ਅੰਗ : 720
ਬੈਰਾੜੀ ਮਹਲਾ ੪ ॥ ਜਪਿ ਮਨ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਨਿਤ ਧਿਆਇ ॥ ਜੋ ਇਛਹਿ ਸੋਈ ਫਲੁ ਪਾਵਹਿ ਫਿਰਿ ਦੂਖੁ ਨ ਲਾਗੈ ਆਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ ਸੋ ਜਪੁ ਸੋ ਤਪੁ ਸਾ ਬ੍ਰਤ ਪੂਜਾ ਜਿਤੁ ਹਰਿ ਸਿਉ ਪ੍ਰੀਤਿ ਲਗਾਇ ॥ ਬਿਨੁ ਹਰਿ ਪ੍ਰੀਤਿ ਹੋਰ ਪ੍ਰੀਤਿ ਸਭ ਝੂਠੀ ਇਕ ਖਿਨ ਮਹਿ ਬਿਸਰਿ ਸਭ ਜਾਇ ॥੧॥ ਤੂ ਬੇਅੰਤੁ ਸਰਬ ਕਲ ਪੂਰਾ ਕਿਛੁ ਕੀਮਤਿ ਕਹੀ ਨ ਜਾਇ ॥ ਨਾਨਕ ਸਰਣਿ ਤੁਮ੍ਹ੍ਹਾਰੀ ਹਰਿ ਜੀਉ ਭਾਵੈ ਤਿਵੈ ਛਡਾਇ ॥੨॥੬॥

ਅਰਥ : ਹੇ (ਮੇਰੇ) ਮਨ! ਸਦਾ ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਨਾਮ ਜਪਿਆ ਕਰ, ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਧਿਆਨ ਧਰਿਆ ਕਰ, (ਉਸ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਦਰ ਤੋਂ) ਜੋ ਕੁਝ ਮੰਗੇਂਗਾ, ਉਹੀ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰ ਲਏਂਗਾ। ਕੋਈ ਦੁੱਖ ਭੀ ਆ ਕੇ ਤੈਨੂੰ ਪੋਹ ਨਹੀਂ ਸਕੇਗਾ।੧।ਰਹਾਉ। ਹੇ ਮਨ! ਜਿਸ ਸਿਮਰਨ ਦੀ ਬਰਕਤਿ ਨਾਲ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨਾਲ ਪ੍ਰੀਤਿ ਬਣੀ ਰਹਿੰਦੀ ਹੈ, ਉਹ ਸਿਮਰਨ ਹੀ ਜਪ ਹੈ, ਉਹ ਸਿਮਰਨ ਹੀ ਤਪ ਹੈ, ਉਹ ਸਿਮਰਨ ਹੀ ਵਰਤ ਹੈ, ਉਹ ਸਿਮਰਨ ਹੀ ਪੂਜਾ ਹੈ। ਪ੍ਰਭੂ-ਚਰਨਾਂ ਦੇ ਪਿਆਰ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਹੋਰ (ਜਪ ਤਪ ਆਦਿਕ ਦਾ) ਪਿਆਰ ਝੂਠਾ ਹੈ, ਇਕ ਛਿਨ ਵਿਚ ਹੀ ਉਹ ਪਿਆਰ ਭੁੱਲ ਜਾਂਦਾ ਹੈ।੧। ਹੇ ਨਾਨਕ! (ਆਖ-) ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ ਜੀ! ਤੂੰ ਬੇਅੰਤ ਹੈਂ, ਤੂੰ ਸਾਰੀਆਂ ਤਾਕਤਾਂ ਨਾਲ ਭਰਪੂਰ ਹੈਂ, ਤੇਰਾ ਮੁੱਲ ਨਹੀਂ ਪਾਇਆ ਜਾ ਸਕਦਾ। ਮੈਂ (ਨਾਨਕ) ਤੇਰੀ ਸਰਨ ਆਇਆ ਹਾਂ, ਜਿਵੇਂ ਤੈਨੂੰ ਚੰਗਾ ਲੱਗੇ, ਮੈਨੂੰ ਆਪਣੇ ਚਰਨਾਂ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਹੋਰ ਹੋਰ ਪ੍ਰੀਤਿ ਤੋਂ ਬਚਾਈ ਰੱਖ।੨।੬।



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सोरठि महला १ घरु १ असटपदीआ चउतुकी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ दुबिधा न पड़उ हरि बिनु होरु न पूजउ मड़ै मसाणि न जाई ॥ त्रिसना राचि न पर घरि जावा त्रिसना नामि बुझाई ॥ घर भीतरि घरु गुरू दिखाइआ सहजि रते मन भाई ॥ तू आपे दाना आपे बीना तू देवहि मति साई ॥१॥ मनु बैरागि रतउ बैरागी सबदि मनु बेधिआ मेरी माई ॥ अंतरि जोति निरंतरि बाणी साचे साहिब सिउ लिव लाई ॥ रहाउ ॥ असंख बैरागी कहहि बैराग सो बैरागी जि खसमै भावै ॥ हिरदै सबदि सदा भै रचिआ गुर की कार कमावै ॥ एको चेतै मनूआ न डोलै धावतु वरजि रहावै ॥ सहजे माता सदा रंगि राता साचे के गुण गावै ॥२॥ मनूआ पउणु बिंदु सुखवासी नामि वसै सुख भाई ॥ जिहबा नेत्र सोत्र सचि राते जलि बूझी तुझहि बुझाई ॥ आस निरास रहै बैरागी निज घरि ताड़ी लाई ॥ भिखिआ नामि रजे संतोखी अम्रितु सहजि पीआई ॥३॥ दुबिधा विचि बैरागु न होवी जब लगु दूजी राई ॥ सभु जगु तेरा तू एको दाता अवरु न दूजा भाई ॥ मनमुखि जंत दुखि सदा निवासी गुरमुखि दे वडिआई ॥ अपर अपार अगम अगोचर कहणै कीम न पाई ॥४॥ सुंन समाधि महा परमारथु तीनि भवण पति नामं ॥ मसतकि लेखु जीआ जगि जोनी सिरि सिरि लेखु सहामं ॥ करम सुकरम कराए आपे आपे भगति द्रिड़ामं ॥ मनि मुखि जूठि लहै भै मानं आपे गिआनु अगामं ॥५॥ जिन चाखिआ सेई सादु जाणनि जिउ गुंगे मिठिआई ॥ अकथै का किआ कथीऐ भाई चालउ सदा रजाई ॥ गुरु दाता मेले ता मति होवै निगुरे मति न काई ॥ जिउ चलाए तिउ चालह भाई होर किआ को करे चतुराई ॥६॥ इकि भरमि भुलाए इकि भगती राते तेरा खेलु अपारा ॥ जितु तुधु लाए तेहा फलु पाइआ तू हुकमि चलावणहारा ॥ सेवा करी जे किछु होवै अपणा जीउ पिंडु तुमारा ॥ सतिगुरि मिलिऐ किरपा कीनी अम्रित नामु अधारा ॥७॥ गगनंतरि वासिआ गुण परगासिआ गुण महि गिआन धिआनं ॥ नामु मनि भावै कहै कहावै ततो ततु वखानं ॥ सबदु गुर पीरा गहिर ग्मभीरा बिनु सबदै जगु बउरानं ॥ पूरा बैरागी सहजि सुभागी सचु नानक मनु मानं ॥८॥१॥

अर्थ :- मैं परमात्मा के बिना किसी ओर आसरे की खोज में नहीं पड़ता, मैं भगवान के बिना किसी ओर को नहीं पूजता, मैं कहीं समाध और शमशान में भी नहीं जाता । माया की त्रिशना में फँस के मैं (परमात्मा के दर के बिना) किसी ओर घर में नहीं जाता, मेरी मायिक त्रिशना परमात्मा के नाम ने मिटा दी है । गुरु ने मुझे मेरे हृदय में ही परमात्मा का निवास-स्थान दिखा दिया है, और अडोल अवस्था में रंगे हुए मेरे मन को वह सहिज-अवस्था अच्छी लग रही है। हे मेरे साईं ! (यह सब तेरी ही कृपा है) तूं आप ही (मेरे दिल की) जानने-वाला हैं; आप ही पहचानने वाला हैं, तूं आप ही मुझे (अच्छी) मति देता हैं (जिस करके तेरा दर छोड़ के ओर तरफ नहीं भटकता) ।1। हे मेरी माँ ! मेरा मन गुरु के शब्द में विझ गया है (पिरोया गया है । शब्द की बरकत के साथ मेरे अंदर परमात्मा से विछोड़े का अहिसास पैदा हो गया है) । वही मनुख (असल) त्यागी है जिस का मन परमात्मा के बिरहों-रंग में रंगा गया है । उस (बैरागी) के अंदर भगवान की जोति जग पड़ती है, वह एक-रस सिफ़त-सालाह की बाणी में (मस्त रहता है), सदा कायम रहने के लिए स्वामी-भगवान (के चरणों में) उस की सुरति जुड़ी रहती है ।1 ।रहाउ। अनेकों ही वैरागी वैराग की बाते करते हैं, पर असल वैराग वह है जो (परमात्मा के बिरहों-रंग में इतना रंगा हुआ है कि वह) खसम-भगवान को प्यारा लगता है, वह गुरु के शब्द के द्वारा अपने हृदय में (परमात्मा की याद को बसाता है और) सदा परमात्मा के डर-अदब में मस्त (रह के) गुरु की बताई हुई कार करता है । वह बैरागी सिर्फ परमात्मा को याद करता है (जिस करके उस का) मन (माया वाले तरफ) नहीं डोलता, वह बैरागी (माया की तरफ) दौड़ते मन को रोक के (प्रभू-चरणो में) जोड़ी रखता है । अडोल अवस्था में मस्त वह बैरागी सदा (भगवान के नाम-) रंग में रंगा रहता है, और सदा-थिर भगवान की सिफ़त-सालाह करता है ।2। हे भाई! (जिस मनुष्य का) चंचल मन रक्ती भर भी आत्मिक आनंद में निवास देने वाले नाम में बसता है (वह मनुष्य असल बैरागी है, और वह बैरागी) आत्मिक आनंद लेता है। हे प्रभु! तूने स्वयं (उस वैरागी को जीवन के सही रास्ते की) समझ दी है, (जिसकी इनायत से उसकी तृष्णा-) अग्नि बुझ गई है, और उसकी जीभ उसकी आँखें (आदि) इंद्रिय सदा-स्थिर (हरि-नाम) में रंगे रहते हैं। वह बैरागी दुनिया की आशाओं से निर्मोह हो के जीवन व्यतीत करता है, वह (दुनियावी घर-धाट के अपनत्व को त्याग के) उस घर में तवज्जो जोड़े रखता है जो सच-मुच उसका अपना ही रहेगा। ऐसे बैरागी (गुरु-दर से मिली) नाम-भिक्षा से अघाए रहते हैं, तृप्त रहते हैं, संतुष्ट रहते हैं (क्योंकि उनको गुरु ने) अडोल आत्मिक अवस्था में टिका के आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पिला दिया है।3। जब तक (मन में) रक्ती भर भी कोई और झाक है किसी और आसरे की तलाश है तब तक विरह अवस्था पैदा नहीं हो सकती। (पर हे प्रभु! ये विरह की) दाति देने वाला एक तू खुद ही है, तेरे बिना कोई और (ये दाति) देने वाला नहीं है, और ये सारा जगत तेरा अपना ही (रचा हुआ) है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य सदा दुख में टिके रहते हैं, जो लोग गुरु की शरण पड़ते हैं उनको प्रभु (नाम की दाति दे के) आदर-सम्मान बख्शता है। उस बेअंत अगम्य (पहुँच से परे) और अगोचर प्रभु की कीमत (जीवों के) बयान करने से नहीं बताई जा सकती (उसके बराबर का और कोई कहा नहीं जा सकता)।4। परमात्मा एक ऐसी आत्मिक अवस्था का मालिक है कि उस पर माया के फुरने असर नहीं डाल सकते, वह तीनों ही भवनों का मालिक है, उसका नाम जीवों के लिए महान ऊँचा श्रेष्ठ धन है। जगत में जितने भी जीव जन्म लेते हैं उनके माथे पर (उनके किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार परमात्मा की रज़ा में ही) लेख (लिखा जाता है, हरेक जीव को) अपने-अपने सिर पर लिखा लेख सहना पड़ता है। परमात्मा स्वयं ही (साधारण) काम और अच्छे काम (जीवों से) करवाता है, खुद ही (जीवों के हृदय में अपनी) भक्ति दृढ़ करता है। अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु खुद ही (जीवों को अपनी) गहरी सांझ बख्शता है। (सच्चा वैरागी) परमात्मा के डर-अदब में रच जाता है, उसके मन में और मुँह में (पहले जो भी विकारों की निंदा आदि की) मैल (होती है वह) दूर हो जाती है।5। जिस मनुष्यों ने (परमात्मा के नाम का रस) चखा है, (उसका) स्वाद वही जानते हैं (बता नहीं सकते), जैसे गूंगे मनुष्य की खाई हुई मिठाई (का स्वाद गूंगा खुद ही जानता हे, किसी को बता नहीं सकता)। हे भाई! नाम-रस है ही अकथ, बयान किया नहीं जा सकता। (मैं तो सदा यही तमन्ना रखता हूँ कि) मैं उस मालिक प्रभु की रजा में चलूँ। (पर रजा में चलने की) सूझ भी तब ही आती है जब गुरु उस दातार प्रभु से मिला दे। जो आदमी गुरु की शरण नहीं पड़ा, उसे ये समझ बिल्कुल भी नहीं आती। हे भाई! कोई आदमी अपनी समझदारी पर गुमान नहीं कर सकता, जैसे-जैसे परमात्मा हम जीवों को (जीवन-राह पर) चलाता है वैसे वैसे ही हम चलते हैं।6। हे अपार प्रभु! अनेक जीव भटकना में (डाल के तूने) कुमार्ग पर डाले हुए हैं, अनेक जीव तेरी भक्ति (के रंग) में रंगे हुए हैं: ये (सब) खेल तेरा (रचा हुआ) है। जिस तरफ तूने जीवों को लगाया हुआ है वैसा ही फल जीव भोग रहे हैं। तू (सब जीवों को) अपने हुक्म में चलाने के समर्थ है। (मेरे पास) अगर कोई चीज मेरी अपनी हो तो (मैं ये कहने का फख़र कर सकूँ कि) मैं तेरी सेवा कर रहा हूँ, पर मेरा ये जीवन भी तो तेरा ही दिया हुआ है और मेरा शरीर भी तेरी ही दाति है। अगर गुरु मिल जाए तो वह कृपा करता है और आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम मुझे (जिंदगी का) आसरा देता है।7। हे नानक! जो मनुष्य सदा ऊँचे आत्मिक मण्डल में बसता है (तवज्जो टिकाए रखता है) उसके अंदर आत्मिक गुण प्रकट होते हैं, आत्मिक गुणों से वह गहरी सांझ डाले रखता है, आत्मिक गुणों में उसकी तवज्जो जुड़ी रहती है (वही मनुष्य पूरन त्यागी है)। उसके मन को परमात्मा का नाम प्यारा लगता है, वह (खुद नाम) स्मरण करता है (और लोगों को स्मरण करने के लिए) प्रेरित करता है। वह सदा जगत-मूल प्रभु की ही महिमा करता है। गुरु पीर के शब्द को (हृदय में टिका के) वह गहरे जिगरे वाला बन जाता है। पर गुरु शब्द से टूट के जगत (माया के मोह में) कमला (हुआ फिरता) है। वह पूर्ण त्यागी मनुष्य अडोल आत्मिक अवस्था में टिक के अच्छे भाग्य वाला बन जाता है, उसका मन सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु (की याद को अपना जीवन-निशाना) मानता है।8।1।



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ਅੰਗ : 634
ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੧ ਘਰੁ ੧ ਅਸਟਪਦੀਆ ਚਉਤੁਕੀ ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ਦੁਬਿਧਾ ਨ ਪੜਉ ਹਰਿ ਬਿਨੁ ਹੋਰੁ ਨ ਪੂਜਉ ਮੜੈ ਮਸਾਣਿ ਨ ਜਾਈ ॥ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਰਾਚਿ ਨ ਪਰ ਘਰਿ ਜਾਵਾ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਨਾਮਿ ਬੁਝਾਈ ॥ ਘਰ ਭੀਤਰਿ ਘਰੁ ਗੁਰੂ ਦਿਖਾਇਆ ਸਹਜਿ ਰਤੇ ਮਨ ਭਾਈ ॥ ਤੂ ਆਪੇ ਦਾਨਾ ਆਪੇ ਬੀਨਾ ਤੂ ਦੇਵਹਿ ਮਤਿ ਸਾਈ ॥੧॥ ਮਨੁ ਬੈਰਾਗਿ ਰਤਉ ਬੈਰਾਗੀ ਸਬਦਿ ਮਨੁ ਬੇਧਿਆ ਮੇਰੀ ਮਾਈ ॥ ਅੰਤਰਿ ਜੋਤਿ ਨਿਰੰਤਰਿ ਬਾਣੀ ਸਾਚੇ ਸਾਹਿਬ ਸਿਉ ਲਿਵ ਲਾਈ ॥ ਰਹਾਉ ॥ ਅਸੰਖ ਬੈਰਾਗੀ ਕਹਹਿ ਬੈਰਾਗ ਸੋ ਬੈਰਾਗੀ ਜਿ ਖਸਮੈ ਭਾਵੈ ॥ ਹਿਰਦੈ ਸਬਦਿ ਸਦਾ ਭੈ ਰਚਿਆ ਗੁਰ ਕੀ ਕਾਰ ਕਮਾਵੈ ॥ ਏਕੋ ਚੇਤੈ ਮਨੂਆ ਨ ਡੋਲੈ ਧਾਵਤੁ ਵਰਜਿ ਰਹਾਵੈ ॥ ਸਹਜੇ ਮਾਤਾ ਸਦਾ ਰੰਗਿ ਰਾਤਾ ਸਾਚੇ ਕੇ ਗੁਣ ਗਾਵੈ ॥੨॥ ਮਨੂਆ ਪਉਣੁ ਬਿੰਦੁ ਸੁਖਵਾਸੀ ਨਾਮਿ ਵਸੈ ਸੁਖ ਭਾਈ ॥ ਜਿਹਬਾ ਨੇਤ੍ਰ ਸੋਤ੍ਰ ਸਚਿ ਰਾਤੇ ਜਲਿ ਬੂਝੀ ਤੁਝਹਿ ਬੁਝਾਈ ॥ ਆਸ ਨਿਰਾਸ ਰਹੈ ਬੈਰਾਗੀ ਨਿਜ ਘਰਿ ਤਾੜੀ ਲਾਈ ॥ ਭਿਖਿਆ ਨਾਮਿ ਰਜੇ ਸੰਤੋਖੀ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਸਹਜਿ ਪੀਆਈ ॥੩॥ ਦੁਬਿਧਾ ਵਿਚਿ ਬੈਰਾਗੁ ਨ ਹੋਵੀ ਜਬ ਲਗੁ ਦੂਜੀ ਰਾਈ ॥ ਸਭੁ ਜਗੁ ਤੇਰਾ ਤੂ ਏਕੋ ਦਾਤਾ ਅਵਰੁ ਨ ਦੂਜਾ ਭਾਈ ॥ ਮਨਮੁਖਿ ਜੰਤ ਦੁਖਿ ਸਦਾ ਨਿਵਾਸੀ ਗੁਰਮੁਖਿ ਦੇ ਵਡਿਆਈ ॥ ਅਪਰ ਅਪਾਰ ਅਗੰਮ ਅਗੋਚਰ ਕਹਣੈ ਕੀਮ ਨ ਪਾਈ ॥੪॥ ਸੁੰਨ ਸਮਾਧਿ ਮਹਾ ਪਰਮਾਰਥੁ ਤੀਨਿ ਭਵਣ ਪਤਿ ਨਾਮੰ ॥ ਮਸਤਕਿ ਲੇਖੁ ਜੀਆ ਜਗਿ ਜੋਨੀ ਸਿਰਿ ਸਿਰਿ ਲੇਖੁ ਸਹਾਮੰ ॥ ਕਰਮ ਸੁਕਰਮ ਕਰਾਏ ਆਪੇ ਆਪੇ ਭਗਤਿ ਦ੍ਰਿੜਾਮੰ ॥ ਮਨਿ ਮੁਖਿ ਜੂਠਿ ਲਹੈ ਭੈ ਮਾਨੰ ਆਪੇ ਗਿਆਨੁ ਅਗਾਮੰ ॥੫॥ ਜਿਨ ਚਾਖਿਆ ਸੇਈ ਸਾਦੁ ਜਾਣਨਿ ਜਿਉ ਗੁੰਗੇ ਮਿਠਿਆਈ ॥ ਅਕਥੈ ਕਾ ਕਿਆ ਕਥੀਐ ਭਾਈ ਚਾਲਉ ਸਦਾ ਰਜਾਈ ॥ ਗੁਰੁ ਦਾਤਾ ਮੇਲੇ ਤਾ ਮਤਿ ਹੋਵੈ ਨਿਗੁਰੇ ਮਤਿ ਨ ਕਾਈ ॥ ਜਿਉ ਚਲਾਏ ਤਿਉ ਚਾਲਹ ਭਾਈ ਹੋਰ ਕਿਆ ਕੋ ਕਰੇ ਚਤੁਰਾਈ ॥੬॥ ਇਕਿ ਭਰਮਿ ਭੁਲਾਏ ਇਕਿ ਭਗਤੀ ਰਾਤੇ ਤੇਰਾ ਖੇਲੁ ਅਪਾਰਾ ॥ ਜਿਤੁ ਤੁਧੁ ਲਾਏ ਤੇਹਾ ਫਲੁ ਪਾਇਆ ਤੂ ਹੁਕਮਿ ਚਲਾਵਣਹਾਰਾ ॥ ਸੇਵਾ ਕਰੀ ਜੇ ਕਿਛੁ ਹੋਵੈ ਅਪਣਾ ਜੀਉ ਪਿੰਡੁ ਤੁਮਾਰਾ ॥ ਸਤਿਗੁਰਿ ਮਿਲਿਐ ਕਿਰਪਾ ਕੀਨੀ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਾਮੁ ਅਧਾਰਾ ॥੭॥ ਗਗਨੰਤਰਿ ਵਾਸਿਆ ਗੁਣ ਪਰਗਾਸਿਆ ਗੁਣ ਮਹਿ ਗਿਆਨ ਧਿਆਨੰ ॥ ਨਾਮੁ ਮਨਿ ਭਾਵੈ ਕਹੈ ਕਹਾਵੈ ਤਤੋ ਤਤੁ ਵਖਾਨੰ ॥ ਸਬਦੁ ਗੁਰ ਪੀਰਾ ਗਹਿਰ ਗੰਭੀਰਾ ਬਿਨੁ ਸਬਦੈ ਜਗੁ ਬਉਰਾਨੰ ॥ ਪੂਰਾ ਬੈਰਾਗੀ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਗੀ ਸਚੁ ਨਾਨਕ ਮਨੁ ਮਾਨੰ ॥੮॥੧॥

ਅਰਥ : ਰਾਗ ਸੋਰਠਿ, ਘਰ ੧ ਵਿੱਚ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕਦੇਵ ਜੀ ਦੀ ਅੱਠ-ਬੰਦਾਂ ਵਾਲੀ ਚਾਰ-ਤੁਕੀ ਬਾਣੀ। ਅਕਾਲ ਪੁਰਖ ਇੱਕ ਹੈ ਅਤੇ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦੀ ਕਿਰਪਾ ਨਾਲ ਮਿਲਦਾ ਹੈ। ਮੈਂ ਪਰਮਾਤਮਾ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਆਸਰੇ ਦੀ ਭਾਲ ਵਿਚ ਨਹੀਂ ਪੈਂਦਾ, ਮੈਂ ਪ੍ਰਭੂ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਪੂਜਦਾ, ਮੈਂ ਕਿਤੇ ਸਮਾਧਾਂ ਤੇ ਮਸਾਣਾਂ ਵਿਚ ਭੀ ਨਹੀਂ ਜਾਂਦਾ। ਮਾਇਆ ਦੀ ਤ੍ਰਿਸ਼ਨਾ ਵਿਚ ਫਸ ਕੇ ਮੈਂ (ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਦਰ ਤੋਂ ਬਿਨਾ) ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਘਰ ਵਿਚ ਨਹੀਂ ਜਾਂਦਾ, ਮੇਰੀ ਮਾਇਕ ਤ੍ਰਿਸ਼ਨਾ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਨਾਮ ਨੇ ਮਿਟਾ ਦਿੱਤੀ ਹੈ। ਗੁਰੂ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਮੇਰੇ ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ ਹੀ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਿਵਾਸ-ਅਸਥਾਨ ਵਿਖਾ ਦਿੱਤਾ ਹੈ, ਅਤੇ ਅਡੋਲ ਅਵਸਥਾ ਵਿਚ ਰੱਤੇ ਹੋਏ ਮੇਰੇ ਮਨ ਨੂੰ ਉਹ ਸਹਿਜ-ਅਵਸਥਾ ਚੰਗੀ ਲੱਗ ਰਹੀ ਹੈ। ਹੇ ਮੇਰੇ ਸਾਈਂ! (ਇਹ ਸਭ ਤੇਰੀ ਹੀ ਮੇਹਰ ਹੈ) ਤੂੰ ਆਪ ਹੀ (ਮੇਰੇ ਦਿਲ ਦੀ) ਜਾਣਨ-ਵਾਲਾ ਹੈਂ; ਆਪ ਹੀ ਪਛਾਣਨ ਵਾਲਾ ਹੈਂ, ਤੂੰ ਆਪ ਹੀ ਮੈਨੂੰ (ਚੰਗੀ) ਮਤਿ ਦੇਂਦਾ ਹੈਂ (ਜਿਸ ਕਰਕੇ ਤੇਰਾ ਦਰ ਛੱਡ ਕੇ ਹੋਰ ਪਾਸੇ ਨਹੀਂ ਭਟਕਦਾ) ॥੧॥ ਹੇ ਮੇਰੀ ਮਾਂ! ਮੇਰਾ ਮਨ ਗੁਰੂ ਦੇ ਸ਼ਬਦ ਵਿਚ ਵਿੱਝ ਗਿਆ ਹੈ (ਪ੍ਰੋਤਾ ਗਿਆ ਹੈ। ਸ਼ਬਦ ਦੀ ਬਰਕਤਿ ਨਾਲ ਮੇਰੇ ਅੰਦਰ ਪਰਮਾਤਮਾ ਤੋਂ ਵਿਛੋੜੇ ਦਾ ਅਹਿਸਾਸ ਪੈਦਾ ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ)। ਉਹੀ ਮਨੁੱਖ (ਅਸਲ) ਤਿਆਗੀ ਹੈ ਜਿਸ ਦਾ ਮਨ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਬਿਰਹੋਂ-ਰੰਗ ਵਿਚ ਰੰਗਿਆ ਗਿਆ ਹੈ। ਉਸ (ਬੈਰਾਗੀ) ਦੇ ਅੰਦਰ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਜੋਤਿ ਜਗ ਪੈਂਦੀ ਹੈ, ਉਹ ਇਕ-ਰਸ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਦੀ ਬਾਣੀ ਵਿਚ (ਮਸਤ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ), ਸਦਾ ਕਾਇਮ ਰਹਿਣ ਵਾਸਤੇ ਮਾਲਕ-ਪ੍ਰਭੂ (ਦੇ ਚਰਨਾਂ ਵਿਚ) ਉਸ ਦੀ ਸੁਰਤਿ ਜੁੜੀ ਰਹਿੰਦੀ ਹੈ ਰਹਾਉ॥ ਅਨੇਕਾਂ ਹੀ ਵੈਰਾਗੀ ਵੈਰਾਗ ਦੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਕਰਦੇ ਹਨ, ਪਰ ਅਸਲ ਵੈਰਾਗ ਉਹ ਹੈ ਜੋ (ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਬਿਰਹੋਂ-ਰੰਗ ਵਿਚ ਇਤਨਾ ਰੰਗਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ ਕਿ ਉਹ) ਖਸਮ-ਪ੍ਰਭੂ ਨੂੰ ਪਿਆਰਾ ਲੱਗਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਗੁਰੂ ਦੇ ਸ਼ਬਦ ਦੀ ਰਾਹੀਂ ਆਪਣੇ ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ (ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਯਾਦ ਨੂੰ ਵਸਾਂਦਾ ਹੈ ਤੇ) ਸਦਾ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਡਰ-ਅਦਬ ਵਿਚ ਮਸਤ (ਰਹਿ ਕੇ) ਗੁਰੂ ਦੀ ਦੱਸੀ ਹੋਈ ਕਾਰ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਉਹ ਬੈਰਾਗੀ ਸਿਰਫ਼ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨੂੰ ਚੇਤਦਾ ਹੈ (ਜਿਸ ਕਰਕੇ ਉਸ ਦਾ) ਮਨ (ਮਾਇਆ ਵਾਲੇ ਪਾਸੇ) ਨਹੀਂ ਡੋਲਦਾ, ਉਹ ਬੈਰਾਗੀ (ਮਾਇਆ ਵਲ) ਦੌੜਦੇ ਮਨ ਨੂੰ ਰੋਕ ਕੇ (ਪ੍ਰਭੂ-ਚਰਨਾਂ ਵਿਚ) ਜੋੜੀ ਰੱਖਦਾ ਹੈ। ਅਡੋਲ ਅਵਸਥਾ ਵਿਚ ਮਸਤ ਉਹ ਬੈਰਾਗੀ ਸਦਾ (ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਨਾਮ-) ਰੰਗ ਵਿਚ ਰੰਗਿਆ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ, ਤੇ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਕਰਦਾ ਹੈ ॥੨॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਦਾ) ਚੰਚਲ ਮਨ ਰਤਾ ਭਰ ਭੀ ਆਤਮਕ ਆਨੰਦ ਵਿਚ ਨਿਵਾਸ ਦੇਣ ਵਾਲੇ ਨਾਮ ਵਿਚ ਵੱਸਦਾ ਹੈ (ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਅਸਲ ਬੈਰਾਗੀ ਹੈ, ਤੇ ਉਹ ਬੈਰਾਗੀ) ਆਤਮਕ ਆਨੰਦ (ਮਾਣਦਾ ਹੈ) । ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਤੂੰ ਆਪ (ਉਸ ਬੈਰਾਗੀ ਨੂੰ ਜੀਵਨ ਦੇ ਸਹੀ ਰਸਤੇ ਦੀ) ਸਮਝ ਦਿੱਤੀ ਹੈ, (ਜਿਸ ਦੀ ਬਰਕਤਿ ਨਾਲ ਉਸ ਦੀ ਤ੍ਰਿਸ਼ਨਾ-) ਅੱਗ ਬੁਝ ਗਈ ਹੈ, ਤੇ ਉਸ ਦੀ ਜੀਭ ਉਸ ਦੀਆਂ ਅੱਖਾਂ (ਆਦਿਕ) ਇੰਦ੍ਰੇ ਸਦਾ-ਥਿਰ (ਹਰਿ-ਨਾਮ) ਵਿਚ ਰੰਗੇ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ। ਉਹ ਬੈਰਾਗੀ ਦੁਨੀਆ ਦੀਆਂ ਆਸਾਂ ਤੋਂ ਨਿਰਮੋਹ ਹੋ ਕੇ ਜੀਵਨ ਬਿਤੀਤ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਹ (ਦੁਨੀਆ ਵਾਲੇ ਘਰ-ਘਾਟ ਦੀ ਅਪਣੱਤ ਛੱਡ ਕੇ) ਉਸ ਘਰ ਵਿਚ ਸੁਰਤਿ ਜੋੜੀ ਰੱਖਦਾ ਹੈ ਜੋ ਸਚ ਮੁਚ ਉਸ ਦਾ ਆਪਣਾ ਹੀ ਰਹੇਗਾ। ਅਜੇਹੇ ਬੈਰਾਗੀ (ਗੁਰੂ-ਦਰ ਤੋਂ ਮਿਲੀ) ਨਾਮ-ਭਿੱਛਿਆ ਨਾਲ ਰੱਜੇ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ, ਸੰਤੋਖੀ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ, (ਕਿਉਂਕਿ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਗੁਰੂ ਨੇ) ਅਡੋਲ ਆਤਮਕ ਅਵਸਥਾ ਵਿਚ ਟਿਕਾ ਕੇ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਦੇਣ ਵਾਲਾ ਨਾਮ-ਰਸ ਪਿਲਾ ਦਿੱਤਾ ਹੈ।੩। ਜਦ ਤਕ (ਮਨ ਵਿਚ) ਰਤਾ ਭਰ ਭੀ ਕੋਈ ਹੋਰ ਝਾਕ ਹੈ ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਆਸਰੇ ਦੀ ਭਾਲ ਹੈ ਤਦ ਤਕ ਬਿਰਹੋਂ-ਅਵਸਥਾ ਪੈਦਾ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦੀ। (ਪਰ ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਇਹ ਬਿਰਹੋਂ ਦੀ) ਦਾਤ ਦੇਣ ਵਾਲਾ ਤੂੰ ਇਕ ਆਪ ਹੀ ਹੈਂ, ਤੈਥੋਂ ਬਿਨਾ ਕੋਈ ਹੋਰ (ਇਹ ਦਾਤਿ) ਦੇਣ ਵਾਲਾ ਨਹੀਂ ਹੈ, ਤੇ ਇਹ ਸਾਰਾ ਜਗਤ ਤੇਰਾ ਆਪਣਾ ਹੀ (ਰਚਿਆ ਹੋਇਆ) ਹੈ। ਆਪਣੇ ਮਨ ਦੇ ਪਿੱਛੇ ਤੁਰਨ ਵਾਲੇ ਮਨੁੱਖ ਸਦਾ ਦੁੱਖ ਵਿਚ ਟਿਕੇ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ, ਜੇਹੜੇ ਬੰਦੇ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸ਼ਰਨ ਪੈਂਦੇ ਹਨ, ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਪ੍ਰਭੂ (ਨਾਮ ਦੀ ਦਾਤਿ ਦੇ ਕੇ) ਆਦਰ ਮਾਣ ਬਖ਼ਸ਼ਦਾ ਹੈ। ਉਸ ਬੇਅੰਤ ਅਪਹੁੰਚ ਤੇ ਅਗੋਚਰ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਕੀਮਤ (ਜੀਵਾਂ ਦੇ) ਬਿਆਨ ਕਰਨ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਦੱਸੀ ਜਾ ਸਕਦੀ (ਉਸਦੇ ਬਰਾਬਰ ਦਾ ਹੋਰ ਕੋਈ ਦੱਸਿਆ ਨਹੀਂ ਜਾ ਸਕਦਾ) ।੪। ਪਰਮਾਤਮਾ ਇਕ ਐਸੀ ਆਤਮਕ ਅਵਸਥਾ ਦਾ ਮਾਲਕ ਹੈ ਕਿ ਉਸ ਉਤੇ ਮਾਇਆ ਦੇ ਫੁਰਨੇ ਜ਼ੋਰ ਨਹੀਂ ਪਾ ਸਕਦੇ, ਉਹ ਤਿੰਨਾਂ ਹੀ ਭਵਨਾਂ ਦਾ ਮਾਲਕ ਹੈ, ਉਸ ਦਾ ਨਾਮ ਜੀਵਾਂ ਵਾਸਤੇ ਮਹਾਨ ਉੱਚਾ ਸ੍ਰੇਸ਼ਟ ਧਨ ਹੈ। ਜਗਤ ਵਿਚ ਜਿਤਨੇ ਭੀ ਜੀਵ ਜਨਮ ਲੈਂਦੇ ਹਨ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਮੱਥੇ ਉਤੇ (ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਕੀਤੇ ਕਰਮਾਂ ਦੇ ਸੰਸਕਾਰਾਂ ਅਨੁਸਾਰ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਵਿਚ ਹੀ) ਲੇਖ (ਲਿਖਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਹਰੇਕ ਜੀਵ ਨੂੰ) ਆਪੋ ਆਪਣੇ ਸਿਰ ਉਤੇ ਲਿਖਿਆ ਲੇਖ ਸਹਿਣਾ ਪੈਂਦਾ ਹੈ। ਪਰਮਾਤਮਾ ਆਪ ਹੀ (ਸਾਧਾਰਨ) ਕੰਮ ਤੇ ਚੰਗੇ ਕੰਮ (ਜੀਵਾਂ ਪਾਸੋਂ) ਕਰਾਂਦਾ ਹੈ, ਆਪ ਹੀ (ਜੀਵਾਂ ਦੇ ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ ਆਪਣੀ) ਭਗਤੀ ਦ੍ਰਿੜ੍ਹ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਅਪਹੁੰਚ ਪ੍ਰਭੂ ਆਪ ਹੀ (ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੀ) ਡੂੰਘੀ ਸਾਂਝ ਬਖਸ਼ਦਾ ਹੈ। (ਸੱਚਾ ਵੈਰਾਗੀ) ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਡਰ-ਅਦਬ ਵਿਚ ਗਿੱਝ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਦੇ ਮਨ ਵਿਚ ਤੇ ਮੂੰਹ ਵਿਚ (ਪਹਿਲਾਂ ਜੋ ਭੀ ਵਿਕਾਰਾਂ ਦੀ ਨਿੰਦਾ ਆਦਿਕ ਦੀ) ਮੈਲ (ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਉਹ) ਦੂਰ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ।੫। ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਮਨੁੱਖ ਨੇ (ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਨਾਮ ਦਾ ਰਸ) ਚੱਖਿਆ ਹੈ, (ਉਸ ਦਾ) ਸੁਆਦ ਉਹੀ ਜਾਣਦੇ ਹਨ (ਦੱਸ ਨਹੀਂ ਸਕਦੇ) , ਜਿਵੇਂ ਗੁੰਗੇ ਮਨੁੱਖ ਦੀ ਖਾਧੀ ਮਿਠਿਆਈ (ਦਾ ਸੁਆਦ ਗੁੰਗਾ ਆਪ ਹੀ ਜਾਣਦਾ ਹੈ, ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਦੱਸ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ) । ਹੇ ਭਾਈ! ਨਾਮ-ਰਸ ਹੈ ਹੀ ਅਕੱਥ, ਬਿਆਨ ਕੀਤਾ ਹੀ ਨਹੀਂ ਜਾ ਸਕਦਾ। (ਮੈਂ ਤਾਂ ਸਦਾ ਇਹੀ ਤਾਂਘ ਰੱਖਦਾ ਹਾਂ ਕਿ) ਮੈਂ ਉਸ ਮਾਲਕ-ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਵਿਚ ਤੁਰਾਂ। (ਪਰ ਰਜ਼ਾ ਵਿਚ ਤੁਰਨ ਦੀ) ਸੂਝ ਭੀ ਤਦੋਂ ਹੀ ਆਉਂਦੀ ਹੈ ਜੇ ਗੁਰੂ ਉਸ ਦਾਤਾਰ-ਪ੍ਰਭੂ ਨਾਲ ਮਿਲਾ ਦੇਵੇ। ਜੇਹੜਾ ਬੰਦਾ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸ਼ਰਨ ਨਹੀਂ ਪਿਆ, ਉਸ ਨੂੰ ਇਹ ਸਮਝ ਰਤਾ ਭੀ ਨਹੀਂ ਆਉਂਦੀ। ਹੇ ਭਾਈ! ਕੋਈ ਆਦਮੀ ਆਪਣੀ ਸਿਆਣਪ ਦਾ ਮਾਣ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦਾ, ਜਿਵੇਂ ਜਿਵੇਂ ਪਰਮਾਤਮਾ ਸਾਨੂੰ ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ (ਜੀਵਨ-ਰਾਹ ਉਤੇ) ਤੋਰਦਾ ਹੈ ਤਿਵੇਂ ਤਿਵੇਂ ਹੀ ਅਸੀ ਤੁਰਦੇ ਹਾਂ।੬। ਹੇ ਅਪਾਰ ਪ੍ਰਭੂ! ਅਨੇਕਾਂ ਜੀਵ ਭਟਕਣਾ ਵਿਚ (ਪਾ ਕੇ) ਕੁਰਾਹੇ ਪਾਏ ਹੋਏ ਹਨ, ਅਨੇਕਾਂ ਜੀਵ ਤੇਰੀ ਭਗਤੀ (ਦੇ ਰੰਗ) ਵਿਚ ਰੰਗੇ ਹੋਏ ਹਨ-ਇਹ (ਸਭ) ਤੇਰਾ ਖੇਲ (ਰਚਿਆ ਹੋਇਆ) ਹੈ। ਜਿਸ ਪਾਸੇ ਤੂੰ ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ ਲਾਇਆ ਹੋਇਆ ਹੈ ਉਹੋ ਜਿਹਾ ਫਲ ਜੀਵ ਭੋਗ ਰਹੇ ਹਨ। ਤੂੰ (ਸਭ ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ) ਆਪਣੇ ਹੁਕਮ ਵਿਚ ਚਲਾਣ ਦੇ ਸਮਰੱਥ ਹੈਂ। (ਮੇਰੇ ਪਾਸ) ਜੇ ਕੋਈ ਚੀਜ਼ ਮੇਰੀ ਆਪਣੀ ਹੋਵੇ ਤਾਂ (ਮੈਂ ਇਹ ਆਖਣ ਦਾ ਫ਼ਖਰ ਕਰ ਸਕਾਂ ਕਿ) ਮੈਂ ਤੇਰੀ ਸੇਵਾ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹਾਂ, ਪਰ ਮੇਰੀ ਇਹ ਜਿੰਦ ਤੇਰੀ ਹੀ ਦਿੱਤੀ ਹੋਈ ਹੈ ਤੇ ਮੇਰਾ ਸਰੀਰ ਭੀ ਤੇਰਾ ਹੀ ਦਿੱਤਾ ਹੋਇਆ ਹੈ। ਜੇ ਗੁਰੂ ਮਿਲ ਪਏ ਤਾਂ ਉਹ ਕਿਰਪਾ ਕਰਦਾ ਹੈ ਤੇ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਦੇਣ ਵਾਲਾ ਤੇਰਾ ਨਾਮ ਮੈਨੂੰ (ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦਾ) ਆਸਰਾ ਦੇਂਦਾ ਹੈ।੭। ਹੇ ਨਾਨਕ! ਜੋ ਮਨੁੱਖ ਸਦਾ ਉੱਚੇ ਆਤਮਕ ਮੰਡਲ ਵਿਚ ਵੱਸਦਾ ਹੈ (ਸੁਰਤਿ ਟਿਕਾਈ ਰੱਖਦਾ ਹੈ) ਉਸ ਦੇ ਅੰਦਰ ਆਤਮਕ ਗੁਣ ਪਰਗਟ ਹੁੰਦੇ ਹਨ, ਆਤਮਕ ਗੁਣਾਂ ਨਾਲ ਉਹ ਡੂੰਘੀ ਸਾਂਝ ਪਾਈ ਰੱਖਦਾ ਹੈ, ਆਤਮਕ ਗੁਣਾਂ ਵਿਚ ਹੀ ਉਸ ਦੀ ਸੁਰਤਿ ਜੁੜੀ ਰਹਿੰਦੀ ਹੈ (ਉਹੀ ਮਨੁੱਖ ਪੂਰਨ ਤਿਆਗੀ ਹੈ) । ਉਸ ਦੇ ਮਨ ਨੂੰ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ ਪਿਆਰਾ ਲੱਗਦਾ ਹੈ, ਉਹ (ਆਪ ਨਾਮ) ਸਿਮਰਦਾ ਹੈ (ਹੋਰਨਾਂ ਨੂੰ ਸਿਮਰਨ ਲਈ) ਪ੍ਰੇਰਦਾ ਹੈ। ਉਹ ਸਦਾ ਜਗਤ-ਮੂਲ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਹੀ ਸਿਫ਼ਤਿ-ਸਾਲਾਹ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਗੁਰੂ ਪੀਰ ਦੇ ਸ਼ਬਦ ਨੂੰ (ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ ਟਿਕਾ ਕੇ) ਉਹ ਡੂੰਘੇ ਜਿਗਰੇ ਵਾਲਾ ਬਣ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਪਰ ਗੁਰ-ਸ਼ਬਦ ਤੋਂ ਖੁੰਝ ਕੇ ਜਗਤ (ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਵਿਚ) ਕਮਲਾ (ਹੋਇਆ ਫਿਰਦਾ) ਹੈ। ਉਹ ਪੂਰਨ ਤਿਆਗੀ ਮਨੁੱਖ ਅਡੋਲ ਆਤਮਕ ਅਵਸਥਾ ਵਿਚ ਟਿਕ ਕੇ ਚੰਗੇ ਭਾਗਾਂ ਵਾਲਾ ਬਣ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਦਾ ਮਨ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਰਹਿਣ ਵਾਲੇ ਪ੍ਰਭੂ (ਦੀ ਯਾਦ ਨੂੰ ਹੀ ਆਪਣਾ ਜੀਵਨ-ਨਿਸ਼ਾਨਾ) ਮੰਨਦਾ ਹੈ।੮।੧।



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सलोक ॥ राज कपटं रूप कपटं धन कपटं कुल गरबतह ॥ संचंति बिखिआ छलं छिद्रं नानक बिनु हरि संगि न चालते ॥१॥ पेखंदड़ो की भुलु तुमा दिसमु सोहणा ॥ अढु न लहंदड़ो मुलु नानक साथि न जुलई माइआ ॥२॥ पउड़ी ॥ चलदिआ नालि न चलै सो किउ संजीऐ ॥ तिस का कहु किआ जतनु जिस ते वंजीऐ ॥ हरि बिसरिऐ किउ त्रिपतावै ना मनु रंजीऐ ॥ प्रभू छोडि अन लागै नरकि समंजीऐ ॥ होहु क्रिपाल दइआल नानक भउ भंजीऐ ॥१०॥

अर्थ: हे नानक जी! यह राज रूप धन और (ऊँची) कुल का अभिमान-सब छल-रूप है। जीव छल कर के दूसरों पर दोष लगा लगा कर (कई तरीकों से) माया जोड़ते हैं, परन्तु प्रभू के नाम के बिना कोई भी वस्तु यहाँ से साथ नहीं जाती ॥१॥ तुम्मा देखने में तो मुझे सुंदर दिखा। क्या यह ऊकाई लग गई ? इस का तो आधी कोडी भी मुल्य नहीं मिलता। हे नानक जी! (यही हाल माया का है, जीव के लिए तो यह भी कोड़ी मुल्य की नहीं होती क्योंकि यहाँ से चलने के समय) यह माया जीव के साथ नहीं जाती ॥२॥ उस माया को इकट्ठी करने का क्या लाभ, जो (जगत से चलने समय) साथ नहीं जाती, जिस से आखिर विछुड़ ही जाना है, उस की खातिर बताओ क्या यत्न करना हुआ ? प्रभू को भुला हुआ​ (बहुती माया से) तृप्त भी नहीं और ना ही मन प्रसन्न होता है। परमात्मा को छोड़ कर अगर मन अन्य जगह लगाया तो नर्क में समाता है। हे प्रभू! कृपा कर, दया कर, नानक का सहम दूर कर दे ॥१०॥



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ਅੰਗ : 708
ਸਲੋਕ ॥ ਰਾਜ ਕਪਟੰ ਰੂਪ ਕਪਟੰ ਧਨ ਕਪਟੰ ਕੁਲ ਗਰਬਤਹ ॥ ਸੰਚੰਤਿ ਬਿਖਿਆ ਛਲੰ ਛਿਦ੍ਰੰ ਨਾਨਕ ਬਿਨੁ ਹਰਿ ਸੰਗਿ ਨ ਚਾਲਤੇ ॥੧॥ ਪੇਖੰਦੜੋ ਕੀ ਭੁਲੁ ਤੁੰਮਾ ਦਿਸਮੁ ਸੋਹਣਾ ॥ ਅਢੁ ਨ ਲਹੰਦੜੋ ਮੁਲੁ ਨਾਨਕ ਸਾਥਿ ਨ ਜੁਲਈ ਮਾਇਆ ॥੨॥ ਪਉੜੀ ॥ ਚਲਦਿਆ ਨਾਲਿ ਨ ਚਲੈ ਸੋ ਕਿਉ ਸੰਜੀਐ ॥ ਤਿਸ ਕਾ ਕਹੁ ਕਿਆ ਜਤਨੁ ਜਿਸ ਤੇ ਵੰਜੀਐ ॥ ਹਰਿ ਬਿਸਰਿਐ ਕਿਉ ਤ੍ਰਿਪਤਾਵੈ ਨਾ ਮਨੁ ਰੰਜੀਐ ॥ ਪ੍ਰਭੂ ਛੋਡਿ ਅਨ ਲਾਗੈ ਨਰਕਿ ਸਮੰਜੀਐ ॥ ਹੋਹੁ ਕ੍ਰਿਪਾਲ ਦਇਆਲ ਨਾਨਕ ਭਉ ਭੰਜੀਐ ॥੧੦॥

ਅਰਥ: ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! ਇਹ ਰਾਜ ਰੂਪ ਧਨ ਤੇ (ਉੱਚੀ) ਕੁਲ ਦਾ ਮਾਣ-ਸਭ ਛਲ-ਰੂਪ ਹੈ। ਜੀਵ ਛਲ ਕਰ ਕੇ ਦੂਜਿਆਂ ਤੇ ਦੂਸ਼ਣ ਲਾ ਲਾ ਕੇ (ਕਈ ਢੰਗਾਂ ਨਾਲ) ਮਾਇਆ ਜੋੜਦੇ ਹਨ, ਪਰ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਨਾਮ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਕੋਈ ਭੀ ਚੀਜ਼ ਏਥੋਂ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਜਾਂਦੀ ॥੧॥ ਤੁੰਮਾ ਵੇਖਣ ਨੂੰ ਮੈਨੂੰ ਸੋਹਣਾ ਦਿੱਸਿਆ। ਕੀ ਇਹ ਉਕਾਈ ਲੱਗ ਗਈ ? ਇਸ ਦਾ ਤਾਂ ਅੱਧੀ ਕੌਡੀ ਭੀ ਮੁੱਲ ਨਹੀਂ ਮਿਲਦਾ। ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! (ਇਹੀ ਹਾਲ ਮਾਇਆ ਦਾ ਹੈ, ਜੀਵ ਦੇ ਭਾ ਦੀ ਤਾਂ ਇਹ ਭੀ ਕੌਡੀ ਮੁੱਲ ਦੀ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀ ਕਿਉਂਕਿ ਏਥੋਂ ਤੁਰਨ ਵੇਲੇ) ਇਹ ਮਾਇਆ ਜੀਵ ਦੇ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਜਾਂਦੀ ॥੨॥ ਉਸ ਮਾਇਆ ਨੂੰ ਇਕੱਠੀ ਕਰਨ ਦਾ ਕੀ ਲਾਭ, ਜੋ (ਜਗਤ ਤੋਂ ਤੁਰਨ ਵੇਲੇ) ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਜਾਂਦੀ, ਜਿਸ ਤੋਂ ਆਖ਼ਰ ਵਿਛੁੜ ਹੀ ਜਾਣਾ ਹੈ, ਉਸ ਦੀ ਖ਼ਾਤਰ ਦੱਸੋ ਕੀਹ ਜਤਨ ਕਰਨਾ ਹੋਇਆ ? ਪ੍ਰਭੂ ਨੂੰ ਵਿਸਾਰਿਆਂ (ਨਿਰੀ ਮਾਇਆ ਨਾਲ) ਰੱਜੀਦਾ ਭੀ ਨਹੀਂ ਤੇ ਨਾਹ ਹੀ ਮਨ ਪ੍ਰਸੰਨ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਪਰਮਾਤਮਾ ਨੂੰ ਛੱਡ ਕੇ ਜੇ ਮਨ ਹੋਰ ਪਾਸੇ ਲਗਾਇਆਂ ਨਰਕ ਵਿੱਚ ਸਮਾਈਦਾ ਹੈ। ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਕਿਰਪਾ ਕਰ, ਦਇਆ ਕਰ, ਨਾਨਕ ਦਾ ਸਹਿਮ ਦੂਰ ਕਰ ਦੇਹ ॥੧੦॥



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सोरठि महला ५ ॥ हमरी गणत न गणीआ काई अपणा बिरदु पछाणि ॥ हाथ देइ राखे करि अपुने सदा सदा रंगु माणि ॥१॥ साचा साहिबु सद मिहरवाण ॥ बंधु पाइआ मेरै सतिगुरि पूरै होई सरब कलिआण ॥ रहाउ ॥ जीउ पाइ पिंडु जिनि साजिआ दिता पैनणु खाणु ॥ अपणे दास की आपि पैज राखी नानक सद कुरबाणु ॥२॥१६॥४४॥

हे भाई! परमात्मा हम जीवों के किये बुरे-कर्मो का कोई ध्यान नहीं करता। वह अपने मूढ़-कदीमा के (प्यार वाले) सवभाव को याद रखता है, (वह, बल्कि, हमें गुरु मिला कर, हमें) अपना बना कर (अपने) हाथ दे के (हमे विकारों से) बचाता है। (जिस बड़े-भाग्य वाले को गुरु मिल जाता है , वह) सदा ही आत्मिक आनंद मानता रहता है॥१॥ हे भाई! सदा कायम रहने वाला मालिक-प्रभु सदा दयावान रहता है, (कुकर्मो की तरफ बड़ रहे मनुख को गुरु मिलाता है। जिस को पूरा गुरु मिल गया, उस के विकारों के रास्ते में) मेरे पूरे गुरु ने बंद लगा दिया ( और, इस प्रकार उस के अंदर) सारे आत्मिक आनंद पैदा हो गए॥रहाउ॥ हे भाई! जिस परमात्मा ने जान डालकर (हमारा) सरीर पैदा किया है, जो (हर समय) हमे खुराक और पोशाक दे रहा है, वह परमात्मा (संसार-समुन्द्र की विकार लहरों से) अपने सेवक की इज्ज़त (गुरु मिला कर) आप बचाता है। हे नानक! (कह की मैं उस परमात्मा से) सदा सदके जाता हूँ॥२॥१६॥४४॥



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ਅੰਗ : 619
ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੫ ॥ ਹਮਰੀ ਗਣਤ ਨ ਗਣੀਆ ਕਾਈ ਅਪਣਾ ਬਿਰਦੁ ਪਛਾਣਿ ॥ ਹਾਥ ਦੇਇ ਰਾਖੇ ਕਰਿ ਅਪੁਨੇ ਸਦਾ ਸਦਾ ਰੰਗੁ ਮਾਣਿ ॥੧॥ ਸਾਚਾ ਸਾਹਿਬੁ ਸਦ ਮਿਹਰਵਾਣ ॥ ਬੰਧੁ ਪਾਇਆ ਮੇਰੈ ਸਤਿਗੁਰਿ ਪੂਰੈ ਹੋਈ ਸਰਬ ਕਲਿਆਣ ॥ ਰਹਾਉ ॥ ਜੀਉ ਪਾਇ ਪਿੰਡੁ ਜਿਨਿ ਸਾਜਿਆ ਦਿਤਾ ਪੈਨਣੁ ਖਾਣੁ ॥ ਅਪਣੇ ਦਾਸ ਕੀ ਆਪਿ ਪੈਜ ਰਾਖੀ ਨਾਨਕ ਸਦ ਕੁਰਬਾਣੁ ॥੨॥੧੬॥੪੪॥

ਅਰਥ : ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਅਸਾਂ ਜੀਵਾਂ ਦੇ ਕੀਤੇ ਮੰਦ-ਕਰਮਾਂ ਦਾ ਕੋਈ ਖ਼ਿਆਲ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ। ਉਹ ਆਪਣੇ ਮੁੱਢ-ਕਦੀਮਾਂ ਦੇ (ਪਿਆਰ ਵਾਲੇ) ਸੁਭਾਉ ਨੂੰ ਚੇਤੇ ਰੱਖਦਾ ਹੈ, (ਉਹ, ਸਗੋਂ, ਸਾਨੂੰ ਗੁਰੂ ਮਿਲਾ ਕੇ, ਸਾਨੂੰ) ਆਪਣੇ ਬਣਾ ਕੇ (ਆਪਣੇ) ਹੱਥ ਦੇ ਕੇ (ਸਾਨੂੰ ਵਿਕਾਰਾਂ ਵਲੋਂ) ਬਚਾਂਦਾ ਹੈ। (ਜਿਸ ਵਡ-ਭਾਗੀ ਨੂੰ ਗੁਰੂ ਮਿਲ ਪੈਂਦਾ ਹੈ, ਉਹ) ਸਦਾ ਹੀ ਆਤਮਕ ਆਨੰਦ ਮਾਣਦਾ ਹੈ ॥੧॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਸਦਾ ਕਾਇਮ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਮਾਲਕ-ਪ੍ਰਭੂ ਸਦਾ ਦਇਆਵਾਨ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ, (ਕੁਕਰਮਾਂ ਵਲ ਪਰਤ ਰਹੇ ਬੰਦਿਆਂ ਨੂੰ ਉਹ ਗੁਰੂ ਮਿਲਾਂਦਾ ਹੈ। ਜਿਸ ਨੂੰ ਪੂਰਾ ਗੁਰੂ ਮਿਲ ਪਿਆ, ਉਸ ਦੇ ਵਿਕਾਰਾਂ ਦੇ ਰਸਤੇ ਵਿਚ) ਮੇਰੇ ਪੂਰੇ ਗੁਰੂ ਨੇ ਬੰਨ੍ਹ ਮਾਰ ਦਿੱਤਾ (ਤੇ, ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਉਸ ਦੇ ਅੰਦਰ) ਸਾਰੇ ਆਤਮਕ ਆਨੰਦ ਪੈਦਾ ਹੋ ਗਏ ॥ ਰਹਾਉ॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਜਿਸ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨੇ ਜਿੰਦ ਪਾ ਕੇ (ਸਾਡਾ) ਸਰੀਰ ਪੈਦਾ ਕੀਤਾ ਹੈ, ਜੇਹੜਾ (ਹਰ ਵੇਲੇ) ਸਾਨੂੰ ਖ਼ੁਰਾਕ ਤੇ ਪੁਸ਼ਾਕ ਦੇ ਰਿਹਾ ਹੈ, ਉਹ ਪਰਮਾਤਮਾ (ਸੰਸਾਰ-ਸਮੁੰਦਰ ਦੀਆਂ ਵਿਕਾਰ-ਲਹਿਰਾਂ ਤੋਂ) ਆਪਣੇ ਸੇਵਕ ਦੀ ਇੱਜ਼ਤ (ਗੁਰੂ ਮਿਲਾ ਕੇ) ਆਪ ਬਚਾਂਦਾ ਹੈ। ਹੇ ਨਾਨਕ! (ਆਖ ਕਿ ਮੈਂ ਉਸ ਪਰਮਾਤਮਾ ਤੋਂ) ਸਦਾ ਸਦਕੇ ਜਾਂਦਾ ਹਾਂ ॥੨॥੧੬॥੪੪॥



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सलोक ॥ मन इछा दान करणं सरबत्र आसा पूरनह ॥ खंडणं कलि कलेसह प्रभ सिमरि नानक नह दूरणह ॥१॥ हभि रंग माणहि जिसु संगि तै सिउ लाईऐ नेहु ॥ सो सहु बिंद न विसरउ नानक जिनि सुंदरु रचिआ देहु ॥२॥ पउड़ी ॥ जीउ प्रान तनु धनु दीआ दीने रस भोग ॥ ग्रिह मंदर रथ असु दीए रचि भले संजोग ॥ सुत बनिता साजन सेवक दीए प्रभ देवन जोग ॥ हरि सिमरत तनु मनु हरिआ लहि जाहि विजोग ॥ साधसंगि हरि गुण रमहु बिनसे सभि रोग ॥३॥

अर्थ: हे नानक जी! जो प्रभू हमें मन-इच्छत दातां देता है जो सब जगह (सब जीवों की) उम्मीदें पूरी करता है, जो हमारे झगड़े और कलेश नाश करने वाला है उस को याद कर, वह तेरे से दूर नहीं है ॥१॥ जिस प्रभू की बरकत से तुम सभी आनंद मानते हो, उस से प्रीत जोड़। जिस प्रभू ने तुम्हारा सुंदर शरीर बनाया है, हे नानक जी! रब कर के वह तुझे कभी भी न भूले ॥२॥ (प्रभू ने तुझे) जिंद प्राण शरीर और धन दिया और स्वादिष्ट पदार्थ भोगणें को दिए। तेरे अच्छे भाग बना कर, तुझे उस ने सुंदर घर, रथ और घोडे दिए। सब कुछ देने-वाले प्रभू ने तुझे पुत्र, पत्नी मित्र और नौकर दिए। उस प्रभू को सिमरनें से मन तन खिड़िया रहता है, सभी दुख खत्म हो जाते हैं। (हे भाई!) सत्संग में उस हरी के गुण चेते किया करो, सभी रोग (उस को सिमरनें से) नाश हो जाते हैं ॥३॥



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ਅੰਗ : 706
ਸਲੋਕ ॥ ਮਨ ਇਛਾ ਦਾਨ ਕਰਣੰ ਸਰਬਤ੍ਰ ਆਸਾ ਪੂਰਨਹ ॥ ਖੰਡਣੰ ਕਲਿ ਕਲੇਸਹ ਪ੍ਰਭ ਸਿਮਰਿ ਨਾਨਕ ਨਹ ਦੂਰਣਹ ॥੧॥ ਹਭਿ ਰੰਗ ਮਾਣਹਿ ਜਿਸੁ ਸੰਗਿ ਤੈ ਸਿਉ ਲਾਈਐ ਨੇਹੁ ॥ ਸੋ ਸਹੁ ਬਿੰਦ ਨ ਵਿਸਰਉ ਨਾਨਕ ਜਿਨਿ ਸੁੰਦਰੁ ਰਚਿਆ ਦੇਹੁ ॥੨॥ ਪਉੜੀ ॥ ਜੀਉ ਪ੍ਰਾਨ ਤਨੁ ਧਨੁ ਦੀਆ ਦੀਨੇ ਰਸ ਭੋਗ ॥ ਗ੍ਰਿਹ ਮੰਦਰ ਰਥ ਅਸੁ ਦੀਏ ਰਚਿ ਭਲੇ ਸੰਜੋਗ ॥ ਸੁਤ ਬਨਿਤਾ ਸਾਜਨ ਸੇਵਕ ਦੀਏ ਪ੍ਰਭ ਦੇਵਨ ਜੋਗ ॥ ਹਰਿ ਸਿਮਰਤ ਤਨੁ ਮਨੁ ਹਰਿਆ ਲਹਿ ਜਾਹਿ ਵਿਜੋਗ ॥ ਸਾਧਸੰਗਿ ਹਰਿ ਗੁਣ ਰਮਹੁ ਬਿਨਸੇ ਸਭਿ ਰੋਗ ॥੩॥

ਅਰਥ: ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! ਜੋ ਪ੍ਰਭੂ ਅਸਾਨੂੰ ਮਨ-ਮੰਨੀਆਂ ਦਾਤਾਂ ਦੇਂਦਾ ਹੈ ਜੋ ਸਭ ਥਾਂ (ਸਭ ਜੀਵਾਂ ਦੀਆਂ) ਆਸਾਂ ਪੂਰੀਆਂ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਜੋ ਅਸਾਡੇ ਝਗੜੇ ਤੇ ਕਲੇਸ਼ ਨਾਸ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਹੈ ਉਸ ਨੂੰ ਯਾਦ ਕਰ, ਉਹ ਤੈਥੋਂ ਦੂਰ ਨਹੀਂ ਹੈ ॥੧॥ ਜਿਸ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਬਰਕਤਿ ਨਾਲ ਤੂੰ ਸਾਰੀਆਂ ਮੌਜਾਂ ਮਾਣਦਾ ਹੈਂ, ਉਸ ਨਾਲ ਪ੍ਰੀਤ ਜੋੜ। ਜਿਸ ਪ੍ਰਭੂ ਨੇ ਤੇਰਾ ਸੋਹਣਾ ਸਰੀਰ ਬਣਾਇਆ ਹੈ, ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! ਰੱਬ ਕਰ ਕੇ ਉਹ ਤੈਨੂੰ ਕਦੇ ਭੀ ਨਾਹ ਭੁੱਲੇ ॥੨॥ (ਪ੍ਰਭੂ ਨੇ ਤੈਨੂੰ) ਜਿੰਦ ਪ੍ਰਾਣ ਸਰੀਰ ਤੇ ਧਨ ਦਿੱਤਾ ਤੇ ਸੁਆਦਲੇ ਪਦਾਰਥ ਭੋਗਣ ਨੂੰ ਦਿੱਤੇ। ਤੇਰੇ ਚੰਗੇ ਭਾਗ ਬਣਾ ਕੇ, ਤੈਨੂੰ ਉਸ ਨੇ ਘਰ ਸੋਹਣੇ ਮਕਾਨ, ਰਥ ਤੇ ਘੋੜੇ ਦਿੱਤੇ। ਸਭ ਕੁਝ ਦੇਣ-ਜੋਗੇ ਪ੍ਰਭੂ ਨੇ ਤੈਨੂੰ ਪੁੱਤਰ, ਵਹੁਟੀ ਮਿੱਤ੍ਰ ਤੇ ਨੌਕਰ ਦਿੱਤੇ। ਉਸ ਪ੍ਰਭੂ ਨੂੰ ਸਿਮਰਿਆਂ ਮਨ ਤਨ ਖਿੜਿਆ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ, ਸਾਰੇ ਦੁੱਖ ਮਿਟ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। (ਹੇ ਭਾਈ!) ਸਤਸੰਗ ਵਿਚ ਉਸ ਹਰੀ ਦੇ ਗੁਣ ਚੇਤੇ ਕਰਿਆ ਕਰੋ, ਸਾਰੇ ਰੋਗ (ਉਸ ਨੂੰ ਸਿਮਰਿਆਂ) ਨਾਸ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਨ ॥੩॥



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ਸਤਿਗੁਰਿ ਸੇਵਿਐ ਸਦਾ
ਸੁਖੁ ਜਨਮ ਮਰਣ ਦੁਖੁ ਜਾਇ ॥



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