रागु सोरठि बाणी भगत रविदास जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जउ हम बांधे मोह फास हम प्रेम बधनि तुम बाधे ॥ अपने छूटन को जतनु करहु हम छूटे तुम आराधे ॥१॥ माधवे जानत हहु जैसी तैसी ॥ अब कहा करहुगे ऐसी ॥१॥ रहाउ ॥ मीनु पकरि फांकिओ अरु काटिओ रांधि कीओ बहु बानी ॥ खंड खंड करि भोजनु कीनो तऊ न बिसरिओ पानी ॥२॥ आपन बापै नाही किसी को भावन को हरि राजा ॥ मोह पटल सभु जगतु बिआपिओ भगत नही संतापा ॥३॥ कहि रविदास भगति इक बाढी अब इह का सिउ कहीऐ ॥ जा कारनि हम तुम आराधे सो दुखु अजहू सहीऐ ॥४॥२॥
अर्थ :-हे माधो ! तेरे भक्त जिस प्रकार का प्यार तेरे साथ करते हैं वह तेरे से छुपा नहीं रह सकता (तूँ वह भली प्रकार जानता हैं), अजिही प्रीति के होते तूँ जरूर उनको मोह से बचाए रखता हैं।1।रहाउ। (सो, हे माधो !) अगर हम मोह की रस्सी में बंधे हुए थे, तो हमने तुझे अपने प्यार की रस्सी के साथ बाँध लिया है। हम तो (उस मोह की फांसी में से) तुझे सिमर के निकल आए हैं, तूँ हमारे प्यार की जकड़ में से कैसे निकलेंगा ?। (हमारा तेरे साथ प्रेम भी वह है जो मछली को पानी के साथ होता है, हम मर के भी तेरी याद नहीं छोडेगे) मछली (पानी में से) पकड़ के फांकाँ कर दें, टोटे कर दें और कई तरह उबाल लें, फिर रता रता कर के खा लें, फिर भी उस मछली को पानी नहीं भूलता (जिस खान वाले के पेट में जाती है उस को भी पानी की प्यास लगा देती है)।2। जगत का स्वामी हरि किसी के पिता की (की मलकीअत) नहीं है, वह तो प्रेम का बंधा हुआ है। (इस प्रेम से दूर हुआ सारा जगत) मोह के परदे में फँसा पड़ा है, पर (भगवान के साथ प्रेम करने वाले) भक्तों को (इस मोह का) कोई कलेश नहीं होता।3। रविदास कहते है-(हे माधो !) मैं एक तेरी भक्ति (अपने मन में) इतनी द्रिड़ह की है कि मुझे अब किसी के साथ यह गिला करने की जरूरत ही नहीं रह गई जु जिस मोह से बचने के लिए मैं तेरा सुमिरन कर रहा था, उस मोह का दु:ख मुझे अब तक सहारना पड़ रहा है (भावार्थ, उस मोह का तो अब मेरे अंदर नाम निशान ही नहीं रह गया)।4।2।