रागु धनासरी बाणी भगत कबीर जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ राम सिमरि राम सिमरि राम सिमरि भाई ॥ राम नाम सिमरन बिनु बूडते अधिकाई ॥१॥ रहाउ ॥ बनिता सुत देह ग्रेह संपति सुखदाई ॥ इन्ह मै कछु नाहि तेरो काल अवध आई ॥१॥ अजामल गज गनिका पतित करम कीने ॥ तेऊ उतरि पारि परे राम नाम लीने ॥२॥ सूकर कूकर जोनि भ्रमे तऊ लाज न आई ॥ राम नाम छाडि अंम्रित काहे बिखु खाई ॥३॥ तजि भरम करम बिधि निखेध राम नामु लेही ॥ गुर प्रसादि जन कबीर रामु करि सनेही ॥४॥५॥
अर्थ: रागु धनासरी में भगत कबीर जी की बाणी। अकाल पुरख एक है और सतिगुरू की कृपा द्वारा मिलता है। हे भाई! प्रभू का सिमरन कर, प्रभू का सिमरन कर। सदा राम का सिमरन कर। प्रभू का सिमरन किए बिना बहुत जीव (विकारों में) डूबते हैं ॥१॥ रहाउ ॥ पत्नी, पुत्र, शरीर, घर, दौलत – यह सारे सुख देने वाले लगते हैं, परन्तु जब मौत-रूप तेरा अंत समय आया, तो इन में से कोई भी तेरा अपना नहीं रह जाएगा ॥१॥ अजामल, गज, गणिका – यह विकार करते रहे, परन्तु जब परमात्मा का नाम इन्होने जपा, तो यह भी (इन विकारों से) पार निकल गए ॥२॥ (हे सजन!) तूँ सूर, कुत्ते आदि के जन्मों में भटकता रहा, फिर भी तुझे (अब) शर्म नहीं आई (तूँ अभी भी नाम नहीं सिमरता)। परमात्मा का अमृत-नाम भुला कर क्यों (विकारों का) ज़हर खा रहा हैं ? ॥३॥ (हे भाई!) श़ास्त्रों के अनुसार किए जाने वाले कौन से कार्य हैं, और श़ास्त्रों में किन कार्यों की मनाही है – यह भ्रम छोड़ दे, और परमात्मा का नाम सिमर। हे दास कबीर जी! तूँ अपने गुरु की कृपा से अपने परमात्मा को ही अपना प्यारा (मित्र) बना ॥४॥५॥