रागु वडहंसु महला १ घरु ५ अलाहणीआ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ धंनु सिरंदा सचा पातिसाहु जिनि जगु धंधै लाइआ ॥ मुहलति पुनी पाई भरी जानीअड़ा घति चलाइआ ॥ जानी घति चलाइआ लिखिआ आइआ रुंने वीर सबाए ॥ कांइआ हंस थीआ वेछोड़ा जां दिन पुंने मेरी माए ॥ जेहा लिखिआ तेहा पाइआ जेहा पुरबि कमाइआ ॥ धंनु सिरंदा सचा पातिसाहु जिनि जगु धंधै लाइआ ॥१॥ साहिबु सिमरहु मेरे भाईहो सभना एहु पइआणा ॥ एथै धंधा कूड़ा चारि दिहा आगै सरपर जाणा ॥ आगै सरपर जाणा जिउ मिहमाणा काहे गारबु कीजै ॥ जितु सेविऐ दरगह सुखु पाईऐ नामु तिसै का लीजै ॥ आगै हुकमु न चलै मूले सिरि सिरि किआ विहाणा ॥ साहिबु सिमरिहु मेरे भाईहो सभना एहु पइआणा ॥२॥ जो तिसु भावै संम्रथ सो थीऐ हीलड़ा एहु संसारो ॥ जलि थलि महीअलि रवि रहिआ साचड़ा सिरजणहारो ॥ साचा सिरजणहारो अलख अपारो ता का अंतु न पाइआ ॥ आइआ तिन का सफलु भइआ है इक मनि जिनी धिआइआ ॥ ढाहे ढाहि उसारे आपे हुकमि सवारणहारो ॥ जो तिसु भावै संम्रथ सो थीऐ हीलड़ा एहु संसारो ॥३॥ नानक रुंना बाबा जाणीऐ जे रोवै लाइ पिआरो ॥ वालेवे कारणि बाबा रोईऐ रोवणु सगल बिकारो ॥ रोवणु सगल बिकारो गाफलु संसारो माइआ कारणि रोवै ॥ चंगा मंदा किछु सूझै नाही इहु तनु एवै खोवै ॥ ऐथै आइआ सभु को जासी कूड़ि करहु अहंकारो ॥ नानक रुंना बाबा जाणीऐ जे रोवै लाइ पिआरो ॥४॥१॥
अर्थ: जिस (प्रभू) ने जगत को माया के चक्कर में लगा रखा है वही सृजनहार पातशाह सलाहने-योग्य है। (क्योंकि वही) सदा कायम रहने वाला है। (जीव बिचारे की कोई बिसात नहीं) जब जीव को मिला हुआ समय समाप्त हो जाता है जब इसकी उम्र की प्याली भर जाती है तो (शरीर के) प्यारे साथी को पकड़ के आगे लगा लिया जाता है। (उम्र के खत्म होने पर) जब परमात्मा का लिखा हुकम आता है, शरीर के प्यारे साथी जीवात्मा को पकड़ के आगे लगा लिया जाता है, और सारे सजजन-संबंधी रोते हैं। हे मेरी माँ! जब उम्र के दिन पूरे हो जाते हैं, तो शरीर और जीवात्मा का (सदा के लिए) विछोड़ा हो जाता है। (उस अंत समय से) पहले-पहले जो कर्म जीव ने कमाए होते हैं (उस उस के अनुसार) जैसे जैसे संस्कारों का लेख (उसके माथे पर) लिखा जाता है वैसा ही फल जीव पाता है। जिसने जगत को माया की आहर में लगा रखा है वही सृजनहार पातशाह सराहने-योग्य है वही सदा कायम रहने वाला है।1। हे मेरे भाईयो! (सदा स्थिर) मालिक प्रभू का सिमरन करो। (दुनिया से) कूच तो सभी ने करना है। दुनिया में माया का आहर चार दिनों के लिए ही है, (हरेक ने ही) यहाँ से आगे (परलोक में) अवश्य चले जाना है। यहाँ से आगे जरूर (हरेक ने) चले जाना है, (यहाँ जगत में) हम मेहमान की तरह ही हैं, (किसी भी धन-पदार्थ आदि का) गुमान करना व्यर्थ है। उस परमात्मा का ही नाम सिमरना चाहिए जिसके सिमरने से परमात्मा की हजूरी में आत्मिक आनंद मिलता है। (जगत में तो धन-पदार्थ वाले का हुकम चल सकता है, पर) परलोक में किसी का भी हुकम बिल्कुल नहीं चल सकता, वहाँ तो हरेक के सिर पर (अपने-अपने) किए अनुसार बीतती है। हे मेरे भाईयो! (सदा स्थिर) मालिक प्रभू का सिमरन करो। (दुनिया से) सभी ने ही चले जाना है।2। जगत के जीवों का उद्यम तो एक बहाना ही है, होता वही कुछ है जो उस सर्व-शक्तिमान प्रभू को भाता है। वह सदा-स्थिर रहने वाला सृजनहार पानी में धरती पर आकाश में हर जगह मौजूद है। वह प्रभू सदा स्थिर रहने वाला है, सबको पैदा करने वाला है, अदृष्ट है, बेअंत है, कोई भी जीव उसके गुणों का अंत नहीं पा सकता। जगत में पैदा उनका ही सफल कहा जाता है जिन्होंने उस बेअंत प्रभू को सुरति जोड़ के सिमरा है। वह परमात्मा स्वयं ही जगत-रचना को गिरा देता है, गिरा के खुद ही फिर बना लेता है, वह अपने हुकम में जीवों को अच्छे जीवन वाले बनाता है। जगत के जीवों का उद्यम तो एक बहाना ही है, होता वही कुछ है जो उस सर्व-शक्तिमान प्रभू को अच्छा लगता है।3। हे नानक! (कह–विछुड़े संबन्धियों की मौत पर तो हर कोई वैराग में आ जाता है, पर इस वैराग के कोई मायने नहीं) हे भाई! उसी मनुष्य को सही (रूप में) वैराग में आया समझो, जो प्यार से (परमात्मा के मिलाप की खातिर) वैराग में आता है। हे भाई! दुनिया के धन पदार्थों की खातिर जो रोते हैं वह रोना सारा ही व्यर्थ जाता है। परमात्मा से भूला हुआ जगत की माया की खातिर रोता है ये सारा ही रुदन व्यर्थ है। (इस रोने से) मनुष्य को अच्छे-बुरे काम की पहचान नहीं आती, (माया की खातिर रो-रो के) इस शरीर को व्यर्थ ही नाश कर लेता है। हे भाई! हरेक जीव जो जगत में (जन्म ले के) आया है (अपना समय गुजार के) चला जाएगा, नाशवंत जगत के मोह में फंस के (व्यर्थ) गुमान करते हो। हे नानक! (कह–) हे भाई! उसी मनुष्य को सही वैराग में आया समझो जो (परमात्मा के मिलाप की खातिर) प्यार से वैराग में आता है।4।1।