ਅੰਗ : 680
ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥ ਜਤਨ ਕਰੈ ਮਾਨੁਖ ਡਹਕਾਵੈ ਓਹੁ ਅੰਤਰਜਾਮੀ ਜਾਨੈ ॥ ਪਾਪ ਕਰੇ ਕਰਿ ਮੂਕਰਿ ਪਾਵੈ ਭੇਖ ਕਰੈ ਨਿਰਬਾਨੈ ॥੧॥ ਜਾਨਤ ਦੂਰਿ ਤੁਮਹਿ ਪ੍ਰਭ ਨੇਰਿ ॥ ਉਤ ਤਾਕੈ ਉਤ ਤੇ ਉਤ ਪੇਖੈ ਆਵੈ ਲੋਭੀ ਫੇਰਿ ॥ ਰਹਾਉ ॥ ਜਬ ਲਗੁ ਤੁਟੈ ਨਾਹੀ ਮਨ ਭਰਮਾ ਤਬ ਲਗੁ ਮੁਕਤੁ ਨ ਕੋਈ ॥ ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਦਇਆਲ ਸੁਆਮੀ ਸੰਤੁ ਭਗਤੁ ਜਨੁ ਸੋਈ ॥੨॥੫॥੩੬॥
ਅਰਥ: ਹੇ ਭਾਈ! (ਲਾਲਚੀ ਮਨੁੱਖ) ਅਨੇਕਾਂ ਜਤਨ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਧੋਖਾ ਦੇਂਦਾ ਹੈ, ਵਿਰਕਤਾਂ ਵਾਲੇ ਧਾਰਮਿਕ ਪਹਿਰਾਵੇ ਬਣਾਈ ਰੱਖਦਾ ਹੈ, ਪਾਪ ਕਰ ਕੇ (ਫਿਰ ਉਹਨਾਂ ਪਾਪਾਂ ਤੋਂ) ਮੁੱਕਰ ਭੀ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਪਰ ਸਭ ਦੇ ਦਿਲ ਦੀ ਜਾਣਨ ਵਾਲਾ ਉਹ ਪਰਮਾਤਮਾ (ਸਭ ਕੁਝ) ਜਾਣਦਾ ਹੈ।੧। ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਤੂੰ (ਸਭ ਜੀਵਾਂ ਦੇ) ਨੇੜੇ ਵੱਸਦਾ ਹੈਂ, ਪਰ (ਲਾਲਚੀ ਪਖੰਡੀ ਮਨੁੱਖ) ਤੈਨੂੰ ਦੂਰ (ਵੱਸਦਾ) ਸਮਝਦਾ ਹੈ। ਲਾਲਚੀ ਮਨੁੱਖ (ਲਾਲਚ ਦੇ) ਗੇੜ ਵਿਚ ਫਸਿਆ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ, (ਮਾਇਆ ਦੀ ਖ਼ਾਤਰ) ਉੱਧਰ ਤੱਕਦਾ ਹੈ, ਉੱਧਰ ਤੋਂ ਉੱਧਰ ਤੱਕਦਾ ਹੈ (ਉਸ ਦਾ ਮਨ ਟਿਕਦਾ ਨਹੀਂ)।ਰਹਾਉ। ਹੇ ਭਾਈ! ਜਦੋਂ ਤਕ ਮਨੁੱਖ ਦੇ ਮਨ ਦੀ (ਮਾਇਆ ਵਾਲੀ) ਭਟਕਣਾ ਦੂਰ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀ, ਇਹ (ਲਾਲਚ ਦੇ ਪੰਜੇ ਤੋਂ) ਆਜ਼ਾਦ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦਾ। ਹੇ ਨਾਨਕ! ਆਖ-(ਪਹਿਰਾਵਿਆਂ ਨਾਲ ਭਗਤ ਨਹੀਂ ਬਣ ਜਾਈਦਾ) ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਉਤੇ ਮਾਲਕ-ਪ੍ਰਭੂ ਦਇਆਵਾਨ ਹੁੰਦਾ ਹੈ (ਤੇ, ਉਸ ਨੂੰ ਨਾਮ ਦੀ ਦਾਤਿ ਦੇਂਦਾ ਹੈ) ਉਹੀ ਮਨੁੱਖ ਸੰਤ ਹੈ ਭਗਤ ਹੈ।੨।੫।੩੬।
बिलावलु महला ५ ॥ सहज समाधि अनंद सूख पूरे गुरि दीन ॥ सदा सहाई संगि प्रभ अम्रित गुण चीन ॥ रहाउ ॥ जै जै कारु जगत्र महि लोचहि सभि जीआ ॥ सुप्रसंन भए सतिगुर प्रभू कछु बिघनु न थीआ ॥१॥ जा का अंगु दइआल प्रभ ता के सभ दास ॥ सदा सदा वडिआईआ नानक गुर पासि ॥२॥१२॥३०॥
हे भाई! जिस मनुख ऊपर गुरु दयावान होता है, उस को) पूरे गुरु ने आत्मिक अडोलता में एक-रस टिकाव के सारे सुख आनंद दे दिए। प्रभु उस मनुख का मददगार बना रहता है, उस के अंग-संग रहता है, वह मनुख प्रभु के आत्मिक जीवन देने वाले गुण (अपने मन में) विचरता रहता है॥ रहाउ॥ हे भाई! उस मनुख की सारे जगत में हर जगह सोभा होती है, (जगत के) सारे जीव (उस का दर्शन करना) चाहते हैं, जिस मनुख ऊपर गुरु परमात्मा पूरी तरह प्रसन्न हो गए, उस मनुख के जीवन के रास्ते में कोई रुकावट नहीं आती॥१॥ हे भाई! दया का चश्मा प्रभु जिस (मनुख) का पक्ष करता है, सब जीव उस के सेवक हो जाते हैं। गुरू नानक जी कहते हैं, हे नानक! गुरु के चरनो में रहने से सदा ही आदर मान मिलता है॥२॥१२॥३०
ਅੰਗ : 807
ਬਿਲਾਵਲੁ ਮਹਲਾ ੫॥ ਸਹਜ ਸਮਾਧਿ ਅਨੰਦ ਸੂਖ ਪੂਰੇ ਗੁਰਿ ਦੀਨ ॥ ਸਦਾ ਸਹਾਈ ਸੰਗਿ ਪ੍ਰਭ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਗੁਣ ਚੀਨ ॥ ਰਹਾਉ ॥ ਜੈ ਜੈ ਕਾਰੁ ਜਗਤ੍ਰ ਮਹਿ ਲੋਚਹਿ ਸਭਿ ਜੀਆ ॥ ਸੁਪ੍ਰਸੰਨ ਭਏ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਭੂ ਕਛੁ ਬਿਘਨੁ ਨ ਥੀਆ ॥੧॥ ਜਾ ਕਾ ਅੰਗੁ ਦਇਆਲ ਪ੍ਰਭ ਤਾ ਕੇ ਸਭ ਦਾਸ ॥ ਸਦਾ ਸਦਾ ਵਡਿਆਈਆ ਨਾਨਕ ਗੁਰ ਪਾਸਿ ॥੨॥੧੨॥੩੦॥
ਅਰਥ : ਹੇ ਭਾਈ! ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਉੱਤੇ ਗੁਰੂ ਦਇਆਵਾਨ ਹੁੰਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਨੂੰ) ਪੂਰੇ ਗੁਰੂ ਨੇ ਆਤਮਕ ਅਡੋਲਤਾ ਵਿਚ ਇਕ-ਰਸ ਟਿਕਾਉ ਦੇ ਸਾਰੇ ਸੁਖ ਆਨੰਦ ਦੇ ਦਿੱਤੇ। ਪ੍ਰਭੂ ਉਸ ਮਨੁੱਖ ਦਾ ਮਦਦਗਾਰ ਬਣਿਆ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਦੇ ਅੰਗ-ਸੰਗ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਦੇਣ ਵਾਲੇ ਗੁਣ (ਆਪਣੇ ਮਨ ਵਿਚ) ਵਿਚਾਰਦਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ ॥ ਰਹਾਉ॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਉਸ ਮਨੁੱਖ ਦੀ ਸਾਰੇ ਜਗਤ ਵਿਚ ਹਰ ਥਾਂ ਸੋਭਾ ਹੁੰਦੀ ਹੈ, (ਜਗਤ ਦੇ) ਸਾਰੇ ਜੀਵ (ਉਸ ਦਾ ਦਰਸਨ ਕਰਨਾ) ਚਾਹੁੰਦੇ ਹਨ, ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਉਤੇ ਗੁਰੂ ਪਰਮਾਤਮਾ ਚੰਗੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਪ੍ਰਸੰਨ ਹੋ ਗਏ, ਉਸ ਮਨੁੱਖ ਦੇ ਜੀਵਨ ਦੇ ਰਸਤੇ ਵਿਚ ਕੋਈ ਰੁਕਾਵਟ ਨਹੀਂ ਆਉਂਦੀ ॥੧॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਦਇਆ ਦਾ ਸੋਮਾ ਪ੍ਰਭੂ ਜਿਸ (ਮਨੁੱਖ) ਦਾ ਪੱਖ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਸਭ ਜੀਵ ਉਸ ਦੇ ਸੇਵਕ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਜੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ, ਹੇ ਨਾਨਕ! ਗੁਰੂ ਦੇ ਚਰਨਾਂ ਵਿਚ ਰਿਹਾਂ ਸਦਾ ਹੀ ਆਦਰ-ਮਾਣ ਮਿਲਦਾ ਹੈ ॥੨॥੧੨॥੩੦॥
जो जनु भाउ भगति कछु जानै ता कउ अचरजु काहो ॥ जिउ जलु जल महि पैसि न निकसै तिउ ढुरि मिलिओ जुलाहो ॥१॥ हरि के लोगा मै तउ मति का भोरा ॥ जउ तनु कासी तजहि कबीरा रमईऐ कहा निहोरा ॥१॥ रहाउ ॥ कहतु कबीरु सुनहु रे लोई भरमि न भूलहु कोई ॥ किआ कासी किआ ऊखरु मगहरु रामु रिदै जउ होई ॥२॥३॥
अर्थ :- जैसे पानी पानी में मिल के (फिर) अलग नहीं हो सकता, उसी प्रकार (कबीर) जुलाह (भी) आपा-भाव मिटा के परमात्मा में मिल गया है। इस में कोई अनोखी बात नहीं है,जो भी मनुख भगवान-प्रेम और भगवान-भक्ति के साथ साँझ बनाता है (उस का भगवान के साथ एक-रूप हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है।1। हे संत जनो ! (लोकों के विचार में) मैं मति का कमला ही सही (भावार्थ, लोक मुझे काहे मूर्ख कहें कि मैं काँशी छोड़ के मगहर आ गया हूँ)। (पर,) हे कबीर ! अगर तूं काँशी में (रहता हुआ) शरीर छोडें (और मुक्ति मिल जाए) तो परमात्मा का इस में क्या उपकार समझा जाएगा ?क्योंकि काँशी में तो वैसे ही इन लोकों के विचार अनुसार मरन लगने से मुक्ति मिल जाती है, तो फिर सुमिरन का क्या लाभ ?।1।रहाउ। (पर) कबीर कहता है-हे लोको ! सुनो, कोई मनुख किसी भ्रम में ना पड़ जाए (कि काँशी में मुक्ति मिलती है, और मगहर में नहीं मिलती), अगर परमात्मा (का नाम) हृदय में हो, तो काँशी क्या और कलराठा मगहर क्या (दोनो जगह भगवान में लीन हो सकते है)।2।3।
ਅੰਗ : 692
ਜੋ ਜਨੁ ਭਾਉ ਭਗਤਿ ਕਛੁ ਜਾਨੈ ਤਾ ਕਉ ਅਚਰਜੁ ਕਾਹੋ ॥ ਜਿਉ ਜਲੁ ਜਲ ਮਹਿ ਪੈਸਿ ਨ ਨਿਕਸੈ ਤਿਉ ਢੁਰਿ ਮਿਲਿਓ ਜੁਲਾਹੋ ॥੧॥ ਹਰਿ ਕੇ ਲੋਗਾ ਮੈ ਤਉ ਮਤਿ ਕਾ ਭੋਰਾ ॥ ਜਉ ਤਨੁ ਕਾਸੀ ਤਜਹਿ ਕਬੀਰਾ ਰਮਈਐ ਕਹਾ ਨਿਹੋਰਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ ਕਹਤੁ ਕਬੀਰੁ ਸੁਨਹੁ ਰੇ ਲੋਈ ਭਰਮਿ ਨ ਭੂਲਹੁ ਕੋਈ ॥ ਕਿਆ ਕਾਸੀ ਕਿਆ ਊਖਰੁ ਮਗਹਰੁ ਰਾਮੁ ਰਿਦੈ ਜਉ ਹੋਈ ॥੨॥੩॥
ਅਰਥ:- ਜਿਵੇਂ ਪਾਣੀ ਪਾਣੀ ਵਿਚ ਮਿਲ ਕੇ (ਮੁੜ) ਵੱਖਰਾ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦਾ,ਤਿਵੇਂ (ਕਬੀਰ) ਜੁਲਾਹ (ਭੀ) ਆਪਾ-ਭਾਵ ਮਿਟਾ ਕੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਵਿਚ ਮਿਲ ਗਿਆ ਹੈ। ਇਸ ਵਿਚ ਕੋਈ ਅਨੋਖੀ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਹੈ, ਜੋ ਭੀ ਮਨੁੱਖ ਪ੍ਰਭੂ-ਪ੍ਰੇਮ ਤੇ ਪ੍ਰਭੂ-ਭਗਤੀ ਨਾਲ ਸਾਂਝ ਬਣਾਉਂਦਾ ਹੈ (ਉਸ ਦਾ ਪ੍ਰਭੂ ਨਾਲ ਇੱਕ-ਮਿੱਕ ਹੋ ਜਾਣਾ ਕੋਈ ਵੱਡੀ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਹੈ।1। ਹੇ ਸੰਤ ਜਨੋ! (ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਭਾਣੇ) ਮੈਂ ਮੱਤ ਦਾ ਕਮਲਾ ਹੀ ਸਹੀ (ਭਾਵ, ਲੋਕ ਮੈਨੂੰ ਪਏ ਮੂਰਖ ਆਖਣ ਕਿ ਮੈਂ ਕਾਂਸ਼ੀ ਛੱਡ ਕੇ ਮਗਹਰ ਆ ਗਿਆ ਹਾਂ)। (ਪਰ,) ਹੇ ਕਬੀਰ! ਜੇ ਤੂੰ ਕਾਂਸ਼ੀ ਵਿਚ (ਰਹਿੰਦਾ ਹੋਇਆ) ਸਰੀਰ ਛੱਡੇਂ (ਤੇ ਮੁਕਤੀ ਮਿਲ ਜਾਏ) ਤਾਂ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਇਸ ਵਿਚ ਕੀਹ ਉਪਕਾਰ ਸਮਝਿਆ ਜਾਇਗਾ? ਕਿਉਂਕਿ ਕਾਂਸ਼ੀ ਵਿਚ ਤਾਂ ਉਂਞ ਹੀ ਇਹਨਾਂ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਖ਼ਿਆਲ ਅਨੁਸਾਰ ਮਰਨ ਲੱਗਿਆਂ ਮੁਕਤੀ ਮਿਲ ਜਾਂਦੀ ਹੈ, ਤਾਂ ਫਿਰ ਸਿਮਰਨ ਦਾ ਕੀਹ ਲਾਭ?।1। ਰਹਾਉ। (ਪਰ) ਕਬੀਰ ਆਖਦਾ ਹੈ—ਹੇ ਲੋਕੋ! ਸੁਣੋ,ਕੋਈ ਮਨੁੱਖ ਕਿਸੇ ਭੁਲੇਖੇ ਵਿਚ ਨਾਹ ਪੈ ਜਾਏ (ਕਿ ਕਾਂਸ਼ੀ ਵਿਚ ਮੁਕਤੀ ਮਿਲਦੀ ਹੈ, ਤੇ ਮਗਹਰ ਵਿਚ ਨਹੀਂ ਮਿਲਦੀ), ਜੇ ਪਰਮਾਤਮਾ (ਦਾ ਨਾਮ) ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ ਹੋਵੇ, ਤਾਂ ਕਾਂਸ਼ੀ ਕੀਹ ਤੇ ਕਲਰਾਠਾ ਮਗਹਰ ਕੀਹ (ਦੋਹੀਂ ਥਾਈਂ ਪ੍ਰਭੂ ਵਿਚ ਲੀਨ ਹੋ ਸਕੀਦਾ ਹੈ)।2।3।
धनासरी महला १ ॥ जीवा तेरै नाइ मनि आनंदु है जीउ ॥ साचो साचा नाउ गुण गोविंदु है जीउ ॥ गुर गिआनु अपारा सिरजणहारा जिनि सिरजी तिनि गोई ॥ परवाणा आइआ हुकमि पठाइआ फेरि न सकै कोई ॥ आपे करि वेखै सिरि सिरि लेखै आपे सुरति बुझाई ॥ नानक साहिबु अगम अगोचरु जीवा सची नाई ॥१॥ तुम सरि अवरु न कोइ आइआ जाइसी जीउ ॥ हुकमी होइ निबेड़ु भरमु चुकाइसी जीउ ॥ गुरु भरमु चुकाए अकथु कहाए सच महि साचु समाणा ॥ आपि उपाए आपि समाए हुकमी हुकमु पछाणा ॥ सची वडिआई गुर ते पाई तू मनि अंति सखाई ॥ नानक साहिबु अवरु न दूजा नामि तेरै वडिआई ॥२॥ तू सचा सिरजणहारु अलख सिरंदिआ जीउ ॥ एकु साहिबु दुइ राह वाद वधंदिआ जीउ ॥ दुइ राह चलाए हुकमि सबाए जनमि मुआ संसारा ॥ नाम बिना नाही को बेली बिखु लादी सिरि भारा ॥ हुकमी आइआ हुकमु न बूझै हुकमि सवारणहारा ॥ नानक साहिबु सबदि सिञापै साचा सिरजणहारा ॥३॥ भगत सोहहि दरवारि सबदि सुहाइआ जीउ ॥ बोलहि अम्रित बाणि रसन रसाइआ जीउ ॥ रसन रसाए नामि तिसाए गुर कै सबदि विकाणे ॥ पारसि परसिऐ पारसु होए जा तेरै मनि भाणे ॥ अमरा पदु पाइआ आपु गवाइआ विरला गिआन वीचारी ॥ नानक भगत सोहनि दरि साचै साचे के वापारी ॥४॥ भूख पिआसो आथि किउ दरि जाइसा जीउ ॥ सतिगुर पूछउ जाइ नामु धिआइसा जीउ ॥ सचु नामु धिआई साचु चवाई गुरमुखि साचु पछाणा ॥ दीना नाथु दइआलु निरंजनु अनदिनु नामु वखाणा ॥ करणी कार धुरहु फुरमाई आपि मुआ मनु मारी ॥ नानक नामु महा रसु मीठा त्रिसना नामि निवारी ॥५॥२॥
अर्थ: हे प्रभू जी! तेरे नाम में (जुड़ कर) मेरे अंदर आतमिक जीवन पैदा होता है, मेरे मन में ख़ुश़ी पैदा होती है। हे भाई! परमात्मा का नाम सदा-थिर रहने वाला है, प्रभू गुणों (का ख़ज़ाना) है और धरती के जीवों के दिल की जानने वाला है। गुरू का बख़्श़ा ज्ञान बताता है कि सिरजनहार प्रभू बेअंत है, जिस ने यह सृष्टि पैदा की है, वही इस को नाश करता है। जब उस के हुक्म में भेजा हुआ (मौत का) निमंत्रण आता है तो कोई जीव (उस निमंत्रण को) मोड़ नहीं सकता। परमात्मा आप ही (जीवों को) पैदा कर के आप ही संभाल करता है, आप ही प्रत्येक जीव के सिर पर (उस के किए कार्य अनुसार) लेख लिखता है, आप ही (जीव को सही जीवन-मार्ग की) सूझ बख़्श़ता है। मालिक-प्रभू अपहुँच है, जीवों के ज्ञान-इंद्रियों की उस तक पहुँच नहीं हो सकती। हे नानक जी! (उस के द्वार पर अरदास करो, और कहो – हे प्रभू!) तेरी सदा कायम रहने वाली सिफ़त-सलाह कर के मेरे अंदर आतमिक जीवन पैदा होता है (मुझे अपनी सिफ़त-सलाह बख़्श़) ॥१॥ हे प्रभू जी! तेरे बराबर का अन्य कोई नहीं है, (अन्य जो भी जगत में) आया है, (वह यहाँ से आखिर) चला जाएगा (तूँ ही सदा कायम रहने वाला हैं)। जिस मनुष्य की भटकना (गुरू) दूर करता है, प्रभू के हुक्म अनुसार उस के जन्म मरण के चक्र खत्म हो जाते हैं। गुरू जिस की भटकना दूर करता है, उस से उस परमात्मा की सिफ़त-सलाह करवाता है जिस के गुण बताए नहीं जा सकते। वह मनुष्य सदा-थिर प्रभू (की याद) में रहता है, सदा-थिर प्रभू (उस के हृदय में) प्रगट हो जाता है। वह मनुष्य रज़ा के मालिक-प्रभू का हुक्म पहचान लेता है (और समझ लेता है कि) प्रभू आप ही पैदा करता है और आप ही (अपने में) लीन कर लेता है। हे प्रभू! जिस मनुष्य ने तेरी सिफ़त- सलाह (की दात) गुरू से प्राप्त कर लई है, तूँ उस के मन में आ वसता हैं और अंत समय भी उस का मित्र बनता हैं। हे नानक जी! मालिक-प्रभू सदा कायम रहने वाला है, उस जैसा अन्य कोई नहीं। (उस के द्वार पर अरदास करो और कहो-) हे प्रभू! तेरे नाम से जुड़ने से (लोग परलोग में) आदर मिलता है ॥२॥ हे अदृष्ट रचनहार! तूँ सदा-थिर रहने वाला हैं और सब जीवों को पैदा करने वाला हैं। एक सिरजणहार ही (सारे जगत का) मालिक है, उस ने (जन्म और मरण) के दो रास्ते चलाएं हैं। (उसी की रज़ा अनुसार जगत में) झगड़ों की वृद्धि होती है। दोनों रास्ते प्रभू ने ही चलाएं हैं, सभी जीव उसी के हुक्म में हैं, (उसी के हुक्म अनुसार) जगत जमता और मरता रहता है। (जीव नाम को भुला कर माया के मोह का) ज़हर-रूप बोझ अपने सिर पर इक्कठा करी जाता है, (और यह नहीं समझता कि) परमात्मा के नाम के बिना अन्य कोई भी साथी-मित्र नहीं बन सकता। जीव (परमात्मा के) हुक्म अनुसार (जगत में) आता है, (पर माया के मोह में फंस कर उस) हुक्म को समझता नहीं। प्रभू आप ही जीव को अपने हुक्म अनुसार (सही रास्ते पा कर) संवारने के समर्थ है। हे नानक जी! गुरू के श़ब्द में जुड़ने से यह पहचान आती है कि जगत का मालिक सदा-थिर रहने वाला है और सब का पैदा करने वाला है ॥३॥ हे भाई! परमात्मा की भगती करने वाले मनुष्य परमात्मा की हज़ूरी में शोभा प्राप्त करते हैं, क्योंकि गुरू के श़ब्द की बरकत से वह अपने जीवन को सुंदर बना लेते हैं। वह मनुष्य आतमिक जीवन देने वाली बाणी अपनी जीभ से उचारते रहते हैं, जीव को उस बाणी से एक-रस कर लेते हैं। भगत-जन प्रभू के नाम से जीभ को रसा लेते हैं, नाम में जुड़ कर (नाम के लिए उनकी) प्यास बढ़ती है, गुरू के श़ब्द द्वारा वह प्रभू-नाम से सदके होते हैं (नाम की खातिर अन्य सभी शारीरिक सुख कुर्बान करते हैं। हे प्रभू! जब (भगत जन) तेरे मन को प्यारे लगते हैं, तब वह गुरू-पारस से स्पर्श कर के आप भी पारस हो जाते हैं (अन्यों को पवित्र जीवन देने योग्य हो जाते हैं)। जो मनुष्य आपा-भाव दूर करते हैं उनको वह आतमिक दर्जा मिल जाता है जहाँ आतमिक मौत असर नहीं कर सकती। परन्तु इस तरह कोई विरला ही गुरू के दिए ज्ञान की विचार करने वाला मनुष्य होता है। हे नानक जी! परमात्मा की भगती करने वाले मनुष्य सदा-थिर प्रभू के द्वार पर शोभा प्राप्त करते हैं, वह (अपने सारे जीवन में) सदा-थिर प्रभू के नाम का ही व्यपार करते हैं ॥४॥ जब तक मैं माया के लिए भुखा प्यासा रहता हूँ, तब तक मैं किसी भी तरह प्रभू के द्वार पर पहुँच नहीं सकता। (माया की तृष्णा दूर करने का इलाज) मैं जा कर अपने गुरू से पुछता हूँ (और उन की शिक्षा के अनुसार) मैं परमात्मा का नाम सिमरता हूँ (नाम ही तृष्णा दूर करता है)। गुरू की श़रण पड़ कर मैं सदा-थिर नाम सिमरता हूँ, सदा-थिर प्रभू (की सिफ़त-सलाह) उचारता हूँ, और सदा-थिर प्रभू के साथ सांझ पाता हूँ। मैं हर रोज़ उस प्रभू का नाम मुख से लेता हूँ जो दीनों का सहारा है जो दया का स्रोत है और जिस पर माया का असर नहीं पड़ सकता। परमात्मा ने जिस मनुष्य को अपनी हज़ूरी से ही नाम सिमरन की करने-योग्य कार्य करने का हुक्म दे दिया, वह मनुष्य अपने मन को (माया की तरफ़ से) मार कर तृष्णा के असर से बच जाता है। हे नानक जी! उस मनुष्य को प्रभू का नाम ही मीठा और अन्य सभी रसों से श्रेष्ठ लगता है, उस ने नाम सिमरन की बरकत से माया की तृष्णा (अपने अंदर से) दूर कर ली होती है ॥५॥२॥
ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥ ਜੀਵਾ ਤੇਰੈ ਨਾਇ ਮਨਿ ਆਨੰਦੁ ਹੈ ਜੀਉ ॥ ਸਾਚੋ ਸਾਚਾ ਨਾਉ ਗੁਣ ਗੋਵਿੰਦੁ ਹੈ ਜੀਉ ॥ ਗੁਰ ਗਿਆਨੁ ਅਪਾਰਾ ਸਿਰਜਣਹਾਰਾ ਜਿਨਿ ਸਿਰਜੀ ਤਿਨਿ ਗੋਈ ॥ ਪਰਵਾਣਾ ਆਇਆ ਹੁਕਮਿ ਪਠਾਇਆ ਫੇਰਿ ਨ ਸਕੈ ਕੋਈ ॥ ਆਪੇ ਕਰਿ ਵੇਖੈ ਸਿਰਿ ਸਿਰਿ ਲੇਖੈ ਆਪੇ ਸੁਰਤਿ ਬੁਝਾਈ ॥ ਨਾਨਕ ਸਾਹਿਬੁ ਅਗਮ ਅਗੋਚਰੁ ਜੀਵਾ ਸਚੀ ਨਾਈ ॥੧॥ ਤੁਮ ਸਰਿ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਇ ਆਇਆ ਜਾਇਸੀ ਜੀਉ ॥ ਹੁਕਮੀ ਹੋਇ ਨਿਬੇੜੁ ਭਰਮੁ ਚੁਕਾਇਸੀ ਜੀਉ ॥ ਗੁਰੁ ਭਰਮੁ ਚੁਕਾਏ ਅਕਥੁ ਕਹਾਏ ਸਚ ਮਹਿ ਸਾਚੁ ਸਮਾਣਾ ॥ ਆਪਿ ਉਪਾਏ ਆਪਿ ਸਮਾਏ ਹੁਕਮੀ ਹੁਕਮੁ ਪਛਾਣਾ ॥ ਸਚੀ ਵਡਿਆਈ ਗੁਰ ਤੇ ਪਾਈ ਤੂ ਮਨਿ ਅੰਤਿ ਸਖਾਈ ॥ ਨਾਨਕ ਸਾਹਿਬੁ ਅਵਰੁ ਨ ਦੂਜਾ ਨਾਮਿ ਤੇਰੈ ਵਡਿਆਈ ॥੨॥ ਤੂ ਸਚਾ ਸਿਰਜਣਹਾਰੁ ਅਲਖ ਸਿਰੰਦਿਆ ਜੀਉ ॥ ਏਕੁ ਸਾਹਿਬੁ ਦੁਇ ਰਾਹ ਵਾਦ ਵਧੰਦਿਆ ਜੀਉ ॥ ਦੁਇ ਰਾਹ ਚਲਾਏ ਹੁਕਮਿ ਸਬਾਏ ਜਨਮਿ ਮੁਆ ਸੰਸਾਰਾ ॥ ਨਾਮ ਬਿਨਾ ਨਾਹੀ ਕੋ ਬੇਲੀ ਬਿਖੁ ਲਾਦੀ ਸਿਰਿ ਭਾਰਾ ॥ ਹੁਕਮੀ ਆਇਆ ਹੁਕਮੁ ਨ ਬੂਝੈ ਹੁਕਮਿ ਸਵਾਰਣਹਾਰਾ ॥ ਨਾਨਕ ਸਾਹਿਬੁ ਸਬਦਿ ਸਿਞਾਪੈ ਸਾਚਾ ਸਿਰਜਣਹਾਰਾ ॥੩॥ ਭਗਤ ਸੋਹਹਿ ਦਰਵਾਰਿ ਸਬਦਿ ਸੁਹਾਇਆ ਜੀਉ ॥ ਬੋਲਹਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਬਾਣਿ ਰਸਨ ਰਸਾਇਆ ਜੀਉ ॥ ਰਸਨ ਰਸਾਏ ਨਾਮਿ ਤਿਸਾਏ ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਵਿਕਾਣੇ ॥ ਪਾਰਸਿ ਪਰਸਿਐ ਪਾਰਸੁ ਹੋਏ ਜਾ ਤੇਰੈ ਮਨਿ ਭਾਣੇ ॥ ਅਮਰਾ ਪਦੁ ਪਾਇਆ ਆਪੁ ਗਵਾਇਆ ਵਿਰਲਾ ਗਿਆਨ ਵੀਚਾਰੀ ॥ ਨਾਨਕ ਭਗਤ ਸੋਹਨਿ ਦਰਿ ਸਾਚੈ ਸਾਚੇ ਕੇ ਵਾਪਾਰੀ ॥੪॥ ਭੂਖ ਪਿਆਸੋ ਆਥਿ ਕਿਉ ਦਰਿ ਜਾਇਸਾ ਜੀਉ ॥ ਸਤਿਗੁਰ ਪੂਛਉ ਜਾਇ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇਸਾ ਜੀਉ ॥ ਸਚੁ ਨਾਮੁ ਧਿਆਈ ਸਾਚੁ ਚਵਾਈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਾਚੁ ਪਛਾਣਾ ॥ ਦੀਨਾ ਨਾਥੁ ਦਇਆਲੁ ਨਿਰੰਜਨੁ ਅਨਦਿਨੁ ਨਾਮੁ ਵਖਾਣਾ ॥ ਕਰਣੀ ਕਾਰ ਧੁਰਹੁ ਫੁਰਮਾਈ ਆਪਿ ਮੁਆ ਮਨੁ ਮਾਰੀ ॥ ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਮਹਾ ਰਸੁ ਮੀਠਾ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਨਾਮਿ ਨਿਵਾਰੀ ॥੫॥੨॥
ਅਰਥ: ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ ਜੀ! ਤੇਰੇ ਨਾਮ ਵਿਚ (ਜੁੜ ਕੇ) ਮੇਰੇ ਅੰਦਰ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ, ਮੇਰੇ ਮਨ ਵਿਚ ਖ਼ੁਸ਼ੀ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਹੈ, ਪ੍ਰਭੂ ਗੁਣਾਂ (ਦਾ ਖ਼ਜ਼ਾਨਾ) ਹੈ ਤੇ ਧਰਤੀ ਦੇ ਜੀਵਾਂ ਦੇ ਦਿਲ ਦੀ ਜਾਣਨ ਵਾਲਾ ਹੈ। ਗੁਰੂ ਦਾ ਬਖ਼ਸ਼ਿਆ ਗਿਆਨ ਦੱਸਦਾ ਹੈ ਕਿ ਸਿਰਜਣਹਾਰ ਪ੍ਰਭੂ ਬੇਅੰਤ ਹੈ, ਜਿਸ ਨੇ ਇਹ ਸ੍ਰਿਸ਼ਟੀ ਪੈਦਾ ਕੀਤੀ ਹੈ, ਉਹੀ ਇਸ ਨੂੰ ਨਾਸ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਜਦੋਂ ਉਸ ਦੇ ਹੁਕਮ ਵਿਚ ਭੇਜਿਆ ਹੋਇਆ (ਮੌਤ ਦਾ) ਸੱਦਾ ਆਉਂਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਕੋਈ ਜੀਵ (ਉਸ ਸੱਦੇ ਨੂੰ) ਮੋੜ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ। ਪਰਮਾਤਮਾ ਆਪ ਹੀ (ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ) ਪੈਦਾ ਕਰ ਕੇ ਆਪ ਹੀ ਸੰਭਾਲ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਆਪ ਹੀ ਹਰੇਕ ਜੀਵ ਦੇ ਸਿਰ ਉਤੇ (ਉਸ ਦੇ ਕੀਤੇ ਕਰਮਾਂ ਅਨੁਸਾਰ) ਲੇਖ ਲਿਖਦਾ ਹੈ, ਆਪ ਹੀ (ਜੀਵ ਨੂੰ ਸਹੀ ਜੀਵਨ-ਰਾਹ ਦੀ) ਸੂਝ ਬਖ਼ਸ਼ਦਾ ਹੈ। ਮਾਲਕ-ਪ੍ਰਭੂ ਅਪਹੁੰਚ ਹੈ, ਜੀਵਾਂ ਦੇ ਗਿਆਨ-ਇੰਦ੍ਰਿਆਂ ਦੀ ਉਸ ਤਕ ਪਹੁੰਚ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦੀ। ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! (ਉਸ ਦੇ ਦਰ ਤੇ ਅਰਦਾਸ ਕਰੋ, ਤੇ ਆਖੋ-ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ!) ਤੇਰੀ ਸਦਾ ਕਾਇਮ ਰਹਿਣ ਵਾਲੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਕਰ ਕੇ ਮੇਰੇ ਅੰਦਰ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ (ਮੈਨੂੰ ਆਪਣੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਬਖ਼ਸ਼) ॥੧॥ ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ ਜੀ! ਤੇਰੇ ਬਰਾਬਰ ਦਾ ਹੋਰ ਕੋਈ ਨਹੀਂ ਹੈ, (ਹੋਰ ਜੇਹੜਾ ਭੀ ਜਗਤ ਵਿਚ) ਆਇਆ ਹੈ, (ਉਹ ਇਥੋਂ ਆਖ਼ਰ) ਚਲਾ ਜਾਇਗਾ (ਤੂੰ ਹੀ ਸਦਾ ਕਾਇਮ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਹੈਂ)। ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਦੀ ਭਟਕਣਾ (ਗੁਰੂ) ਦੂਰ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਹੁਕਮ ਅਨੁਸਾਰ ਉਸ ਦੇ ਜਨਮ ਮਰਨ ਦੇ ਗੇੜ ਦਾ ਖ਼ਾਤਮਾ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਗੁਰੂ ਜਿਸ ਦੀ ਭਟਕਣਾ ਦੂਰ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਪਾਸੋਂ ਉਸ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਕਰਾਂਦਾ ਹੈ ਜਿਸ ਦੇ ਗੁਣ ਬਿਆਨ ਤੋਂ ਪਰੇ ਹਨ। ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਪ੍ਰਭੂ (ਦੀ ਯਾਦ) ਵਿਚ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ, ਸਦਾ-ਥਿਰ ਪ੍ਰਭੂ (ਉਸ ਦੇ ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ) ਪਰਗਟ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਰਜ਼ਾ ਦੇ ਮਾਲਕ-ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਹੁਕਮ ਪਛਾਣ ਲੈਂਦਾ ਹੈ (ਤੇ ਸਮਝ ਲੈਂਦਾ ਹੈ ਕਿ) ਪ੍ਰਭੂ ਆਪ ਹੀ ਪੈਦਾ ਕਰਦਾ ਹੈ ਤੇ ਆਪ ਹੀ (ਆਪਣੇ ਵਿਚ) ਲੀਨ ਕਰ ਲੈਂਦਾ ਹੈ। ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਨੇ ਤੇਰੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ (ਦੀ ਦਾਤਿ) ਗੁਰੂ ਤੋਂ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰ ਲਈ ਹੈ, ਤੂੰ ਉਸ ਦੇ ਮਨ ਵਿਚ ਆ ਵੱਸਦਾ ਹੈਂ ਤੇ ਅੰਤ ਸਮੇ ਭੀ ਉਸ ਦਾ ਸਾਥੀ ਬਣਦਾ ਹੈਂ। ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! ਮਾਲਕ-ਪ੍ਰਭੂ ਸਦਾ ਕਾਇਮ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਹੈ, ਉਸ ਵਰਗਾ ਹੋਰ ਕੋਈ ਨਹੀਂ। (ਉਸ ਦੇ ਦਰ ਤੇ ਅਰਦਾਸ ਕਰੋ ਤੇ ਆਖੋ-) ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਤੇਰੇ ਨਾਮ ਵਿਚ ਜੁੜਿਆਂ (ਲੋਕ ਪਰਲੋਕ ਵਿਚ) ਆਦਰ ਮਿਲਦਾ ਹੈ ॥੨॥ ਹੇ ਅਦ੍ਰਿਸ਼ਟ ਰਚਨਹਾਰ! ਤੂੰ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਹੈਂ ਤੇ ਸਭ ਜੀਵਾਂ ਦਾ ਪੈਦਾ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਹੈਂ। ਇਕੋ ਸਿਰਜਣਹਾਰ ਹੀ (ਸਾਰੇ ਜਗਤ ਦਾ) ਮਾਲਕ ਹੈ, ਉਸ ਨੇ (ਜੰਮਣਾ ਤੇ ਮਰਨਾ) ਦੋ ਰਸਤੇ ਚਲਾਏ ਹਨ। (ਉਸੇ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਅਨੁਸਾਰ ਜਗਤ ਵਿਚ) ਝਗੜੇ ਵਧਦੇ ਹਨ। ਦੋਵੇਂ ਰਸਤੇ ਪ੍ਰਭੂ ਨੇ ਹੀ ਤੋਰੇ ਹਨ, ਸਾਰੇ ਜੀਵ ਉਸੇ ਦੇ ਹੁਕਮ ਵਿਚ ਹਨ, (ਉਸੇ ਦੇ ਹੁਕਮ ਅਨੁਸਾਰ) ਜਗਤ ਜੰਮਦਾ ਤੇ ਮਰਦਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ। (ਜੀਵ ਨਾਮ ਨੂੰ ਭੁਲਾ ਕੇ ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਦਾ) ਜ਼ਹਰ-ਰੂਪ ਭਾਰ ਆਪਣੇ ਸਿਰ ਉਤੇ ਇਕੱਠਾ ਕਰੀ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, (ਤੇ ਇਹ ਨਹੀਂ ਸਮਝਦਾ ਕਿ) ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਨਾਮ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਹੋਰ ਕੋਈ ਭੀ ਸਾਥੀ-ਮਿੱਤਰ ਨਹੀਂ ਬਣ ਸਕਦਾ। ਜੀਵ (ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ) ਹੁਕਮ ਅਨੁਸਾਰ (ਜਗਤ ਵਿਚ) ਆਉਂਦਾ ਹੈ, (ਪਰ ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਵਿਚ ਫਸ ਕੇ ਉਸ) ਹੁਕਮ ਨੂੰ ਸਮਝਦਾ ਨਹੀਂ। ਪ੍ਰਭੂ ਆਪ ਹੀ ਜੀਵ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਹੁਕਮ ਅਨੁਸਾਰ (ਸਿੱਧੇ ਰਾਹ ਪਾ ਕੇ) ਸਵਾਰਨ ਦੇ ਸਮਰਥ ਹੈ। ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! ਗੁਰੂ ਦੇ ਸ਼ਬਦ ਵਿਚ ਜੁੜਿਆਂ ਇਹ ਪਛਾਣ ਆਉਂਦੀ ਹੈ ਕਿ ਜਗਤ ਦਾ ਮਾਲਕ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਹੈ ਤੇ ਸਭ ਦਾ ਪੈਦਾ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਹੈ ॥੩॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਭਗਤੀ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਬੰਦੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਹਜ਼ੂਰੀ ਵਿਚ ਸੋਭਦੇ ਹਨ, ਕਿਉਂਕਿ ਗੁਰੂ ਦੇ ਸ਼ਬਦ ਦੀ ਬਰਕਤਿ ਨਾਲ ਉਹ ਆਪਣੇ ਜੀਵਨ ਨੂੰ ਸੋਹਣਾ ਬਣਾ ਲੈਂਦੇ ਹਨ। ਉਹ ਬੰਦੇ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਦੇਣ ਵਾਲੀ ਬਾਣੀ ਆਪਣੀ ਜੀਭ ਨਾਲ ਉਚਾਰਦੇ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ, ਜੀਵ ਨੂੰ ਉਸ ਬਾਣੀ ਨਾਲ ਇਕ-ਰਸ ਕਰ ਲੈਂਦੇ ਹਨ। ਭਗਤ-ਜਨ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਨਾਮ ਨਾਲ ਜੀਭ ਨੂੰ ਰਸਾ ਲੈਂਦੇ ਹਨ, ਨਾਮ ਵਿਚ ਜੁੜ ਕੇ (ਨਾਮ ਵਾਸਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੀ) ਪਿਆਸ ਵਧਦੀ ਹੈ, ਗੁਰੂ ਦੇ ਸ਼ਬਦ ਦੀ ਰਾਹੀਂ ਉਹ ਪ੍ਰਭੂ-ਨਾਮ ਤੋਂ ਸਦਕੇ ਹੁੰਦੇ ਹਨ (ਨਾਮ ਦੀ ਖ਼ਾਤਰ ਹੋਰ ਸਭ ਸਰੀਰਕ ਸੁਖ ਕੁਰਬਾਨ ਕਰਦੇ ਹਨ)। ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਜਦੋਂ (ਭਗਤ ਜਨ) ਤੇਰੇ ਮਨ ਵਿਚ ਪਿਆਰੇ ਲੱਗਦੇ ਹਨ, ਤਾਂ ਉਹ ਗੁਰੂ-ਪਾਰਸ ਨਾਲ ਛੁਹ ਕੇ ਆਪ ਭੀ ਪਾਰਸ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਨ (ਹੋਰਨਾਂ ਨੂੰ ਪਵਿਤ੍ਰ ਜੀਵਨ ਦੇਣ ਜੋਗੇ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਨ)। ਜੇਹੜੇ ਬੰਦੇ ਆਪਾ-ਭਾਵ ਦੂਰ ਕਰਦੇ ਹਨ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਉਹ ਆਤਮਕ ਦਰਜਾ ਮਿਲ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਜਿਥੇ ਆਤਮਕ ਮੌਤ ਅਸਰ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦੀ। ਪਰ ਅਜੇਹਾ ਕੋਈ ਵਿਰਲਾ ਹੀ ਗੁਰੂ ਦੇ ਦਿੱਤੇ ਗਿਆਨ ਦੀ ਵਿਚਾਰ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਬੰਦਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਭਗਤੀ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਬੰਦੇ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਦਰ ਤੇ ਸੋਭਾ ਪਾਂਦੇ ਹਨ, ਉਹ (ਆਪਣੇ ਸਾਰੇ ਜੀਵਨ ਵਿਚ) ਸਦਾ-ਥਿਰ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਨਾਮ ਦਾ ਹੀ ਵਣਜ ਕਰਦੇ ਹਨ ॥੪॥ ਜਦੋਂ ਤਕ ਮੈਂ ਮਾਇਆ ਵਾਸਤੇ ਭੁੱਖਾ ਪਿਆਸਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹਾਂ, ਤਦ ਤਕ ਮੈਂ ਕਿਸੇ ਭੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਦਰ ਤੇ ਪਹੁੰਚ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ। (ਮਾਇਆ ਦੀ ਤ੍ਰਿਸ਼ਨਾ ਦੂਰ ਕਰਨ ਦਾ ਇਲਾਜ) ਮੈਂ ਜਾ ਕੇ ਆਪਣੇ ਗੁਰੂ ਤੋਂ ਪੁੱਛਦਾ ਹਾਂ (ਤੇ ਉਸ ਦੀ ਸਿੱਖਿਆ ਅਨੁਸਾਰ) ਮੈਂ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ ਸਿਮਰਦਾ ਹਾਂ (ਨਾਮ ਹੀ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਦੂਰ ਕਰਦਾ ਹੈ)। ਗੁਰੂ ਦੀ ਸਰਨ ਪੈ ਕੇ ਮੈਂ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਨਾਮ ਸਿਮਰਦਾ ਹਾਂ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਪ੍ਰਭੂ (ਦੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ) ਉਚਾਰਦਾ ਹਾਂ, ਤੇ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਪ੍ਰਭੂ ਨਾਲ ਸਾਂਝ ਪਾਂਦਾ ਹਾਂ। ਮੈਂ ਹਰ ਰੋਜ਼ ਉਸ ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਨਾਮ ਮੂੰਹੋਂ ਬੋਲਦਾ ਹਾਂ ਜੋ ਦੀਨਾਂ ਦਾ ਸਹਾਰਾ ਹੈ ਜੋ ਦਇਆ ਦਾ ਸੋਮਾ ਹੈ ਤੇ ਜਿਸ ਉਤੇ ਮਾਇਆ ਦਾ ਪ੍ਰਭਾਵ ਨਹੀਂ ਪੈ ਸਕਦਾ। ਪਰਮਾਤਮਾ ਨੇ ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਹਜ਼ੂਰੀ ਤੋਂ ਹੀ ਨਾਮ ਸਿਮਰਨ ਦੀ ਕਰਨ-ਜੋਗ ਕਾਰ ਕਰਨ ਦਾ ਹੁਕਮ ਦੇ ਦਿੱਤਾ, ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਆਪਣੇ ਮਨ ਨੂੰ (ਮਾਇਆ ਵਲੋਂ) ਮਾਰ ਕੇ ਤ੍ਰਿਸ਼ਨਾ ਦੇ ਪ੍ਰਭਾਵ ਤੋਂ ਬਚ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! ਉਸ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਨਾਮ ਹੀ ਮਿੱਠਾ* *ਤੇ ਹੋਰ ਸਭ ਰਸਾਂ ਨਾਲੋਂ ਸ੍ਰੇਸ਼ਟ ਲੱਗਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਨੇ ਨਾਮ ਸਿਮਰਨ ਦੀ ਬਰਕਤਿ ਨਾਲ ਮਾਇਆ ਦੀ ਤ੍ਰਿਸ਼ਨਾ (ਆਪਣੇ ਅੰਦਰੋਂ) ਦੂਰ ਕਰ ਲਈ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ॥੫॥੨॥
धनासरी, भगत रवि दास जी की ੴ सतिगुर परसाद हम सरि दीनु दइआल न तुम सरि अब पतिआरू किया कीजे ॥ बचनी तोर मोर मनु माने जन कऊ पूरण दीजे ॥१॥ हउ बलि बलि जाउ रमईआ कारने ॥ कारन कवन अबोल ॥ रहाउ ॥ बहुत जनम बिछुरे थे माधउ इहु जनमु तुम्हारे लेखे ॥ कहि रविदास आस लगि जीवउ चिर भइओ दरसनु देखे ॥२॥१॥
(हे माधो मेरे जैसा कोई दीन और कंगाल नहीं हे और तेरे जैसा कोई दया करने वाला नहीं, (मेरी कंगालता का) अब और परतावा करने की जरुरत नहीं (हे सुंदर राम!) मुझे दास को यह सिदक बक्श की मेरा मन तेरी सिफत सलाह की बाते करने में ही लगा रहे।१। हे सुंदर राम! में तुझसे सदके हूँ, तू किस कारण मेरे साथ नहीं बोलता?||रहाउ|| रविदास जी कहते हैं- हे माधो! कई जन्मो से मैं तुझ से बिछुड़ा आ रहा हूँ (कृपा कर, मेरा) यह जनम तेरी याद में बीते; तेरा दीदार किये बहुत समां हो गया है, (दर्शन की) आस में जीवित हूँ॥२॥१॥
ਅੰਗ : 694
ਧਨਾਸਰੀ ਭਗਤ ਰਵਿਦਾਸ ਜੀ ਕੀ ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ਹਮ ਸਰਿ ਦੀਨੁ ਦਇਆਲੁ ਨ ਤੁਮ ਸਰਿ ਅਬ ਪਤੀਆਰੁ ਕਿਆ ਕੀਜੈ ॥ ਬਚਨੀ ਤੋਰ ਮੋਰ ਮਨੁ ਮਾਨੈ ਜਨ ਕਉ ਪੂਰਨੁ ਦੀਜੈ ॥੧॥ ਹਉ ਬਲਿ ਬਲਿ ਜਾਉ ਰਮਈਆ ਕਾਰਨੇ ॥ ਕਾਰਨ ਕਵਨ ਅਬੋਲ ॥ ਰਹਾਉ ॥ ਬਹੁਤ ਜਨਮ ਬਿਛੁਰੇ ਥੇ ਮਾਧਉ ਇਹੁ ਜਨਮੁ ਤੁਮ੍ਹ੍ਹਾਰੇ ਲੇਖੇ ॥ ਕਹਿ ਰਵਿਦਾਸ ਆਸ ਲਗਿ ਜੀਵਉ ਚਿਰ ਭਇਓ ਦਰਸਨੁ ਦੇਖੇ ॥੨॥੧॥
ਅਰਥ : (ਹੇ ਮਾਧੋ!) ਮੇਰੇ ਵਰਗਾ ਕੋਈ ਨਿਮਾਣਾ ਨਹੀਂ, ਤੇ, ਤੇਰੇ, ਵਰਗਾ ਹੋਰ ਕੋਈ ਦਇਆ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਨਹੀਂ, (ਮੇਰੀ ਕੰਗਾਲਤਾ ਦਾ) ਹੁਣ ਹੋਰ ਪਰਤਾਵਾ ਕਰਨ ਦੀ ਲੋੜ ਨਹੀਂ। (ਹੇ ਸੋਹਣੇ ਰਾਮ!) ਮੈਨੂੰ ਦਾਸ ਨੂੰ ਇਹ ਪੂਰਨ ਸਿਦਕ ਬਖ਼ਸ਼ ਕਿ ਮੇਰਾ ਮਨ ਤੇਰੀ ਸਿਫ਼ਤਿ-ਸਾਲਾਹ ਦੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਵਿਚ ਪਰਚ ਜਾਇਆ ਕਰੇ।੧। ਹੇ ਸੋਹਣੇ ਰਾਮ! ਮੈਂ ਤੈਥੋਂ ਸਦਾ ਸਦਕੇ ਹਾਂ; ਤੂੰ ਕਿਸ ਗੱਲੇ ਮੇਰੇ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਬੋਲਦਾ?।ਰਹਾਉ। ਰਵਿਦਾਸ ਜੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ -ਹੇ ਮਾਧੋ! ਕਈ ਜਨਮਾਂ ਤੋਂ ਮੈਂ ਤੈਥੋਂ ਵਿਛੁੜਿਆ ਆ ਰਿਹਾ ਹਾਂ (ਮਿਹਰ ਕਰ, ਮੇਰਾ) ਇਹ ਜਨਮ ਤੇਰੀ ਯਾਦ ਵਿਚ ਬੀਤੇ; ਤੇਰਾ ਦੀਦਾਰ ਕੀਤਿਆਂ ਬੜਾ ਚਿਰ ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ, (ਦਰਸ਼ਨ ਦੀ) ਆਸ ਵਿਚ ਹੀ ਮੈਂ ਜੀਊਂਦਾ ਹਾਂ ॥੨॥੧॥
सलोकु मः ३ ॥ परथाइ साखी महा पुरख बोलदे साझी सगल जहानै ॥ गुरमुखि होइ सु भउ करे आपणा आपु पछाणै ॥ गुर परसादी जीवतु मरै ता मन ही ते मनु मानै ॥ जिन कउ मन की परतीति नाही नानक से किआ कथहि गिआनै ॥१॥ मः ३ ॥ गुरमुखि चितु न लाइओ अंति दुखु पहुता आइ ॥ अंदरहु बाहरहु अंधिआं सुधि न काई पाइ ॥ पंडित तिन की बरकती सभु जगतु खाइ जो रते हरि नाइ ॥ जिन गुर कै सबदि सलाहिआ हरि सिउ रहे समाइ ॥ पंडित दूजै भाइ बरकति न होवई ना धनु पलै पाइ ॥ पड़ि थके संतोखु न आइओ अनदिनु जलत विहाइ ॥ कूक पूकार न चुकई ना संसा विचहु जाइ ॥ नानक नाम विहूणिआ मुहि कालै उठि जाइ ॥२॥ पउड़ी ॥ हरि सजण मेलि पिआरे मिलि पंथु दसाई ॥ जो हरि दसे मितु तिसु हउ बलि जाई ॥ गुण साझी तिन सिउ करी हरि नामु धिआई ॥ हरि सेवी पिआरा नित सेवि हरि सुखु पाई ॥ बलिहारी सतिगुर तिसु जिनि सोझी पाई ॥१२॥
अर्थ: महा पुरुख किसी के सम्बन्ध में शिक्षा का बचन बोलते है (पर वेह शिक्षा) सार संसार के लिए बराबर होती हा, जो मनुख सतगुरु के सन्मुख होता है, वह (सुन के) प्रभु का डर (हिरदय में धारण) करता है, और अपने आप की खोह करता है। सतगुरु की कृपा से वह संसार में रहता हुआ माया से दूर रहता है, तो उसका मन अपने आप में रहता है (बहार भटकने से हट जाता है)। हे नानक! जिनका मन पसीजा नहीं, उनको ज्ञान की बातें करने का कोई लाभ नहीं होता।१। हे पंडित! जिन मनुष्यों ने सतिगुरू के सन्मुख हो के (हरी में) मन नहीं जोड़ा, उन्हें आखिर दुख ही होता है। उन अंदर व बाहर के अंधों को कोई समझ नहीं आती। (पर) हे पंडित! जो मनुष्य हरी के नाम में रंगे हुए हैं, जिन्होंने सतिगुरू के शबद के द्वारा सिफत सालाह की है और हरी में लीन हैं, उनकी कमाई की बरकति सारा संसार खाता है। हे पण्डित! माया के मोह में (फसे रहने से) बरकति नहीं हो सकती (आत्मिक जीवन फलता-फूलता नहीं) और ना ही नाम-धन मिलता है; पढ़-पढ़ के थक जाते हैं, पर संतोष नहीं आता और हर वक्त (उम्र) जलते हुए गुजरती है; उनकी गिला-गुजारिश खत्म नहीं होती और मन में से चिंता नहीं जाती। हे नानक! नाम से वंचित रहने के कारण मनुष्य काला मुँह ले के ही (संसार से) उठ जाता है।2। हे प्यारे हरी! मुझे गुरमुख मिला, जिनको मिल के मैं तेरा राह पूछूँ। जो मनुष्य मुझे हरी मित्र (की खबर) बताए, मैं उससे सदके हूँ। उनके साथ मैं गुणों की सांझ डालूँ और हरी का नाम सिमरूँ। मैं सदा प्यारे हरी को सिमरूँ और सिमर के सुख लूँ। मैं सदके हूँ उस सतिगुरू से जिसने (परमात्मा की) समझ बख्शी है।12।
ਅੰਗ : 647
ਸਲੋਕੁ ਮ: ੩ ॥ ਪਰਥਾਇ ਸਾਖੀ ਮਹਾ ਪੁਰਖ ਬੋਲਦੇ ਸਾਝੀ ਸਗਲ ਜਹਾਨੈ ॥ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਇ ਸੁ ਭਉ ਕਰੇ ਆਪਣਾ ਆਪੁ ਪਛਾਣੈ ॥ ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਜੀਵਤੁ ਮਰੈ ਤਾ ਮਨ ਹੀ ਤੇ ਮਨੁ ਮਾਨੈ ॥ ਜਿਨ ਕਉ ਮਨ ਕੀ ਪਰਤੀਤਿ ਨਾਹੀ ਨਾਨਕ ਸੇ ਕਿਆ ਕਥਹਿ ਗਿਆਨੈ ॥੧॥ ਮਃ ੩ ॥ ਗੁਰਮੁਖਿ ਚਿਤੁ ਨ ਲਾਇਓ ਅੰਤਿ ਦੁਖੁ ਪਹੁਤਾ ਆਇ ॥ ਅੰਦਰਹੁ ਬਾਹਰਹੁ ਅੰਧਿਆਂ ਸੁਧਿ ਨ ਕਾਈ ਪਾਇ ॥ ਪੰਡਿਤ ਤਿਨ ਕੀ ਬਰਕਤੀ ਸਭੁ ਜਗਤੁ ਖਾਇ ਜੋ ਰਤੇ ਹਰਿ ਨਾਇ ॥ ਜਿਨ ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਸਲਾਹਿਆ ਹਰਿ ਸਿਉ ਰਹੇ ਸਮਾਇ ॥ ਪੰਡਿਤ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਬਰਕਤਿ ਨ ਹੋਵਈ ਨਾ ਧਨੁ ਪਲੈ ਪਾਇ ॥ ਪੜਿ ਥਕੇ ਸੰਤੋਖੁ ਨ ਆਇਓ ਅਨਦਿਨੁ ਜਲਤ ਵਿਹਾਇ ॥ ਕੂਕ ਪੂਕਾਰ ਨ ਚੁਕਈ ਨਾ ਸੰਸਾ ਵਿਚਹੁ ਜਾਇ ॥ ਨਾਨਕ ਨਾਮ ਵਿਹੂਣਿਆ ਮੁਹਿ ਕਾਲੈ ਉਠਿ ਜਾਇ ॥੨॥ ਪਉੜੀ ॥ ਹਰਿ ਸਜਣ ਮੇਲਿ ਪਿਆਰੇ ਮਿਲਿ ਪੰਥੁ ਦਸਾਈ ॥ ਜੋ ਹਰਿ ਦਸੇ ਮਿਤੁ ਤਿਸੁ ਹਉ ਬਲਿ ਜਾਈ ॥ ਗੁਣ ਸਾਝੀ ਤਿਨ ਸਿਉ ਕਰੀ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਈ ॥ ਹਰਿ ਸੇਵੀ ਪਿਆਰਾ ਨਿਤ ਸੇਵਿ ਹਰਿ ਸੁਖੁ ਪਾਈ ॥ ਬਲਿਹਾਰੀ ਸਤਿਗੁਰ ਤਿਸੁ ਜਿਨਿ ਸੋਝੀ ਪਾਈ ॥੧੨॥
ਅਰਥ: ਮਹਾਂ ਪੁਰਖ ਕਿਸੇ ਦੇ ਸੰਬੰਧ ਵਿਚ ਸਿੱਖਿਆ ਦਾ ਬਚਨ ਬੋਲਦੇ ਹਨ (ਪਰ ਉਹ ਸਿੱਖਿਆ) ਸਾਰੇ ਸੰਸਾਰ ਲਈ ਸਾਂਝੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ, ਜੋ ਮਨੁੱਖ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦੇ ਸਨਮੁਖ ਹੁੰਦਾ ਹੈ, ਉਹ (ਸੁਣ ਕੇ) ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਡਰ (ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ ਧਾਰਨ) ਕਰਦਾ ਹੈ, ਤੇ ਆਪਣੇ ਆਪ ਦੀ ਖੋਜ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਸਤਿਗੁਰੂ ਦੀ ਕਿਰਪਾ ਨਾਲ ਉਹ ਸੰਸਾਰ ਵਿਚ ਵਰਤਦਾ ਹੋਇਆ ਹੀ ਮਾਇਆ ਵਲੋਂ ਉਦਾਸ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਉਸ ਦਾ ਮਨ ਆਪਣੇ ਆਪ ਵਿਚ ਪਤੀਜ ਜਾਂਦਾ ਹੈ (ਬਾਹਰ ਭਟਕਣੋਂ ਹਟ ਜਾਂਦਾ ਹੈ)। ਹੇ ਨਾਨਕ! ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਮਨ ਪਤੀਜਿਆ ਨਹੀਂ, ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਗਿਆਨ ਦੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਕਰਨ ਦਾ ਕੋਈ ਲਾਭ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ।੧। ਹੇ ਪੰਡਿਤ! ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਮਨੁੱਖਾਂ ਨੇ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦੇ ਸਨਮੁਖ ਹੋ ਕੇ (ਹਰੀ ਵਿਚ) ਮਨ ਨਹੀਂ ਜੋੜਿਆ, ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਆਖ਼ਰ ਦੁੱਖ ਵਾਪਰਦਾ ਹੈ; ਉਹਨਾਂ ਅੰਦਰੋਂ ਤੇ ਬਾਹਰੋਂ ਅੰਨਿ੍ਹਆਂ ਨੂੰ ਕੋਈ ਸਮਝ ਨਹੀਂ ਆਉਂਦੀ। (ਪਰ) ਹੇ ਪੰਡਿਤ! ਜੋ ਮਨੁੱਖ ਹਰੀ ਦੇ ਨਾਮ ਵਿਚ ਰੱਤੇ ਹੋਏ ਹਨ, ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦੇ ਸ਼ਬਦ ਦੀ ਰਾਹੀਂ ਸਿਫ਼ਤਿ-ਸਾਲਾਹ ਕੀਤੀ ਹੈ ਤੇ ਹਰੀ ਵਿੱਚ ਲੀਨ ਹਨ, ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਕਮਾਈ ਦੀ ਬਰਕਤਿ ਸਾਰਾ ਸੰਸਾਰ ਖਾਂਦਾ ਹੈ। ਹੇ ਪੰਡਿਤ! ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਵਿਚ (ਫਸੇ ਰਿਹਾਂ) ਬਰਕਤਿ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦੀ (ਆਤਮਿਕ ਜੀਵਨ ਵਧਦਾ-ਫੁਲਦਾ ਨਹੀਂ) ਤੇ ਨਾਹ ਹੀ ਨਾਮ-ਧਨ ਮਿਲਦਾ ਹੈ; ਪੜ੍ਹ ਕੇ ਥੱਕ ਜਾਂਦੇ ਹਨ, ਪਰ ਸੰਤੋਖ ਨਹੀਂ ਆਉਂਦਾ ਤੇ ਹਰ ਵੇਲੇ (ਉਮਰ) ਸੜਦਿਆਂ ਹੀ ਗੁਜ਼ਰਦੀ ਹੈ; ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਗਿਲਾ-ਗੁਜ਼ਾਰੀ ਮੁੱਕਦੀ ਨਹੀਂ ਤੇ ਮਨ ਵਿਚੋਂ ਚਿੰਤਾ ਨਹੀਂ ਜਾਂਦੀ। ਹੇ ਨਾਨਕ! ਨਾਮ ਤੋਂ ਸੱਖਣਾ ਰਹਿਣ ਕਰਕੇ ਮਨੁੱਖ ਕਾਲੇ-ਮੂੰਹ ਹੀ (ਸੰਸਾਰ ਤੋਂ) ਉੱਠ ਜਾਂਦਾ ਹੈ।੨। ਹੇ ਪਿਆਰੇ ਹਰੀ! ਮੈਨੂੰ ਗੁਰਮੁਖ ਮਿਲਾ, ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਮਿਲ ਕੇ ਮੈਂ ਤੇਰਾ ਰਾਹ ਪੁੱਛਾਂ। ਜੋ ਮਨੁੱਖ ਮੈਨੂੰ ਹਰੀ ਮਿਤ੍ਰ (ਦੀ ਖ਼ਬਰ) ਦੱਸੇ, ਮੈਂ ਉਸ ਤੋਂ ਸਦਕੇ ਹਾਂ। ਉਹਨਾਂ ਨਾਲ ਮੈਂ ਗੁਣਾਂ ਦੀ ਭਿਆਲੀ ਪਾਵਾਂ ਤੇ ਹਰੀ-ਨਾਮ ਸਿਮਰਾਂ। ਮੈਂ ਸਦਾ ਪਿਆਰਾ ਹਰੀ ਸਿਮਰਾਂ ਤੇ ਸਿਮਰ ਕੇ ਸੁਖ ਲਵਾਂ। ਮੈਂ ਸਦਕੇ ਹਾਂ ਉਸ ਸਤਿਗੁਰੂ ਤੋਂ, ਜਿਸ ਨੇ (ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ) ਸਮਝ ਬਖ਼ਸ਼ੀ ਹੈ।੧੨।
सलोकु मः ३ ॥ पूरबि लिखिआ कमावणा जि करतै आपि लिखिआसु ॥ मोह ठगउली पाईअनु विसरिआ गुणतासु ॥ मतु जाणहु जगु जीवदा दूजै भाइ मुइआसु ॥ जिनी गुरमुखि नामु न चेतिओ से बहणि न मिलनी पासि ॥ दुखु लागा बहु अति घणा पुतु कलतु न साथि कोई जासि ॥ लोका विचि मुहु काला होआ अंदरि उभे सास ॥ मनमुखा नो को न विसही चुकि गइआ वेसासु ॥ नानक गुरमुखा नो सुखु अगला जिना अंतरि नाम निवासु ॥१॥ मः ३ ॥ से सैण से सजणा जि गुरमुखि मिलहि सुभाइ ॥ सतिगुर का भाणा अनदिनु करहि से सचि रहे समाइ ॥ दूजै भाइ लगे सजण न आखीअहि जि अभिमानु करहि वेकार ॥ मनमुख आप सुआरथी कारजु न सकहि सवारि ॥ नानक पूरबि लिखिआ कमावणा कोइ न मेटणहारु ॥२॥ पउड़ी ॥ तुधु आपे जगतु उपाइ कै आपि खेलु रचाइआ ॥ त्रै गुण आपि सिरजिआ माइआ मोहु वधाइआ ॥ विचि हउमै लेखा मंगीऐ फिरि आवै जाइआ ॥ जिना हरि आपि क्रिपा करे से गुरि समझाइआ ॥ बलिहारी गुर आपणे सदा सदा घुमाइआ ॥३॥
अर्थ: (पूर्व किए कर्मो अनुसार) आरम्भ से जो (संसार-रूप लेख) लिखा (भाव-लिखा) हुआ है और जो करतार ने आप लिख दिया है वह (जरूर) कमाना पड़ता है; (उस लेख अनुसार ही) मोह की ठगबूटी (जिस को) मिल गयी है उस को गुणों का खज़ाना हरी विसर गया है। (उस) संसार को जीवित न समझो (जो) माया के मोह मे मुर्दा पड़ा है, जिन्होंने सतगुरु के सनमुख हो कर नाम नहीं सिमरा, उनको प्रभु पास बैठना नहीं मिलता। वह मनमुख बहुत ही दुखी होते हैं, (क्योंकि जिन की खातिर माया के मोह में मुर्दा पड़े थे, वह) पुत्र स्त्री तो कोई साथ नहीं जाएगा, संसार के लोगों में भी उनका मुख काला हुआ (भाव, शर्मिंदा हुए) और रोते रहे, मनमुख का कोई विसाह नहीं करता, उनका इतबार खत्म हो जाता है। हे नानक जी! गुरमुखों को बहुत सुख होता है क्योंकि उनके हृदय में नाम का निवास होता है ॥१॥ सतिगुरु के सनमुख हुए जो मनुष्य (आपा भुला कर प्रभू में सुभावक ही) लीन हो जाते हैं वह भले लोग हैं और (हमारे) मित्र हैं; जो सदा सतिगुरू का हुक्म मानते है, वह सच्चे हरी में समाए रहते हैं। उन को संत जन नहीं कहते जो माया के मोह में लग कर अंहकार और विकार करते हैं। मनमुख अपने मतलब के प्यारे (होन कर के) किसे का काम नहीं सवार सकते; (पर) हे नानक जी! (उन के सिर क्या दोष ?) (पुर्व किए कार्य अनुसार) आरम्भ से लिखा हुआ (संस्कार-रूप लेख) कमाना पड़ता है, कोई मिटाने-योग नहीं ॥२॥ हे हरी! तूँ आप ही संसार रच कर आप ही खेल बनाई है; तूँ आप ही (माया के) तीन गुण बनाए हैं और आप ही माया का मोह (जगत में) अधिक कर दिया है। (इस मोह से पैदा) अंहकार में (लगने से) (दरगाह में) लेखा मांगते हैं और फिर जम्मना मरना पड़ता है; जिन पर हरी आप कृपा करता है उन को सतिगुरू ने (यह) समझ दे दी है। (इस लिए) मैं अपने सतिगुरू से सदके जाता हूँ और सदा बलिहारे जाता हूँ ॥३॥
ਅੰਗ : 643
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥ ਪੂਰਬਿ ਲਿਖਿਆ ਕਮਾਵਣਾ ਜਿ ਕਰਤੈ ਆਪਿ ਲਿਖਿਆਸੁ ॥ ਮੋਹ ਠਗਉਲੀ ਪਾਈਅਨੁ ਵਿਸਰਿਆ ਗੁਣਤਾਸੁ ॥ ਮਤੁ ਜਾਣਹੁ ਜਗੁ ਜੀਵਦਾ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਮੁਇਆਸੁ ॥ ਜਿਨੀ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਨ ਚੇਤਿਓ ਸੇ ਬਹਿਣ ਨ ਮਿਲਨੀ ਪਾਸਿ ॥ ਦੁਖੁ ਲਾਗਾ ਬਹੁ ਅਤਿ ਘਣਾ ਪੁਤੁ ਕਲਤੁ ਨ ਸਾਥਿ ਕੋਈ ਜਾਸਿ ॥ ਲੋਕਾ ਵਿਚਿ ਮੁਹੁ ਕਾਲਾ ਹੋਆ ਅੰਦਰਿ ਉਭੇ ਸਾਸ ॥ ਮਨਮੁਖਾ ਨੋ ਕੋ ਨ ਵਿਸਹੀ ਚੁਕਿ ਗਇਆ ਵੇਸਾਸੁ ॥ ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਾ ਨੋ ਸੁਖੁ ਅਗਲਾ ਜਿਨਾ ਅੰਤਰਿ ਨਾਮ ਨਿਵਾਸੁ ॥੧॥ ਮਃ ੩ ॥ ਸੇ ਸੈਣ ਸੇ ਸਜਣਾ ਜਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਮਿਲਹਿ ਸੁਭਾਇ ॥ ਸਤਿਗੁਰ ਕਾ ਭਾਣਾ ਅਨਦਿਨੁ ਕਰਹਿ ਸੇ ਸਚਿ ਰਹੇ ਸਮਾਇ ॥ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਲਗੇ ਸਜਣ ਨ ਆਖੀਅਹਿ ਜਿ ਅਭਿਮਾਨੁ ਕਰਹਿ ਵੇਕਾਰ ॥ ਮਨਮੁਖ ਆਪ ਸੁਆਰਥੀ ਕਾਰਜੁ ਨ ਸਕਹਿ ਸਵਾਰਿ ॥ ਨਾਨਕ ਪੂਰਬਿ ਲਿਖਿਆ ਕਮਾਵਣਾ ਕੋਇ ਨ ਮੇਟਣਹਾਰੁ ॥੨॥ ਪਉੜੀ ॥ ਤੁਧੁ ਆਪੇ ਜਗਤੁ ਉਪਾਇ ਕੈ ਆਪਿ ਖੇਲੁ ਰਚਾਇਆ ॥ ਤ੍ਰੈ ਗੁਣ ਆਪਿ ਸਿਰਜਿਆ ਮਾਇਆ ਮੋਹੁ ਵਧਾਇਆ ॥ ਵਿਚਿ ਹਉਮੈ ਲੇਖਾ ਮੰਗੀਅੈ ਫਿਰਿ ਆਵੈ ਜਾਇਆ ॥ ਜਿਨਾ ਹਰਿ ਆਪਿ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰੇ ਸੇ ਗੁਰਿ ਸਮਝਾਇਆ ॥ ਬਲਿਹਾਰੀ ਗੁਰ ਆਪਣੇ ਸਦਾ ਸਦਾ ਘੁਮਾਇਆ ॥੩॥
ਅਰਥ: (ਪਿਛਲੇ ਕੀਤੇ ਕਰਮਾਂ ਅਨੁਸਾਰ) ਮੁੱਢ ਤੋਂ ਜੋ (ਸੰਸਕਾਰ-ਰੂਪ ਲੇਖ) ਲਿਖਿਆ (ਭਾਵ, ਉੱਕਰਿਆ) ਹੋਇਆ ਹੈ ਤੇ ਜੋ ਕਰਤਾਰ ਨੇ ਆਪ ਲਿਖ ਦਿੱਤਾ ਹੈ ਉਹ (ਜ਼ਰੂਰ) ਕਮਾਉਣਾ ਪੈਂਦਾ ਹੈ; (ਉਸ ਲੇਖ ਅਨੁਸਾਰ ਹੀ) ਮੋਹ ਦੀ ਠਗਬੂਟੀ (ਜਿਸ ਨੂੰ) ਮਿਲ ਗਈ ਹੈ ਉਸ ਨੂੰ ਗੁਣਾਂ ਦਾ ਖ਼ਜ਼ਾਨਾ ਹਰੀ ਵਿੱਸਰ ਗਿਆ ਹੈ। (ਉਸ) ਸੰਸਾਰ ਨੂੰ ਜੀਊਂਦਾ ਨਾ ਸਮਝੋ (ਜੋ) ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਵਿਚ ਮੁਇਆ ਪਿਆ ਹੈ; ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦੇ ਸਨਮੁਖ ਹੋ ਕੇ ਨਾਮ ਨਹੀਂ ਸਿਮਰਿਆ, ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਕੋਲ ਬਹਿਣਾ ਨਹੀਂ ਮਿਲਦਾ। ਉਹ ਮਨਮੁਖ ਬਹੁਤ ਹੀ ਦੁੱਖੀ ਹੁੰਦੇ ਹਨ, (ਕਿਉਂਕਿ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਖ਼ਾਤਰ ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਵਿਚ ਮੁਏ ਪਏ ਸਨ, ਉਹ) ਪੁੱਤ੍ਰ ਇਸਤ੍ਰੀ ਤਾਂ ਕੋਈ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਜਾਏਗਾ; ਸੰਸਾਰ ਦੇ ਲੋਕਾਂ ਵਿਚ ਭੀ ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਮੂੰਹ ਕਾਲਾ ਹੋਇਆ (ਭਾਵ, ਸ਼ਰਮਿੰਦੇ ਹੋਏ) ਤੇ ਹਾਹੁਕੇ ਲੈਂਦੇ ਹਨ; ਮਨਮੁਖਾਂ ਦਾ ਕੋਈ ਵਿਸਾਹ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ, ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਇਤਬਾਰ ਮੁੱਕ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! ਗੁਰਮੁਖਾਂ ਨੂੰ ਬਹੁਤ ਸੁਖ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਕਿਉਂਕਿ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ ਨਾਮ ਦਾ ਨਿਵਾਸ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ॥੧॥ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦੇ ਸਨਮੁਖ ਹੋਏ ਜੋ ਮਨੁੱਖ (ਆਪਾ ਨਿਵਾਰ ਕੇ ਪ੍ਰਭੂ ਵਿਚ ਸੁਭਾਵਿਕ ਹੀ) ਲੀਨ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਨ ਉਹ ਭਲੇ ਲੋਕ ਹਨ ਤੇ (ਸਾਡੇ) ਸਾਥੀ ਹਨ; ਜੋ ਸਦਾ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦਾ ਭਾਣਾ ਮੰਨਦੇ ਹਨ, ਉਹ ਸੱਚੇ ਹਰੀ ਵਿਚ ਸਮਾਏ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ। ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਸੰਤ ਜਨ ਨਹੀਂ ਆਖੀਦਾ ਜੋ ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਵਿਚ ਲੱਗੇ ਹੋਏ ਅਹੰਕਾਰ ਤੇ ਵਿਕਾਰ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਮਨਮੁਖ ਆਪਣੇ ਮਤਲਬ ਦੇ ਪਿਆਰੇ (ਹੋਣ ਕਰ ਕੇ) ਕਿਸੇ ਦਾ ਕੰਮ ਨਹੀਂ ਸਵਾਰ ਸਕਦੇ; (ਪਰ) ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! (ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਸਿਰ ਕੀਹ ਦੋਸ਼ ?) (ਪਿਛਲੇ ਕੀਤੇ ਕੰਮਾਂ ਅਨੁਸਾਰ) ਮੁੱਢ ਤੋਂ ਉੱਕਰਿਆ ਹੋਇਆ (ਸੰਸਕਾਰ-ਰੂਪ ਲੇਖ) ਕਮਾਉਣਾ ਪੈਂਦਾ ਹੈ, ਕੋਈ ਮਿਟਾਉਣ-ਜੋਗਾ ਨਹੀਂ ॥੨॥ ਹੇ ਹਰੀ! ਤੂੰ ਆਪ ਹੀ ਸੰਸਾਰ ਰਚ ਕੇ ਆਪ ਹੀ ਖੇਡ ਬਣਾਈ ਹੈ; ਤੂੰ ਆਪ ਹੀ (ਮਾਇਆ ਦੇ) ਤਿੰਨ ਗੁਣ ਬਣਾਏ ਹਨ ਤੇ ਆਪ ਹੀ ਮਾਇਆ ਦਾ ਮੋਹ (ਜਗਤ ਵਿਚ) ਵਧਾ ਦਿੱਤਾ ਹੈ। (ਇਸ ਮੋਹ ਤੋਂ ਉਪਜੇ) ਅਹੰਕਾਰ ਵਿਚ (ਲੱਗਿਆਂ) (ਦਰਗਾਹ ਵਿਚ) ਲੇਖਾ ਮੰਗੀਦਾ ਹੈ ਤੇ ਫਿਰ ਜੰਮਣਾ ਮਰਨਾ ਪੈਂਦਾ ਹੈ; ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਤੇ ਹਰੀ ਆਪ ਮੇਹਰ ਕਰਦਾ ਹੈ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਸਤਿਗੁਰੂ ਨੇ (ਇਹ) ਸਮਝ ਪਾ ਦਿੱਤੀ ਹੈ। (ਇਸ ਕਰਕੇ) ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਸਤਿਗੁਰੂ ਤੋਂ ਸਦਕੇ ਹਾਂ ਤੇ ਸਦਾ ਵਾਰਨੇ ਜਾਂਦਾ ਹਾਂ ॥੩॥
सोरठि महला १ ॥ जिन्ही सतिगुरु सेविआ पिआरे तिन्ह के साथ तरे ॥ तिन्हा ठाक न पाईऐ पिआरे अम्रित रसन हरे ॥ बूडे भारे भै बिना पिआरे तारे नदरि करे ॥१॥ भी तूहै सालाहणा पिआरे भी तेरी सालाह ॥ विणु बोहिथ भै डुबीऐ पिआरे कंधी पाइ कहाह ॥१॥ रहाउ ॥ सालाही सालाहणा पिआरे दूजा अवरु न कोइ ॥ मेरे प्रभ सालाहनि से भले पिआरे सबदि रते रंगु होइ ॥ तिस की संगति जे मिलै पिआरे रसु लै ततु विलोइ ॥२॥ पति परवाना साच का पिआरे नामु सचा नीसाणु ॥ आइआ लिखि लै जावणा पिआरे हुकमी हुकमु पछाणु ॥ गुर बिनु हुकमु न बूझीऐ पिआरे साचे साचा ताणु ॥३॥ हुकमै अंदरि निमिआ पिआरे हुकमै उदर मझारि ॥ हुकमै अंदरि जमिआ पिआरे ऊधउ सिर कै भारि ॥ गुरमुखि दरगह जाणीऐ पिआरे चलै कारज सारि ॥४॥ हुकमै अंदरि आइआ पिआरे हुकमे जादो जाइ ॥ हुकमे बंन्हि चलाईऐ पिआरे मनमुखि लहै सजाइ ॥ हुकमे सबदि पछाणीऐ पिआरे दरगह पैधा जाइ ॥५॥ हुकमे गणत गणाईऐ पिआरे हुकमे हउमै दोइ ॥ हुकमे भवै भवाईऐ पिआरे अवगणि मुठी रोइ ॥ हुकमु सिञापै साह का पिआरे सचु मिलै वडिआई होइ ॥६॥ आखणि अउखा आखीऐ पिआरे किउ सुणीऐ सचु नाउ ॥ जिन्ही सो सालाहिआ पिआरे हउ तिन्ह बलिहारै जाउ ॥ नाउ मिलै संतोखीआं पिआरे नदरी मेलि मिलाउ ॥७॥ काइआ कागदु जे थीऐ पिआरे मनु मसवाणी धारि ॥ ललता लेखणि सच की पिआरे हरि गुण लिखहु वीचारि ॥ धनु लेखारी नानका पिआरे साचु लिखै उरि धारि ॥८॥३॥
अर्थ: जिन लोगों ने सतिगुरू का पल्ला पकड़ा है, हे सज्जन! उनके संगी-साथी भी पार लांघ जाते हैं। जिनकी जीभ परमात्मा का नाम-अमृत चखती है उनके (जीवन-यात्रा में विकार आदि की) रुकावटें नहीं पड़ती। हे सज्जन! जो लोग परमात्मा के डर-अदब से वंचित रहते हैं वे विकारों के भार से लादे जाते हैं और संसार समुंद्र में डूब जाते हैं। पर जब परमात्मा मेहर की निगाह करता है तो उनको भी पार लंघा लेता है।1। हे सज्जन प्रभू! सदा तुझे ही सलाहना चाहिए, हमेशा तेरी ही सिफत सालाह करनी चाहिए। (इस संसार-समुंद्र में से पार लांघने के लिए तेरी सिफत सालाह ही जीवों के लिए जहाज है, इस) जहाज के बिना भव-सागर में डूब जाते हैं। (कोई भी जीव समुंद्र का) दूसरा छोर ढूँढ नहीं सकता। रहाउ। हे सज्जन! सलाहने योग्य परमात्मा की सिफत सालाह करनी चाहिए, उस जैसा और कोई नहीं है। जो लोग प्यारे प्रभू की सिफत सालाह करते हैं वे भाग्यशाली हैं। गुरू के शबद में गहरी लगन रखने वाले व्यक्ति को परमात्मा का प्रेम रंग चढ़ता है। ऐसे आदमी की संगति अगर (किसी को) प्राप्त हो जाए तो वह हरी नाम का रस लेता है। और (नाम-दूध को) मथ के वह जगत के मूल प्रभू में मिल जाता है।2। हे भाई! सदा स्थिर रहने वाले प्रभू का नाम प्रभू-पति को मिलने के लिए (इस जीवन-सफर में) राहदारी है, ये नाम सदा-स्थिर रहने वाली मेहर है। (प्रभू का यही हुकम है कि) जगत में जो भी आया है उसने (प्रभू को मिलने के लिए, ये नाम-रूपी राहदारी) लिख के अपने साथ ले जानी है। हे भाई! प्रभू की इस आज्ञा को समझ (पर इस हुकम को समझने के लिए गुरू की शरण पड़ना पड़ेगा) गुरू के बिना प्रभू का हुकम समझा नहीं जा सकता। हे भाई! (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ के समझ लेता है, विकारों का मुकाबला करने के लिए उसको) सदा-स्थिर प्रभू का बल हासिल हो जाता है।3। हे भाई! जीव परमात्मा के हुकम अनुसार (पहले) माता के गर्भ में ठहरता है, और माँ के पेट में (दस महीने निवास रखता है)। उल्टे सिर भार रह के प्रभू के हुकम अनुसार ही (फिर) जनम लेता है। (किसी खास जीवन उद्देश्य के लिए ही जीव जगत में आता है) जो जीव गुरू की शरण पड़ कर जीवन-उद्देश्य को सँवार के यहाँ से जाता है वही परमात्मा की हजूरी में आदर पाता है।4। हे सज्जन! परमात्मा की रजा के अनुसार ही जीव जगत में आता है, रजा के अनुसार ही यहाँ से चला जाता है। जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है (और माया के मोह में फस जाता है) उसे प्रभू की रजा के अनुसार ही बाँध के (भाव, जबरदस्ती) यहाँ से रवाना किया जाता है (क्योंकि मोह के कारण वह इस माया को छोड़ना नहीं चाहता)। परमात्मा की रजा के अनुसार ही जिसने गुरू के शबद के द्वारा (जीवन-उद्देश्य को) पहचान लिया है वह परमात्मा की हजूरी में आदर सहित जाता है।5। हे भाई! परमात्मा की रजा के अनुसार ही (कहीं) माया की सोच सोची जा रही है, प्रभू की रजा में ही कहीं अहंकार व कहीं द्वैत है। प्रभू की रजा के अनुसार ही (कहीं कोई माया की खातिर) भटक रहा है, (कहीं कोई) जनम-मरन के चक्कर में डाला जा रहा है, कहीं पाप की ठॅगी हुई दुनिया (अपने दुख) रो रही है। जिस मनुष्य को शाह-प्रभू की रजा की समझ आ जाती है, उसे सदा-स्थिर रहने वाला प्रभू मिल जाता है, उसकी (लोक-परलोक में) उपमा होती है।6। हे भाई! (जगत में माया का प्रभाव इतना है कि) परमात्मा का सदा-स्थिर रहने वाला नाम सिमरना बड़ा कठिन हो रहा है, ना ही प्रभू-नाम सुना जा रहा है (माया के प्रभाव तले जीव नाम नहीं सिमरते, नाम नहीं सुनते)। हे भाई! मैं उन लोगों से कुर्बान जाता हूँ जिन्होंने प्रभू की सिफत सालाह की है। (मेरी यही प्रार्थना है कि उन की संगति में) मुझे भी नाम मिले और मेरा जीवन संतोषी हो जाए, मेहर की नज़र वाले प्रभू के चरणों में मैं जुड़ा रहूँ।7। हे भाई! हमारा शरीर कागज बन जाए, यदि मन को स्याही की दवात बना लें, यदि हमारी जीभ प्रभू की सिफत सालाह बनने के लिए कलम बन जाए, तो हे भाई! (सौभाग्य इसी बात में है कि) परमात्मा के गुणों को अपने विचार-मण्डल में ला के (अपने अंदर) उकरते चलो। हे नानक! वह लिखारी धन्य है जो सदा-स्थिर प्रभू के नाम को हृदय में टिका के (अपने अंदर) उकर लेता है।8।3।
ਅੰਗ : 636
ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੧ ॥ ਜਿਨ੍ਹ੍ਹੀ ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਿਆ ਪਿਆਰੇ ਤਿਨ੍ਹ੍ਹ ਕੇ ਸਾਥ ਤਰੇ ॥ ਤਿਨ੍ਹ੍ਹਾ ਠਾਕ ਨ ਪਾਈਐ ਪਿਆਰੇ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਰਸਨ ਹਰੇ ॥ ਬੂਡੇ ਭਾਰੇ ਭੈ ਬਿਨਾ ਪਿਆਰੇ ਤਾਰੇ ਨਦਰਿ ਕਰੇ ॥੧॥ ਭੀ ਤੂਹੈ ਸਾਲਾਹਣਾ ਪਿਆਰੇ ਭੀ ਤੇਰੀ ਸਾਲਾਹ ॥ ਵਿਣੁ ਬੋਹਿਥ ਭੈ ਡੁਬੀਐ ਪਿਆਰੇ ਕੰਧੀ ਪਾਇ ਕਹਾਹ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ ਸਾਲਾਹੀ ਸਾਲਾਹਣਾ ਪਿਆਰੇ ਦੂਜਾ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਇ ॥ ਮੇਰੇ ਪ੍ਰਭ ਸਾਲਾਹਨਿ ਸੇ ਭਲੇ ਪਿਆਰੇ ਸਬਦਿ ਰਤੇ ਰੰਗੁ ਹੋਇ ॥ ਤਿਸ ਕੀ ਸੰਗਤਿ ਜੇ ਮਿਲੈ ਪਿਆਰੇ ਰਸੁ ਲੈ ਤਤੁ ਵਿਲੋਇ ॥੨॥ ਪਤਿ ਪਰਵਾਨਾ ਸਾਚ ਕਾ ਪਿਆਰੇ ਨਾਮੁ ਸਚਾ ਨੀਸਾਣੁ ॥ ਆਇਆ ਲਿਖਿ ਲੈ ਜਾਵਣਾ ਪਿਆਰੇ ਹੁਕਮੀ ਹੁਕਮੁ ਪਛਾਣੁ ॥ ਗੁਰ ਬਿਨੁ ਹੁਕਮੁ ਨ ਬੂਝੀਐ ਪਿਆਰੇ ਸਾਚੇ ਸਾਚਾ ਤਾਣੁ ॥੩॥ ਹੁਕਮੈ ਅੰਦਰਿ ਨਿੰਮਿਆ ਪਿਆਰੇ ਹੁਕਮੈ ਉਦਰ ਮਝਾਰਿ ॥ ਹੁਕਮੈ ਅੰਦਰਿ ਜੰਮਿਆ ਪਿਆਰੇ ਊਧਉ ਸਿਰ ਕੈ ਭਾਰਿ ॥ ਗੁਰਮੁਖਿ ਦਰਗਹ ਜਾਣੀਐ ਪਿਆਰੇ ਚਲੈ ਕਾਰਜ ਸਾਰਿ ॥੪॥ ਹੁਕਮੈ ਅੰਦਰਿ ਆਇਆ ਪਿਆਰੇ ਹੁਕਮੇ ਜਾਦੋ ਜਾਇ ॥ ਹੁਕਮੇ ਬੰਨ੍ਹ੍ਹਿ ਚਲਾਈਐ ਪਿਆਰੇ ਮਨਮੁਖਿ ਲਹੈ ਸਜਾਇ ॥ ਹੁਕਮੇ ਸਬਦਿ ਪਛਾਣੀਐ ਪਿਆਰੇ ਦਰਗਹ ਪੈਧਾ ਜਾਇ ॥੫॥ ਹੁਕਮੇ ਗਣਤ ਗਣਾਈਐ ਪਿਆਰੇ ਹੁਕਮੇ ਹਉਮੈ ਦੋਇ ॥ ਹੁਕਮੇ ਭਵੈ ਭਵਾਈਐ ਪਿਆਰੇ ਅਵਗਣਿ ਮੁਠੀ ਰੋਇ ॥ ਹੁਕਮੁ ਸਿਞਾਪੈ ਸਾਹ ਕਾ ਪਿਆਰੇ ਸਚੁ ਮਿਲੈ ਵਡਿਆਈ ਹੋਇ ॥੬॥ ਆਖਣਿ ਅਉਖਾ ਆਖੀਐ ਪਿਆਰੇ ਕਿਉ ਸੁਣੀਐ ਸਚੁ ਨਾਉ ॥ ਜਿਨ੍ਹ੍ਹੀ ਸੋ ਸਾਲਾਹਿਆ ਪਿਆਰੇ ਹਉ ਤਿਨ੍ਹ੍ਹ ਬਲਿਹਾਰੈ ਜਾਉ ॥ ਨਾਉ ਮਿਲੈ ਸੰਤੋਖੀਆਂ ਪਿਆਰੇ ਨਦਰੀ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਉ ॥੭॥ ਕਾਇਆ ਕਾਗਦੁ ਜੇ ਥੀਐ ਪਿਆਰੇ ਮਨੁ ਮਸਵਾਣੀ ਧਾਰਿ ॥ ਲਲਤਾ ਲੇਖਣਿ ਸਚ ਕੀ ਪਿਆਰੇ ਹਰਿ ਗੁਣ ਲਿਖਹੁ ਵੀਚਾਰਿ ॥ ਧਨੁ ਲੇਖਾਰੀ ਨਾਨਕਾ ਪਿਆਰੇ ਸਾਚੁ ਲਿਖੈ ਉਰਿ ਧਾਰਿ ॥੮॥੩॥
ਅਰਥ: ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਬੰਦਿਆਂ ਨੇ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦਾ ਪੱਲਾ ਫੜਿਆ ਹੈ, ਹੇ ਸੱਜਣ! ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਸੰਗੀ-ਸਾਥੀ ਭੀ ਪਾਰ ਲੰਘ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਜੀਭ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ-ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਚੱਖਦੀ ਹੈ ਉਹਨਾਂ ਦੇ (ਜੀਵਨ-ਸਫ਼ਰ ਵਿਚ ਵਿਕਾਰ ਆਦਿਕਾਂ ਦੀ) ਰੁਕਾਵਟ ਨਹੀਂ ਪੈਂਦੀ। ਹੇ ਸੱਜਣ! ਜੇਹੜੇ ਮਨੁੱਖ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਡਰ-ਅਦਬ ਤੋਂ ਸੱਖਣੇ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ ਉਹ ਵਿਕਾਰਾਂ ਦੇ ਭਾਰ ਨਾਲ ਲੱਦੇ ਜਾਂਦੇ ਹਨ ਤੇ ਸੰਸਾਰ-ਸਮੁੰਦਰ ਵਿਚ ਡੁੱਬ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਪਰ ਜਦੋਂ ਪਰਮਾਤਮਾ ਮੇਹਰ ਦੀ ਨਿਗਾਹ ਕਰਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਭੀ ਪਾਰ ਲੰਘਾ ਲੈਂਦਾ ਹੈ ॥੧॥ ਹੇ ਸੱਜਣ-ਪ੍ਰਭੂ! ਸਦਾ ਤੈਨੂੰ ਹੀ ਸਾਲਾਹਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ, ਸਦਾ ਤੇਰੀ ਹੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਕਰਨੀ ਚਾਹੀਦੀ ਹੈ। (ਇਸ ਸੰਸਾਰ-ਸਮੁੰਦਰ ਵਿਚੋਂ ਪਾਰ ਲੰਘਣ ਵਾਸਤੇ ਤੇਰੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਜੀਵਾਂ ਵਾਸਤੇ ਜਹਾਜ਼ ਹੈ, ਇਸ) ਜਹਾਜ਼ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਭਉ-ਸਾਗਰ ਵਿਚ ਡੁੱਬ ਜਾਈਦਾ ਹੈ। (ਕੋਈ ਭੀ ਜੀਵ ਸਮੁੰਦਰ ਦਾ) ਪਾਰਲਾ ਕੰਢਾ ਲੱਭ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ ਹੇ ਸੱਜਣ! ਸਾਲਾਹਣ-ਜੋਗ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਕਰਨੀ ਚਾਹੀਦੀ ਹੈ, ਉਸ ਵਰਗਾ ਹੋਰ ਕੋਈ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਜੇਹੜੇ ਬੰਦੇ ਪਿਆਰੇ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਕਰਦੇ ਹਨ ਉਹ ਭਾਗਾਂ ਵਾਲੇ ਹਨ। ਗੁਰੂ ਦੇ ਸ਼ਬਦ ਵਿਚ ਡੂੰਘੀ ਲਗਨ ਰੱਖਣ ਵਾਲੇ ਬੰਦੇ ਨੂੰ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਪ੍ਰੇਮ-ਰੰਗ ਚੜ੍ਹਦਾ ਹੈ। ਅਜੇਹੇ ਬੰਦੇ ਦੀ ਸੰਗਤਿ ਜੇ (ਕਿਸੇ ਨੂੰ) ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋ ਜਾਏ ਤਾਂ ਉਹ ਹਰੀ-ਨਾਮ ਦਾ ਰਸ ਲੈਂਦਾ ਹੈ ਤੇ (ਨਾਮ-ਦੁੱਧ ਨੂੰ) ਰਿੜਕ ਕੇ ਉਹ ਜਗਤ ਮੂਲ-ਪ੍ਰਭੂ ਨੂੰ ਮਿਲ ਪੈਂਦਾ ਹੈ ॥੨॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਸਦਾ-ਥਿਰ ਰਹਿਣ ਵਾਲੇ ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਨਾਮ ਪ੍ਰਭੂ-ਪਤੀ ਨੂੰ ਮਿਲਣ ਵਾਸਤੇ (ਇਸ ਜੀਵਨ-ਸਫ਼ਰ ਵਿਚ) ਰਾਹਦਾਰੀ ਹੈ, ਇਹ ਨਾਮ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਰਹਿਣ ਵਾਲੀ ਮੋਹਰ ਹੈ। (ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਇਹੀ ਹੁਕਮ ਹੈ ਕਿ) ਜਗਤ ਵਿਚ ਜੋ ਭੀ ਆਇਆ ਹੈ ਉਸ ਨੇ (ਪ੍ਰਭੂ ਨੂੰ ਮਿਲਣ ਵਾਸਤੇ, ਇਹ ਨਾਮ-ਰੂਪ ਰਾਹਦਾਰੀ) ਲਿਖ ਕੇ ਆਪਣੇ ਨਾਲ ਲੈ ਜਾਣੀ ਹੈ। ਹੇ ਭਾਈ! ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਇਸ ਹੁਕਮ ਨੂੰ ਸਮਝ (ਪਰ ਇਸ ਹੁਕਮ ਨੂੰ ਸਮਝਣ ਲਈ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸ਼ਰਨ ਪੈਣਾ ਪਏਗਾ) ਗੁਰੂ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਹੁਕਮ ਸਮਝਿਆ ਨਹੀਂ ਜਾ ਸਕਦਾ। ਹੇ ਭਾਈ! (ਜੇਹੜਾ ਮਨੁੱਖ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸ਼ਰਨ ਪੈ ਕੇ ਸਮਝ ਲੈਂਦਾ ਹੈ, ਵਿਕਾਰਾਂ ਦਾ ਟਾਕਰਾ ਕਰਨ ਲਈ ਉਸ ਨੂੰ) ਸਦਾ-ਥਿਰ ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਬਲ ਹਾਸਲ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ॥੩॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਜੀਵ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਹੁਕਮ ਅਨੁਸਾਰ (ਪਹਿਲਾਂ) ਮਾਤਾ ਦੇ ਗਰਭ ਵਿਚ ਟਿਕਦਾ ਹੈ, ਤੇ ਮਾਂ ਦੇ ਪੇਟ ਵਿਚ (ਦਸ ਮਹੀਨੇ ਨਿਵਾਸ ਰੱਖਦਾ ਹੈ)। ਪੁੱਠਾ ਸਿਰ ਭਾਰ ਰਹਿ ਕੇ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਹੁਕਮ ਅਨੁਸਾਰ ਹੀ (ਫਿਰ) ਜਨਮ ਲੈਂਦਾ ਹੈ। (ਕਿਸੇ ਖ਼ਾਸ ਜੀਵਨ-ਮਨੋਰਥ ਵਾਸਤੇ ਜੀਵ ਜਗਤ ਵਿਚ ਆਉਂਦਾ ਹੈ) ਜੋ ਜੀਵ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸ਼ਰਨ ਪੈ ਕੇ ਜੀਵਨ-ਮਨੋਰਥ ਨੂੰ ਸਵਾਰ ਕੇ ਇਥੋਂ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਉਹ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਹਜ਼ੂਰੀ ਵਿਚ ਆਦਰ ਪਾਂਦਾ ਹੈ ॥੪॥ ਹੇ ਸੱਜਣ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਅਨੁਸਾਰ ਹੀ ਜੀਵ ਜਗਤ ਵਿਚ ਆਉਂਦਾ ਹੈ, ਰਜ਼ਾ ਅਨੁਸਾਰ ਹੀ ਇਥੋਂ ਚਲਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਜੇਹੜਾ ਮਨੁੱਖ ਆਪਣੇ ਮਨ ਦੇ ਪਿੱਛੇ ਤੁਰਦਾ ਹੈ (ਤੇ ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਵਿਚ ਫਸ ਜਾਂਦਾ ਹੈ) ਉਸ ਨੂੰ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਅਨੁਸਾਰ ਹੀ ਬੰਨ੍ਹ ਕੇ (ਭਾਵ, ਜੋਰੋ ਜੋਰੀ) ਇਥੋਂ ਤੋਰਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ (ਕਿਉਂਕਿ ਮੋਹ ਦੇ ਕਾਰਨ ਉਹ ਇਸ ਮਾਇਆ ਨੂੰ ਛੱਡਣਾ ਨਹੀਂ ਚਾਹੁੰਦਾ)। ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਅਨੁਸਾਰ ਹੀ ਜਿਸ ਨੇ ਗੁਰੂ ਦੇ ਸ਼ਬਦ ਦੀ ਰਾਹੀਂ (ਜਨਮ-ਮਨੋਰਥ ਨੂੰ) ਪਛਾਣ ਲਿਆ ਹੈ ਉਹ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਹਜ਼ੂਰੀ ਵਿਚ ਆਦਰ ਨਾਲ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ॥੫॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਅਨੁਸਾਰ ਹੀ (ਕਿਤੇ) ਮਾਇਆ ਦੀ ਸੋਚ ਸੋਚੀ ਜਾ ਰਹੀ ਹੈ, ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਵਿਚ ਹੀ ਕਿਤੇ ਹਉਮੈ ਹੈ ਕਿਤੇ ਦ੍ਵੈਤ ਹੈ। ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਅਨੁਸਾਰ ਹੀ (ਕਿਤੇ ਕੋਈ ਮਾਇਆ ਦੀ ਖ਼ਾਤਰ) ਭਟਕ ਰਿਹਾ ਹੈ, (ਕਿਤੇ ਕੋਈ) ਜਨਮ ਮਰਨ ਦੇ ਗੇੜ ਵਿਚ ਪਾਇਆ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ, ਕਿਤੇ ਪਾਪ ਦੀ ਠੱਗੀ ਹੋਈ ਲੋਕਾਈ (ਆਪਣੇ ਦੁੱਖ) ਰੋ ਰਹੀ ਹੈ। ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਸ਼ਾਹ-ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਦੀ ਸਮਝ ਆ ਜਾਂਦੀ ਹੈ, ਉਸ ਨੂੰ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਪ੍ਰਭੂ ਮਿਲ ਪੈਂਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਦੀ (ਲੋਕ ਪਰਲੋਕ ਵਿਚ) ਵਡਿਆਈ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ॥੬॥ ਹੇ ਭਾਈ! (ਜਗਤ ਵਿਚ ਮਾਇਆ ਦਾ ਪ੍ਰਭਾਵ ਇਤਨਾ ਹੈ ਕਿ) ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਨਾਮ ਸਿਮਰਨਾ ਬੜਾ ਕਠਨ ਹੋ ਰਿਹਾ ਹੈ, ਨਾਹ ਹੀ ਪ੍ਰਭੂ-ਨਾਮ ਸੁਣਿਆ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ (ਮਾਇਆ ਦੇ ਪ੍ਰਭਾਵ ਹੇਠ ਜੀਵ ਨਾਮ ਨਹੀਂ ਸਿਮਰਦੇ, ਨਾਮ ਨਹੀਂ ਸੁਣਦੇ)। ਹੇ ਭਾਈ! ਮੈਂ ਉਹਨਾਂ ਬੰਦਿਆਂ ਤੋਂ ਕੁਰਬਾਨ ਜਾਂਦਾ ਹਾਂ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਕੀਤੀ ਹੈ। (ਮੇਰੀ ਇਹੀ ਅਰਦਾਸ ਹੈ ਕਿ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਸੰਗਤਿ ਵਿਚ) ਮੈਨੂੰ ਭੀ ਨਾਮ ਮਿਲੇ ਤੇ ਮੇਰਾ ਜੀਵਨ ਸੰਤੋਖੀ ਹੋ ਜਾਏ, ਮੇਹਰ ਦੀ ਨਜ਼ਰ ਵਾਲੇ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਚਰਨਾਂ ਵਿਚ ਮੈਂ ਜੁੜਿਆ ਰਹਾਂ ॥੭॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਜੇ ਸਾਡਾ ਸਰੀਰ ਕਾਗ਼ਜ਼ ਬਣ ਜਾਏ, ਜੇ ਮਨ ਨੂੰ ਸਿਆਹੀ ਦੀ ਦਵਾਤ ਬਣਾ ਲਈਏ, ਜੇ ਸਾਡੀ ਜੀਭ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਲਿਖਣ ਲਈ ਕਲਮ ਬਣ ਜਾਏ, ਤਾਂ, ਹੇ ਭਾਈ! (ਸੁਭਾਗਤਾ ਇਸੇ ਗੱਲ ਵਿਚ ਹੈ ਕਿ) ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਗੁਣਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਸੋਚ-ਮੰਦਰ ਵਿਚ ਲਿਆ ਕੇ (ਆਪਣੇ ਅੰਦਰ) ਉੱਕਰਦੇ ਚੱਲੋ। ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! ਉਹ ਲਿਖਾਰੀ ਭਾਗਾਂ ਵਾਲਾ ਹੈ ਜੋ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਵਾਲੇ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਨਾਮ ਨੂੰ ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ ਟਿਕਾ ਕੇ (ਆਪਣੇ ਅੰਦਰ) ਉੱਕਰ ਲੈਂਦਾ ਹੈ ॥੮॥੩॥
सूही महला ४ घरु ७ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ तेरे कवन कवन गुण कहि कहि गावा तू साहिब गुणी निधाना ॥ तुमरी महिमा बरनि न साकउ तूं ठाकुर ऊच भगवाना ॥१॥ मै हरि हरि नामु धर सोई ॥ जिउ भावै तिउ राखु मेरे साहिब मै तुझ बिनु अवरु न कोई ॥१॥ रहाउ ॥ मै ताणु दीबाणु तूहै मेरे सुआमी मै तुधु आगै अरदासि ॥ मै होरु थाउ नाही जिसु पहि करउ बेनंती मेरा दुखु सुखु तुझ ही पासि ॥२॥ विचे धरती विचे पाणी विचि कासट अगनि धरीजै ॥ बकरी सिंघु इकतै थाइ राखे मन हरि जपि भ्रमु भउ दूरि कीजै ॥३॥ हरि की वडिआई देखहु संतहु हरि निमाणिआ माणु देवाए ॥ जिउ धरती चरण तले ते ऊपरि आवै तिउ नानक साध जना जगतु आणि सभु पैरी पाए ॥४॥१॥१२॥
राग सूही, घर ७ में गुरु रामदास जी की बाणी। अकाल पुरख एक है और सतगुरु की कृपा से मिलता है। में तेरे कौन कौन से गुण बता कर तेरी सिफत -सलाह कर सकता हूँ ? तूँ सारे गुणों का खजाना है, तूँ सुब का मालिक है । हे सुबसे ऊचे भगवान! तूँ सुब का पालन करने वाला है । में तेरी बढाई बियान नहीं कर सकता ॥੧॥ हे हरी! मेरे लिए तेरा वह नाम ही सहारा है। हे मेरे मालिक! जैसे तुझे अच्छा लगे उसी प्रकार मेरी रक्षा कर। तेरे बिना मेरा और कोई सहारा नहीं है॥१॥रहाउ॥ हे मेरे मालिक! तूँ ही मेरे लिए बल है, तूँ ही मेरे लिए सहारा है। मैं तेरे आगे ही बेनती कर सकता हूँ। मेरे लिए कोई ऐसी जगह नहीं, जिस पास मैं बेनती कर सकूँ। मैं अपना हेर एक सुख हरेक दुःख तेरे पास ही पेश कर सकता हूँ॥२॥ हे मेरे मन! देख, (पानी के) बीच ही धरती है, (धरती के) बीच ही पानी है, लकड़ी मैं आग राखी हुई है, (मालिक प्रभु ने, मानो) शेर और बकरी एक जगह रखे हुए हैं। हे मन! (तूँ क्यों डरता है? ऐसी शक्ति वाले) परमात्मा का नाम जप कर तूँ अपने हरेक डर भ्रम दूर कर लिया कर॥३॥ हे संत जनों! देखो परमात्मा की बड़ी ताकत! परमात्मा उनको आदर दिलाता है, जिनकी कोई इज्ज़त नहीं करता था। हे नानक! जैसे धरती (मनुख के) पैरों के निचे से (मौत आने पर) उस के उप्पर आ जाती है, उसी प्रकार परमात्मा सारे जगत को ला कर साध जनों के चरणों में डाल देता है॥४॥१॥१२॥