सोरठि महला १ घरु १ असटपदीआ चउतुकी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ दुबिधा न पड़उ हरि बिनु होरु न पूजउ मड़ै मसाणि न जाई ॥ त्रिसना राचि न पर घरि जावा त्रिसना नामि बुझाई ॥ घर भीतरि घरु गुरू दिखाइआ सहजि रते मन भाई ॥ तू आपे दाना आपे बीना तू देवहि मति साई ॥१॥ मनु बैरागि रतउ बैरागी सबदि मनु बेधिआ मेरी माई ॥ अंतरि जोति निरंतरि बाणी साचे साहिब सिउ लिव लाई ॥ रहाउ ॥ असंख बैरागी कहहि बैराग सो बैरागी जि खसमै भावै ॥ हिरदै सबदि सदा भै रचिआ गुर की कार कमावै ॥ एको चेतै मनूआ न डोलै धावतु वरजि रहावै ॥ सहजे माता सदा रंगि राता साचे के गुण गावै ॥२॥ मनूआ पउणु बिंदु सुखवासी नामि वसै सुख भाई ॥ जिहबा नेत्र सोत्र सचि राते जलि बूझी तुझहि बुझाई ॥ आस निरास रहै बैरागी निज घरि ताड़ी लाई ॥ भिखिआ नामि रजे संतोखी अम्रितु सहजि पीआई ॥३॥ दुबिधा विचि बैरागु न होवी जब लगु दूजी राई ॥ सभु जगु तेरा तू एको दाता अवरु न दूजा भाई ॥ मनमुखि जंत दुखि सदा निवासी गुरमुखि दे वडिआई ॥ अपर अपार अगम अगोचर कहणै कीम न पाई ॥४॥ सुंन समाधि महा परमारथु तीनि भवण पति नामं ॥ मसतकि लेखु जीआ जगि जोनी सिरि सिरि लेखु सहामं ॥ करम सुकरम कराए आपे आपे भगति द्रिड़ामं ॥ मनि मुखि जूठि लहै भै मानं आपे गिआनु अगामं ॥५॥ जिन चाखिआ सेई सादु जाणनि जिउ गुंगे मिठिआई ॥ अकथै का किआ कथीऐ भाई चालउ सदा रजाई ॥ गुरु दाता मेले ता मति होवै निगुरे मति न काई ॥ जिउ चलाए तिउ चालह भाई होर किआ को करे चतुराई ॥६॥ इकि भरमि भुलाए इकि भगती राते तेरा खेलु अपारा ॥ जितु तुधु लाए तेहा फलु पाइआ तू हुकमि चलावणहारा ॥ सेवा करी जे किछु होवै अपणा जीउ पिंडु तुमारा ॥ सतिगुरि मिलिऐ किरपा कीनी अम्रित नामु अधारा ॥७॥ गगनंतरि वासिआ गुण परगासिआ गुण महि गिआन धिआनं ॥ नामु मनि भावै कहै कहावै ततो ततु वखानं ॥ सबदु गुर पीरा गहिर ग्मभीरा बिनु सबदै जगु बउरानं ॥ पूरा बैरागी सहजि सुभागी सचु नानक मनु मानं ॥८॥१॥
अर्थ :- मैं परमात्मा के बिना किसी ओर आसरे की खोज में नहीं पड़ता, मैं भगवान के बिना किसी ओर को नहीं पूजता, मैं कहीं समाध और शमशान में भी नहीं जाता । माया की त्रिशना में फँस के मैं (परमात्मा के दर के बिना) किसी ओर घर में नहीं जाता, मेरी मायिक त्रिशना परमात्मा के नाम ने मिटा दी है । गुरु ने मुझे मेरे हृदय में ही परमात्मा का निवास-स्थान दिखा दिया है, और अडोल अवस्था में रंगे हुए मेरे मन को वह सहिज-अवस्था अच्छी लग रही है। हे मेरे साईं ! (यह सब तेरी ही कृपा है) तूं आप ही (मेरे दिल की) जानने-वाला हैं; आप ही पहचानने वाला हैं, तूं आप ही मुझे (अच्छी) मति देता हैं (जिस करके तेरा दर छोड़ के ओर तरफ नहीं भटकता) ।1। हे मेरी माँ ! मेरा मन गुरु के शब्द में विझ गया है (पिरोया गया है । शब्द की बरकत के साथ मेरे अंदर परमात्मा से विछोड़े का अहिसास पैदा हो गया है) । वही मनुख (असल) त्यागी है जिस का मन परमात्मा के बिरहों-रंग में रंगा गया है । उस (बैरागी) के अंदर भगवान की जोति जग पड़ती है, वह एक-रस सिफ़त-सालाह की बाणी में (मस्त रहता है), सदा कायम रहने के लिए स्वामी-भगवान (के चरणों में) उस की सुरति जुड़ी रहती है ।1 ।रहाउ। अनेकों ही वैरागी वैराग की बाते करते हैं, पर असल वैराग वह है जो (परमात्मा के बिरहों-रंग में इतना रंगा हुआ है कि वह) खसम-भगवान को प्यारा लगता है, वह गुरु के शब्द के द्वारा अपने हृदय में (परमात्मा की याद को बसाता है और) सदा परमात्मा के डर-अदब में मस्त (रह के) गुरु की बताई हुई कार करता है । वह बैरागी सिर्फ परमात्मा को याद करता है (जिस करके उस का) मन (माया वाले तरफ) नहीं डोलता, वह बैरागी (माया की तरफ) दौड़ते मन को रोक के (प्रभू-चरणो में) जोड़ी रखता है । अडोल अवस्था में मस्त वह बैरागी सदा (भगवान के नाम-) रंग में रंगा रहता है, और सदा-थिर भगवान की सिफ़त-सालाह करता है ।2। हे भाई! (जिस मनुष्य का) चंचल मन रक्ती भर भी आत्मिक आनंद में निवास देने वाले नाम में बसता है (वह मनुष्य असल बैरागी है, और वह बैरागी) आत्मिक आनंद लेता है। हे प्रभु! तूने स्वयं (उस वैरागी को जीवन के सही रास्ते की) समझ दी है, (जिसकी इनायत से उसकी तृष्णा-) अग्नि बुझ गई है, और उसकी जीभ उसकी आँखें (आदि) इंद्रिय सदा-स्थिर (हरि-नाम) में रंगे रहते हैं। वह बैरागी दुनिया की आशाओं से निर्मोह हो के जीवन व्यतीत करता है, वह (दुनियावी घर-धाट के अपनत्व को त्याग के) उस घर में तवज्जो जोड़े रखता है जो सच-मुच उसका अपना ही रहेगा। ऐसे बैरागी (गुरु-दर से मिली) नाम-भिक्षा से अघाए रहते हैं, तृप्त रहते हैं, संतुष्ट रहते हैं (क्योंकि उनको गुरु ने) अडोल आत्मिक अवस्था में टिका के आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पिला दिया है।3। जब तक (मन में) रक्ती भर भी कोई और झाक है किसी और आसरे की तलाश है तब तक विरह अवस्था पैदा नहीं हो सकती। (पर हे प्रभु! ये विरह की) दाति देने वाला एक तू खुद ही है, तेरे बिना कोई और (ये दाति) देने वाला नहीं है, और ये सारा जगत तेरा अपना ही (रचा हुआ) है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य सदा दुख में टिके रहते हैं, जो लोग गुरु की शरण पड़ते हैं उनको प्रभु (नाम की दाति दे के) आदर-सम्मान बख्शता है। उस बेअंत अगम्य (पहुँच से परे) और अगोचर प्रभु की कीमत (जीवों के) बयान करने से नहीं बताई जा सकती (उसके बराबर का और कोई कहा नहीं जा सकता)।4। परमात्मा एक ऐसी आत्मिक अवस्था का मालिक है कि उस पर माया के फुरने असर नहीं डाल सकते, वह तीनों ही भवनों का मालिक है, उसका नाम जीवों के लिए महान ऊँचा श्रेष्ठ धन है। जगत में जितने भी जीव जन्म लेते हैं उनके माथे पर (उनके किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार परमात्मा की रज़ा में ही) लेख (लिखा जाता है, हरेक जीव को) अपने-अपने सिर पर लिखा लेख सहना पड़ता है। परमात्मा स्वयं ही (साधारण) काम और अच्छे काम (जीवों से) करवाता है, खुद ही (जीवों के हृदय में अपनी) भक्ति दृढ़ करता है। अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु खुद ही (जीवों को अपनी) गहरी सांझ बख्शता है। (सच्चा वैरागी) परमात्मा के डर-अदब में रच जाता है, उसके मन में और मुँह में (पहले जो भी विकारों की निंदा आदि की) मैल (होती है वह) दूर हो जाती है।5। जिस मनुष्यों ने (परमात्मा के नाम का रस) चखा है, (उसका) स्वाद वही जानते हैं (बता नहीं सकते), जैसे गूंगे मनुष्य की खाई हुई मिठाई (का स्वाद गूंगा खुद ही जानता हे, किसी को बता नहीं सकता)। हे भाई! नाम-रस है ही अकथ, बयान किया नहीं जा सकता। (मैं तो सदा यही तमन्ना रखता हूँ कि) मैं उस मालिक प्रभु की रजा में चलूँ। (पर रजा में चलने की) सूझ भी तब ही आती है जब गुरु उस दातार प्रभु से मिला दे। जो आदमी गुरु की शरण नहीं पड़ा, उसे ये समझ बिल्कुल भी नहीं आती। हे भाई! कोई आदमी अपनी समझदारी पर गुमान नहीं कर सकता, जैसे-जैसे परमात्मा हम जीवों को (जीवन-राह पर) चलाता है वैसे वैसे ही हम चलते हैं।6। हे अपार प्रभु! अनेक जीव भटकना में (डाल के तूने) कुमार्ग पर डाले हुए हैं, अनेक जीव तेरी भक्ति (के रंग) में रंगे हुए हैं: ये (सब) खेल तेरा (रचा हुआ) है। जिस तरफ तूने जीवों को लगाया हुआ है वैसा ही फल जीव भोग रहे हैं। तू (सब जीवों को) अपने हुक्म में चलाने के समर्थ है। (मेरे पास) अगर कोई चीज मेरी अपनी हो तो (मैं ये कहने का फख़र कर सकूँ कि) मैं तेरी सेवा कर रहा हूँ, पर मेरा ये जीवन भी तो तेरा ही दिया हुआ है और मेरा शरीर भी तेरी ही दाति है। अगर गुरु मिल जाए तो वह कृपा करता है और आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम मुझे (जिंदगी का) आसरा देता है।7। हे नानक! जो मनुष्य सदा ऊँचे आत्मिक मण्डल में बसता है (तवज्जो टिकाए रखता है) उसके अंदर आत्मिक गुण प्रकट होते हैं, आत्मिक गुणों से वह गहरी सांझ डाले रखता है, आत्मिक गुणों में उसकी तवज्जो जुड़ी रहती है (वही मनुष्य पूरन त्यागी है)। उसके मन को परमात्मा का नाम प्यारा लगता है, वह (खुद नाम) स्मरण करता है (और लोगों को स्मरण करने के लिए) प्रेरित करता है। वह सदा जगत-मूल प्रभु की ही महिमा करता है। गुरु पीर के शब्द को (हृदय में टिका के) वह गहरे जिगरे वाला बन जाता है। पर गुरु शब्द से टूट के जगत (माया के मोह में) कमला (हुआ फिरता) है। वह पूर्ण त्यागी मनुष्य अडोल आत्मिक अवस्था में टिक के अच्छे भाग्य वाला बन जाता है, उसका मन सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु (की याद को अपना जीवन-निशाना) मानता है।8।1।
ਅੰਗ : 634
ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੧ ਘਰੁ ੧ ਅਸਟਪਦੀਆ ਚਉਤੁਕੀ ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ਦੁਬਿਧਾ ਨ ਪੜਉ ਹਰਿ ਬਿਨੁ ਹੋਰੁ ਨ ਪੂਜਉ ਮੜੈ ਮਸਾਣਿ ਨ ਜਾਈ ॥ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਰਾਚਿ ਨ ਪਰ ਘਰਿ ਜਾਵਾ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਨਾਮਿ ਬੁਝਾਈ ॥ ਘਰ ਭੀਤਰਿ ਘਰੁ ਗੁਰੂ ਦਿਖਾਇਆ ਸਹਜਿ ਰਤੇ ਮਨ ਭਾਈ ॥ ਤੂ ਆਪੇ ਦਾਨਾ ਆਪੇ ਬੀਨਾ ਤੂ ਦੇਵਹਿ ਮਤਿ ਸਾਈ ॥੧॥ ਮਨੁ ਬੈਰਾਗਿ ਰਤਉ ਬੈਰਾਗੀ ਸਬਦਿ ਮਨੁ ਬੇਧਿਆ ਮੇਰੀ ਮਾਈ ॥ ਅੰਤਰਿ ਜੋਤਿ ਨਿਰੰਤਰਿ ਬਾਣੀ ਸਾਚੇ ਸਾਹਿਬ ਸਿਉ ਲਿਵ ਲਾਈ ॥ ਰਹਾਉ ॥ ਅਸੰਖ ਬੈਰਾਗੀ ਕਹਹਿ ਬੈਰਾਗ ਸੋ ਬੈਰਾਗੀ ਜਿ ਖਸਮੈ ਭਾਵੈ ॥ ਹਿਰਦੈ ਸਬਦਿ ਸਦਾ ਭੈ ਰਚਿਆ ਗੁਰ ਕੀ ਕਾਰ ਕਮਾਵੈ ॥ ਏਕੋ ਚੇਤੈ ਮਨੂਆ ਨ ਡੋਲੈ ਧਾਵਤੁ ਵਰਜਿ ਰਹਾਵੈ ॥ ਸਹਜੇ ਮਾਤਾ ਸਦਾ ਰੰਗਿ ਰਾਤਾ ਸਾਚੇ ਕੇ ਗੁਣ ਗਾਵੈ ॥੨॥ ਮਨੂਆ ਪਉਣੁ ਬਿੰਦੁ ਸੁਖਵਾਸੀ ਨਾਮਿ ਵਸੈ ਸੁਖ ਭਾਈ ॥ ਜਿਹਬਾ ਨੇਤ੍ਰ ਸੋਤ੍ਰ ਸਚਿ ਰਾਤੇ ਜਲਿ ਬੂਝੀ ਤੁਝਹਿ ਬੁਝਾਈ ॥ ਆਸ ਨਿਰਾਸ ਰਹੈ ਬੈਰਾਗੀ ਨਿਜ ਘਰਿ ਤਾੜੀ ਲਾਈ ॥ ਭਿਖਿਆ ਨਾਮਿ ਰਜੇ ਸੰਤੋਖੀ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਸਹਜਿ ਪੀਆਈ ॥੩॥ ਦੁਬਿਧਾ ਵਿਚਿ ਬੈਰਾਗੁ ਨ ਹੋਵੀ ਜਬ ਲਗੁ ਦੂਜੀ ਰਾਈ ॥ ਸਭੁ ਜਗੁ ਤੇਰਾ ਤੂ ਏਕੋ ਦਾਤਾ ਅਵਰੁ ਨ ਦੂਜਾ ਭਾਈ ॥ ਮਨਮੁਖਿ ਜੰਤ ਦੁਖਿ ਸਦਾ ਨਿਵਾਸੀ ਗੁਰਮੁਖਿ ਦੇ ਵਡਿਆਈ ॥ ਅਪਰ ਅਪਾਰ ਅਗੰਮ ਅਗੋਚਰ ਕਹਣੈ ਕੀਮ ਨ ਪਾਈ ॥੪॥ ਸੁੰਨ ਸਮਾਧਿ ਮਹਾ ਪਰਮਾਰਥੁ ਤੀਨਿ ਭਵਣ ਪਤਿ ਨਾਮੰ ॥ ਮਸਤਕਿ ਲੇਖੁ ਜੀਆ ਜਗਿ ਜੋਨੀ ਸਿਰਿ ਸਿਰਿ ਲੇਖੁ ਸਹਾਮੰ ॥ ਕਰਮ ਸੁਕਰਮ ਕਰਾਏ ਆਪੇ ਆਪੇ ਭਗਤਿ ਦ੍ਰਿੜਾਮੰ ॥ ਮਨਿ ਮੁਖਿ ਜੂਠਿ ਲਹੈ ਭੈ ਮਾਨੰ ਆਪੇ ਗਿਆਨੁ ਅਗਾਮੰ ॥੫॥ ਜਿਨ ਚਾਖਿਆ ਸੇਈ ਸਾਦੁ ਜਾਣਨਿ ਜਿਉ ਗੁੰਗੇ ਮਿਠਿਆਈ ॥ ਅਕਥੈ ਕਾ ਕਿਆ ਕਥੀਐ ਭਾਈ ਚਾਲਉ ਸਦਾ ਰਜਾਈ ॥ ਗੁਰੁ ਦਾਤਾ ਮੇਲੇ ਤਾ ਮਤਿ ਹੋਵੈ ਨਿਗੁਰੇ ਮਤਿ ਨ ਕਾਈ ॥ ਜਿਉ ਚਲਾਏ ਤਿਉ ਚਾਲਹ ਭਾਈ ਹੋਰ ਕਿਆ ਕੋ ਕਰੇ ਚਤੁਰਾਈ ॥੬॥ ਇਕਿ ਭਰਮਿ ਭੁਲਾਏ ਇਕਿ ਭਗਤੀ ਰਾਤੇ ਤੇਰਾ ਖੇਲੁ ਅਪਾਰਾ ॥ ਜਿਤੁ ਤੁਧੁ ਲਾਏ ਤੇਹਾ ਫਲੁ ਪਾਇਆ ਤੂ ਹੁਕਮਿ ਚਲਾਵਣਹਾਰਾ ॥ ਸੇਵਾ ਕਰੀ ਜੇ ਕਿਛੁ ਹੋਵੈ ਅਪਣਾ ਜੀਉ ਪਿੰਡੁ ਤੁਮਾਰਾ ॥ ਸਤਿਗੁਰਿ ਮਿਲਿਐ ਕਿਰਪਾ ਕੀਨੀ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਾਮੁ ਅਧਾਰਾ ॥੭॥ ਗਗਨੰਤਰਿ ਵਾਸਿਆ ਗੁਣ ਪਰਗਾਸਿਆ ਗੁਣ ਮਹਿ ਗਿਆਨ ਧਿਆਨੰ ॥ ਨਾਮੁ ਮਨਿ ਭਾਵੈ ਕਹੈ ਕਹਾਵੈ ਤਤੋ ਤਤੁ ਵਖਾਨੰ ॥ ਸਬਦੁ ਗੁਰ ਪੀਰਾ ਗਹਿਰ ਗੰਭੀਰਾ ਬਿਨੁ ਸਬਦੈ ਜਗੁ ਬਉਰਾਨੰ ॥ ਪੂਰਾ ਬੈਰਾਗੀ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਗੀ ਸਚੁ ਨਾਨਕ ਮਨੁ ਮਾਨੰ ॥੮॥੧॥
ਅਰਥ: ਰਾਗ ਸੋਰਠਿ, ਘਰ ੧ ਵਿੱਚ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕਦੇਵ ਜੀ ਦੀ ਅੱਠ-ਬੰਦਾਂ ਵਾਲੀ ਚਾਰ-ਤੁਕੀ ਬਾਣੀ। ਅਕਾਲ ਪੁਰਖ ਇੱਕ ਹੈ ਅਤੇ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦੀ ਕਿਰਪਾ ਨਾਲ ਮਿਲਦਾ ਹੈ। ਮੈਂ ਪਰਮਾਤਮਾ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਆਸਰੇ ਦੀ ਭਾਲ ਵਿਚ ਨਹੀਂ ਪੈਂਦਾ, ਮੈਂ ਪ੍ਰਭੂ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਪੂਜਦਾ, ਮੈਂ ਕਿਤੇ ਸਮਾਧਾਂ ਤੇ ਮਸਾਣਾਂ ਵਿਚ ਭੀ ਨਹੀਂ ਜਾਂਦਾ। ਮਾਇਆ ਦੀ ਤ੍ਰਿਸ਼ਨਾ ਵਿਚ ਫਸ ਕੇ ਮੈਂ (ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਦਰ ਤੋਂ ਬਿਨਾ) ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਘਰ ਵਿਚ ਨਹੀਂ ਜਾਂਦਾ, ਮੇਰੀ ਮਾਇਕ ਤ੍ਰਿਸ਼ਨਾ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਨਾਮ ਨੇ ਮਿਟਾ ਦਿੱਤੀ ਹੈ। ਗੁਰੂ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਮੇਰੇ ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ ਹੀ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਿਵਾਸ-ਅਸਥਾਨ ਵਿਖਾ ਦਿੱਤਾ ਹੈ, ਅਤੇ ਅਡੋਲ ਅਵਸਥਾ ਵਿਚ ਰੱਤੇ ਹੋਏ ਮੇਰੇ ਮਨ ਨੂੰ ਉਹ ਸਹਿਜ-ਅਵਸਥਾ ਚੰਗੀ ਲੱਗ ਰਹੀ ਹੈ। ਹੇ ਮੇਰੇ ਸਾਈਂ! (ਇਹ ਸਭ ਤੇਰੀ ਹੀ ਮੇਹਰ ਹੈ) ਤੂੰ ਆਪ ਹੀ (ਮੇਰੇ ਦਿਲ ਦੀ) ਜਾਣਨ-ਵਾਲਾ ਹੈਂ; ਆਪ ਹੀ ਪਛਾਣਨ ਵਾਲਾ ਹੈਂ, ਤੂੰ ਆਪ ਹੀ ਮੈਨੂੰ (ਚੰਗੀ) ਮਤਿ ਦੇਂਦਾ ਹੈਂ (ਜਿਸ ਕਰਕੇ ਤੇਰਾ ਦਰ ਛੱਡ ਕੇ ਹੋਰ ਪਾਸੇ ਨਹੀਂ ਭਟਕਦਾ) ॥੧॥ ਹੇ ਮੇਰੀ ਮਾਂ! ਮੇਰਾ ਮਨ ਗੁਰੂ ਦੇ ਸ਼ਬਦ ਵਿਚ ਵਿੱਝ ਗਿਆ ਹੈ (ਪ੍ਰੋਤਾ ਗਿਆ ਹੈ। ਸ਼ਬਦ ਦੀ ਬਰਕਤਿ ਨਾਲ ਮੇਰੇ ਅੰਦਰ ਪਰਮਾਤਮਾ ਤੋਂ ਵਿਛੋੜੇ ਦਾ ਅਹਿਸਾਸ ਪੈਦਾ ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ)। ਉਹੀ ਮਨੁੱਖ (ਅਸਲ) ਤਿਆਗੀ ਹੈ ਜਿਸ ਦਾ ਮਨ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਬਿਰਹੋਂ-ਰੰਗ ਵਿਚ ਰੰਗਿਆ ਗਿਆ ਹੈ। ਉਸ (ਬੈਰਾਗੀ) ਦੇ ਅੰਦਰ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਜੋਤਿ ਜਗ ਪੈਂਦੀ ਹੈ, ਉਹ ਇਕ-ਰਸ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਦੀ ਬਾਣੀ ਵਿਚ (ਮਸਤ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ), ਸਦਾ ਕਾਇਮ ਰਹਿਣ ਵਾਸਤੇ ਮਾਲਕ-ਪ੍ਰਭੂ (ਦੇ ਚਰਨਾਂ ਵਿਚ) ਉਸ ਦੀ ਸੁਰਤਿ ਜੁੜੀ ਰਹਿੰਦੀ ਹੈ ਰਹਾਉ॥ ਅਨੇਕਾਂ ਹੀ ਵੈਰਾਗੀ ਵੈਰਾਗ ਦੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਕਰਦੇ ਹਨ, ਪਰ ਅਸਲ ਵੈਰਾਗ ਉਹ ਹੈ ਜੋ (ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਬਿਰਹੋਂ-ਰੰਗ ਵਿਚ ਇਤਨਾ ਰੰਗਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ ਕਿ ਉਹ) ਖਸਮ-ਪ੍ਰਭੂ ਨੂੰ ਪਿਆਰਾ ਲੱਗਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਗੁਰੂ ਦੇ ਸ਼ਬਦ ਦੀ ਰਾਹੀਂ ਆਪਣੇ ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ (ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਯਾਦ ਨੂੰ ਵਸਾਂਦਾ ਹੈ ਤੇ) ਸਦਾ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਡਰ-ਅਦਬ ਵਿਚ ਮਸਤ (ਰਹਿ ਕੇ) ਗੁਰੂ ਦੀ ਦੱਸੀ ਹੋਈ ਕਾਰ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਉਹ ਬੈਰਾਗੀ ਸਿਰਫ਼ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨੂੰ ਚੇਤਦਾ ਹੈ (ਜਿਸ ਕਰਕੇ ਉਸ ਦਾ) ਮਨ (ਮਾਇਆ ਵਾਲੇ ਪਾਸੇ) ਨਹੀਂ ਡੋਲਦਾ, ਉਹ ਬੈਰਾਗੀ (ਮਾਇਆ ਵਲ) ਦੌੜਦੇ ਮਨ ਨੂੰ ਰੋਕ ਕੇ (ਪ੍ਰਭੂ-ਚਰਨਾਂ ਵਿਚ) ਜੋੜੀ ਰੱਖਦਾ ਹੈ। ਅਡੋਲ ਅਵਸਥਾ ਵਿਚ ਮਸਤ ਉਹ ਬੈਰਾਗੀ ਸਦਾ (ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਨਾਮ-) ਰੰਗ ਵਿਚ ਰੰਗਿਆ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ, ਤੇ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਕਰਦਾ ਹੈ ॥੨॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਦਾ) ਚੰਚਲ ਮਨ ਰਤਾ ਭਰ ਭੀ ਆਤਮਕ ਆਨੰਦ ਵਿਚ ਨਿਵਾਸ ਦੇਣ ਵਾਲੇ ਨਾਮ ਵਿਚ ਵੱਸਦਾ ਹੈ (ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਅਸਲ ਬੈਰਾਗੀ ਹੈ, ਤੇ ਉਹ ਬੈਰਾਗੀ) ਆਤਮਕ ਆਨੰਦ (ਮਾਣਦਾ ਹੈ) । ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਤੂੰ ਆਪ (ਉਸ ਬੈਰਾਗੀ ਨੂੰ ਜੀਵਨ ਦੇ ਸਹੀ ਰਸਤੇ ਦੀ) ਸਮਝ ਦਿੱਤੀ ਹੈ, (ਜਿਸ ਦੀ ਬਰਕਤਿ ਨਾਲ ਉਸ ਦੀ ਤ੍ਰਿਸ਼ਨਾ-) ਅੱਗ ਬੁਝ ਗਈ ਹੈ, ਤੇ ਉਸ ਦੀ ਜੀਭ ਉਸ ਦੀਆਂ ਅੱਖਾਂ (ਆਦਿਕ) ਇੰਦ੍ਰੇ ਸਦਾ-ਥਿਰ (ਹਰਿ-ਨਾਮ) ਵਿਚ ਰੰਗੇ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ। ਉਹ ਬੈਰਾਗੀ ਦੁਨੀਆ ਦੀਆਂ ਆਸਾਂ ਤੋਂ ਨਿਰਮੋਹ ਹੋ ਕੇ ਜੀਵਨ ਬਿਤੀਤ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਹ (ਦੁਨੀਆ ਵਾਲੇ ਘਰ-ਘਾਟ ਦੀ ਅਪਣੱਤ ਛੱਡ ਕੇ) ਉਸ ਘਰ ਵਿਚ ਸੁਰਤਿ ਜੋੜੀ ਰੱਖਦਾ ਹੈ ਜੋ ਸਚ ਮੁਚ ਉਸ ਦਾ ਆਪਣਾ ਹੀ ਰਹੇਗਾ। ਅਜੇਹੇ ਬੈਰਾਗੀ (ਗੁਰੂ-ਦਰ ਤੋਂ ਮਿਲੀ) ਨਾਮ-ਭਿੱਛਿਆ ਨਾਲ ਰੱਜੇ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ, ਸੰਤੋਖੀ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ, (ਕਿਉਂਕਿ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਗੁਰੂ ਨੇ) ਅਡੋਲ ਆਤਮਕ ਅਵਸਥਾ ਵਿਚ ਟਿਕਾ ਕੇ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਦੇਣ ਵਾਲਾ ਨਾਮ-ਰਸ ਪਿਲਾ ਦਿੱਤਾ ਹੈ।੩। ਜਦ ਤਕ (ਮਨ ਵਿਚ) ਰਤਾ ਭਰ ਭੀ ਕੋਈ ਹੋਰ ਝਾਕ ਹੈ ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਆਸਰੇ ਦੀ ਭਾਲ ਹੈ ਤਦ ਤਕ ਬਿਰਹੋਂ-ਅਵਸਥਾ ਪੈਦਾ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦੀ। (ਪਰ ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਇਹ ਬਿਰਹੋਂ ਦੀ) ਦਾਤ ਦੇਣ ਵਾਲਾ ਤੂੰ ਇਕ ਆਪ ਹੀ ਹੈਂ, ਤੈਥੋਂ ਬਿਨਾ ਕੋਈ ਹੋਰ (ਇਹ ਦਾਤਿ) ਦੇਣ ਵਾਲਾ ਨਹੀਂ ਹੈ, ਤੇ ਇਹ ਸਾਰਾ ਜਗਤ ਤੇਰਾ ਆਪਣਾ ਹੀ (ਰਚਿਆ ਹੋਇਆ) ਹੈ। ਆਪਣੇ ਮਨ ਦੇ ਪਿੱਛੇ ਤੁਰਨ ਵਾਲੇ ਮਨੁੱਖ ਸਦਾ ਦੁੱਖ ਵਿਚ ਟਿਕੇ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ, ਜੇਹੜੇ ਬੰਦੇ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸ਼ਰਨ ਪੈਂਦੇ ਹਨ, ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਪ੍ਰਭੂ (ਨਾਮ ਦੀ ਦਾਤਿ ਦੇ ਕੇ) ਆਦਰ ਮਾਣ ਬਖ਼ਸ਼ਦਾ ਹੈ। ਉਸ ਬੇਅੰਤ ਅਪਹੁੰਚ ਤੇ ਅਗੋਚਰ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਕੀਮਤ (ਜੀਵਾਂ ਦੇ) ਬਿਆਨ ਕਰਨ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਦੱਸੀ ਜਾ ਸਕਦੀ (ਉਸਦੇ ਬਰਾਬਰ ਦਾ ਹੋਰ ਕੋਈ ਦੱਸਿਆ ਨਹੀਂ ਜਾ ਸਕਦਾ) ।੪। ਪਰਮਾਤਮਾ ਇਕ ਐਸੀ ਆਤਮਕ ਅਵਸਥਾ ਦਾ ਮਾਲਕ ਹੈ ਕਿ ਉਸ ਉਤੇ ਮਾਇਆ ਦੇ ਫੁਰਨੇ ਜ਼ੋਰ ਨਹੀਂ ਪਾ ਸਕਦੇ, ਉਹ ਤਿੰਨਾਂ ਹੀ ਭਵਨਾਂ ਦਾ ਮਾਲਕ ਹੈ, ਉਸ ਦਾ ਨਾਮ ਜੀਵਾਂ ਵਾਸਤੇ ਮਹਾਨ ਉੱਚਾ ਸ੍ਰੇਸ਼ਟ ਧਨ ਹੈ। ਜਗਤ ਵਿਚ ਜਿਤਨੇ ਭੀ ਜੀਵ ਜਨਮ ਲੈਂਦੇ ਹਨ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਮੱਥੇ ਉਤੇ (ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਕੀਤੇ ਕਰਮਾਂ ਦੇ ਸੰਸਕਾਰਾਂ ਅਨੁਸਾਰ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਵਿਚ ਹੀ) ਲੇਖ (ਲਿਖਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਹਰੇਕ ਜੀਵ ਨੂੰ) ਆਪੋ ਆਪਣੇ ਸਿਰ ਉਤੇ ਲਿਖਿਆ ਲੇਖ ਸਹਿਣਾ ਪੈਂਦਾ ਹੈ। ਪਰਮਾਤਮਾ ਆਪ ਹੀ (ਸਾਧਾਰਨ) ਕੰਮ ਤੇ ਚੰਗੇ ਕੰਮ (ਜੀਵਾਂ ਪਾਸੋਂ) ਕਰਾਂਦਾ ਹੈ, ਆਪ ਹੀ (ਜੀਵਾਂ ਦੇ ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ ਆਪਣੀ) ਭਗਤੀ ਦ੍ਰਿੜ੍ਹ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਅਪਹੁੰਚ ਪ੍ਰਭੂ ਆਪ ਹੀ (ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੀ) ਡੂੰਘੀ ਸਾਂਝ ਬਖਸ਼ਦਾ ਹੈ। (ਸੱਚਾ ਵੈਰਾਗੀ) ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਡਰ-ਅਦਬ ਵਿਚ ਗਿੱਝ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਦੇ ਮਨ ਵਿਚ ਤੇ ਮੂੰਹ ਵਿਚ (ਪਹਿਲਾਂ ਜੋ ਭੀ ਵਿਕਾਰਾਂ ਦੀ ਨਿੰਦਾ ਆਦਿਕ ਦੀ) ਮੈਲ (ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਉਹ) ਦੂਰ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ।੫। ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਮਨੁੱਖ ਨੇ (ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਨਾਮ ਦਾ ਰਸ) ਚੱਖਿਆ ਹੈ, (ਉਸ ਦਾ) ਸੁਆਦ ਉਹੀ ਜਾਣਦੇ ਹਨ (ਦੱਸ ਨਹੀਂ ਸਕਦੇ) , ਜਿਵੇਂ ਗੁੰਗੇ ਮਨੁੱਖ ਦੀ ਖਾਧੀ ਮਿਠਿਆਈ (ਦਾ ਸੁਆਦ ਗੁੰਗਾ ਆਪ ਹੀ ਜਾਣਦਾ ਹੈ, ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਦੱਸ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ) । ਹੇ ਭਾਈ! ਨਾਮ-ਰਸ ਹੈ ਹੀ ਅਕੱਥ, ਬਿਆਨ ਕੀਤਾ ਹੀ ਨਹੀਂ ਜਾ ਸਕਦਾ। (ਮੈਂ ਤਾਂ ਸਦਾ ਇਹੀ ਤਾਂਘ ਰੱਖਦਾ ਹਾਂ ਕਿ) ਮੈਂ ਉਸ ਮਾਲਕ-ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਵਿਚ ਤੁਰਾਂ। (ਪਰ ਰਜ਼ਾ ਵਿਚ ਤੁਰਨ ਦੀ) ਸੂਝ ਭੀ ਤਦੋਂ ਹੀ ਆਉਂਦੀ ਹੈ ਜੇ ਗੁਰੂ ਉਸ ਦਾਤਾਰ-ਪ੍ਰਭੂ ਨਾਲ ਮਿਲਾ ਦੇਵੇ। ਜੇਹੜਾ ਬੰਦਾ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸ਼ਰਨ ਨਹੀਂ ਪਿਆ, ਉਸ ਨੂੰ ਇਹ ਸਮਝ ਰਤਾ ਭੀ ਨਹੀਂ ਆਉਂਦੀ। ਹੇ ਭਾਈ! ਕੋਈ ਆਦਮੀ ਆਪਣੀ ਸਿਆਣਪ ਦਾ ਮਾਣ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦਾ, ਜਿਵੇਂ ਜਿਵੇਂ ਪਰਮਾਤਮਾ ਸਾਨੂੰ ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ (ਜੀਵਨ-ਰਾਹ ਉਤੇ) ਤੋਰਦਾ ਹੈ ਤਿਵੇਂ ਤਿਵੇਂ ਹੀ ਅਸੀ ਤੁਰਦੇ ਹਾਂ।੬। ਹੇ ਅਪਾਰ ਪ੍ਰਭੂ! ਅਨੇਕਾਂ ਜੀਵ ਭਟਕਣਾ ਵਿਚ (ਪਾ ਕੇ) ਕੁਰਾਹੇ ਪਾਏ ਹੋਏ ਹਨ, ਅਨੇਕਾਂ ਜੀਵ ਤੇਰੀ ਭਗਤੀ (ਦੇ ਰੰਗ) ਵਿਚ ਰੰਗੇ ਹੋਏ ਹਨ-ਇਹ (ਸਭ) ਤੇਰਾ ਖੇਲ (ਰਚਿਆ ਹੋਇਆ) ਹੈ। ਜਿਸ ਪਾਸੇ ਤੂੰ ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ ਲਾਇਆ ਹੋਇਆ ਹੈ ਉਹੋ ਜਿਹਾ ਫਲ ਜੀਵ ਭੋਗ ਰਹੇ ਹਨ। ਤੂੰ (ਸਭ ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ) ਆਪਣੇ ਹੁਕਮ ਵਿਚ ਚਲਾਣ ਦੇ ਸਮਰੱਥ ਹੈਂ। (ਮੇਰੇ ਪਾਸ) ਜੇ ਕੋਈ ਚੀਜ਼ ਮੇਰੀ ਆਪਣੀ ਹੋਵੇ ਤਾਂ (ਮੈਂ ਇਹ ਆਖਣ ਦਾ ਫ਼ਖਰ ਕਰ ਸਕਾਂ ਕਿ) ਮੈਂ ਤੇਰੀ ਸੇਵਾ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹਾਂ, ਪਰ ਮੇਰੀ ਇਹ ਜਿੰਦ ਤੇਰੀ ਹੀ ਦਿੱਤੀ ਹੋਈ ਹੈ ਤੇ ਮੇਰਾ ਸਰੀਰ ਭੀ ਤੇਰਾ ਹੀ ਦਿੱਤਾ ਹੋਇਆ ਹੈ। ਜੇ ਗੁਰੂ ਮਿਲ ਪਏ ਤਾਂ ਉਹ ਕਿਰਪਾ ਕਰਦਾ ਹੈ ਤੇ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਦੇਣ ਵਾਲਾ ਤੇਰਾ ਨਾਮ ਮੈਨੂੰ (ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦਾ) ਆਸਰਾ ਦੇਂਦਾ ਹੈ।੭। ਹੇ ਨਾਨਕ! ਜੋ ਮਨੁੱਖ ਸਦਾ ਉੱਚੇ ਆਤਮਕ ਮੰਡਲ ਵਿਚ ਵੱਸਦਾ ਹੈ (ਸੁਰਤਿ ਟਿਕਾਈ ਰੱਖਦਾ ਹੈ) ਉਸ ਦੇ ਅੰਦਰ ਆਤਮਕ ਗੁਣ ਪਰਗਟ ਹੁੰਦੇ ਹਨ, ਆਤਮਕ ਗੁਣਾਂ ਨਾਲ ਉਹ ਡੂੰਘੀ ਸਾਂਝ ਪਾਈ ਰੱਖਦਾ ਹੈ, ਆਤਮਕ ਗੁਣਾਂ ਵਿਚ ਹੀ ਉਸ ਦੀ ਸੁਰਤਿ ਜੁੜੀ ਰਹਿੰਦੀ ਹੈ (ਉਹੀ ਮਨੁੱਖ ਪੂਰਨ ਤਿਆਗੀ ਹੈ) । ਉਸ ਦੇ ਮਨ ਨੂੰ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ ਪਿਆਰਾ ਲੱਗਦਾ ਹੈ, ਉਹ (ਆਪ ਨਾਮ) ਸਿਮਰਦਾ ਹੈ (ਹੋਰਨਾਂ ਨੂੰ ਸਿਮਰਨ ਲਈ) ਪ੍ਰੇਰਦਾ ਹੈ। ਉਹ ਸਦਾ ਜਗਤ-ਮੂਲ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਹੀ ਸਿਫ਼ਤਿ-ਸਾਲਾਹ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਗੁਰੂ ਪੀਰ ਦੇ ਸ਼ਬਦ ਨੂੰ (ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ ਟਿਕਾ ਕੇ) ਉਹ ਡੂੰਘੇ ਜਿਗਰੇ ਵਾਲਾ ਬਣ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਪਰ ਗੁਰ-ਸ਼ਬਦ ਤੋਂ ਖੁੰਝ ਕੇ ਜਗਤ (ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਵਿਚ) ਕਮਲਾ (ਹੋਇਆ ਫਿਰਦਾ) ਹੈ। ਉਹ ਪੂਰਨ ਤਿਆਗੀ ਮਨੁੱਖ ਅਡੋਲ ਆਤਮਕ ਅਵਸਥਾ ਵਿਚ ਟਿਕ ਕੇ ਚੰਗੇ ਭਾਗਾਂ ਵਾਲਾ ਬਣ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਦਾ ਮਨ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਰਹਿਣ ਵਾਲੇ ਪ੍ਰਭੂ (ਦੀ ਯਾਦ ਨੂੰ ਹੀ ਆਪਣਾ ਜੀਵਨ-ਨਿਸ਼ਾਨਾ) ਮੰਨਦਾ ਹੈ।੮।੧।
ਦਾਨ–ਵੀਰ
ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ਤੋਂ ਵਡਾ ਦਾਂਨ–ਵੀਰ ਕੌਣ ਹੋ ਸਕਦਾ , ਜਿਨ੍ਹਾ ਨੇ ਆਪਣਾ ਸਾਰਾ ਪਰਿਵਾਰ ਭੇਟ ਚੜਾ ਦਿਤਾ ਸਿਰਫ ਜਬਰ ਤੇ ਜੁਲਮ ਨੂੰ ਰੋਕਣ ਲਈ ਉਹ ਵੀ ਆਪਣੇ ਤੇ ਨਹੀ ਬਲਿਕ ਦੂਜਿਆਂ ਦੇ ਧਰਮ ਦੀ ਖਾਤਰ , ਮਜਲੂਮਾਂ ਦੀ ਖਾਤਿਰ , ਉਨ੍ਹਾ ਦੀ ਖੁਸ਼ੀ ਤੇ ਸੁਖ ਦੀ ਖਾਤਿਰ ,ਉਨ੍ਹਾ ਦੀ ਗੈਰਤ –ਮੰਦ ਜਿੰਦਗੀ ਦੀ ਖਾਤਿਰ ,ਜਿਸਤੇ ਉਸ ਵਕਤ ਦੀ ਮੁਗਲ ਹਕੂਮਤ ਅੰਤਾ ਦੇ ਜੁਲਮ ਢਾਹ ਰਹੀ ਸੀ ,ਪੂਰੇ ਹਿੰਦੁਸਤਾਨ ਨੂੰ ਦਾਇਰ–ਏ –ਇਸਲਾਮ ਵਿਚ ਲਿਆਉਣ ਲਈ ਜੋਰ ਜਬਰਦਸਤੀ ਦੀ ਹਦ ਤਕ ਪਹੁੰਚ ਚੁਕੀ ਸੀ 9 ਸਾਲ ਦੀ ਉਮਰ ਵਿਚ ਹਿੰਦੂਆਂ ਦੀ ਧੋਤੀ, ਬੋਦੀ ਤੇ ਜੰਜੂ ਦੀ ਰਖਿਆ ਲਈ ਆਪਣੇ ਪਿਤਾ ਨੂੰ ਸਹੀਦ ਕਰਵਾਇਆ , ਦੋ ਬਚੇ ਆਪਣੇ ਹਥੀਂ ਤਿਆਰ ਕਰਕੇ ਜੰਗ ਵਿਚ ਤੋਰੇ 10 ਲਖ ਦੀ ਫੌਜ਼ ਨਾਲ ਮੁਕਾਬਲਾ ਕਰਨ ਲਈ , ਜਿਸ ਵਿਚ ਉਨ੍ਹਾ ਦੀ ਸਹੀਦੀ ਪਕੀ ਸੀ, ਪਤਾ ਸੀ ਕੀ ਇਨ੍ਹਾ ਨੇ ਮੁੜ ਕੇ ਨਹੀਂ ਆਉਣਾ । ਦੋ ਛੋਟੇ ਸਾਹਿਬਜਾਦਿਆਂ ਨੂੰ ਉਨ੍ਹਾ ਲੀਹਾਂ ਤੇ ਤੋਰਿਆ ਕੀ ਇਤਨੇ ਲਾਲਚਾਂ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਵੀ ਓਹ ਧਰਮ ਪਿਛੇ ਕੁਰਬਾਨ ਹੋ ਗਏ ਪਰ ਇਸਲਾਮ ਕਬੂਲ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ । ਮਾਤਾ ਗੁਜਰ ਕੌਰ ਜੀ ਵੀ ਮੁਗਲ ਹਕੂਮਤ ਦੇ ਇਨ੍ਹਾ ਜੁਲਮਾਂ ਦੀ ਭੇਟ ਚੜੇ । ਕੋਈ ਏਹੋ ਜਿਹਾ ਇਤਿਹਾਸ ਵਿਚ ਦਾਂਨ–ਵੀਰ ਪੈਦਾ ਨਹੀਂ ਹੋਇਆ ਹੈ ?
ਮਹਾਨ ਆਗੂ
ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਕਿਸੇ ਇਕ ਕੌਮ ਦੇਸ਼ ਜਾਂ ਮਜਹਬ ਦਾ ਨਹੀ ਬਲਕਿ ਸਭ ਦਾ ਭੱਲਾ ਮੰਗਣ ਵਾਲੇ ਇਕ ਮਹਾਨ ਆਗੂ ਸੀ । ਓਹਨਾ ਨੇ ਕੌਮ ਪ੍ਰਸਤੀ ਨੂੰ ਧਰਮ ਬਣਾ ਦਿਤਾ ਇਹ ਕਹਿਣਾ ਬਹੁਤ ਗਲਤ ਹੈ । ਇਕ ਵਾਰੀ ਬੜੋਦਾ ਵਿਚ ਲਖਾਂ ਦੇ ਇਕਠ ਵਿਚ ਮਹਾਤਮਾ ਗਾਂਧੀ ਨੇ ਕਿਹਾ ਸੀ ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ਇਕ ਭੁਲੜ ਰਹਿਬਰ ਹੈ । ਵਿਚਾਰ ਦੀ ਗਲ ਕਰਦਿਆਂ ਕਰਦਿਆ ਤਲਵਾਰ ਪਕੜ ਲਈ , ਸ਼ਾਂਤੀ ਦੀ ਗਲ ਕਰਦਿਆਂ ਕਰਦਿਆਂ ਤੋਪਾਂ ਅਗੇ ਲੈ ਆਏ , ਗਲੇ ਵਿਚ ਮਾਲਾ ਪਹਿਨਾਣੀ ਸੀ ਕਿਰਪਾਨਾ ਤੇ ਖੰਡੇ ਪਹਿਨਾ ਛੱਡੇ । ਜਦ ਗਾਂਧੀ ਦੀ ਇਹ ਗਲ ਪ੍ਫੈਸਰ ਗੰਗਾ ਸਿੰਘ ਤਕ ਪਹੁੰਚੀ ਤਾਂ ਓਹ ਸਿਧਾ ਹੀ ਅਹਿਮਦਾਬਾਦ ,ਸਾਬਰਮਤੀ ਦੇ ਆਸ਼ਰਮ ਚਲੇ ਗਏ , ਗਾਂਧੀ ਨੂੰ ਮਿਲੇ ਤੇ ਕਿਹਾ ,”ਤੁਸੀਂ ਹਰ ਥਾਂ ਤੇ ਕਹਿੰਦੇ ਹੋ ਕੀ ਗੀਤਾ ਮੇਰੀ ਮਾਂ ਹੈ, ਇਹ ਮਾਂ ਹੈ ਤੁਹਾਡੀ ? ਗਾਂਧੀ ਨੇ ਕਿਹਾ ਹਾਂ ਮੈ ਹਰ ਰੋਜ਼ ਦੀ ਪ੍ਰੇਰਨਾ ਇਸਤੋਂ ਲੈਂਦਾ ਹਾਂ । ਗੰਗਾ ਸਿੰਘ ਨੇ ਕਿਹਾ ਮੈਂ ਗੀਤਾ ਨੂੰ ਇਕ ਪਵਿਤਰ ਗ੍ਰੰਥ ਸਮਝਦਾ ਹਾ ਤੇ ਤੁਹਾਡੀ ਇਸ ਨੂੰ ਮਾਂ ਕਹਿਣ ਦੀ ਵੀ ਕਦਰ ਕਰਦਾ ਹਾਂ । ਪਰ ਤੁਸੀਂ ਦਸੋ ਗੀਤਾ ਕਿਥੇ ਉਚਾਰੀ ਗਈ ਸੀ ? ਗਾਂਧੀ ਕੁਝ ਸਮਝ ਤੇ ਗਿਆ ਪਰ ਵਾਦ–ਵਿਵਾਦ ਵਿਚ ਨਹੀਂ ਸੀ ਪੈਣਾ ਚਾਹੰਦਾ । ਗੰਗਾ ਸਿੰਘ ਕਦੋਂ ਚੁਪ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਨਹੀਂ ਸੀ , ਬੋਲਿਆ ,ਇਹ ਕੁਰਕਸ਼ੇਤਰ ਦੇ ਲੜਾਈ ਦੇ ਮੈਦਾਨ ਵਿਚ ਉਚਾਰੀ ਗਈ ਸੀ ਬਲਿਕ ਲੜਾਈ ਹੀ ਗੀਤਾ ਦੇ ਉਪਦੇਸ਼ ਕਰਕੇ ਹੋਈ । ਜਦੋਂ ਅਰਜੁਨ ਨੇ ਹਥਿਆਰ ਸੁਟ ਦਿਤੇ ਇਹ ਕਹਿਕੇ ਮੈਂ ਕਿਸ ਨਾਲ ਲੜ ਰਿਹਾਂ ਹਾਂ । ਦੁਰਯੋਧਨ ਮੇਰਾ ਭਰਾ ਹੈ ,ਭੀਸ਼ਮ ਪਿਤਾਮਾ ਮੇਰੇ ਵੱਡੇ ਹਨ ਤੇ ਦ੍ਰੋਣਾਚਾਰ੍ਯਾ ਮੇਰੇ ਗੁਰੂ । ਮੈ ਉਹਨਾ ਦੇ ਖਿਲਾਫ਼ ਤਲਵਾਰ ਕਿਸ ਤਰਹ ਚੁਕ ਸਕਦਾ ਹਾਂ । ਤਾਂ ਕ੍ਰਿਸ਼ਨ ਜੀ ਦਾ ਉਪਦੇਸ਼ ਸੀ ਕੀ ਜਦੋ ਕੋਈ ਆਪਣੇ ਸਰੀਰ ਤੇ ਫੋੜਾ ਹੋ ਜਾਏ ਤਾਂ ਉਸ ਨੂੰ ਚੀਰਨਾ ਪੈਦਾਂ ਹੈ ਇਸ ਵਿਚ ਕੋਈ ਪਾਪ ਨਹੀ । ਅਰਜੁਨ ਨੇ ਤਲਵਾਰ ਚੁਕੀ , ਲੜਾਈ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋਈ ਜਿਸ ਵਿਚ ਲਖਾਂ ਲੋਕ ਮਾਰੇ ਗਏ । ਗਾਂਧੀ ਕੋਲ ਕੋਈ ਜਵਾਬ ਨਹੀਂ ਸੀ ਕਹਿਣ ਲਗਾ ਕੀ ਇਹ ਦਾ ਮਨ ਦੀ ਲੜਾਈ ਸੀ ਤਾਂ ਗੰਗਾਂ ਸਿੰਘ ਨੇ ਕਿਹਾ ਕੀ ਤਾਂ ਇਹ ਵੀ ਕਹਿ ਦਿਉ ਕਿ ਅਸਲ ਕ੍ਰਿਸ਼ਨ ਕੋਈ ਨਹੀਂ ਸੀ ਇਹ ਵੀ ਮਨ ਦਾ ਕ੍ਰਿਸ਼ਨ ਸੀ । ਗਾਂਧੀ ਨਿਰੁਤਰ ਹੋ ਗਿਆ ਭਰੀ ਸਭਾ ਵਿਚ ਉਸਨੇ ਮਾਫ਼ੀ ਮੰਗੀ ।
ਗੋਕਲ ਚੰਦ ਨਾਰੰਗ ਲਿਖਦੇ ਹਨ ,’ ਜਦੋਂ ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ਜੀ ਨੇ ਆਪਣਾ ਕੰਮ ਸ਼ੁਰੂ ਕੀਤਾ ਉਸ ਵਕਤ ਪੰਜਾਬ ਵਿਚ ਹਿੰਦੂ ਨਾਮ ਵਰਗੀ ਕੋਈ ਚੀਜ਼ ਨਹੀਂ ਸੀ ਨਾ ਹੀ ਕੋਈ ਉਘੀ ਸ਼ਕਤੀ ਸੀ ਜੋ ਜਾਲਮ ਸ਼ਾਸ਼ਕਾਂ ਨੂੰ ਵੰਗਾਰ ਸਕਦੀ ਸੀ । 1008 ਈ ਵਿਚ ਰਾਜਾ ਅਨੰਗਪਾਲ ਦੀ ਹਾਰ ਮਗਰੋਂ ਦੇਸ਼ ਨੇ ਕੋਈ ਵੀ ਅਜਿਹਾ ਆਗੂ ਨਹੀਂ ਪੈਦਾ ਕੀਤਾ ਜੋ ਮੁਗਲ ਹਕੂਮਤ ਨਾਲ ਟਕਰ ਲੈ ਸਕੇ, ਅਜਾਦ ਕਰਵਾ ਸਕੇ । ਬੇਸ਼ਕ ਰਾਣਾ ਸਾਂਗਾ, ਹੇਮੂੰ, ਨਾਰਨੋਲ ਦੇ ਸਤਨਾਮੀਆਂ ਜਾ ਮਥੁਰਾ ਦੇ ਗੋਕਲਾਂ ਨੇ ਇਨ੍ਹਾ ਵਾਸਤੇ ਗੰਭੀਰ ਪਰੇਸ਼ਾਨੀਆਂ ਜਰੂਰ ਖੜੀਆਂ ਕੀਤੀਆਂ ਪਰ ਉਹ ਵੀ ਦੇਸ਼ਵਾਸੀਆਂ ਵਿਚ ਕੌਮੀ ਜਜ੍ਬਾ ਪੈਦਾ ਕਰਨ ਵਿਚ ਸਫਲ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕੇ । ਸ਼ਿਵਾ ਜੀ ਨੇ ਬਹੁਤ ਸਾਰੀਆਂ ਲੜਾਈਆਂ ਰਾਜਸੀ ਨਿਸ਼ਾਨੇ ਨੂੰ ਮੁਖ ਰਖ ਕੇ ਲੜੀਆਂ ਸੀ । ਪਰ ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ਜੀ ਦਾ ਨਿਸ਼ਾਨਾ ਕੌਮ ਪ੍ਰਸਤੀ ਨੂੰ ਲੋਕਾਂ ਦਾ ਧਰਮ ਬਚਾਣਾ ਸੀ ਜਿਸ ਲਈ ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਅਨੇਕਾਂ ਕੁਬਾਨੀਆ ਦਿਤੀਆ ਕਾਜ਼ੀ ਨੂਰ ਮਹੰਮਦ ਜੋ ਇਕ ਮੁਤਸਬੀ ਤੇ ਬਦਜੁਬਾਨ ਲਿਖਾਰੀ ਸੀ ਸਿਖਾਂ ਦੀ ਤਰੀਫ ਕਰੇ ਬਿਨਾ ਨਹੀਂ ਰਹਿ ਸਕਿਆ । ਕਹਿੰਦਾ ਹੈ ਸਿਖਾਂ ਵਿਚ ਕੋਈ ਜਨਾਹੀ ਯਾ ਚੋਰ ਨਹੀ । ਔਰਤ ਭਾਵੈਂ ਰਾਣੀ ਹੋਵੇ ਜਾ ਗੋਲੀ , ਬੁਢੀ ਹੋਵੇ ਜਾਂ ਜਵਾਨ, ਸਿਖ ਉਸ ਵਲ ਬਦ–ਨਜਰ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਵੇਖਦਾ । ਜਦੋਂ ਉਸਨੇ ਸ਼ਾਹ ਦੁਰਾਨੀ ਤੇ ਸਿਖਾਂ ਦੀ ਲੜਾਈ ਆਪਣੀ ਅਖੀਂ ਵੇਖੀ ਤਾਂ ਸਿਖਾਂ ਦੇ ਉਚੇ ਆਚਰਣ ਦੀ ਤਾਰੀਫ਼ ਕਰੇ ਬਿਨਾਂ ਨਹੀਂ ਰਹਿ ਸਕਿਆ । ਮੁਸਲਮਾਨ ਸਿਖਾਂ ਨੂੰ ਸਗ (ਕੁਤੇ)ਕਹਿ ਕੇ ਬੁਲਾਂਦੇ ਸੀ । ਉਸਨੇ ਲਿਖਿਆ ਇਹਨਾਂ ਨੂੰ ਸਗ ਨਾ ਕਹੋ । ਇਹ ਮੈਦਾਨੇ ਜੰਗ ਵਿਚ ਸ਼ੇਰਾਂ ਵਾਂਗੂ ਲੜਦੇ ਹਨ ਤੇ ਅਮਨ ਦੇ ਮੈਦਾਨ ਵਿਚ ਹਾਤਮਤਾਈ ਨੂੰ ਵੀ ਮਾਤ ਕਰ ਦਿੰਦੇ ਹਨ । ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨੇ ਲੜਾਈ ਦੇ ਮੈਦਾਨ ਵਿਚ ਵੀ ਉਚੇ ਮਿਆਰ ਕਾਇਮ ਕੀਤੇ ਜਿਸਦੇ ਸਦਕੇ ਅਉਣ ਵਾਲੀ ਅਠਾਰਵੀ ਸਦੀ ਵਿਚ ਸਿੰਘਾ ਦੇ ਆਚਰਣ ਨੇ ਸਿਖਰਾਂ ਨੂੰ ਛੋਹਿਆ ।
ਨੂਰ ਮਹੰਮਦ ਲਿਖਦਾ ਹੇ “ਸਿਖ ਆਪ ਕਦੀ ਹਮਲਾਵਰ ਨਹੀ ਹੋਏ ਪਰ ਹੋਰਾਂ ਦੇ ਕੀਤੇ ਹਮਲੇ ਦਾ ਮੂੰਹ ਤੋੜ ਜਵਾਬ ਦਿੰਦੇ ਹਨ । ਓਹ ਪਹਿਲਾਂ ਵਾਰ ਕਦੇ ਨਹੀ ਕਰਦੇ ਚਾਹੇ ਪਹਿਲਾ ਹਲਾ ਦੁਸ਼ਮਨ ਨੇ ਹੀ ਬੋਲਿਆ ਹੋਵੇ । ਓਹ ਨਿਹਥੇ , ਕਾਇਰ ਤੇ ਭਗੋੜੇ ਤੇ ਵਾਰ ਨਹੀਂ ਕਰਦੇ । ਪਰਾਈ ਇਸਤਰੀ ਵਲ ਨਹੀ ਝਾਂਕਦੇ ,ਓਸਨੂੰ ਮਾਂ ਭੈਣ ਜਾਂ ਧੀ ਦਾ ਦਰਜਾ ਦਿੰਦੇ ਹਨ । ਓਹ ਝੂਠ ਨਹੀਂ ਬੋਲਦੇ ;ਚੋਰਾਂ ਯਾਰਾਂ ਦੀ ਸੰਗਤ ਨਹੀ ਕਰਦੇ ” । ਅੰਗਰੇਜ਼ੀ ਰਾਜ ਵਿਚ ਸਿਖ ਦੀ ਗਵਾਹੀ ਹੀ ਜਜ ਦਾ ਫੈਸਲਾ ਬਣ ਜਾਂਦਾ ਸੀ , ਕਿਓਕੇ ਓਹ ਜਾਣਦੇ ਸੀ ਕਿ ਸਿਖ ਝੂਠ ਨਹੀ ਬੋਲਦਾ । ਓਹ ਨਿਸਚਿੰਤ ਹੋਕੇ ਆਪਣੀ ਮਾਂ ,ਧੀ ਜਾਂ ਭੈਣ ਨੂੰ ਉਸ ਡਿਬੇ ਵਿਚ ਬਿਠਾ ਦਿੰਦੇ ਜਿਥੇ ਇਕ ਵੀ ਸਿਖ ਹੁੰਦਾ । ਇਹ ਆਦਰਸ਼ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨੇ ਆਪਣਾ ਸਰਬੰਸ ਵਾਰ ਕੇ ਸਿਖਾਂ ਨੂੰ ਦਿਤੇ ਹਨ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਅਜ ਸੰਭਾਲਣ ਦੀ ਲੋੜ ਹੈ ।
ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਨਾਦੋਨ ਦੇ ਮੈਦਾਨ–ਏ–ਜੰਗ ਵਿਚੋਂ ਸਿਖ ਹਾਰਨ ਵਾਲੇ ਨਵਾਬ ਦੇ ਮਾਲ ਅਸਬਾਬ ਦੇ ਨਾਲ ਉਸਦੀ ਲੜਕੀ ਨੂੰ ਵੀ ਚੁਕ ਕੇ ਲੈ ਆਏ । ਡੋਲਾ ਵੇਖਕੇ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨੇ ਪੁਛਿਆ ਇਸ ਡੋਲੇ ਵਿਚ ਕੀ ਹੈ । ਸਿਖਾਂ ਨੇ… ਉੱਤਰ ਦਿਤਾ ,”ਤੁਰਕ ਸਾਡੇ ਘਰ ਦੀਆਂ ਔਰਤਾ ਨੂੰ ਲੁਟ ਦਾ ਮਾਲ ਸਮਝ ਕੇ ਲੈ ਜਾਂਦੇ ਹਨ ਤਾਂ ਕੀ ਅਸੀਂ ਉਹਨਾਂ ਤੋਂ ਬਦਲਾ ਨਹੀਂ ਲਈ ਸਕਦੇ ?
ਸਭ ਸਿਖਨ ਪੁਛਨ ਗੁਨ ਖਾਣੀ
ਸਗਲ ਤੁਰਕ ਭੋਗੇ ਹਿੰਦਵਾਣੀ
ਸਿਖ ਬਦਲਾ ਲਈ ਭਲਾ ਜਣਾਵੈ
ਗੁਰ–ਸ਼ਾਸ਼ਤਰ ਕਿਓਂ ਵਰਜ ਹਟਾਵੈ ।।
ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨੇ ਬਹੁਤ ਗੁਸਾ ਕੀਤਾ ਤੇ ਕਹਿਣ ਲਗੇ ਅਸੀਂ ਸਿਖੀ ਨੂੰ ਉਚਾ ਲਿਜਾਣਾ ਹੈ, ਖਨਦ੍ਕੇ ਜਿਲਤ ਵਿਚ ਨਹੀ ਸੁਟਣਾ ” ਕੋਲ ਗਏ ਬਚੀ ਦੇ ਸਿਰ ਤੇ ਹਥ ਫੇਰਿਆ ਕਹਿਣ ਲਗੇ ” ਡਰ ਨਹੀ ,ਤੂੰ ਇਹ ਸਮਝ ਆਪਣੇ ਪਿਤਾ ਦੇ ਘਰ ਆਈ ਹੈਂ ” ਸਿਖਾਂ ਨੂੰ ਹੁਕਮ ਦਿਤਾ ਕੀ ਬਚੀ ਨੂੰ ਬਾ–ਇਜ਼ਤ ਇਸਦੇ ਪਿਤਾ ਦੇ ਘਰ ਛੋੜ ਕੇ ਆਉ ”।
ਉਂਜ ਤਾਂ ਸਿਖਾਂ ਦਾ ਸਾਰਾ ਇਤਿਹਾਸ ਸ਼ਾਹੀਦੀਆਂ ਨਾਲ ਭਰਿਆ ਹੈ ਪਰ 300 ਸਾਲ ਦੇ ਦੌਰਾਨ ਜਿਹੜੇ ਕਹਿਰ ਸਿਖਾਂ ਉਪਰ ਢਾਹੇ ਗਏ ਸਨ ਉਨਾਂ ਵਿਚ ਸਾਕਾ ਚਮਕੌਰ ,ਸਾਕਾ ਸਰਹੰਦ, ਛੋਟਾ ਤੇ ਵਡਾ ਘੱਲੂਘਾਰਾ ਤੋ ਬਾਅਦ ਵਿਚ 1947 ਤੇ 1984 ਦਾ ਕਤਲੇਆਮ । ਇਤਿਹਾਸ ਗਵਾਹ ਹੈ ਕੀ ਤਸੀਹੇ ਤੇ ਤਬਾਹੀ ਦੇ ਤੂਫਾਨਾ ਵਿਚ ਗੁਜਰਦਿਆਂ ਵੀ ਸਿਖਾਂ ਨੇ ਹਰ ਹਾਲ ਆਪਣੀ ਹਸਤੀ ਨੂੰ ਬਰਕਰਾਰ ਰਖਿਆ । ਇਹ ਕਮਾਲ ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ਜੀ ਦਾ ਹੀ ਹੈ, ਜਿਹਨਾਂ ਨੇ ਸਿਖੀ ਵਿਚ ਆਉਣ ਦੀ ਪਹਲੀ ਸ਼ਰਤ ਹੀ ਸੀਸ ਕੁਰਬਾਨ ਕਰਨ ਦੀ ਰਖੀ ਤੇ ਹਰ ਮੁਸ਼ਕਿਲ ਘੜੀ ਵਿਚ ਸਿਖ ਨੂੰ ਡੋਲਣ ਨਹੀ ਦਿਤਾ, ਜਿਸਦਾ ਅਸਰ ਸਦੀਆਂ ਤਕ ਰਿਹਾ ਤੇ ਅਜ ਵੀ ਹੈ।
ਓਹਨਾ ਨੇ ਆਪ ਵੀ ਕੌਮ ਦੇ ਆਤਮ ਸਨਮਾਨ , ਗਰੀਬਾਂ, ਮਜ਼ਲੂਮਾਂ, ਤੇ ਇਨਸਾਫ਼ ਲਈ ਜੂਝਦਿਆਂ ਅਨੇਕਾਂ ਕੁਰਬਾਨੀਆ ਦਿਤੀਆਂ ਪਰ ਜੋ ਆਦਰਸ਼ ਨੀਅਤ ਕੀਤੇ ਉਨਾ ਤੋਂ ਮੂੰਹ ਨਹੀ ਮੋੜਿਆ ,ਸਮਝੋਤਾ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ । ਤਾਜੋ ਤਖ਼ਤ ਹੋਵੇ ਜਾ ਮਾਛੀਵਾੜੇ ਦੇ ਜੰਗਲਾਂ ਵਿਚ , ਨੰਗੇ –ਪੈਰੀ, ਭੁਖੇ–ਭਾਣੇ ,ਖੁਲੇ ਆਸਮਾਨ ਹੇਠ ਹੋਣ ਜਾਂ ਭਿਆਨਕ ਜੰਗਲਾਂ ਵਿਚ , ਪੋਹ ਦੀਆਂ ਕਾਲੀਆਂ ਬੋਲੀਆਂ ਠੰਡੀਆਂ ਰਾਤਾਂ ਹੋਣ, ਕੋਈ ਵੀ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਝੁਕਾ ਨਹੀ ਸਕਿਆ ,ਡਰਾ ਨਹੀ ਸਕਿਆ ਚਾਹੇ ਓਹ ਰਾਜਾ .ਮਹਾਰਾਜਾ, ਹਾਕਮ ਜਾਂ ਹਿੰਦੁਸਤਾਨ ਦਾ ਬਾਦਸ਼ਾਹ ਵੀ ਕਿਓ ਨਾ ਹੋਵੇ ।
ਜਦੋਂ ਲੜਾਈਆਂ ਦੀ ਖਬਰ ਦਖਣ ਵਿਚ ਔਰੰਗਜ਼ੇਬ ਨੂੰ ਪਹੁੰਚੀ ਤਾਂ ਘਬਰਾ ਕੇ ਉਸਨੇ ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ਜੀ ਨੂੰ ਚਿਠੀ ਲਿਖੀ । ‘ਮੇਰਾ ਤੇ ਤੁਹਾਡਾ ਇਕ ਰਬ ਨੂੰ ਮਨਣ ਵਾਲਾ ਧਰਮ ਹੈ ਤੁਹਾਨੂੰ ਮੇਰਾ ਨਾਲ ਸੁਲਾ ਸਫਾਈ ਨਾਲ ਰਹਿਣਾ ਚਾਹਿਦਾ ਹੈ । ਮੈਨੂੰ ਇਹ ਬਾਦਸ਼ਾਹੀ ਰਬ ਨੇ ਦਿਤੀ ਹੈ ਤੁਹਾਨੂੰ ਮੇਰਾ ਹੁਕਮ ਮੰਨਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ, ਲੜਾਈ ਝਗੜੇ ਨਹੀ ਕਰਨੇ ਚਾਹੀਦੇ “। ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨੇ ਜਵਾਬ ਦਿਤਾ । ‘ਜਿਸ ਰਬ ਨੇ ਤੈਨੂੰ ਬਾਦਸ਼ਾਹੀ ਦਿਤੀ ਹੈ ਉਸੇ ਰਬ ਨੇ ਮੇਨੂੰ ਸੰਸਾਰ ਵਿਚ ਭੇਜਿਆ ਹੈ । ਤੇਨੂੰ ਉਸਨੇ ਇਨਸਾਫ਼ ਤੇ ਪਰਜਾ ਦੇ ਹਿਤ ਵਾਸਤੇ ਭੇਜਿਆ ਹੈ ਪਰ ਤੂੰ ਉਸਦਾ ਹੁਕਮ ਭੁਲ ਗਿਆਂ ਹੈਂ । ਜੋ ਆਪਣੇ ਰਬ ਨੂੰ ਭੁਲ ਜਾਏ ਉਸਦੇ ਹੁਕਮ ਨੂੰ ਭੁਲ ਜਾਏ ਉਸਦਾ ਸਾਡਾ ਕੀ ਮੇਲ। ਫਿਰ ਜਿਹਨਾਂ ਹਿੰਦੂਆ ਤੇ ਤੂੰ ਜੁਲੁਮ ਕਰ ਰਿਹਾਂ ਹੈ ਓਹ ਉਸੇ ਰਬ ਦੇ ਬੰਦੇ ਹਨ ਜਿਸਨੇ ਤੇਨੂੰ ਬਾਦਸ਼ਾਹੀ ਦਿਤੀ ਹੈ ਪਰ ਤੂੰ ਓਹਨਾ ਨੂੰ ਰਬ ਦੇ ਬੰਦੇ ਨਹੀ ਸਮ੍ਝਿਆ ,ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਧਰਮ ਤੇ ਧਰਮ ਅਸਥਲਾਂ ਦੀ ਨਿਰਾਦਰੀ ਕਰਦਾ ਰਿਹਾਂ ਹੈਂ । ਹਕੂਮਤ ਨੂੰ ਤੇ ਫਿਰ ਹਿੰਦੁਸਤਾਨ ਦੇ ਬਾਦਸ਼ਾਹ ਨੂੰ ਇਸ ਤਰਾਂ ਦਾ ਜਵਾਬ ਦੇਣਾ ਦਲੇਰੀ ਦੀ ਚਰਮ ਸੀਮਾ ਹੈ ।
ਜਦੋਂ ਬਹਾਦੁਰ ਸ਼ਾਹ,ਹਿੰਦੁਸਤਾਨ ਦੇ ਬਾਦਸ਼ਾਹ ਨੇ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨੂੰ ਨੰਦ ਲਾਲ ਦੇ ਹਥ ਸਨੇਹਾ ਭੇਜਿਆ ਤੇ ਮਿਲਣ ਲਈ ਕਿਹਾ ਤਾਂ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨੇ ਇਨਕਾਰ ਕਰ ਦਿਤਾ । ਬਹਾਦੁਰ ਸ਼ਾਹ ਹੰਕਾਰ ਕਰਦਿਆਂ ਕ੍ਰੋਧ ਵਿਚ ਬੋਲਿਆ ‘ ਓਹ ਕੋਣ ਬੰਦਾ ਹੈ ਜੋ ਮੁਗੁਲ ਸਮਰਾਜ ਨਾਲ ਟਕਰ ਲੈ ਸਕੇ । ਗਜਨੀ ਤੋਂ ਕੰਨਿਆ ਕੁਮਾਰੀ ਤਕ ਇਸਦੇ ਸਾਮਣੇ ਕੋਈ ਨਹੀ ਟਿਕਿਆ । ਇਹ ਪਹਾੜਾਂ ਨੂੰ ਚੀਰਨ ਤੇ ਦਰਿਆਵਾਂ ਨੂੰ ਪਾਰ ਕਰਨ ਵਾਲੀ ਕੌਮ ਹੈ । ਮੈਂ ਗੁਰੂ ਦਾ ਲਿਹਾਜ਼ ਕਰਦਾ ਹਾਂ ਰਬ ਦਾ ਫ਼ਕੀਰ ਸਮਝਕੇ ” । ਬਹਾਦਰ ਸ਼ਾਹ ਬਹੁਤ ਜਲਦੀ ਭੁਲ ਗਿਆ ਸੀ ਕਿ ਬਾਦਸ਼ਾਹੀ ਵੀ ਉਸਨੇ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਦੀ ਮਦਦ ਨਾਲ ਹਾਸਲ ਕੀਤੀ ਸੀ । ਪਰ ਫਿਰ ਉਸ ਕੋਲੋਂ ਰਿਹਾ ਨਾ ਗਿਆ ਤੇ ਮਲੋ ਮਲੀ ਮਿਲਣ ਵਾਸਤੇ ਆ ਗਿਆ । ਜਖਮ ਕੁਰੇਦਨ ਲਈ ਪੁਛਦਾ ਹੈ ,’ਕੈਸੀ ਗੁਜਰੀ ? ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਦਾ ਜਵਾਬ ਸੀ।
“ਮੈਂ ਬੁਲੰਦੀ ਸੇ ਗੁਜਰਾ , ਮੈਂ ਪਸਤੀ ਸੇ ਗੁਜਰਾ
ਜਹਾਂ ਸੇ ਭੀ ਗੁਜਰਾ ਬੜੀ ਮਸਤੀ ਸੇ ਗੁਜਰਾ“
( ਚਲਦਾ )
ਕਿਵੇਂ ਦੇਵਾਂ ਮੈਂ ਵਧਾਈਆਂ
ਨਵੇਂ ਸਾਲ ਦੀਆਂ….
ਹਾਲੇ ਬੁਝੀਆਂ ਨਹੀਂ ਚਿਤਾਵਾਂ
ਗੁਰੂ ਜੀ ਦੇ ਲਾਲ਼ਾਂ ਦੀਆਂ….
जैतसरी महला ५ ॥ आए अनिक जनम भ्रमि सरणी ॥ उधरु देह अंध कूप ते लावहु अपुनी चरणी ॥१॥ रहाउ ॥ गिआनु धिआनु किछु करमु न जाना नाहिन निरमल करणी ॥ साधसंगति कै अंचलि लावहु बिखम नदी जाइ तरणी ॥१॥ सुख स्मपति माइआ रस मीठे इह नही मन महि धरणी ॥ हरि दरसन त्रिपति नानक दास पावत हरि नाम रंग आभरणी ॥२॥८॥१२॥
हे प्रभु! हम जीव कई जन्मो से गुज़र कर अब तेरी सरन में आये हैं। हमारे सरीर को (माया के मोह के) घोर अँधेरे कुँए से बचा ले, आपने चरणों में जोड़े रख।१।रहाउ। हे प्रभु! मुझे आत्मिक जीवन की कोई समझ नहीं है, मेरी सुरत तेरे चरणों में जुडी नहीं रहती, मुझे कोई अच्छा काम करना नहीं आता, मेरा आचरण भी पवित्र नहीं है। हे प्रभु! हे प्रभु मुझे साध सांगत के चरणों मे लगा दे, ताकि यह मुश्किल (संसार) नदी पार की जा सके।१। दुनिया के सुख, धन, माया के मीठे स्वाद-परमात्मा के दास इन पदार्थों को (अपने) मन में नहीं बसाते। हे नानक! परमात्मा के दर्शन से ही वह संतोख साहिल करते हैं, परमात्मा के नाम का प्यार ही उनके जीवन का गहना है॥२॥८॥१२॥
ਅੰਗ : 702
ਜੈਤਸਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥ ਆਏ ਅਨਿਕ ਜਨਮ ਭ੍ਰਮਿ ਸਰਣੀ ॥ ਉਧਰੁ ਦੇਹ ਅੰਧ ਕੂਪ ਤੇ ਲਾਵਹੁ ਅਪੁਨੀ ਚਰਣੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ ਗਿਆਨੁ ਧਿਆਨੁ ਕਿਛੁ ਕਰਮੁ ਨ ਜਾਨਾ ਨਾਹਿਨ ਨਿਰਮਲ ਕਰਣੀ ॥ ਸਾਧਸੰਗਤਿ ਕੈ ਅੰਚਲਿ ਲਾਵਹੁ ਬਿਖਮ ਨਦੀ ਜਾਇ ਤਰਣੀ ॥੧॥ ਸੁਖ ਸੰਪਤਿ ਮਾਇਆ ਰਸ ਮੀਠੇ ਇਹ ਨਹੀ ਮਨ ਮਹਿ ਧਰਣੀ ॥ ਹਰਿ ਦਰਸਨ ਤ੍ਰਿਪਤਿ ਨਾਨਕ ਦਾਸ ਪਾਵਤ ਹਰਿ ਨਾਮ ਰੰਗ ਆਭਰਣੀ ॥੨॥੮॥੧੨॥
ਅਰਥ: ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਅਸੀਂ ਜੀਵ ਕਈ ਜਨਮਾਂ ਵਿਚ ਭੌਂ ਕੇ ਹੁਣ ਤੇਰੀ ਸਰਨ ਆਏ ਹਾਂ। ਸਾਡੇ ਸਰੀਰ ਨੂੰ (ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਦੇ) ਘੁੱਪ ਹਨੇਰੇ ਖੂਹ ਤੋਂ ਬਚਾ ਲੈ, ਆਪਣੇ ਚਰਨਾਂ ਵਿਚ ਜੋੜੀ ਰੱਖ।੧।ਰਹਾਉ। ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਮੈਨੂੰ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਦੀ ਸੂਝ ਨਹੀਂ, ਮੇਰੀ ਸੁਰਤਿ ਤੇਰੇ ਚਰਨਾਂ ਵਿਚ ਜੁੜੀ ਨਹੀਂ ਰਹਿੰਦੀ, ਮੈਨੂੰ ਕੋਈ ਚੰਗਾ ਕੰਮ ਕਰਨਾ ਨਹੀਂ ਆਉਂਦਾ, ਮੇਰਾ ਕਰਤੱਬ ਭੀ ਸੁੱਚਾ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਮੈਨੂੰ ਸਾਧ ਸੰਗਤਿ ਦੇ ਲੜ ਲਾ ਦੇ, ਤਾ ਕਿ ਇਹ ਔਖੀ (ਸੰਸਾਰ-) ਨਦੀ ਤਰੀ ਜਾ ਸਕੇ।੧। ਦੁਨੀਆ ਦੇ ਸੁਖ, ਧਨ, ਮਾਇਆ ਦੇ ਮਿੱਠੇ ਸੁਆਦ- ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਦਾਸ ਇਹਨਾਂ ਪਦਾਰਥਾਂ ਨੂੰ (ਆਪਣੇ) ਮਨ ਵਿਚ ਨਹੀਂ ਵਸਾਂਦੇ। ਹੇ ਨਾਨਕ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਦਰਸਨ ਨਾਲ ਹੀ ਉਹ ਸੰਤੋਖ ਹਾਸਲ ਕਰਦੇ ਹਨ, ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਨਾਮ ਦਾ ਪਿਆਰ ਹੀ ਉਹਨਾਂ (ਦੇ ਜੀਵਨ) ਦਾ ਗਹਣਾ ਹੈ ॥੨॥੮॥੧੨॥
ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ਜੀ ਹਿੰਦੁਸਤਾਨ ਦੀ ਇਕ ਮਹਾਨ ਸ਼ਕਸ਼ੀਅਤ ਸਨ । ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਇਨਸਾਨੀਅਤ ਨਾਲ ਪਿਆਰ ਦਾ ਜਜ੍ਬਾ ਉਚਾ ਤੇ ਸੁਚਾ ਜੀਵਨ ਕਿਸੇ ਪੈਗੰਬਰ ਨਾਲੋਂ ਘਟ ਨਹੀ ਸੀ। ਜਿਥੇ ਉਨਾਂ ਵਿਚ ਸੰਤਾ ਵਾਲੇ ਗੁਣ ਸਨ ਉਥੇ ਓਹ ਇਕ ਸਮਾਜ ਸੁਧਾਰਕ ਕੌਮੀ ਉਸਰਈਏ ਅਤੇ ਮਹਾਨ ਫੌਜੀ ਜਰਨੈਲ ਵੀ ਸਨ , ਨਿਡਰ ਤੇ ਲੋਭ ਲਾਲਚ ਤੋ ਕਿਤੇ ਉਪਰ । ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਸਿਮਰਨ ਵੀ ਕੀਤਾ ਤੇ ਜੰਗ ਵੀ ,ਜਰ ਜੋਰੁ ਜਾਂ ਜਮੀਨ ਲਈ ਨਹੀ ,ਨਾ ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਦੁਖ ਪਹੁੰਚਾਣ ਲਈ ,ਸਗੋ ਗਰੀਬਾਂ ਤੇ ਮਜ੍ਲੂਮਾ ਦੀ ਰਖਿਆ ਕਰਨ ਤੇ ਜੋਰ ਜਬਰ ਦਾ ਟਾਕਰਾ ਕਰਨ ਲਈ । ਓਹਨਾਂ ਨੇ ਨਾ ਕਿਸੇ ਦੀ ਦੋਲਤ ਲੁਟੀ , ਨਾ ਜਮੀਨ ਜਾਇਦਾਦ ਤੇ ਕਬਜਾ ਕੀਤਾ , ਨਾ ਕਿਸੀ ਦੀ ਬਹੂ ਬੇਟੀ ਨੂੰ ਬੇਆਬਰੂ ਕੀਤਾ ਨਾ ਕਰਵਾਇਆ,ਨਾ ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਕੈਦ ਕੀਤਾ , ਨਾ ਅੰਗ ਵਡੇ , ਨਾ ਸੂਲੀ ਤੇ ਚਾੜਿਆ , ਓਹ ਲੜੇ ਤੇ ਸਿਰਫ ਅਸੂਲਾਂ ਵਾਸਤੇ, ਹਕ ਤੇ ਸਚ ਦੀ ਰਾਖੀ ਕਰਨ ਵਾਸਤੇ ਓਹ ਵੀ ਤਦ ਜਦੋਂ ਬਾਕੀ ਸਾਰੇ ਸ਼ਾਂਤਮਈ ਢੰਗ ਫ਼ੇਲ ਹੋ ਚੁਕੇ ਸਨ ।
ਉਹਨਾਂ ਦੀਆ ਕੁਰਬਾਨੀਆਂ ਦਾ ਕੋਈ ਅੰਤ ਨਹੀ 9 ਸਾਲ ਦੀ ਉਮਰ ਵਿਚ ਪਿਤਾ ਨੂੰ ਤਿਲਕ ਤੇ ਜੰਜੂ ਦੀ ਰਖਿਆ ਵਾਸਤੇ ਕੁਰਬਾਨ ਕੀਤਾ , ਜਿਸ ਵਿਚ ਨਾ ਕਿਸੇ ਗੁਰੂ ਨੂੰ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਸੀ ਤੇ ਨਾ ਹੀ ਸਤਿਕਾਰ । ਸਿਰਫ 42 ਸਾਲ ਦੀ ਉਮਰ ਵਿਚ ਉਹਨਾ ਨੇ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਦੇ ਆਰੰਭ ਕੀਤੇ ਜਬਰ ਤੇ ਜੁਲਮ ਦੇ ਖਿਲਾਫ਼ ਕ੍ਰਾਂਤੀਕਾਰੀ ਸਿਧਾਂਤਾਂ ਨੂੰ ਸਿਖਰ ਤੇ ਪਹੁੰਚਾਇਆ , ਜਿਸ ਲਈ ਉਹਨਾ ਨੇ ਆਪਣੇ ਸਰਬੰਸ ਤੇ ਅਨੇਕਾਂ ਪਿਆਰੇ ਸਿਖਾ ਦੀ ਕੁਰਬਾਨੀ ਦਿਤੀ । ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਹੋਸਲਾ ਵੀ ਕਮਾਲ ਦਾ ਸੀ ਇਤਨਾ ਕੁਝ ਵਾਪਰ ਗਿਆ ਪਰ ਫਿਰ ਵੀ ਚੜਦੀ ਕਲਾ ਵਿਚ ਰਹਿਕੇ ਰਬ ਦਾ ਸ਼ੁਕਰ ਮਨਾਉਂਦੇ ਰਹੇ । ਚਮਕੌਰ ਦੀ ਜੰਗ ਵਿਚ ਆਪਣੇ ਪੁਤਰਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਹਥੀਂ ਤਿਆਰ ਕਰਕੇ ਸ਼ਹਾਦਤ ਲਈ ਤੋਰਨਾ ,ਆਪਣੀ ਅਖੀਂ ਸ਼ਹੀਦ ਹੁੰਦਿਆਂ ਵੇਖ ਕੇ ਇਕ ਹੰਜੂ ਕੇਰੇ ਬਿਨਾ ਉਸ ਅਕਾਲ ਪੁਰਖ ਦਾ ਧੰਨਵਾਦ ਕਰਨਾ , ਦੋ ਪੁਤਰ ਸਰਹੰਦ ਦੀਆਂ ਨੀਹਾਂ ਵਿਚ ਚਿਣਵਾ ਦਿਤੇ ਗਏ, ਸੀ ਨਹੀ ਕੀਤੀ , ਸਿਤਮ ਜਫਾ ਕਹਿਰ ਦਾ ਮੁਕ਼ਾਬਲਾ ਪਿਆਰ ਤੇ ਸਿਦਕ ਨਾਲ ਕਰਨਾ ਇਹ ਕੋਈ ਆਮ ਗਲ ਨਹੀ । ਪੁਤਰ ਵੀ ਜਿਹਨਾਂ ਨੇ ਇਤਨੀ ਮਾਸੂਮ ਉਮਰ ਵਿਚ ਸ਼ਹਾਦਤ ਦੇਕੇ ਆਪਣੇ ਜਾਹੋ–ਜਲਾਲ ਨਾਲ ਨਾ ਕੇਵਲ ਸਿਖ ਇਤਿਹਾਸ ਰੋਸ਼ਨ ਕੀਤਾ ਬਲਕਿ ਸ਼ਹੀਦੀ ਦੀ ਇਕ ਐਸੀ ਮਿਸਾਲ ਕਾਇਮ ਕੀਤੀ ਜੋ ਦੁਨਿਆ ਦੇ ਇਤਿਹਾਸ ਨਾਲੋਂ ਵਖਰੀ ਹੈ।
ਜਿਤਨੇ ਖਿਤਾਬ ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ਜੀ ਨੂੰ ਮਿਲੇ ਹਨ ਸ਼ਾਇਦ ਹੀ ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਮਹਾਪੁਰਸ਼ ਨੂੰ ਮਿਲੇ ਹੋਣ । ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਸ਼ਹੀਦ ਪਿਤਾ ਦਾ ਪੁਤਰ ਤੇ ਸ਼ਹੀਦ ਪੁਤਰਾਂ ਦਾ ਪਿਤਾ ਬਣਨ ਦਾ ਮਾਣ ਮਿਲਿਆ ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਸਾਰਾ ਜੀਵਨ ਦੇਸ਼ ਤੇ ਕੌਮ ਲਈ ਕੁਰਬਾਨੀਆਂ ਕਰਦੇ ਬੀਤਿਆ ਖਾਸ ਕਰਕੇ ਪੋਹ ਦੇ ਓਹ 7 ਦਿਨ ਜਿਨਾਂ ਨੂੰ ਸੁਣਕੇ ਹ਼ਰ ਇਕ ਦੇ ਰੋੰਗਟੇ ਖੜੇ ਹੋ ਜਾਂਦੇ , ਦਿਲ ਕੰਬ ਉਠਦਾ । ਚਾਰ ਪੁਤਰ ਤਿੰਨ ਪਿਆਰੇ ਤੇ 500 ਤੋ ਵਧ ਸੰਤ ਸਿਪਾਹੀ ਜੋ ਉਨਾਂ ਨੂੰ ਪੁਤਰਾਂ ਤੋਂ ਵਧ ਪਿਆਰੇ ਸੀ, ਸ਼ਹੀਦ ਹੋਏ ।
ਪਰ ਕੁਝ ਹਿੰਦੂ ਤੇ ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਵਿਚੋਂ ਅਜੇਹੇ ਵੀ ਨੇਕ ਦਿਲ ਇਨਸਾਨ ਸੀ ਜਿਹਨਾਂ ਨੇ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨੂੰ ਪੀਰ , ਮੁਰਸ਼ਦ ,ਭਗਵਾਨ,ਉਚ ਦੇ ਪੀਰ, ਸੰਤ, ਭਗਤ ਤੇ ਗੁਰੂ ਸਮਝ ਕੇ ਉਹਨਾਂ ਲਈ ਹਰ ਕੁਰਬਾਨੀ ਦੇਣ ਲਈ ਤਿਆਰ ਬਰ ਤਿਆਰ ਰਹੇ । ਇਸ ਧਰਮ ਯੁਧ ਵਿਚ ਅਨੇਕਾਂ ਹਿੰਦੂਆਂ, ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਤੇ ਸਿਖਾਂ ਨੇ ਸਾਂਝਾ ਖੂਨ ਡੋਲਿਆ ਜਿਵੇ ਕੀ ਪੀਰ ਬੁਧੂ ਸ਼ਾਹ, ਮਹੰਤ ਕਿਰਪਾਲ ,ਨਬੀ ਖਾਨ ਤੇ ਗਨੀ ਖਾਨ ,ਕਾਜੀ ਪੀਰ ਮੁਹੰਮਦ , ਭਾਈ ਮੋਤੀਲਾਲ ਮੇਹਰਾ ,ਨਵਾਬ ਮਲੇਰਕੋਟਲਾ ਤੇ ਹੋਰ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਹਿੰਦੂ ਤੇ ਮੁਸਲਮਾਨ । ਇਕ ਪਾਸੇ ਓਹ ਪਠਾਨ ਸਨ ਜੋ ਲਾਲਚ ਦੀ ਖਾਤਰ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨੂੰ ਜਿੰਦਾ ਪਕੜਨ ਲਈ ਪਿੱਛਾ ਕਰ ਰਹੇ ਸੀ ਤੇ ਦੂਜੇ ਪਾਸੇ ਗਨੀ ਖਾਨ ਤੇ ਨਬੀ ਖਾਨ ਵਰਗੇ ਪਠਾਨ ਜਿਹਨਾਂ ਨੇ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨੂੰ ਉਚ ਦਾ ਪੀਰ ਬਣਾਕੇ ਐਸੀ ਜਗਾ ਤੇ ਪਹੁੰਚਾਇਆ ਜਿਥੇ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਜਿੰਦਗੀ ਲਈ ਕੋਈ ਖਤਰਾ ਨਹੀ ਸੀ । ਕਾਜ਼ੀ ਪੀਰ ਮੁਹੰਮਦ ਜੋ ਇਕ ਵਕਤ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨੂੰ ਪੜਾਉਂਦਾ ਸੀ ਨੇ ਜਗਾ ਜਗਾ ਲਗੀ ਨਾਕਾਬੰਦੀ ਦੇ ਸ਼ਾਹੀ ਕਮਾਨਡਰਾਂ ਨੂੰ ਇਹ ਕਹਿਕੇ ਤਸਲੀ ਕਰਵਾਈ ,” ਇਹ ਉਚ੍ ਦੇ ਪੀਰਾਂ ਦੇ ਪੀਰ ਹਨ । ਅੱਲਾ ਦੇ ਪਿਆਰਿਆਂ ਨੂੰ ਰੋਕਣਾ ਗੁਨਾਹ ਹੈ ” । ਇਹ ਸੀ ਇਹਨਾਂ ਦਾ ਪਿਆਰ ਤੇ ਸਤਕਾਰ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਵਾਸਤੇ ।ਇਕ ਪਾਸੇ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਦੇ ਪੁਤਰਾਂ ਨੂੰ ਸਰਹੰਦ ਦੀਆਂ ਨੀਹਾਂ ਵਿਚ ਸ਼ਹੀਦ ਕਰਾਉਣ ਵਿਚ ਗੰਗੂ ਬ੍ਰਾਹਮਣ ਤੇ ਸੁਚਾ ਨੰਦ ਵਰਗੇ ਹਿੰਦੂ ਵੀ ਸਨ ਤੇ ਦੂਜੇ ਪਾਸੇ ਮੋਤੀ ਲਾਲ ਮੇਹਰਾ ਤੇ ਟੋਡਰ ਮਲ ਵਰਗੇ ਨੇਕ ਦਿਲ ਇਨਸਾਨ ਜਿਹਨਾਂ ਨੇ ਕੈਦਖਾਨੇ ਵਿਚ ਸਾਰਾ ਖਤਰਾ ਝੇਲ ਕੇ ਬਚਿਆਂ ਲਈ ਦੁਧ ਪਹੁੰਚਾਇਆ ਤੇ ਆਪਣਾ ਸਭ ਕੁਝ ਵੇਚ ਕੇ ਸਸਕਾਰ ਦੀ ਜਗਾ ਮੋਹਰਾਂ ਵਿਛਾ ਕੇ ਖਰੀਦੀ । ਦੀਨਾ ਪਿੰਡ ਦੇ ਚੋਧਰੀ ਲਖਮੀਰਾ ਤੇ ਸ਼ਮਸ਼ੀਰਾ ਨੂੰ ਜਦੋਂ ਸਰਹੰਦ ਦੇ ਨਵਾਬ ਨੇ ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ਨੂੰ ਉਸ ਦੇ ਹਵਾਲੇ ਕਰਨ ਦਾ ਹੁਕਮ ਦਿਤਾ ਤਾਂ ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਜਵਾਬ ਸੀ ” ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਸਾਡੇ ਪੀਰ ਹਨ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਸੇਵਾ ਕਰਨਾ ਸਾਡਾ ਫਰਜ਼ ਤੇ ਧਰਮ ਹੈ , ਇਹਨਾਂ ਨੂੰ ਅਸੀਂ ਤੁਹਾਡੇ ਹਵਾਲੇ ਹਰਗਿਜ਼ ਨਹੀ ਕਰਾਂਗੇ । ਇਥੇ ਹੀ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨੇ ਔਰੰਗਜ਼ੇਬ ਨੂੰ ਇਕ ਲੰਬੀ ਚਿਠੀ ਲਿਖੀ ਜਿਸ ਨੂੰ ਜ਼ਫ਼ਰਨਾਮਾ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ।
ਜਦ ਸਿੰਘਾ ਨੇ ਭਾਈ ਘਨਈਆ ਦੀ ਸ਼ਕਾਇਤ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨੂੰ ਕੀਤੀ ਕਿ ਅਸੀਂ ਜੰਗ ਵਿਚ ਜੂਝ ਕੇ ਦੁਸ਼ਮਨ ਨੂੰ ਮਾਰਦੇ ਹਾਂ ਜਾਂ ਜਖਮੀ ਕਰਦੇ ਹਾਂ ਤੇ ਇਹ ਦੁਸ਼ਮਣਾ ਨੂੰ ਪਾਣੀ ਪਿਲਾ ਕੇ ਜੀਵਾਲਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਭਾਈ ਘਨੱਈਆ ਕੋਲੋ ਪੁਛਿਆ ਗਿਆ ,ਉਸਦਾ ਉਤਰ ਸੀ ,” ਪਾਤਸ਼ਾਹ ਮੈਨੂੰ ਤਾਂ ਕੋਈ ਦੁਸ਼ਮਨ ਨਜ਼ਰ ਨਹੀ ਆਓਂਦਾ ਹਰ ਇਕ ਵਿਚ ਤੁਹਾਡਾ ਹੀ ਰੂਪ ਨਜਰ ਆਓਂਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨੇ ਉਸ ਨੂੰ ਮਰਹਮ ਦੀ ਡਬੀ ਦਿਤੀ ਤੇ ਪਾਣੀ ਪਿਲਾਣ ਦੇ ਨਾਲ ਨਾਲ ਮਰਮ–ਪਟੀ ਕਰਨ ਦੀ ਵੀ ਹਿਦਾਅਤ ਦਿਤੀ । ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਵੀ ਕਿਥੇ ਕੋਈ ਦੁਸ਼ਮਨ ਨਜਰ ਆਉਂਦਾ ਸੀ । ਉਹ ਤਾ ਸਭ ਦਾ ਭਲਾ ਮੰਗਦੇ ਰਹੇ । ਉਹਨਾ ਦੀ ਟਕਰ ਜ਼ੁਲਮ ਨਾਲ ਸੀ ਕਿਸੇ ਇਨਸਾਨ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ।
ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਦੀ ਕਮਾਨ ਦੀ ਡੋਰੀ ਖਿੱਚਣ ਦੀ ਤਾਕਤ 496 ਪੋਂਡ ਮਤਲਬ ੨੩੫ ਕਿਲੋ ਦੀ ਹੁੰਦੀ ਸੀ । ਹਰ ਤੀਰ ਨਾਲ ।/2 ਤੋਲਾ ਸੋਨਾ ਲਗਾ ਹੁੰਦਾ ਸੀ ,ਸਿਰਫ ਇਸ ਕਰਕੇ ਕੀ ਅਗਰ ਕੋਈ ਵੈਰੀ ਜਖਮੀ ਹੋ ਜਾਏ , ਉਸ ਕੋਲ ਪੈਸੇ ਨਾ ਹੋਣ ਤਾ ਸੋਨਾ ਵੇਚ ਕੇ ਇਲਾਜ ਕਰਵਾ ਸਕੇ .ਔਰ ਅਗਰ ਉਸਦੀ ਮੋਤ ਹੋ ਜਾਏ ਤਾ ਉਸ ਲਈ ਕਫਨ–ਦਫਨ ਦਾ ਇੰਤਜ਼ਾਮ ਹੋ ਸਕੇ । ਵੈਰੀਆਂ ਜਾਂ ਵੈਰੀਆਂ ਦੇ ਪਰਿਵਾਰ ਬਾਰੇ , ਓਹਨਾ ਦੀ ਜਖਮੀ ਜਾਂ ਮੌਤ ਦੇ ਹਾਲਤ ਬਾਰੇ ਸੋਚਣਾ ਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਕਫਨ ਦਫਨ ਦਾ ਇੰਤਜ਼ਾਮ ਕਰਨਾ , ਇਤਨੀ ਡੂੰਘੀ ਤੇ ਉਚੀ ਸੋਚ ਕਿਸੇ ਆਮ ਇਨਸਾਨ ਦੀ ਜਾਂ ਕਿਸੇ ਫੌਜੀ ਜਰਨੈਲ ਦੀ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦੀ , ਕਿਸੇ ਦਰਵੇਸ਼ , ਫਕੀਰ ਜਾਂ ਰਹਿਬਰ ਦੀ ਹੀ ਹੋ ਸਕਦੀ ਹੈ ।
ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨੇ 14 ਲੜਾਈਆਂ ਲੜੀਆਂ ,ਤੇ ਜਿਤੀਆਂ ਵੀ ਪਰ ਕਦੀ ਕਿਸੇ ਤੇ ਆਪ ਹਮਲਾ ਨਹੀ ਕੀਤਾ । ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਜੰਗੀ ਅਸੂਲ ਵੀ ਦੁਨੀਆ ਤੋ ਵਖ ਸਨ । ਕਿਸੇ ਤੇ ਪਹਿਲੇ ਹਲਾ ਨਹੀ ਬੋਲਣਾ ,ਪਹਿਲਾਂ ਵਾਰ ਨਹੀ ਕਰਨਾ , ਭਗੋੜੇ ਦਾ ਪਿਛਾ ਨਹੀਂ ਕਰਨਾ । ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਕਿਸੇ ਨਾਲ ਦੁਸ਼ਮਨੀ ਜਾਂ ਵੈਰ ਵਿਰੋਧ ਨਹੀ ਸੀ । ਰਾਜਿਆਂ ਮਹਾਰਾਜਿਆਂ ਨੇ ਹਮਲੇ ਵੀ ਕੀਤੇ ਤੇ ਲੋੜ ਵੇਲੇ ਮਾਫੀਆਂ ਵੀ ਦਿੱਤੀਆਂ । ਔਰੰਗਜ਼ੇਬ ਨੇ ਅੰਤਾਂ ਦੇ ਜੁਲਮ ਕੀਤੇ ਤੇ ਕਰਵਾਏ ਪਰ ਜਦ ਉਸਨੂੰ ਅਹਿਸਾਸ ਹੋਇਆ ਤੇ ਆਪਣੀ ਭੁਲ ਬਖਸ਼ਾਣ ਲਈ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨੂੰ ਮਿਨਤਾਂ ਤਰਲਿਆਂ ਨਾਲ ਸਦਿਆ ਤਾਂ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਸਭ ਕੁਝ ਭੁਲਾ ਕੇ ਜਾਣ ਲਈ ਤਿਆਰ ਹੋ ਗਏ ।
ਇਕ ਵਾਰੀ ਜਦ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਪੀਰ ਬੁਧੂ ਸ਼ਾਹ ਕੋਲ ਸਮਾਣੇ ਆਏ ਤਾ ਉਥੋਂ ਦੇ ਹਾਕਮ ਉਸਮਾਨ ਖਾਨ ਨੇ ਪੀਰ ਜੀ ਨੂੰ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਉਸਦੇ ਹਵਾਲੇ ਕਰਨ ਨੂੰ ਕਿਹਾ । ਪੀਰ ਬੁਧੂ ਸ਼ਾਹ ਨੇ ਇਨਕਾਰ ਕਰ ਦਿਤਾ ਪਰ ਇਤਨਾ ਮੰਨਵਾ ਲਿਆ ਕੀ ਜੇ ਮੈਂ ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਖੂਨ ਤੇਨੂੰ ਦੇ ਦਿਆਂ ਤਾਂ ਤੂੰ ਔਰੰਗਜ਼ੇਬ ਦੀ ਤੱਸਲੀ ਕਰਵਾ ਸਕਦਾ ਹੈਂ । ਪੀਰ ਬੁਧੂ ਸ਼ਾਹ ਦੇ ਤੀਸਰੇ ਪੁਤਰ ਨੇ ਸਲਾਹ ਦਿਤੀ ਕੀ ਉਸਦਾ ਸਿਰ ਕਲਮ ਕਰ ਕੇ ਉਸਦਾ ਖੂੰਨ ਉਸਮਾਨ ਖਾਨ ਨੂੰ ਭੇਜ ਦਿਤਾ ਜਾਏ । ਪੀਰ ਬੁਧੂ ਸ਼ਾਹ ਨੇ ਇਵੇਂ ਹੀ ਕੀਤਾ । ਪਰ ਔਰੰਗਜ਼ੇਬ ਦੇ ਸ਼ਾਹੀ ਹਕੀਮ ਨੇ ਖੂਨ ਦੇਖਿਆ ਤੇ ਕਿਹਾ ਇਹ ਕਿਸੇ ਰਬੀ ਨੂਰ ਦਾ ਖੂਨ ਨਹੀਂ ਹੈ । ਉਸਮਾਨ ਖਾਨ ਨੂੰ ਬਹੁਤ ਗੁਸਾ ਆਇਆ । ਉਸਨੇ ਪੀਰ ਬੁਧੂ ਸਾਹ ਦੀ ਹਵੇਲੀ ਨੂੰ ਅੱਗ ਲਗਾ ਦਿਤੀ ਤੇ ਪੀਰ ਬੁਧੂ ਸ਼ਾਹ ਨੂੰ ਜੰਗਲਾ ਵਿਚ ਲਿਜਾ ਕੇ ਜਮੀਨ ਵਿਚ ਜਿੰਦਾ ਦਬ ਦਿਤਾ । ਸਿਰ ਤੇ ਦਹੀਂ ਪਾਕੇ ਜੰਗਲੀ ਕੁਤਿਆਂ ਨੂੰ ਛਡ ਦਿਤਾ ਜੋ ਉਹਨਾ ਨੂੰ ਨੋਚ ਨੋਚ ਕੇ ਖਾ ਗਏ ।
ਬੀਬੀ ਨਾਸੀਰਾਂ ਪੀਰ ਬੁਧੂ ਸ਼ਾਹ ਦੀ ਬੀਵੀ ਦੀ ਵੀ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਲਈ ਸ਼ਰਧਾ ਅੱਤ ਦੀ ਸੀ । ਜਦੋ ਪੀਰ ਬੁਧੂ ਸ਼ਾਹ ਭੰਗਾਣੀ ਦੀ ਜੰਗ ਤੋ ਵਾਪਿਸ ਆਏ ਤਾ ਬੀਬੀ ਨਸੀਰਾਂ ਨੂੰ ਕਿਹਾ ਤੇਰੇ ਦੋ ਪੁਤਰ ਸ਼ਹੀਦ ਕਰਵਾਕੇ ਆਇਆਂ ਹਾਂ ਤਾ ਬੀਬੀ ਨਸੀਰਾਂ ਰੋਣ ਲਗ ਪਈ , ਪੀਰ ਜੀ ਨੇ ਹੌਸਲਾ ਦਿਤਾ, ਚੁਪ ਕਰਾਇਆ ਤਾਂ ਬੀਬੀ ਨਸੀਰਾਂ ਨੇ ਦਸਿਆ ਕਿ ” ਮੈਂ ਇਸ ਕਰਕੇ ਨਹੀ ਰੋ ਰਹੀ ਕੀ ਮੇਰੇ ਦੋ ਪੁਤਰ ਸ਼ਹੀਦ ਹੋਏ ਹਨ ਮੈਂ ਇਸ ਕਰਕੇ ਰੋ ਰਹੀ ਹਾਂ ਕੀ ਜੋ ਦੋ ਵਾਪਿਸ ਆਏ ਹਨ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਜਮਣ ਵਿਚ ਮੇਰੇ ਕੋਲੋਂ ਕੀ ਭੁਲ ਹੋ ਗਈ ਹੈ ਜੋ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨੇ ਕਬੂਲ ਨਹੀ ਕੀਤੇ , ਨਹੀ ਤਾਂ ਮੈ ਵੀ ਅਜ ਚਾਰ ਸ਼ਹੀਦ ਸਾਹਿਬਜਾਦਿਆਂ ਦੀ ਮਾਂ ਕਹਿਲਾਂਦੀ “। ਜਦੋਂ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਚਮਕੌਰ ਖੁਲੀ ਥਾਂ ਤੇ ਕੁਝ ਸਿੰਘਾ ਨਾਲ ਟਿਕੇ ਹੋਏ ਸੀ ਤਾਂ ਅਜਮੇਰ ਚੰਦ ਇਸ ਤਾਕ ਵਿਚ ਸੀ । ਉਸਨੇ ਮੌਕਾ ਦੇਖ ਕੇ ਲਾਹੌਰ ਦੇ ਦੋ ਓਮਰਾਓ ਜੋ 5000- 5000 ਦੀਆਂ ਫੌਜਾਂ ਲੇਕੇ ਦਿੱਲੀ ਵਲ ਨੂੰ ਜਾ ਰਹੇ ਸਨ , ਆਪਣੇ ਏਲਚੀ ਨੂੰ ਇਸ ਸਨੇਹੇ ਨਾਲ ,ਲੁਧਿਆਣੇ ਇਹਨਾਂ ਦੇ ਮਨਸਬਦਾਰਾਂ ਕੋਲ ਭੇਜ ਦਿਤਾ ” ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਇਸ ਵੇਲੇ ਖੁਲੇ ਮੈਦਾਨ ਵਿਚ ਬੈਠੇ ਹੋਏ ਹਨ , ਤੁਸੀ ਸੋਖੇ ਹੀ ਉਹਨਾਂ ਤੇ ਕਾਬੂ ਪਾ ਸਕਦੇ ਹੋ ‘। ਇਸ ਸੁਨੇਹੇ ਤੇ ਦੋਨੋ ਹੀ ਉਮਰਾਓ ਬੜੇ ਖੁਸ਼ ਹੋਏ ਤੇ ਮੌਕੇ ਨੂੰ ਗਨੀਮਤ ਸਮਝ ਕੇ ਚਮਕੌਰ ਵਲ ਨੂੰ ਤੁਰ ਪਏ । ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨੂੰ ਲੁਧਿਆਣੇ ਤੋ ਖਬਰ ਮਿਲ ਗਈ । ਰਣਜੀਤ ਨਗਰਾ ਵਜਾਕੇ ਲੜਾਈ ਵਾਸਤੇ ਤਿਆਰ ਹੋ ਗਏ । ਜਦੋਂ ਦੋਨੋ ਪਾਸਿਓ ਟਾਕਰਾ ਹੋਇਆ ਤਾਂ ਉਮਰਾਓ ਨੂੰ ਬੜਾ ਅਚਰਜ ਹੋਇਆ ਕੀ ਇਤਨੀ ਥੋੜੀ ਫੌਜ਼ ਨਾਲ ਕਿਸ ਹਿੰਮਤ ਤੇ ਦਲੇਰੀ ਨਾਲ ਸਿਖ ਲੜ ਰਹੇ ਹਨ । ਓਹ ਅਗੇ ਹੋਕੇ ਆਪ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨਾਲ ਜੰਗ ਕਰਨ ਲਈ ਵਧਿਆ । ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਦਾ ਤੇਜ ਪ੍ਰਤਾਪ ਉਸਤੋਂ ਝ੍ਲਿਆ ਨਹੀਂ ਗਿਆ । ਓਹ ਘੋੜੇ ਤੋਂ ਉਤਰਿਆ , ਚਰਨਾ ਤੇ ਮਥਾ ਟੇਕਿਆ ਤੇ ਆਪਣੇ ਗੁਨਾਹ ਦੀ ਮਾਫ਼ੀ ਮੰਗਣ ਲਗਾ ਤੁਸੀਂ ਤਾਂ ਪੀਰਾਂ ਦੇ ਪੀਰ ,ਅਲਾਹ ਦਾ ਨੂਰ ਲਗਦੇ ਹੋ । ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨੇ ਉਸ ਨੂੰ ਥਾਪੜਾ ਦਿਤਾ , ਜ਼ੁਲਮ ਨਾ ਕਰਨ ਤੇ ਅਲਾਹ ਨੂੰ ਚੇਤੇ ਰਖਣ ਦੀ ਹਿਦਾਇਤ ਦਿਤੀ ।
ਪੰਡਤ ਸ਼ਿਵ ਦਾਸ ਨੂੰ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਵਿੱਚੋਂ ਕ੍ਰਿਸ਼ਨ ਜੀ ਦਿਸਦੇ ਸਨ । ਭੀਖਣ ਸ਼ਾਹ, ਵਰਗੇ ਨਾਮੀ ਫਕੀਰ ਜਿਹਨਾ ਦੇ ਦਰਸ਼ਨ ਕਰਨ ਲਈ ਹਕੂਮਤ ਦੇ ਬਾਦਸ਼ਾਹ ਪੈਦਲ ਚਲ ਕੇ ਆਇਆ ਕਰਦੇ ਸੀ ਤੇ ਕਈ ਕਈ ਘੰਟੇ ਦਰਸ਼ਨਾ ਲਈ ਇੰਤਜ਼ਾਰ ਕਰਦੇ ਸੀ ,ਓਹ ਫਕੀਰ ਕਈ ਕਈ ਘੰਟੇ ਪੈਦਲ ਚਲ ਕੇ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਦੇ ਦਰਸ਼ਨ ਕਰਦੇ ,ਸਜਦਾ ਤੇ ਸੇਵਾ ਕਰਦੇ ਨਜਰ ਆਉਂਦੇ ਸਨ ।
ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਸਿਖਾਂ ਨੂੰ ਖਾਲੀ ਜ਼ੁਲਮ ਦਾ ਟਾਕਰਾ ਕਰਨਾ ਹੀ ਨਹੀਂ ਸਿਖਾਇਆ ਜਿਥੇ ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਸਿਖਾਂ ਲਈ ਸ਼ਸ਼ਤਰ ਪਹਿਨਣੇ ਜਰੂਰੀ ਅੰਗ ਬਣਾਇਆ ਉਥੇ ਨਿਤ ਨੇਮ ਦਾ ਪਾਠ ਕਰਨਾ ਵੀ ਅਵਸ਼ਕ ਕਰ ਦਿਤਾ । ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਆਪਣਾ ਕਿਰਦਾਰ ਵੀ ਇਸ ਗਲ ਦੀ ਗਵਾਹੀ ਦਿੰਦਾ ਹੈ ,ਸਰਸਾ ਨਦੀ ਦੇ ਕਿਨਾਰੇ ਵਰਦੀਆਂ ਗੋਲੀਆਂ ਹੇਠ ਉਹਨਾਂ ਆਪਣਾ ਨਿਤਨੇਮ ਨਹੀਂ ਛਡਿਆ। ਉਹਨਾ ਦੀ ਬਾਣੀ ਅਕਾਲ ਉਸਤਤਿ ਤੇ ਜਾਪੁ ਸਾਹਿਬ ਹੁਣ ਤਕ ਸਿਖੀ ਨੂੰ ਰੂਹਾਨੀਅਤ ਦੇ ਦਰਸ਼ਨ ਕਰਾਉਂਦੀ ਹੈ ਤੇ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਸਾਹਿਬ ਦੀ ਤੇਰਾ ਤੇਰਾ ਸਾਖੀ ਨਾਲ ਜੋੜਦੀ ਹੈ ।
ਅਬਦੁਲ ਮਜੀਦ ਲਿਖਦੇ ਹਨ ,’ ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ਕਦੇ ਇਸਲਾਮ ਜਾਂ ਮੁਸਲਮਾਨਾ ਦੇ ਵੈਰੀ ਨਹੀਂ ਸੀ ” । ਜੋ ਪੈਗੰਬਰ ਖੁਦਾ ਦੀ ਖਲਕਤ ਨੂੰ ਇਕ ਸਮਝਦਾ ਹੋਵੇ , ਨਿਮਾਜ਼ ਅਤੇ ਪੂਜਾ , ਮੰਦਰ ਅਤੇ ਮਸਜਿਦ ਵਿਚ ਕੋਈ ਫਰਕ ਨਾ ਕਰਦਾ ਹੋਵੇ , ਜਿਸਦੀ ਫੌਜ਼ ਵਿਚ ਹਜ਼ਾਰਾਂ ਮੁਸਲਮਾਨ, ਜਾਲਮ ਮੁਗਲ ਹਕੂਮਤ ਨਾਲ ਟਾਕਰਾ ਕਰਨ ਲਈ ਖੜੇ ਹੋਣ , ਜਿਸਦੇ ਪੈਰੋਕਾਰ ਲੜਾਈ ਦੇ ਮੈਦਾਨ ਵਿਚ ਆਪਣੇ ਅਤੇ ਦੁਸ਼ਮਨ ਨੂੰ ਪਾਣੀ ਪਿਲਾਣ ਤੇ ਮਰਹਮ ਪਟੀ ਦੀ ਸੇਵਾ ਕਰਣ , ਜਿਸਦੇ ਲੰਗਰ ਵਿਚ ਹਰ ਮੁਸਲਮਾਨ , ਹਿੰਦੂ , ਸਿਖ ਇਕ ਪੰਗਤ ਵਿਚ ਬੈਠ ਕੇ ਲੰਗਰ ਛਕਣ ਤੇ ਸੰਗਤ ਕਰਨ ਓਹ ਭਲਾ ਕਿਸੇ ਮਜਹਬ ਦਾ ਵੇਰੀ ਕਿਵੈ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹੈ । ਓਹ ਵਖਰੀ ਗਲ ਹੈ ਕੀ ਉਸ ਵਕਤ ਜੋ ਜੁਲਮ ਕਰ ਰਹੇ ਸੀ ਇਤਫਾਕਨ ਮੁਸਲਮਾਨ ਸਨ । ਜੰਗਾਂ ਦੀ ਸ਼ੁਰੂਵਾਤ ਤਾਂ ਪਹਾੜੀ ਰਾਜੇ , ਜੋ ਕੀ ਹਿੰਦੂ ਸਨ , ਉਹਨਾਂ ਤੋ ਹੋਈ , ਜਿਸ ਵਿਚ ਪੀਰ ਬੁਧੂ ਸ਼ਾਹ , ਜੋ ਕੀ ਇਕ ਨਾਮੀ ਮੁਸਲਮਾਨ ਫਕੀਰ ਸਨ ਆਪਣੇ 700 ਮੁਰੀਦ , ਚਾਰ ਪੁਤਰ, ਭਰਾ ਤੇ ਭਤੀਜਿਆਂ ਸਮੇਤ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨਾਲ ਆ ਖੜੇ ਹੋਏ । ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬਾਨਾ ਨੇ ਲੋੜ ਪਈ ਤਾਂ ਮੁਸਲਮਾਨਾ ਲਈ ਮਸੀਤਾ ਵੀ ਬਣਵਾਈਆਂ । ਬੰਦਾ ਬਹਾਦਰ , ਮਿਸਲਾਂ ਤੇ ਮਹਾਰਾਜਾ ਰਣਜੀਤ ਸਿੰਘ ਵਕਤ ਵੀ ਮਸੀਤਾਂ ਬਣੀਆ ਪਰ ਅਜ ਤਕ ਕਿਸੇ ਸਿਖ ਨੇ ਢਾਹੀਆਂ ਨਹੀਂ ।
( ਚਲਦਾ )
जैतसरी महला ५ घरु २ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोकु ॥ ऊचा अगम अपार प्रभु कथनु न जाइ अकथु ॥ नानक प्रभ सरणागती राखन कउ समरथु ॥१॥ छंतु ॥ जिउ जानहु तिउ राखु हरि प्रभ तेरिआ ॥ केते गनउ असंख अवगण मेरिआ ॥ असंख अवगण खते फेरे नितप्रति सद भूलीऐ ॥ मोह मगन बिकराल माइआ तउ प्रसादी घूलीऐ ॥ लूक करत बिकार बिखड़े प्रभ नेर हू ते नेरिआ ॥ बिनवंति नानक दइआ धारहु काढि भवजल फेरिआ ॥१॥
राग जैतसरी, घर २ में गुरु अर्जनदेव जी की बानी ‘छंद’ ।अकाल पुरख एक है और सतगुरु की कृपा द्वारा प्राप्त होता है। सलोकु। हे नानक! (कह) हे प्रभु! में तेरी सरन आया हूँ, तुम (सरन आए की) रक्षा करने की ताकत रखते हो। हे सब से ऊचे! हे अपहुच! हे बयंत! तू सब का मालिक है, तेरा सरूप बयां नहीं किया जा सकता, बयां से परे है।१। छंत। हे हरी! हे प्रभु! मैं तेरा हूँ, जैसे जानो वेसे (माया के मोह से) मेरी रक्षा करो। मैं (अपने) कितने अवगुण गिनू? मेरे अंदर अनगिनत अवगुण हैं। हे प्रभु! मेरे अनगिनत ही अवगुण हैं, पापों के घेरे में फसा रहता हूँ, रोज ही उकाई खा जाते हैं। भयानक माया के मोह में मस्त रहते हैं, तेरी कृपा से ही बच पाते हैं। हम जीव दुखदाई विकार (अपने तरफ से) परदे में करते हैं, परन्तु, हे प्रभु! तुम हमारे पास से भी पास बसते हो। नानक बनती करता है हे प्रभु! हमारे ऊपर कृपार कर, हम जीवों को संसार-सागर के (माया के) घेर से निकल ले॥१॥
ਅੰਗ : 704
ਜੈਤਸਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ਘਰੁ ੨ ਛੰਤ ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ਸਲੋਕੁ ॥ ਊਚਾ ਅਗਮ ਅਪਾਰ ਪ੍ਰਭੁ ਕਥਨੁ ਨ ਜਾਇ ਅਕਥੁ ॥ ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਭ ਸਰਣਾਗਤੀ ਰਾਖਨ ਕਉ ਸਮਰਥੁ ॥੧॥ ਛੰਤੁ ॥ ਜਿਉ ਜਾਨਹੁ ਤਿਉ ਰਾਖੁ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭ ਤੇਰਿਆ ॥ ਕੇਤੇ ਗਨਉ ਅਸੰਖ ਅਵਗਣ ਮੇਰਿਆ ॥ ਅਸੰਖ ਅਵਗਣ ਖਤੇ ਫੇਰੇ ਨਿਤਪ੍ਰਤਿ ਸਦ ਭੂਲੀਐ ॥ ਮੋਹ ਮਗਨ ਬਿਕਰਾਲ ਮਾਇਆ ਤਉ ਪ੍ਰਸਾਦੀ ਘੂਲੀਐ ॥ ਲੂਕ ਕਰਤ ਬਿਕਾਰ ਬਿਖੜੇ ਪ੍ਰਭ ਨੇਰ ਹੂ ਤੇ ਨੇਰਿਆ ॥ ਬਿਨਵੰਤਿ ਨਾਨਕ ਦਇਆ ਧਾਰਹੁ ਕਾਢਿ ਭਵਜਲ ਫੇਰਿਆ ॥੧॥
ਅਰਥ: ਰਾਗ ਜੈਤਸਰੀ, ਘਰ ੨ ਵਿੱਚ ਗੁਰੂ ਅਰਜਨਦੇਵ ਜੀ ਦੀ ਬਾਣੀ ‘ਛੰਤ’ (ਛੰਦ)। ਅਕਾਲ ਪੁਰਖ ਇੱਕ ਹੈ ਅਤੇ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦੀ ਕਿਰਪਾ ਨਾਲ ਮਿਲਦਾ ਹੈ। ਸਲੋਕੁ। ਹੇ ਨਾਨਕ! (ਆਖ-) ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਮੈਂ ਤੇਰੀ ਸਰਨ ਆਇਆ ਹਾਂ, ਤੂੰ (ਸਰਨ ਆਏ ਦੀ) ਰੱਖਿਆ ਕਰਨ ਦੀ ਤਾਕਤ ਰੱਖਦਾ ਹੈਂ। ਹੇ ਸਭ ਤੋਂ ਉੱਚੇ! ਹੇ ਅਪਹੁੰਚ! ਹੇ ਬੇਅੰਤ! ਤੂੰ ਸਭ ਦਾ ਮਾਲਕ ਹੈਂ, ਤੇਰਾ ਸਰੂਪ ਬਿਆਨ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ, ਬਿਆਨ ਤੋਂ ਪਰੇ ਹੈ।੧। ਛੰਤੁ। ਹੇ ਹਰੀ! ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਮੈਂ ਤੇਰਾ ਹਾਂ, ਜਿਵੇਂ ਜਾਣੋ ਤਿਵੇਂ (ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਤੋਂ) ਮੇਰੀ ਰੱਖਿਆ ਕਰ। ਮੈਂ (ਆਪਣੇ) ਕਿਤਨੇ ਕੁ ਔਗੁਣ ਗਿਣਾਂ? ਮੇਰੇ ਅੰਦਰ ਅਣਗਿਣਤ ਔਗੁਣ ਹਨ। ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਮੇਰੇ ਅਣਿਗਣਤ ਹੀ ਔਗੁਣ ਹਨ, ਪਾਪਾਂ ਦੇ ਗੇੜਾਂ ਵਿਚ ਫਸਿਆ ਰਹਿੰਦਾ ਹਾਂ, ਨਿੱਤ ਹੀ ਸਦਾ ਹੀ ਉਕਾਈ ਖਾ ਜਾਈਦੀ ਹੈ। ਭਿਆਨਕ ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਵਿਚ ਮਸਤ ਰਹੀਦਾ ਹੈ, ਤੇਰੀ ਕਿਰਪਾ ਨਾਲ ਹੀ ਬਚ ਸਕੀਦਾ ਹੈ। ਅਸੀਂ ਜੀਵ ਦੁਖਦਾਈ ਵਿਕਾਰ (ਆਪਣੇ ਵਲੋਂ) ਪਰਦੇ ਵਿਚ ਕਰਦੇ ਹਾਂ, ਪਰ, ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਤੂੰ ਸਾਡੇ ਨੇੜੇ ਤੋਂ ਨੇੜੇ (ਸਾਡੇ ਨਾਲ ਹੀ) ਵੱਸਦਾ ਹੈ। ਨਾਨਕ ਬੇਨਤੀ ਕਰਦਾ ਹੈ ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਸਾਡੇ ਉਤੇ ਮੇਹਰ ਕਰ, ਸਾਨੂੰ ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ ਸੰਸਾਰ-ਸਮੁੰਦਰ ਦੇ (ਵਿਕਾਰਾਂ ਦੇ) ਗੇੜ ਵਿਚੋਂ ਕੱਢ ਲੈ ॥੧॥
ਸਰਬੱਤ ਸੰਗਤ ਨੂੰ ਨਵੇਂ ਸਾਲ ਦੀ ਲੱਖ ਲੱਖ ਵਧਾਈ ਹੋਵੇ ਜੀ
ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਜੀ ਤੰਦਰੁਸਤੀ, ਖੁਸ਼ਹਾਲ ਜੀਵਨ ਅਤੇ ਨਾਮ ਬਾਣੀ ਦੀ ਦਾਤ ਬਖ਼ਸਣ ਜੀ 🙏🏻