धनासरी महला ५ ॥ जिस का तनु मनु धनु सभु तिस का सोई सुघड़ु सुजानी ॥ तिन ही सुणिआ दुखु सुखु मेरा तउ बिधि नीकी खटानी ॥१॥ जीअ की एकै ही पहि मानी ॥ अवरि जतन करि रहे बहुतेरे तिन तिलु नही कीमति जानी ॥ रहाउ ॥ अम्रित नामु निरमोलकु हीरा गुरि दीनो मंतानी ॥ डिगै न डोलै द्रिड़ु करि रहिओ पूरन होइ त्रिपतानी ॥२॥ ओइ जु बीच हम तुम कछु होते तिन की बात बिलानी ॥ अलंकार मिलि थैली होई है ता ते कनिक वखानी ॥३॥ प्रगटिओ जोति सहज सुख सोभा बाजे अनहत बानी ॥ कहु नानक निहचल घरु बाधिओ गुरि कीओ बंधानी ॥४॥५॥
अर्थ: हे भाई! जिस प्रभू का दिया हुआ यह शरीर और मन है, यह सारा धन-पदार्थ भी उसी का दिया हुआ है, वही सुशील और स्याना है। हम जीवों का दुःख सुख (सदा) उस परमात्मा ने ही सुना है, (जब वह हमारी अरदास-अरजोई सुनता है) तभी (हमारी) हालत अच्छी बन जाती है ॥१॥ हे भाई! जिंद की (अरदास) एक परमात्मा के पास ही मानी जाती है। (परमात्मा के सहारे के बिना लोग) अन्य बहुत यत्न कर के थक जाते हैं, उन यत्नों का मुल्य एक तिल जितना भी नहीं समझा जाता ॥ रहाउ ॥ हे भाई! परमात्मा का नाम आतमिक जीवन देने वाला है, नाम एक ऐसा हीरा है जो किसी मूल्य से नहीं मिल सकता। गुरू ने यह नाम मन्त्र (जिस मनुष्य को) दे दिया, वह मनुष्य (विकारों में) गिरता नहीं, डोलता नहीं, वह मनुष्य पक्के इरादे वाला बन जाता है, वह मुकम्मल तौर पर (माया की तरफ से) संतोखी रहता है ॥२॥ (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरू पासों नाम-हीरा मिल जाता है, उस के अंदरों) उन्हा मेर-तेर वाले सभी वितकरों की बात मुक जाती है जो जगत में बड़े पर्बल हैं। (उस मनुष्य को हर तरफ परमात्मा ही इस तरह दिखता है, जैसे) अनेकों गहनें मिल कर (गाले जा कर) रैणी बन जाती है, और, उस ढेली से वह सोना ही कहलाती है ॥३॥ (हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर गुरू की कृपा से) परमात्मा की ज्योत का प्रकाश हो जाता है, उस के अंदर आतमिक अडोलता के आनंद पैदा हो जाते हैं, उस को हर जगह शोभा मिलती है, उस के हिरदे में सिफत-सलाह की बाणी के (मानों) एक-रस वाजे वजते रहते हैं। नानक जी कहते हैं – गुरू ने जिस मनुष्य के लिए यह प्रबंध कर दिया, वह मनुष्य सदा के लिए प्रभू-चरनों में टिकाणा प्राप्त कर लेता है ॥४॥५॥