सोरठि महला ९ ॥ मन रे प्रभ की सरनि बिचारो ॥ जिह सिमरत गनका सी उधरी ता को जसु उर धारो ॥१॥ रहाउ ॥ अटल भइओ ध्रूअ जा कै सिमरनि अरु निरभै पदु पाइआ ॥ दुख हरता इह बिधि को सुआमी तै काहे बिसराइआ ॥१॥ जब ही सरनि गही किरपा निधि गज गराह ते छूटा ॥ महमा नाम कहा लउ बरनउ राम कहत बंधन तिह तूटा ॥२॥ अजामलु पापी जगु जाने निमख माहि निसतारा ॥ नानक कहत चेत चिंतामनि तै भी उतरहि पारा ॥३॥४॥
अर्थ: हे मन! परमात्मा की शरण आ कर उस के नाम का ध्यान धरा करो। जिस परमात्मा का सिमरन करते हुए गनका (विकारों में डूबने) से बच गई थी तूँ भी, (हे भाई!) उस की सिफ़त-सलाह अपने हृदय में वसाई रख ॥१॥ रहाउ ॥ हे भाई! जिस परमात्मा के सिमरन के द्वारा ध्रूअ सदा के लिए अटल हो गया है और उस ने निर्भयता का आतमिक दर्जा हासिल कर लिया था, तूँ ने उस परमात्मा को क्यों भुलाया हुआ है, वह तो इस तरह के दुखों का नाश करने वाला है ॥१॥ हे भाई! जिस समय ही (गज ने) कृपा के समुँद्र परमात्मा का आसरा लिया वह गज (हाथी) तेंदुए की फाही से निकल गया था। मैं कहाँ तक परमात्मा के नाम की वडियाई बताऊं ? परमात्मा का नाम सिमर कर उस (हाथी) के बंधन टूट गए थे ॥२॥ हे भाई! सारा जगत जानता है कि अजामल विकारी था (परमात्मा के नाम का सिमरन कर के) आँखों के झमकन जितने समय मे ही उसका पार-उतारा हो गया था। नानक जी कहते हैं – (हे भाई! तूँ) सभी इच्छों को पूर्ण करने वालेे परमात्मा का नाम सिमरिया कर। तूँ भी (संसार-समुँद्र को) पार कर जाएंगा ॥३॥४॥