा रहता है, जमीं के मालिकों को जमीन प्यारी लगती हैं, बच्चा दूध के साथ ही पचरता रहता है। इसी प्रकार संत जन परमात्मा के साथ प्यार करते हैं।२।