बेद पुरान सभै मत सुनि कै करी करम की आसा ॥ काल ग्रसत सभ लोग सिआने उठि पंडित पै चले निरासा ॥१॥ मन रे सरिओ न एकै काजा ॥ भजिओ न रघुपति राजा ॥१॥ रहाउ ॥ बन खंड जाइ जोगु तपु कीनो कंद मूलु चुनि खाइआ ॥ नादी बेदी सबदी मोनी जम के पटै लिखाइआ ॥२॥ भगति नारदी रिदै न आई काछि कूछि तनु दीना ॥ राग रागनी डि्मभ होइ बैठा उनि हरि पहि किआ लीना ॥३॥ परिओ कालु सभै जग ऊपर माहि लिखे भ्रम गिआनी ॥ कहु कबीर जन भए खालसे प्रेम भगति जिह जानी ॥४॥३॥

अर्थ :-जिन सयाने लोगों ने वेद पुरान आदि के सारे मत सुन के कर्म-काँड की आशा रखी, (यह आशा रखी कि कर्म-काँड के साथ जीवन संवरेगा), वह सारे (आत्मिक) मौत में ही ग्रसे रहे। पंडित लोक भी आशा पूरी होने के बिना ही उॅठ के चले गए (जगत त्याग गए)।1। हे मन ! तुमने प्रकाश-रूप परमात्मा का भजन नहीं किया, तेरे से यह एक काम भी (जो करने-योग्य था) नहीं हो सका।1।रहाउ। कई लोकों ने जंगलों में जा के योग साधे, तप किये, गाजर-मूली आदि चुन खा के गुजारा किया; योगी, कर्म-काँडी, ‘अलख’ कहने वाले योगी, मोनधारी-यह सारे यम के लेखे में ही लिखे गए (भावार्थ, इन के साधन मौत के डर से बचा नहीं सकते)।2। जिन मनुष्यों ने शरीर पर तो (धार्मिक चिन्ह) चक्र आदि लगा लिए हैं, पर प्रेमा-भक्ति उसके हृदय में पैदा नहीं हुई, राग-रागनियां तो गाता है पर निरी पाखण्ड की मूर्ति ही बना बैठा है, ऐसे मनुष्य को परमात्मा से कुछ नहीं मिलता।3। सारे जगत पर काल का सहम पड़ा हुआ है, भरमी-ज्ञानी भी उसी ही लेखे में लिखे गए हैं (वे भी मौत के सहम में ही हैं)। हे कबीर! कह– जिन मनुष्यों ने प्रेमा-भक्ति करनी समझ ली है वह (मौत के सहम से) आजाद हो गए हैं।4।3।



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धनासरी महला १ ॥ जीवा तेरै नाइ मनि आनंदु है जीउ ॥ साचो साचा नाउ गुण गोविंदु है जीउ ॥ गुर गिआनु अपारा सिरजणहारा जिनि सिरजी तिनि गोई ॥ परवाणा आइआ हुकमि पठाइआ फेरि न सकै कोई ॥ आपे करि वेखै सिरि सिरि लेखै आपे सुरति बुझाई ॥ नानक साहिबु अगम अगोचरु जीवा सची नाई ॥१॥ तुम सरि अवरु न कोइ आइआ जाइसी जीउ ॥ हुकमी होइ निबेड़ु भरमु चुकाइसी जीउ ॥ गुरु भरमु चुकाए अकथु कहाए सच महि साचु समाणा ॥ आपि उपाए आपि समाए हुकमी हुकमु पछाणा ॥ सची वडिआई गुर ते पाई तू मनि अंति सखाई ॥ नानक साहिबु अवरु न दूजा नामि तेरै वडिआई ॥२॥ तू सचा सिरजणहारु अलख सिरंदिआ जीउ ॥ एकु साहिबु दुइ राह वाद वधंदिआ जीउ ॥ दुइ राह चलाए हुकमि सबाए जनमि मुआ संसारा ॥ नाम बिना नाही को बेली बिखु लादी सिरि भारा ॥ हुकमी आइआ हुकमु न बूझै हुकमि सवारणहारा ॥ नानक साहिबु सबदि सिञापै साचा सिरजणहारा ॥३॥ भगत सोहहि दरवारि सबदि सुहाइआ जीउ ॥ बोलहि अम्रित बाणि रसन रसाइआ जीउ ॥ रसन रसाए नामि तिसाए गुर कै सबदि विकाणे ॥ पारसि परसिऐ पारसु होए जा तेरै मनि भाणे ॥ अमरा पदु पाइआ आपु गवाइआ विरला गिआन वीचारी ॥ नानक भगत सोहनि दरि साचै साचे के वापारी ॥४॥ भूख पिआसो आथि किउ दरि जाइसा जीउ ॥ सतिगुर पूछउ जाइ नामु धिआइसा जीउ ॥ सचु नामु धिआई साचु चवाई गुरमुखि साचु पछाणा ॥ दीना नाथु दइआलु निरंजनु अनदिनु नामु वखाणा ॥ करणी कार धुरहु फुरमाई आपि मुआ मनु मारी ॥ नानक नामु महा रसु मीठा त्रिसना नामि निवारी ॥५॥२॥

अर्थ: हे प्रभू जी! तेरे नाम में (जुड़ कर) मेरे अंदर आतमिक जीवन पैदा होता है, मेरे मन में ख़ुश़ी पैदा होती है। हे भाई! परमात्मा का नाम सदा-थिर रहने वाला है, प्रभू गुणों (का ख़ज़ाना) है और धरती के जीवों के दिल की जानने वाला है। गुरू का बख़्श़ा ज्ञान बताता है कि सिरजनहार प्रभू बेअंत है, जिस ने यह सृष्टि पैदा की है, वही इस को नाश करता है। जब उस के हुक्म में भेजा हुआ (मौत का) निमंत्रण आता है तो कोई जीव (उस निमंत्रण को) मोड़ नहीं सकता। परमात्मा आप ही (जीवों को) पैदा कर के आप ही संभाल करता है, आप ही प्रत्येक जीव के सिर पर (उस के किए कार्य अनुसार) लेख लिखता है, आप ही (जीव को सही जीवन-मार्ग की) सूझ बख़्श़ता है। मालिक-प्रभू अपहुँच है, जीवों के ज्ञान-इंद्रियों की उस तक पहुँच नहीं हो सकती। हे नानक जी! (उस के द्वार पर अरदास करो, और कहो – हे प्रभू!) तेरी सदा कायम रहने वाली सिफ़त-सलाह कर के मेरे अंदर आतमिक जीवन पैदा होता है (मुझे अपनी सिफ़त-सलाह बख़्श़) ॥१॥ हे प्रभू जी! तेरे बराबर का अन्य कोई नहीं है, (अन्य जो भी जगत में) आया है, (वह यहाँ से आखिर) चला जाएगा (तूँ ही सदा कायम रहने वाला हैं)। जिस मनुष्य की भटकना (गुरू) दूर करता है, प्रभू के हुक्म अनुसार उस के जन्म मरण के चक्र खत्म हो जाते हैं। गुरू जिस की भटकना दूर करता है, उस से उस परमात्मा की सिफ़त-सलाह करवाता है जिस के गुण बताए नहीं जा सकते। वह मनुष्य सदा-थिर प्रभू (की याद) में रहता है, सदा-थिर प्रभू (उस के हृदय में) प्रगट हो जाता है। वह मनुष्य रज़ा के मालिक-प्रभू का हुक्म पहचान लेता है (और समझ लेता है कि) प्रभू आप ही पैदा करता है और आप ही (अपने में) लीन कर लेता है। हे प्रभू! जिस मनुष्य ने तेरी सिफ़त- सलाह (की दात) गुरू से प्राप्त कर लई है, तूँ उस के मन में आ वसता हैं और अंत समय भी उस का मित्र बनता हैं। हे नानक जी! मालिक-प्रभू सदा कायम रहने वाला है, उस जैसा अन्य कोई नहीं। (उस के द्वार पर अरदास करो और कहो-) हे प्रभू! तेरे नाम से जुड़ने से (लोग परलोग में) आदर मिलता है ॥२॥ हे अदृष्ट रचनहार! तूँ सदा-थिर रहने वाला हैं और सब जीवों को पैदा करने वाला हैं। एक सिरजणहार ही (सारे जगत का) मालिक है, उस ने (जन्म और मरण) के दो रास्ते चलाएं हैं। (उसी की रज़ा अनुसार जगत में) झगड़ों की वृद्धि होती है। दोनों रास्ते प्रभू ने ही चलाएं हैं, सभी जीव उसी के हुक्म में हैं, (उसी के हुक्म अनुसार) जगत जमता और मरता रहता है। (जीव नाम को भुला कर माया के मोह का) ज़हर-रूप बोझ अपने सिर पर इक्कठा करी जाता है, (और यह नहीं समझता कि) परमात्मा के नाम के बिना अन्य कोई भी साथी-मित्र नहीं बन सकता। जीव (परमात्मा के) हुक्म अनुसार (जगत में) आता है, (पर माया के मोह में फंस कर उस) हुक्म को समझता नहीं। प्रभू आप ही जीव को अपने हुक्म अनुसार (सही रास्ते पा कर) संवारने के समर्थ है। हे नानक जी! गुरू के श़ब्द में जुड़ने से यह पहचान आती है कि जगत का मालिक सदा-थिर रहने वाला है और सब का पैदा करने वाला है ॥३॥ हे भाई! परमात्मा की भगती करने वाले मनुष्य परमात्मा की हज़ूरी में शोभा प्राप्त करते हैं, क्योंकि गुरू के श़ब्द की बरकत से वह अपने जीवन को सुंदर बना लेते हैं। वह मनुष्य आतमिक जीवन देने वाली बाणी अपनी जीभ से उचारते रहते हैं, जीव को उस बाणी से एक-रस कर लेते हैं। भगत-जन प्रभू के नाम से जीभ को रसा लेते हैं, नाम में जुड़ कर (नाम के लिए उनकी) प्यास बढ़ती है, गुरू के श़ब्द द्वारा वह प्रभू-नाम से सदके होते हैं (नाम की खातिर अन्य सभी शारीरिक सुख कुर्बान करते हैं। हे प्रभू! जब (भगत जन) तेरे मन को प्यारे लगते हैं, तब वह गुरू-पारस से स्पर्श कर के आप भी पारस हो जाते हैं (अन्यों को पवित्र जीवन देने योग्य हो जाते हैं)। जो मनुष्य आपा-भाव दूर करते हैं उनको वह आतमिक दर्जा मिल जाता है जहाँ आतमिक मौत असर नहीं कर सकती। परन्तु इस तरह कोई विरला ही गुरू के दिए ज्ञान की विचार करने वाला मनुष्य होता है। हे नानक जी! परमात्मा की भगती करने वाले मनुष्य सदा-थिर प्रभू के द्वार पर शोभा प्राप्त करते हैं, वह (अपने सारे जीवन में) सदा-थिर प्रभू के नाम का ही व्यपार करते हैं ॥४॥ जब तक मैं माया के लिए भुखा प्यासा रहता हूँ, तब तक मैं किसी भी तरह प्रभू के द्वार पर पहुँच नहीं सकता। (माया की तृष्णा दूर करने का इलाज) मैं जा कर अपने गुरू से पुछता हूँ (और उन की शिक्षा के अनुसार) मैं परमात्मा का नाम सिमरता हूँ (नाम ही तृष्णा दूर करता है)। गुरू की श़रण पड़ कर मैं सदा-थिर नाम सिमरता हूँ, सदा-थिर प्रभू (की सिफ़त-सलाह) उचारता हूँ, और सदा-थिर प्रभू के साथ सांझ पाता हूँ। मैं हर रोज़ उस प्रभू का नाम मुख से लेता हूँ जो दीनों का सहारा है जो दया का स्रोत है और जिस पर माया का असर नहीं पड़ सकता। परमात्मा ने जिस मनुष्य को अपनी हज़ूरी से ही नाम सिमरन की करने-योग्य कार्य करने का हुक्म दे दिया, वह मनुष्य अपने मन को (माया की तरफ़ से) मार कर तृष्णा के असर से बच जाता है। हे नानक जी! उस मनुष्य को प्रभू का नाम ही मीठा और अन्य सभी रसों से श्रेष्ठ लगता है, उस ने नाम सिमरन की बरकत से माया की तृष्णा (अपने अंदर से) दूर कर ली होती है ॥५॥२॥



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ਅੰਗ : 688

ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥ ਜੀਵਾ ਤੇਰੈ ਨਾਇ ਮਨਿ ਆਨੰਦੁ ਹੈ ਜੀਉ ॥ ਸਾਚੋ ਸਾਚਾ ਨਾਉ ਗੁਣ ਗੋਵਿੰਦੁ ਹੈ ਜੀਉ ॥ ਗੁਰ ਗਿਆਨੁ ਅਪਾਰਾ ਸਿਰਜਣਹਾਰਾ ਜਿਨਿ ਸਿਰਜੀ ਤਿਨਿ ਗੋਈ ॥ ਪਰਵਾਣਾ ਆਇਆ ਹੁਕਮਿ ਪਠਾਇਆ ਫੇਰਿ ਨ ਸਕੈ ਕੋਈ ॥ ਆਪੇ ਕਰਿ ਵੇਖੈ ਸਿਰਿ ਸਿਰਿ ਲੇਖੈ ਆਪੇ ਸੁਰਤਿ ਬੁਝਾਈ ॥ ਨਾਨਕ ਸਾਹਿਬੁ ਅਗਮ ਅਗੋਚਰੁ ਜੀਵਾ ਸਚੀ ਨਾਈ ॥੧॥ ਤੁਮ ਸਰਿ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਇ ਆਇਆ ਜਾਇਸੀ ਜੀਉ ॥ ਹੁਕਮੀ ਹੋਇ ਨਿਬੇੜੁ ਭਰਮੁ ਚੁਕਾਇਸੀ ਜੀਉ ॥ ਗੁਰੁ ਭਰਮੁ ਚੁਕਾਏ ਅਕਥੁ ਕਹਾਏ ਸਚ ਮਹਿ ਸਾਚੁ ਸਮਾਣਾ ॥ ਆਪਿ ਉਪਾਏ ਆਪਿ ਸਮਾਏ ਹੁਕਮੀ ਹੁਕਮੁ ਪਛਾਣਾ ॥ ਸਚੀ ਵਡਿਆਈ ਗੁਰ ਤੇ ਪਾਈ ਤੂ ਮਨਿ ਅੰਤਿ ਸਖਾਈ ॥ ਨਾਨਕ ਸਾਹਿਬੁ ਅਵਰੁ ਨ ਦੂਜਾ ਨਾਮਿ ਤੇਰੈ ਵਡਿਆਈ ॥੨॥ ਤੂ ਸਚਾ ਸਿਰਜਣਹਾਰੁ ਅਲਖ ਸਿਰੰਦਿਆ ਜੀਉ ॥ ਏਕੁ ਸਾਹਿਬੁ ਦੁਇ ਰਾਹ ਵਾਦ ਵਧੰਦਿਆ ਜੀਉ ॥ ਦੁਇ ਰਾਹ ਚਲਾਏ ਹੁਕਮਿ ਸਬਾਏ ਜਨਮਿ ਮੁਆ ਸੰਸਾਰਾ ॥ ਨਾਮ ਬਿਨਾ ਨਾਹੀ ਕੋ ਬੇਲੀ ਬਿਖੁ ਲਾਦੀ ਸਿਰਿ ਭਾਰਾ ॥ ਹੁਕਮੀ ਆਇਆ ਹੁਕਮੁ ਨ ਬੂਝੈ ਹੁਕਮਿ ਸਵਾਰਣਹਾਰਾ ॥ ਨਾਨਕ ਸਾਹਿਬੁ ਸਬਦਿ ਸਿਞਾਪੈ ਸਾਚਾ ਸਿਰਜਣਹਾਰਾ ॥੩॥ ਭਗਤ ਸੋਹਹਿ ਦਰਵਾਰਿ ਸਬਦਿ ਸੁਹਾਇਆ ਜੀਉ ॥ ਬੋਲਹਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਬਾਣਿ ਰਸਨ ਰਸਾਇਆ ਜੀਉ ॥ ਰਸਨ ਰਸਾਏ ਨਾਮਿ ਤਿਸਾਏ ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਵਿਕਾਣੇ ॥ ਪਾਰਸਿ ਪਰਸਿਐ ਪਾਰਸੁ ਹੋਏ ਜਾ ਤੇਰੈ ਮਨਿ ਭਾਣੇ ॥ ਅਮਰਾ ਪਦੁ ਪਾਇਆ ਆਪੁ ਗਵਾਇਆ ਵਿਰਲਾ ਗਿਆਨ ਵੀਚਾਰੀ ॥ ਨਾਨਕ ਭਗਤ ਸੋਹਨਿ ਦਰਿ ਸਾਚੈ ਸਾਚੇ ਕੇ ਵਾਪਾਰੀ ॥੪॥ ਭੂਖ ਪਿਆਸੋ ਆਥਿ ਕਿਉ ਦਰਿ ਜਾਇਸਾ ਜੀਉ ॥ ਸਤਿਗੁਰ ਪੂਛਉ ਜਾਇ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇਸਾ ਜੀਉ ॥ ਸਚੁ ਨਾਮੁ ਧਿਆਈ ਸਾਚੁ ਚਵਾਈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਾਚੁ ਪਛਾਣਾ ॥ ਦੀਨਾ ਨਾਥੁ ਦਇਆਲੁ ਨਿਰੰਜਨੁ ਅਨਦਿਨੁ ਨਾਮੁ ਵਖਾਣਾ ॥ ਕਰਣੀ ਕਾਰ ਧੁਰਹੁ ਫੁਰਮਾਈ ਆਪਿ ਮੁਆ ਮਨੁ ਮਾਰੀ ॥ ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਮਹਾ ਰਸੁ ਮੀਠਾ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਨਾਮਿ ਨਿਵਾਰੀ ॥੫॥੨॥

ਅਰਥ: ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ ਜੀ! ਤੇਰੇ ਨਾਮ ਵਿਚ (ਜੁੜ ਕੇ) ਮੇਰੇ ਅੰਦਰ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ, ਮੇਰੇ ਮਨ ਵਿਚ ਖ਼ੁਸ਼ੀ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਹੈ, ਪ੍ਰਭੂ ਗੁਣਾਂ (ਦਾ ਖ਼ਜ਼ਾਨਾ) ਹੈ ਤੇ ਧਰਤੀ ਦੇ ਜੀਵਾਂ ਦੇ ਦਿਲ ਦੀ ਜਾਣਨ ਵਾਲਾ ਹੈ। ਗੁਰੂ ਦਾ ਬਖ਼ਸ਼ਿਆ ਗਿਆਨ ਦੱਸਦਾ ਹੈ ਕਿ ਸਿਰਜਣਹਾਰ ਪ੍ਰਭੂ ਬੇਅੰਤ ਹੈ, ਜਿਸ ਨੇ ਇਹ ਸ੍ਰਿਸ਼ਟੀ ਪੈਦਾ ਕੀਤੀ ਹੈ, ਉਹੀ ਇਸ ਨੂੰ ਨਾਸ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਜਦੋਂ ਉਸ ਦੇ ਹੁਕਮ ਵਿਚ ਭੇਜਿਆ ਹੋਇਆ (ਮੌਤ ਦਾ) ਸੱਦਾ ਆਉਂਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਕੋਈ ਜੀਵ (ਉਸ ਸੱਦੇ ਨੂੰ) ਮੋੜ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ। ਪਰਮਾਤਮਾ ਆਪ ਹੀ (ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ) ਪੈਦਾ ਕਰ ਕੇ ਆਪ ਹੀ ਸੰਭਾਲ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਆਪ ਹੀ ਹਰੇਕ ਜੀਵ ਦੇ ਸਿਰ ਉਤੇ (ਉਸ ਦੇ ਕੀਤੇ ਕਰਮਾਂ ਅਨੁਸਾਰ) ਲੇਖ ਲਿਖਦਾ ਹੈ, ਆਪ ਹੀ (ਜੀਵ ਨੂੰ ਸਹੀ ਜੀਵਨ-ਰਾਹ ਦੀ) ਸੂਝ ਬਖ਼ਸ਼ਦਾ ਹੈ। ਮਾਲਕ-ਪ੍ਰਭੂ ਅਪਹੁੰਚ ਹੈ, ਜੀਵਾਂ ਦੇ ਗਿਆਨ-ਇੰਦ੍ਰਿਆਂ ਦੀ ਉਸ ਤਕ ਪਹੁੰਚ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦੀ। ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! (ਉਸ ਦੇ ਦਰ ਤੇ ਅਰਦਾਸ ਕਰੋ, ਤੇ ਆਖੋ-ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ!) ਤੇਰੀ ਸਦਾ ਕਾਇਮ ਰਹਿਣ ਵਾਲੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਕਰ ਕੇ ਮੇਰੇ ਅੰਦਰ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ (ਮੈਨੂੰ ਆਪਣੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਬਖ਼ਸ਼) ॥੧॥ ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ ਜੀ! ਤੇਰੇ ਬਰਾਬਰ ਦਾ ਹੋਰ ਕੋਈ ਨਹੀਂ ਹੈ, (ਹੋਰ ਜੇਹੜਾ ਭੀ ਜਗਤ ਵਿਚ) ਆਇਆ ਹੈ, (ਉਹ ਇਥੋਂ ਆਖ਼ਰ) ਚਲਾ ਜਾਇਗਾ (ਤੂੰ ਹੀ ਸਦਾ ਕਾਇਮ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਹੈਂ)। ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਦੀ ਭਟਕਣਾ (ਗੁਰੂ) ਦੂਰ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਹੁਕਮ ਅਨੁਸਾਰ ਉਸ ਦੇ ਜਨਮ ਮਰਨ ਦੇ ਗੇੜ ਦਾ ਖ਼ਾਤਮਾ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਗੁਰੂ ਜਿਸ ਦੀ ਭਟਕਣਾ ਦੂਰ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਪਾਸੋਂ ਉਸ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਕਰਾਂਦਾ ਹੈ ਜਿਸ ਦੇ ਗੁਣ ਬਿਆਨ ਤੋਂ ਪਰੇ ਹਨ। ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਪ੍ਰਭੂ (ਦੀ ਯਾਦ) ਵਿਚ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ, ਸਦਾ-ਥਿਰ ਪ੍ਰਭੂ (ਉਸ ਦੇ ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ) ਪਰਗਟ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਰਜ਼ਾ ਦੇ ਮਾਲਕ-ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਹੁਕਮ ਪਛਾਣ ਲੈਂਦਾ ਹੈ (ਤੇ ਸਮਝ ਲੈਂਦਾ ਹੈ ਕਿ) ਪ੍ਰਭੂ ਆਪ ਹੀ ਪੈਦਾ ਕਰਦਾ ਹੈ ਤੇ ਆਪ ਹੀ (ਆਪਣੇ ਵਿਚ) ਲੀਨ ਕਰ ਲੈਂਦਾ ਹੈ। ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਨੇ ਤੇਰੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ (ਦੀ ਦਾਤਿ) ਗੁਰੂ ਤੋਂ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰ ਲਈ ਹੈ, ਤੂੰ ਉਸ ਦੇ ਮਨ ਵਿਚ ਆ ਵੱਸਦਾ ਹੈਂ ਤੇ ਅੰਤ ਸਮੇ ਭੀ ਉਸ ਦਾ ਸਾਥੀ ਬਣਦਾ ਹੈਂ। ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! ਮਾਲਕ-ਪ੍ਰਭੂ ਸਦਾ ਕਾਇਮ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਹੈ, ਉਸ ਵਰਗਾ ਹੋਰ ਕੋਈ ਨਹੀਂ। (ਉਸ ਦੇ ਦਰ ਤੇ ਅਰਦਾਸ ਕਰੋ ਤੇ ਆਖੋ-) ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਤੇਰੇ ਨਾਮ ਵਿਚ ਜੁੜਿਆਂ (ਲੋਕ ਪਰਲੋਕ ਵਿਚ) ਆਦਰ ਮਿਲਦਾ ਹੈ ॥੨॥ ਹੇ ਅਦ੍ਰਿਸ਼ਟ ਰਚਨਹਾਰ! ਤੂੰ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਹੈਂ ਤੇ ਸਭ ਜੀਵਾਂ ਦਾ ਪੈਦਾ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਹੈਂ। ਇਕੋ ਸਿਰਜਣਹਾਰ ਹੀ (ਸਾਰੇ ਜਗਤ ਦਾ) ਮਾਲਕ ਹੈ, ਉਸ ਨੇ (ਜੰਮਣਾ ਤੇ ਮਰਨਾ) ਦੋ ਰਸਤੇ ਚਲਾਏ ਹਨ। (ਉਸੇ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਅਨੁਸਾਰ ਜਗਤ ਵਿਚ) ਝਗੜੇ ਵਧਦੇ ਹਨ। ਦੋਵੇਂ ਰਸਤੇ ਪ੍ਰਭੂ ਨੇ ਹੀ ਤੋਰੇ ਹਨ, ਸਾਰੇ ਜੀਵ ਉਸੇ ਦੇ ਹੁਕਮ ਵਿਚ ਹਨ, (ਉਸੇ ਦੇ ਹੁਕਮ ਅਨੁਸਾਰ) ਜਗਤ ਜੰਮਦਾ ਤੇ ਮਰਦਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ। (ਜੀਵ ਨਾਮ ਨੂੰ ਭੁਲਾ ਕੇ ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਦਾ) ਜ਼ਹਰ-ਰੂਪ ਭਾਰ ਆਪਣੇ ਸਿਰ ਉਤੇ ਇਕੱਠਾ ਕਰੀ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, (ਤੇ ਇਹ ਨਹੀਂ ਸਮਝਦਾ ਕਿ) ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਨਾਮ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਹੋਰ ਕੋਈ ਭੀ ਸਾਥੀ-ਮਿੱਤਰ ਨਹੀਂ ਬਣ ਸਕਦਾ। ਜੀਵ (ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ) ਹੁਕਮ ਅਨੁਸਾਰ (ਜਗਤ ਵਿਚ) ਆਉਂਦਾ ਹੈ, (ਪਰ ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਵਿਚ ਫਸ ਕੇ ਉਸ) ਹੁਕਮ ਨੂੰ ਸਮਝਦਾ ਨਹੀਂ। ਪ੍ਰਭੂ ਆਪ ਹੀ ਜੀਵ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਹੁਕਮ ਅਨੁਸਾਰ (ਸਿੱਧੇ ਰਾਹ ਪਾ ਕੇ) ਸਵਾਰਨ ਦੇ ਸਮਰਥ ਹੈ। ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! ਗੁਰੂ ਦੇ ਸ਼ਬਦ ਵਿਚ ਜੁੜਿਆਂ ਇਹ ਪਛਾਣ ਆਉਂਦੀ ਹੈ ਕਿ ਜਗਤ ਦਾ ਮਾਲਕ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਹੈ ਤੇ ਸਭ ਦਾ ਪੈਦਾ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਹੈ ॥੩॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਭਗਤੀ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਬੰਦੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਹਜ਼ੂਰੀ ਵਿਚ ਸੋਭਦੇ ਹਨ, ਕਿਉਂਕਿ ਗੁਰੂ ਦੇ ਸ਼ਬਦ ਦੀ ਬਰਕਤਿ ਨਾਲ ਉਹ ਆਪਣੇ ਜੀਵਨ ਨੂੰ ਸੋਹਣਾ ਬਣਾ ਲੈਂਦੇ ਹਨ। ਉਹ ਬੰਦੇ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਦੇਣ ਵਾਲੀ ਬਾਣੀ ਆਪਣੀ ਜੀਭ ਨਾਲ ਉਚਾਰਦੇ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ, ਜੀਵ ਨੂੰ ਉਸ ਬਾਣੀ ਨਾਲ ਇਕ-ਰਸ ਕਰ ਲੈਂਦੇ ਹਨ। ਭਗਤ-ਜਨ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਨਾਮ ਨਾਲ ਜੀਭ ਨੂੰ ਰਸਾ ਲੈਂਦੇ ਹਨ, ਨਾਮ ਵਿਚ ਜੁੜ ਕੇ (ਨਾਮ ਵਾਸਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੀ) ਪਿਆਸ ਵਧਦੀ ਹੈ, ਗੁਰੂ ਦੇ ਸ਼ਬਦ ਦੀ ਰਾਹੀਂ ਉਹ ਪ੍ਰਭੂ-ਨਾਮ ਤੋਂ ਸਦਕੇ ਹੁੰਦੇ ਹਨ (ਨਾਮ ਦੀ ਖ਼ਾਤਰ ਹੋਰ ਸਭ ਸਰੀਰਕ ਸੁਖ ਕੁਰਬਾਨ ਕਰਦੇ ਹਨ)। ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਜਦੋਂ (ਭਗਤ ਜਨ) ਤੇਰੇ ਮਨ ਵਿਚ ਪਿਆਰੇ ਲੱਗਦੇ ਹਨ, ਤਾਂ ਉਹ ਗੁਰੂ-ਪਾਰਸ ਨਾਲ ਛੁਹ ਕੇ ਆਪ ਭੀ ਪਾਰਸ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਨ (ਹੋਰਨਾਂ ਨੂੰ ਪਵਿਤ੍ਰ ਜੀਵਨ ਦੇਣ ਜੋਗੇ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਨ)। ਜੇਹੜੇ ਬੰਦੇ ਆਪਾ-ਭਾਵ ਦੂਰ ਕਰਦੇ ਹਨ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਉਹ ਆਤਮਕ ਦਰਜਾ ਮਿਲ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਜਿਥੇ ਆਤਮਕ ਮੌਤ ਅਸਰ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦੀ। ਪਰ ਅਜੇਹਾ ਕੋਈ ਵਿਰਲਾ ਹੀ ਗੁਰੂ ਦੇ ਦਿੱਤੇ ਗਿਆਨ ਦੀ ਵਿਚਾਰ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਬੰਦਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਭਗਤੀ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਬੰਦੇ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਦਰ ਤੇ ਸੋਭਾ ਪਾਂਦੇ ਹਨ, ਉਹ (ਆਪਣੇ ਸਾਰੇ ਜੀਵਨ ਵਿਚ) ਸਦਾ-ਥਿਰ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਨਾਮ ਦਾ ਹੀ ਵਣਜ ਕਰਦੇ ਹਨ ॥੪॥ ਜਦੋਂ ਤਕ ਮੈਂ ਮਾਇਆ ਵਾਸਤੇ ਭੁੱਖਾ ਪਿਆਸਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹਾਂ, ਤਦ ਤਕ ਮੈਂ ਕਿਸੇ ਭੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਦਰ ਤੇ ਪਹੁੰਚ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ। (ਮਾਇਆ ਦੀ ਤ੍ਰਿਸ਼ਨਾ ਦੂਰ ਕਰਨ ਦਾ ਇਲਾਜ) ਮੈਂ ਜਾ ਕੇ ਆਪਣੇ ਗੁਰੂ ਤੋਂ ਪੁੱਛਦਾ ਹਾਂ (ਤੇ ਉਸ ਦੀ ਸਿੱਖਿਆ ਅਨੁਸਾਰ) ਮੈਂ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ ਸਿਮਰਦਾ ਹਾਂ (ਨਾਮ ਹੀ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਦੂਰ ਕਰਦਾ ਹੈ)। ਗੁਰੂ ਦੀ ਸਰਨ ਪੈ ਕੇ ਮੈਂ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਨਾਮ ਸਿਮਰਦਾ ਹਾਂ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਪ੍ਰਭੂ (ਦੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ) ਉਚਾਰਦਾ ਹਾਂ, ਤੇ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਪ੍ਰਭੂ ਨਾਲ ਸਾਂਝ ਪਾਂਦਾ ਹਾਂ। ਮੈਂ ਹਰ ਰੋਜ਼ ਉਸ ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਨਾਮ ਮੂੰਹੋਂ ਬੋਲਦਾ ਹਾਂ ਜੋ ਦੀਨਾਂ ਦਾ ਸਹਾਰਾ ਹੈ ਜੋ ਦਇਆ ਦਾ ਸੋਮਾ ਹੈ ਤੇ ਜਿਸ ਉਤੇ ਮਾਇਆ ਦਾ ਪ੍ਰਭਾਵ ਨਹੀਂ ਪੈ ਸਕਦਾ। ਪਰਮਾਤਮਾ ਨੇ ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਹਜ਼ੂਰੀ ਤੋਂ ਹੀ ਨਾਮ ਸਿਮਰਨ ਦੀ ਕਰਨ-ਜੋਗ ਕਾਰ ਕਰਨ ਦਾ ਹੁਕਮ ਦੇ ਦਿੱਤਾ, ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਆਪਣੇ ਮਨ ਨੂੰ (ਮਾਇਆ ਵਲੋਂ) ਮਾਰ ਕੇ ਤ੍ਰਿਸ਼ਨਾ ਦੇ ਪ੍ਰਭਾਵ ਤੋਂ ਬਚ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! ਉਸ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਨਾਮ ਹੀ ਮਿੱਠਾ* *ਤੇ ਹੋਰ ਸਭ ਰਸਾਂ ਨਾਲੋਂ ਸ੍ਰੇਸ਼ਟ ਲੱਗਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਨੇ ਨਾਮ ਸਿਮਰਨ ਦੀ ਬਰਕਤਿ ਨਾਲ ਮਾਇਆ ਦੀ ਤ੍ਰਿਸ਼ਨਾ (ਆਪਣੇ ਅੰਦਰੋਂ) ਦੂਰ ਕਰ ਲਈ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ॥੫॥੨॥



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SIMRANJOT SINGH : Waheguru Ji🙏

3 ਮਲਾਰ ਕੀ ਵਾਰ ਮਹਲਾ ੧
‘ਮਲਾਰ’ ਰਾਗ ਬਾਰੇ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਅਮਰਦਾਸ ਜੀ ਨੇ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਗ੍ਰੰਥ ਸਾਹਿਬ ਵਿਚ ਫੁਰਮਾਨ ਕੀਤਾ ਹੈ:
ਮਲਾਰੁ ਸੀਤਲ ਰਾਗੁ ਹੈ ਹਰਿ ਧਿਆਇਐ ਸਾਂਤਿ ਹੋਇ॥(ਪੰਨਾ 1283)
ਇਸ ਦੇ ਰੂਪ ਬਾਰੇ ਲਿਖਿਆ ਹੈ ਕਿ , ਮੂੰਹ ਵਿਚ ਪਾਠ ਤੇ ਚਮਕਦਾ ਚਿਹਰਾ ਅਤੇ ਚੜ੍ਹੀ ਜਵਾਨੀ ਜਿਸ ’ਤੇ ਚੰਦਨ ਮਲ-ਮਲ ਖੁਸ਼ਬੂ ਪੈਦਾ ਕੀਤੀ ਹੋਵੇ ਅਤੇ ਰੇਸ਼ਮੀ ਕੱਪੜੇ, ਭਾਵ ਸਾਰੇ ਪਾਸੇ ਉਤਸ਼ਾਹ ਦਾ ਵਾਤਾਵਰਨ। ਸੋ ‘ਰਾਗ ਮਲਾਰ’ ਵਿਚ ਬਾਣੀ ਦਾ ਮੀਂਹ ਪੈਂਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਜਿਸ ਪੀ ਲਿਆ ਉਹ ਸ਼ਾਂਤ-ਚਿਤ ਹੋ ਗਿਆ:
ਸਾਚੀ ਬਾਣੀ ਮੀਠੀ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਧਾਰ॥
ਜਿਨਿ ਪੀਤੀ ਤਿਸੁ ਮੋਖ ਦੁਆਰ॥ (ਪੰਨਾ 1275)
ਇਹ ਵਾਰ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਦੀ ਉਚਾਰਨ ਕੀਤੀ ਹੋਈ ਹੈ। ਇਸ ਵਾਰ ਦੀਆਂ ਕੁਲ 28 ਪਉੜੀਆਂ ਹਨ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਵਿੱਚੋਂ 1 ਪਉੜੀ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਅਰਜਨ ਦੇਵ ਜੀ ਦੀ ਉਚਾਰਨ ਕੀਤੀ ਹੋਈ ਹੈ ਅਤੇ ਬਾਕੀ ਦੀਆਂ 27 ਪਉੜੀਆਂ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਦੀਆਂ ਹਨ। ਇਸ ਵਾਰ ਵਿਚ ਕੁਲ 58 ਸਲੋਕ ਸੰਕਲਿਤ ਕੀਤੇ ਗਏ ਹਨ। ਇਸ ਵਾਰ ਵਿਚਲੀ ਹਰ ਪਉੜੀ ਅੱਠ-ਅੱਠ ਤੁਕਾਂ ਦੀ ਹੈ ਪਰ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਆਕਾਰ ਵਿਚ ਸਮਾਨਤਾ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਇਸ ਵਿਚ ਦਰਜ 58 ਸਲੋਕਾਂ ਵਿੱਚੋਂ 24 ਸਲੋਕ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਦੇ, 5 ਸਲੋਕ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਅੰਗਦ ਦੇਵ ਜੀ ਦੇ, 27 ਸਲੋਕ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਅਮਰਦਾਸ ਜੀ ਦੇ ਅਤੇ 2 ਸਲੋਕ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਅਰਜਨ ਦੇਵ ਜੀ ਦੇ ਹਨ। ਹਰ ਇਕ ਪਉੜੀ ਨਾਲ 2-2 ਸਲੋਕ ਹਨ, ਸਿਰਫ 21ਵੀਂ ਪਉੜੀ ਦੇ ਨਾਲ 4 ਸਲੋਕ ਹਨ। ਸਲੋਕਾਂ ਦੀਆਂ ਤੁਕਾਂ ਦਾ ਆਕਾਰ ਇਕਸਾਰ ਨਹੀਂ ਹੈ। 2 ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ 26 ਤਕ ਸਲੋਕ ਮਿਲਦੇ ਹਨ। ਇਸ ਵਾਰ ਦੀਆਂ ਪਉੜੀਆਂ ਦੀ ਭਾਸ਼ਾ ਦਾ ਸਰੂਪ ਪੂਰਬੀ ਪੰਜਾਬੀ ਵਾਲਾ ਹੈ, ਪਰ ਸਲੋਕ ਲਗਭਗ ਕੇਂਦਰੀ ਪੰਜਾਬੀ ਵਿਚ ਲਿਖੇ ਹੋਏ ਹਨ, ਭਾਵੇਂ ਇਨ੍ਹਾਂ ਉੁੱਪਰ ਕਿਤੇ-ਕਿਤੇ ਲਹਿੰਦੀ ਦਾ ਪ੍ਰਭਾਵ ਹੈ।
ਇਸ ਵਾਰ ਵਿਚ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਨੇ ਕੁਰੀਤੀਆਂ ਅਤੇ ਕੂੜ ਪਰੰਪਰਾਵਾਂ ਨੂੰ ਤਿਆਗ ਕੇ ਵਾਸਤਵਿਕ ਧਰਮ-ਕਾਰਜ ਵਿਚ ਲੀਨ ਹੋਣ ਦੀ ਭਾਵਨਾ ਨੂੰ ਪ੍ਰਗਟ ਕੀਤਾ ਹੈ। ਕੁਝ ਵਿਦਵਾਨਾਂ ਨੇ ਇਸ ਦੀ ਭਾਵ-ਸਮੱਗਰੀ ਨੂੰ 4 ਭਾਗਾਂ ਵਿਚ ਵੰਡਿਆ ਹੈ। 1 ਤੋਂ 7 ਤਕ ਪਉੜੀਆਂ ਰੱਬ ਬਾਰੇ, 8 ਤੋਂ 16 ਤਕ ਨਾਮ ਬਾਰੇ, 17 ਤੋਂ 22 ਤਕ ਭਗਤੀ ਬਾਰੇ ਅਤੇ 23 ਤੋਂ 28 ਤਕ ਪਉੜੀਆਂ ਗੁਰੂ-ਸ਼ਬਦ ਬਾਰੇ ਹਨ। ਪਰ ਅਜਿਹੀ ਵੰਡ-ਰੇਖਾ ਅੰਦਰਲੇ ਤੱਥਾਂ ਤੋਂ ਸਪਸ਼ਟ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀ।
4. ਗੂਜਰੀ ਕੀ ਵਾਰ ਮਹਲਾ ੩
‘ਗੂਜਰੀ’ ਇਕ ਪੁਰਾਤਨ ਰਾਗ ਹੈ। ਇਸ ਦਾ ਸੁਰਾਤਮਕ ਸਰੂਪ ਕਰੁਣਾ ਰਸ ਦਾ ਧਾਰਨੀ ਹੈ ਜਿਸ ਕਰਕੇ ਇਹ ਗੰਭੀਰ ਪ੍ਰਕਿਰਤੀ ਦੀਆਂ ਭਗਤੀ-ਭਾਵ ਵਾਲੀਆਂ ਰਚਨਾਵਾਂ ਦੇ ਗਾਇਨ ਲਈ ਅਤਿ ਢੁਕਵਾਂ ਹੈ। ‘ਰਾਗ ਗੂਜਰੀ’, ਤੋੜੀ ਦੀ ਵੰਨਗੀ ਹੈ, ਇਸੇ ਕਰਕੇ ਕਈ ਸੰਗੀਤ ਪ੍ਰੇਮੀ ਇਸ ਨੂੰ ‘ਗੂਜਰੀ ਤੋੜੀ’ ਵੀ ਆਖਦੇ ਹਨ। ਇਸ ਵਾਰ ਵਿਚ ਕੁੱਲ 22 ਪਉੜੀਆਂ ਹਨ। ਇਹ ਸਾਰੀਆਂ ਪਉੜੀਆਂ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਅਮਰਦਾਸ ਜੀ ਦੀਆਂ ਉਚਾਰਨ ਕੀਤੀਆਂ ਹੋਈਆਂ ਹਨ। ਹਰ ਇਕ ਪਉੜੀ ਵਿਚ 5-5 ਤੁਕਾਂ ਹਨ। ਹਰ ਇਕ ਪਉੜੀ ਦੇ ਨਾਲ 2-2 ਸਲੋਕ ਹਨ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਵਿੱਚੋਂ ਕੇਵਲ ਚੌਥੀ ਪਉੜੀ ਨਾਲ ਆਇਆ ਸਲੋਕ ਭਗਤ ਕਬੀਰ ਜੀ ਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਬਾਕੀ ਸਾਰੇ ਸਲੋਕ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਅਮਰਦਾਸ ਜੀ ਦੇ ਹਨ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਲੋਕਾਂ ਦੀਆਂ ਤੁਕਾਂ ਵਿਚ ਸਮਾਨਤਾ ਨਹੀਂ ਹੈ। 2 ਤੋਂ 11 ਤਕ ਤੁਕਾਂ ਮਿਲਦੀਆਂ ਹਨ। ਇਸ ਵਾਰ ਦੀ ਭਾਸ਼ਾ ਸਾਧ-ਭਾਖਾ ਤੋਂ ਪ੍ਰਭਾਵਿਤ ਪੂਰਬੀ ਪੰਜਾਬੀ ਹੈ। ਪਉੜੀਆਂ ਅਤੇ ਸਲੋਕਾਂ ਵਿਚ ਭਾਵਗਤ ਸਮਾਨਤਾ ਹੈ।
ਇਸ ਵਾਰ ਵਿਚ ਗੁਰੂ ਜੀ ਨੇ ਫ਼ੁਰਮਾਇਆ ਹੈ ਕਿ ਪਰਮਾਤਮਾ ਜਗਤ ਦਾ ਸਿਰਜਨਹਾਰ ਹੈ। ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਮਿਹਰ ਨਾਲ ਗੁਰੂ ਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ:
ਪ੍ਰਭ ਪਾਸਿ ਜਨ ਕੀ ਅਰਦਾਸਿ ਤੂ ਸਚਾ ਸਾਂਈ॥
ਤੂ ਰਖਵਾਲਾ ਸਦਾ ਸਦਾ ਹਉ ਤੁਧੁ ਧਿਆਈ॥
ਜੀਅ ਜੰਤ ਸਭਿ ਤੇਰਿਆ ਤੂ ਰਹਿਆ ਸਮਾਈ॥
ਜੋ ਦਾਸ ਤੇਰੇ ਕੀ ਨਿੰਦਾ ਕਰੇ ਤਿਸੁ ਮਾਰਿ ਪਚਾਈ॥
ਚਿੰਤਾ ਛਡਿ ਅਚਿੰਤੁ ਰਹੁ ਨਾਨਕ ਲਗਿ ਪਾਈ॥ (ਪੰਨਾ 517 )
( ਚਲਦਾ )



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सोरठि महला ५ ॥ गुरु पूरा भेटिओ वडभागी मनहि भइआ परगासा ॥ कोइ न पहुचनहारा दूजा अपुने साहिब का भरवासा ॥१॥ अपुने सतिगुर कै बलिहारै ॥ आगै सुखु पाछै सुख सहजा घरि आनंदु हमारै ॥ रहाउ ॥ अंतरजामी करणैहारा सोई खसमु हमारा ॥ निरभउ भए गुर चरणी लागे इक राम नाम आधारा ॥२॥

हे भाई! बड़ी किस्मत से मुझे पूरा गुरु मिल गया है, मेरे मन में आत्मिक जीवन की सूझ पैदा हो गयी है। अब मुझे अपने मालिक का सहारा हो गया है, कोई उस मालिक की बराबरी नहीं कर सकता।१। हे भाई! में अपने गुरु से कुर्बान जाता हूँ, (गुरु की कृपा से) मेरे हिर्दय-घर में आनंद बना रहता है, इस लोक में भी आत्मिक अडोलता का सुख मुझे प्राप्त हो गया है, और, परलोक में भी यह सुख सथिर रहने वाला है।रहाउ। हे भाई! जब से में गुरु की शरण आया हूँ, मुझे परमात्मा के नाम का सहारा हो गया है, कोई भय अब मुझे छु नहीं सकता (मुझे निश्चय हो गया है की जो) सिरजनहार सब के दिल की जानने वाला है वो ही मेरे सिर ऊपर रखवाला है।२।



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ਅੰਗ : 609

ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੫ ॥ ਗੁਰੁ ਪੂਰਾ ਭੇਟਿਓ ਵਡਭਾਗੀ ਮਨਹਿ ਭਇਆ ਪਰਗਾਸਾ ॥ ਕੋਇ ਨ ਪਹੁਚਨਹਾਰਾ ਦੂਜਾ ਅਪੁਨੇ ਸਾਹਿਬ ਕਾ ਭਰਵਾਸਾ ॥੧॥ ਅਪੁਨੇ ਸਤਿਗੁਰ ਕੈ ਬਲਿਹਾਰੈ ॥ ਆਗੈ ਸੁਖੁ ਪਾਛੈ ਸੁਖ ਸਹਜਾ ਘਰਿ ਆਨੰਦੁ ਹਮਾਰੈ ॥ ਰਹਾਉ ॥ ਅੰਤਰਜਾਮੀ ਕਰਣੈਹਾਰਾ ਸੋਈ ਖਸਮੁ ਹਮਾਰਾ ॥ ਨਿਰਭਉ ਭਏ ਗੁਰ ਚਰਣੀ ਲਾਗੇ ਇਕ ਰਾਮ ਨਾਮ ਆਧਾਰਾ ॥੨॥

ਅਰਥ: ਹੇ ਭਾਈ! ਵੱਡੀ ਕਿਸਮਤਿ ਨਾਲ ਮੈਨੂੰ ਪੂਰਾ ਗੁਰੂ ਮਿਲ ਪਿਆ ਹੈ, ਮੇਰੇ ਮਨ ਵਿਚ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਦੀ ਸੂਝ ਪੈਦਾ ਹੋ ਗਈ ਹੈ। ਹੁਣ ਮੈਨੂੰ ਆਪਣੇ ਮਾਲਕ ਦਾ ਸਹਾਰਾ ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ, ਕੋਈ ਉਸ ਮਾਲਕ ਦੀ ਬਰਾਬਰੀ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦਾ।੧। ਹੇ ਭਾਈ! ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਗੁਰੂ ਤੋਂ ਕੁਰਬਾਨ ਜਾਂਦਾ ਹਾਂ, (ਗੁਰੂ ਦੀ ਕਿਰਪਾ ਨਾਲ) ਮੇਰੇ ਹਿਰਦੇ-ਘਰ ਵਿਚ ਆਨੰਦ ਬਣਿਆ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ, ਇਸ ਲੋਕ ਵਿਚ ਭੀ ਆਤਮਕ ਅਡੋਲਤਾ ਦਾ ਸੁਖ ਮੈਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ, ਤੇ, ਪਰਲੋਕ ਵਿਚ ਭੀ ਇਹ ਸੁਖ ਟਿਕਿਆ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਹੈ।ਰਹਾਉ। ਹੇ ਭਾਈ! ਜਦੋਂ ਦਾ ਮੈਂ ਗੁਰੂ ਦੀ ਚਰਨੀਂ ਲੱਗਾ ਹਾਂ, ਮੈਨੂੰ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਨਾਮ ਦਾ ਆਸਰਾ ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ, ਕੋਈ ਡਰ ਮੈਨੂੰ ਹੁਣ ਪੋਹ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ (ਮੈਨੂੰ ਨਿਸ਼ਚਾ ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ ਕਿ ਜੇਹੜਾ) ਸਿਰਜਣਹਾਰ ਸਭ ਦੇ ਦਿਲ ਦੀ ਜਾਣਨ ਵਾਲਾ ਹੈ ਉਹੀ ਮੇਰੇ ਸਿਰ ਉਤੇ ਰਾਖਾ ਹੈ।੨।



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SIMRANJOT SINGH : Waheguru Ji🙏

वडहंसु महला ५ ॥ साधसंगि हरि अंमरितु पीजै ॥ ना जीउ मरै न कबहू छीजै ॥१॥ वडभागी गुरु पूरा पाईऐ ॥ गुर किरपा ते प्रभू धिआईऐ ॥१॥ रहाउ ॥ रतन जवाहर हरि माणक लाला ॥ सिमरि सिमरि प्रभ भए निहाला ॥२॥ जत कत पेखउ साधू सरणा ॥ हरि गुण गाइ निरमल मनु करणा ॥३॥ घट घट अंतरि मेरा सुआमी वूठा ॥ नानक नामु पाइआ प्रभु तूठा ॥४॥६॥

अर्थ :-हे भाई ! पूरा गुरु बड़ी किस्मत के साथ मिलता है, और, गुरु की कृपा के साथ परमात्मा का सुमिरन किया जा सकता है।1।रहाउ। हे भाई ! गुरु की संगत में ही आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम जल पीया जा सकता है, (इस नाम-जल की बरकत के साथ) जीव ना आत्मिक मौत मरती है, ना कभी आत्मिक जीवन में कच्ची होती है।1। हे भाई ! परमात्मा की सिफ़त-सालाह के बचन (मानो) रतन हैं, जवाहर हैं, मोती हैं, लाल हैं। भगवान जी का नाम सिमर सिमर के सदा खिले रहते है।2। हे भाई ! मैं जिधर किधर देखता हूँ, गुरु की शरण ही (एक ऐसी जगह है जहाँ) परमात्मा की सिफ़त-सालाह के गीत गा गा के मन को पवित्र किया जा सकता है।3। हे नानक ! (बोल-) मेरा स्वामी-भगवान (वैसे तो) हरेक शरीर में बसता है (पर जिस मनुख के ऊपर वह) भगवान प्रसन्न होता है (वही उस का) नाम (-सुमिरन) प्राप्त करता है।4।6।



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ਅੰਗ : 563

ਵਡਹੰਸੁ ਮਹਲਾ ੫ ॥ ਸਾਧਸੰਗਿ ਹਰਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਜੈ ॥ ਨਾ ਜੀਉ ਮਰੈ ਨ ਕਬਹੂ ਛੀਜੈ ॥੧॥ ਵਡਭਾਗੀ ਗੁਰੁ ਪੂਰਾ ਪਾਈਐ ॥ ਗੁਰ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਪ੍ਰਭੂ ਧਿਆਈਐ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ ਰਤਨ ਜਵਾਹਰ ਹਰਿ ਮਾਣਕ ਲਾਲਾ ॥ ਸਿਮਰਿ ਸਿਮਰਿ ਪ੍ਰਭ ਭਏ ਨਿਹਾਲਾ ॥੨॥ ਜਤ ਕਤ ਪੇਖਉ ਸਾਧੂ ਸਰਣਾ ॥ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਇ ਨਿਰਮਲ ਮਨੁ ਕਰਣਾ ॥੩॥ ਘਟ ਘਟ ਅੰਤਰਿ ਮੇਰਾ ਸੁਆਮੀ ਵੂਠਾ ॥ ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਪਾਇਆ ਪ੍ਰਭੁ ਤੂਠਾ ॥੪॥੬॥

ਅਰਥ: ਹੇ ਭਾਈ! ਪੂਰਾ ਗੁਰੂ ਵੱਡੀ ਕਿਸਮਤਿ ਨਾਲ ਮਿਲਦਾ ਹੈ, ਤੇ, ਗੁਰੂ ਦੀ ਕਿਰਪਾ ਨਾਲ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਸਿਮਰਨ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ।1। ਰਹਾਉ। ਹੇ ਭਾਈ! ਗੁਰੂ ਦੀ ਸੰਗਤਿ ਵਿਚ ਹੀ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਦੇਣ ਵਾਲਾ ਹਰਿ-ਨਾਮ ਜਲ ਪੀਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ, (ਇਸ ਨਾਮ-ਜਲ ਦੀ ਬਰਕਤਿ ਨਾਲ) ਜਿੰਦ ਨਾਹ ਆਤਮਕ ਮੌਤੇ ਮਰਦੀ ਹੈ, ਨਾਹ ਕਦੇ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਵਿਚ ਲਿੱਸੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ।1। ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਸਿਫ਼ਤਿ-ਸਾਲਾਹ ਦੇ ਬਚਨ (ਮਾਨੋ) ਰਤਨ ਹਨ, ਜਵਾਹਰ ਹਨ, ਮੋਤੀ ਹਨ, ਲਾਲ ਹਨ। ਪ੍ਰਭੂ ਜੀ ਦਾ ਨਾਮ ਸਿਮਰ ਸਿਮਰ ਕੇ ਸਦਾ ਖਿੜੇ ਰਹੀਦਾ ਹੈ।2। ਹੇ ਭਾਈ! ਮੈਂ ਜਿਧਰ ਕਿਧਰ ਵੇਖਦਾ ਹਾਂ, ਗੁਰੂ ਦੀ ਸਰਨ ਹੀ (ਇਕ ਐਸਾ ਥਾਂ ਹੈ ਜਿਥੇ) ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਸਿਫ਼ਤਿ-ਸਾਲਾਹ ਦੇ ਗੀਤ ਗਾ ਗਾ ਕੇ ਮਨ ਨੂੰ ਪਵਿਤ੍ਰ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ।3। ਹੇ ਨਾਨਕ! (ਆਖ—) ਮੇਰਾ ਮਾਲਕ-ਪ੍ਰਭੂ (ਉਂਞ ਤਾਂ) ਹਰੇਕ ਸਰੀਰ ਵਿਚ ਵੱਸਦਾ ਹੈ (ਪਰ ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਉੱਤੇ ਉਹ) ਪ੍ਰਭੂ ਪ੍ਰਸੰਨ ਹੁੰਦਾ ਹੈ (ਉਹੀ ਉਸ ਦਾ) ਨਾਮ (-ਸਿਮਰਨ) ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਦਾ ਹੈ।4।6।



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SIMRANJOT SINGH : 🙏🏻Waheguru Ji🙏🏻

धनासरी महला १ घरु १ चउपदे ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥ जीउ डरतु है आपणा कै सिउ करी पुकार ॥ दूख विसारणु सेविआ सदा सदा दातारु ॥१॥ साहिबु मेरा नीत नवा सदा सदा दातारु ॥१॥ रहाउ ॥ अनदिनु साहिबु सेवीऐ अंति छडाए सोइ ॥ सुणि सुणि मेरी कामणी पारि उतारा होइ ॥२॥ दइआल तेरै नामि तरा ॥ सद कुरबाणै जाउ ॥१॥ रहाउ ॥ सरबं साचा एकु है दूजा नाही कोइ ॥ ता की सेवा सो करे जा कउ नदरि करे ॥३॥ तुधु बाझु पिआरे केव रहा ॥ सा वडिआई देहि जितु नामि तेरे लागि रहां ॥ दूजा नाही कोइ जिसु आगै पिआरे जाइ कहा ॥१॥ रहाउ ॥ सेवी साहिबु आपणा अवरु न जाचंउ कोइ ॥ नानकु ता का दासु है बिंद बिंद चुख चुख होइ ॥४॥ साहिब तेरे नाम विटहु बिंद बिंद चुख चुख होइ ॥१॥ रहाउ ॥४॥१॥

अर्थ: राग धनासरी ,घर १ मे गुरू नानक देव जी की चार-बँदों वाली बाणी। अकाल पुरख एक है, जिस का नाम सच्चा है जो सिृसटी का रचनहार है, जो सब में मौजूद है, डर से रहित है, वैर रहित है, जिस का सरूप काल से परे है, (मतलब जिस का शरीर नाश रहित है), जो जूनों में नही आता, जिस का प्रकाश अपने अाप से हुआ है और जो सतिगुरू की कृपा से मिलता है। (जगत दुखों का समुँद्र है, इन दुखों को देख कर) मेरी जिंद काँप जाती है (परमात्मा के बिना अन्य कोई बचाने वाला नहीं दिखता) जिस के पास जा कर मैं अरजोई-अरदास करूँ। (इस लिए ओर आसरे छोड़ कर) मैं दुखों को नाश करने वाले प्रभू को ही सिमरता हूँ, वह सदा ही मेहर करने वाला है ॥१॥ (फिर वह) मेरा मालिक सदा ही बख्श़श़ें तो करता रहता है (परन्तु वह मेरी रोज की बेनती सुन के बख्श़श़ें करने में कभी परेशान नहीं होता) रोज ऐसे है जैसे पहली बार अपनी मेहर करने लगा है ॥१॥ रहाउ ॥ हे मेरी जिन्दे! हर रोज उस मालिक को याद करना चाहिए (दुखों से) आखिर वही बचाता है। हे मेरी जिन्दे! ध्यान से सुन (उस मालिक का सहारा लेने से ही दुखों से समुँद्र से) पार निकला जा सकता है ॥२॥ हे दयाल प्रभू! (मेहर कर, अपना नाम दे, जो कि) तेरे नाम से मैं (दुखों के इस समुँद्र को) पार कर सकूँ। मैं आपसे सदा सदके जाता हूँ ॥१॥ रहाउ ॥ सदा के लिए रहने वाला परमात्मा ही सब जगह हाज़िर है, उस के बिना ओर कोई नही। जिस जीव पर वह मेहर की निगाह करता है, वह उस का सिमरन करता है ॥३॥ हे प्यारे (प्रभू!) तेरी याद के बिना मे परेशान हो जाता हूँ। मुझे कोई वह बड़ी दात दें, जिस करके मैं तुम्हारे नाम मे जुड़ा रहा। हे प्यारे! तुम्हारे बिना ओर एेसा कोई नही है, जिस पास जा कर मैं यह अरजोई कर सका ॥१॥ रहाउ ॥ (दुखों के इस सागर से तरने के लिए) मैं अपने मालिक प्रभू को ही याद करता हूँ, किसी ओर से मैं यह माँग नही माँगता। नानक जी (अपने) उस (मालिक) का ही सेवक है, उस मालिक से ही खिन खिन सदके जाता है ॥४॥ हे मेरे मालिक! मैं तेरे नाम से खिन खिन कुर्बान जाता हूँ ॥१॥ रहाउ ॥४॥१॥



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ਅੰਗ : 660

ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੧ ਘਰੁ ੧ ਚਉਪਦੇ ੴ ਸਤਿ ਨਾਮੁ ਕਰਤਾ ਪੁਰਖੁ ਨਿਰਭਉ ਨਿਰਵੈਰੁ ਅਕਾਲ ਮੂਰਤਿ ਅਜੂਨੀ ਸੈਭੰ ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ਜੀਉ ਡਰਤੁ ਹੈ ਆਪਣਾ ਕੈ ਸਿਉ ਕਰੀ ਪੁਕਾਰ ॥ ਦੂਖ ਵਿਸਾਰਣੁ ਸੇਵਿਆ ਸਦਾ ਸਦਾ ਦਾਤਾਰੁ ॥੧॥ ਸਾਹਿਬੁ ਮੇਰਾ ਨੀਤ ਨਵਾ ਸਦਾ ਸਦਾ ਦਾਤਾਰੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ ਅਨਦਿਨੁ ਸਾਹਿਬ ਸੇਵੀਐ ਅੰਤਿ ਛਡਾਏ ਸੋਇ ॥ ਸੁਣਿ ਸੁਣਿ ਮੇਰੀ ਕਾਮਣੀ ਪਾਰਿ ਉਤਾਰਾ ਹੋਇ ॥੨॥ ਦਇਆਲ ਤੇਰੈ ਨਾਮਿ ਤਰਾ ॥ ਸਦ ਕੁਰਬਾਣੈ ਜਾਉ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ ਸਰਬੰ ਸਾਚਾ ਏਕੁ ਹੈ ਦੂਜਾ ਨਾਹੀ ਕੋਇ ॥ ਤਾ ਕੀ ਸੇਵਾ ਸੋ ਕਰੇ ਜਾ ਕਉ ਨਦਰਿ ਕਰੇ ॥੩॥ ਤੁਧੁ ਬਾਝੁ ਪਿਆਰੇ ਕੇਵ ਰਹਾ ॥ ਸਾ ਵਡਿਆਈ ਦੇਹਿ ਜਿਤੁ ਨਾਮਿ ਤੇਰੇ ਲਾਗਿ ਰਹਾਂ ॥ ਦੂਜਾ ਨਾਹੀ ਕੋਇ ਜਿਸੁ ਆਗੈ ਪਿਆਰੇ ਜਾਇ ਕਹਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ ਸੇਵੀ ਸਾਹਿਬ ਆਪਣਾ ਅਵਰੁ ਨ ਜਾਚੰਉ ਕੋਇ ॥ ਨਾਨਕੁ ਤਾ ਕਾ ਦਾਸੁ ਹੈ ਬਿੰਦ ਬਿੰਦ ਚੁਖ ਚੁਖ ਹੋਇ ॥੪॥ ਸਾਹਿਬ ਤੇਰੇ ਨਾਮ ਵਿਟਹੁ ਬਿੰਦ ਬਿੰਦ ਚੁਖ ਚੁਖ ਹੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥੪॥੧॥

ਅਰਥ: ਰਾਗ ਧਨਾਸਰੀ, ਘਰ ੧ ਵਿੱਚ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਦੀ ਚਾਰ-ਬੰਦਾਂ ਵਾਲੀ ਬਾਣੀ। ਅਕਾਲ ਪੁਰਖ ਇੱਕ ਹੈ, ਜਿਸ ਦਾ ਨਾਮ ‘ਹੋਂਦ ਵਾਲਾ’ ਹੈ ਜੋ ਸ੍ਰਿਸ਼ਟੀ ਦਾ ਰਚਨਹਾਰ ਹੈ, ਜੋ ਸਭ ਵਿਚ ਵਿਆਪਕ ਹੈ, ਭੈ ਤੋਂ ਰਹਿਤ ਹੈ, ਵੈਰ-ਰਹਿਤ ਹੈ, ਜਿਸ ਦਾ ਸਰੂਪ ਕਾਲ ਤੋਂ ਪਰੇ ਹੈ, (ਭਾਵ, ਜਿਸ ਦਾ ਸਰੀਰ ਨਾਸ-ਰਹਿਤ ਹੈ), ਜੋ ਜੂਨਾਂ ਵਿਚ ਨਹੀ ਆਉਂਦਾ, ਜਿਸ ਦਾ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ ਆਪਣੇ ਆਪ ਤੋਂ ਹੋਇਆ ਹੈ ਅਤੇ ਜੋ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦੀ ਕਿਰਪਾ ਨਾਲ ਮਿਲਦਾ ਹੈ। (ਜਗਤ ਦੁੱਖਾਂ ਦਾ ਸਮੁੰਦਰ ਹੈ, ਇਹਨਾਂ ਦੁੱਖਾਂ ਨੂੰ ਵੇਖ ਕੇ) ਮੇਰੀ ਜਿੰਦ ਕੰਬਦੀ ਹੈ (ਪਰਮਾਤਮਾ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਹੋਰ ਕੋਈ ਬਚਾਣ ਵਾਲਾ ਦਿੱਸਦਾ ਨਹੀਂ) ਜਿਸ ਦੇ ਪਾਸ ਮੈਂ ਮਿੰਨਤਾ ਕਰਾਂ। (ਸੋ, ਹੋਰ ਆਸਰੇ ਛੱਡ ਕੇ) ਮੈਂ ਦੁੱਖਾਂ ਦੇ ਨਾਸ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਪ੍ਰਭੂ ਨੂੰ ਹੀ ਸਿਮਰਦਾ ਹਾਂ, ਉਹ ਸਦਾ ਹੀ ਬਖ਼ਸ਼ਸ਼ਾਂ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਹੈ ॥੧॥ (ਫਿਰ ਉਹ) ਮੇਰਾ ਮਾਲਿਕ ਸਦਾ ਹੀ ਬਖ਼ਸ਼ਸ਼ਾਂ ਤਾਂ ਕਰਦਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ (ਪਰ ਉਹ ਮੇਰੇ ਨਿੱਤ ਦੇ ਤਰਲੇ ਸੁਣ ਕੇ ਕਦੇ ਅੱਕਦਾ ਨਹੀਂ, ਬਖ਼ਸ਼ਸ਼ਾਂ ਵਿਚ) ਨਿੱਤ ਇਉਂ ਹੈ ਜਿਵੇਂ ਪਹਿਲੀ ਵਾਰੀ ਹੀ ਬਖ਼ਸ਼ਸ਼ ਕਰਨ ਲੱਗਾ ਹੈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ ਹੇ ਮੇਰੀ ਜਿੰਦੇ! ਹਰ ਰੋਜ਼ ਉਸ ਮਾਲਿਕ ਨੂੰ ਯਾਦ ਕਰਨ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ (ਦੁੱਖਾਂ ਵਿਚੋਂ) ਅਾਖ਼ਰ ਉਹੀ ਬਚਾਂਦਾ ਹੈ। ਹੇ ਜਿੰਦੇ! ਧਿਆਨ ਨਾਲ ਸੁਣ (ਉਸ ਮਾਲਿਕ ਦਾ ਆਸਰਾ ਲਿਆਂ ਹੀ ਦੁਖਾਂ ਦੇ ਸਮੁੰਦਰ ਵਿਚੋਂ) ਪਾਰ ਲੰਘ ਸਕੀਦਾ ਹੈ ॥੨॥ ਹੇ ਦਿਆਲ ਪ੍ਰਭੂ! (ਮੇਹਰ ਕਰ, ਆਪਣਾ ਨਾਮ ਦੇਹ, ਤਾ ਕਿ) ਤੇਰੇ ਨਾਮ ਦੀ ਰਾਹੀਂ ਮੈਂ (ਦੁੱਖਾਂ ਦੇ ਇਸ ਸਮੁੰਦਰ ਵਿਚੋਂ) ਪਾਰ ਲੰਘ ਸਕਾਂ। ਮੈਂ ਤੈਥੋਂ ਸਦਾ ਸਦਕੇ ਜਾਂਦਾ ਹਾਂ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ ਸਦਾ ਕਾਇਮ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਪਰਮਾਤਮਾ ਹੀ ਸਭ ਥਾਈਂ ਮੌਜੂਦ ਹੈ, ਉਸ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਹੋਰ ਕੋਈ ਨਹੀਂ। ਜਿਸ ਜੀਵ ਉਤੇ ਉਹ ਮੇਹਰ ਦੀ ਨਿਗਾਹ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਉਸ ਦਾ ਸਿਮਰਨ ਕਰਦਾ ਹੈ ॥੩॥ ਹੇ ਪਿਆਰੇ (ਪ੍ਰਭੂ!) ਤੇਰੀ ਯਾਦ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਮੈਂ ਵਿਆਕੁਲ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹਾਂ। ਮੈਨੂੰ ਕੋਈ ਉਹ ਵੱਡੀ ਦਾਤਿ ਦੇਹ, ਜਿਸ ਦਾ ਸਦਕਾ ਮੈਂ ਤੇਰੇ ਨਾਮ ਵਿਚ ਜੁੜਿਆ ਰਹਾਂ। ਹੇ ਪਿਆਰੇ! ਤੈਥੋਂ ਬਿਨਾ ਹੋਰ ਐਸਾ ਕੋਈ ਨਹੀਂ ਹੈ, ਜਿਸ ਪਾਸ ਜਾ ਕੇ ਮੈਂ ਇਹ ਅਰਜ਼ੋਈ ਕਰ ਸਕਾਂ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ (ਦੁਖਾਂ ਦੇ ਇਸ ਸਾਗਰ ਵਿਚੋਂ ਤਰਨ ਲਈ) ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਮਾਲਿਕ ਪ੍ਰਭੂ ਨੂੰ ਹੀ ਯਾਦ ਕਰਦਾ ਹਾਂ, ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਪਾਸੋਂ ਮੈਂ ਇਹ ਮੰਗ ਨਹੀਂ ਮੰਗਦਾ। ਨਾਨਕ ਜੀ (ਆਪਣੇ) ਉਸ (ਮਾਲਿਕ) ਦਾ ਹੀ ਸੇਵਕ ਹੈ, ਉਸ ਮਾਲਿਕ ਤੋਂ ਹੀ ਖਿਨ ਖਿਨ ਸਦਕੇ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ॥੪॥ ਹੇ ਮੇਰੇ ਮਾਲਿਕ! ਮੈਂ ਤੇਰੇ ਨਾਮ ਤੋਂ ਖਿਨ ਖਿਨ ਕੁਰਬਾਨ ਜਾਂਦਾ ਹਾਂ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥੪॥੧॥



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ਤਿੰਨ ਪੁੱਤਰਾਂ ਤੇ ਸਿਰ ਦੇ ਸਾਂਈ ਦੀ ਦਾਨਣ ਬੀਬੀ ਨਸੀਰਾਂ ਜੀ ।
ਬੀਬੀ ਨਸੀਰਾਂ ਜੀ ਬੜੇ ਧਾਰਮਿਕ ਵਿਚਾਰਾਂ ਦੇ ਧਾਰਨੀ ਸਨ । ਬੜੀ ਸੁਲਝੀ ਹੋਈ ਦਲੇਰ ਤੇ ਖੁਦਾ – ਪ੍ਰਸਤ ਇਸਤਰੀ ਸੀ ।
ਪੰਦਰਾਂ ਸਾਲ ਦੀ ਉਮਰ ਸੰਨ 1662 ਵਿਚ ਆਪ ਦਾ ਵਿਆਹ ਪੀਰ ਬੁਧੂ ਸ਼ਾਹ ਨਾਲ ਹੋਇਆ । ਪੀਰ ਜੀ ਵੀ ਬੜੇ ਧਾਰਮਿਕ ਤੇ ਸੂਫੀ ਖਿਆਲਾਂ ਦੇ ਸਨ । ਸੰਸਾਰ ਦੇ ਵਿਹਾਰਾਂ ਤੋਂ ਬੜੇ ਬੇਪਰਵਾਹ ਤੇ ਹਰ ਸਮਾਂ ਰੱਬ ਦੀ ਬੰਦਗੀ ਵਿਚ ਜੁਟੇ ਰਹਿੰਦੇ ਸਨ । ਲੋਕ ਆਪ ਦਾ ਬੜਾ ਸਤਿਕਾਰ ਕਰਦੇ ਸਨ । ਆਪ ਦਾ ਨਾਮ ਤਾਂ ਬਦਰਦੀਨ ਸੀ ਜਿਸ ਕਰਕੇ ਲੋਕੀਂ ਸਤਿਕਾਰ ਤੇ ਸ਼ਰਧਾ ਨਾਲ ਪੀਰ ਬੁੱਧੂ ਸ਼ਾਹ ਕਹਿਣ ਲੱਗ ਪਏ । ਆਪ ਪਰਉਪਕਾਰੀ ਜੀਵਨ ਬਿਤਾ ਕੇ ਖੁਸ਼ ਹੁੰਦੇ ਤੇ ਮਜ਼ਬੋ ਮਿਲਤ ਤੇ ਜ਼ਾਤ – ਪਾਤ ਤੋਂ ਉਪਰ ਸੋਚਣ ਵਾਲੇ ਸਨ । ਆਪ ਦੀ ਜੀਅ ਜੰਤੂਆਂ ਨਾਲ ਖੁਦਾ ਦੀ ਖਲਕਤ ਹੋਣ ਕਰਕੇ ਪਿਆਰ ਤੇ ਹਮਦਰਦੀ ਦੀ ਇੱਕ ਉਦਾਹਰਣ ਇਉਂ ਹੈ : – ਪੀਰ ਜੀ ਨੇ ਆਪਣੀ ਜਗੀਰ ਜਿਹੜੀ ਮੁਗਲਾਂ ਵਲੋਂ ਮਿਲੀ ਹੋਈ ਸੀ ਆਪਣੇ ਕਿਸੇ ਰਿਸ਼ਤੇਦਾਰ ਨੂੰ ਵਾਹੁਣ ਵਾਸਤੇ ਦਿੱਤੀ ਹੋਈ ਸੀ । ਉਹ ਬੜੇ ਕਰੜੇ ਤੇ ਸਖਤ ਸੁਭਾ ਦਾ ਸੀ । ਇਸ ਦੀ ਪੈਲੀ ਵਿੱਚ ਕਿਸੇ ਦਾ ਡੰਗਰ ਕੋਈ ਖੇਤੀ ਖਾ ਜਾਂਦਾ ਤਾਂ ਇਹ ਉਸ ਨੂੰ ਕੁੱਟਦਾ ਮਾਰਦਾ । ਇੱਕ ਵਾਰੀ ਇਸ ਨੇ ਇਕ ਪਸ਼ੂ ਨੂੰ ਏਨਾ ਕੁਟਿਆ ਕਿ ਬੇਹੋਸ਼ ਹੋ ਗਿਆ ਤੇ ਨਾਲ ਹੀ ਉਸ ਦੇ ਮਾਲਕ ਦੀ ਅਬਾ ਤਬਾ ਕੀਤੀ । ਜਦੋਂ ਇਸ ਘਟਨਾ ਦਾ ਪੀਰ ਜੀ ਨੂੰ ਪਤਾ ਲੱਗਾ ਤਾਂ ਉਸ ਰਿਸ਼ਤੇ ਦਾਰ ਨੂੰ ਘਰ ਸੱਦ ਕੇ ਕਿਹਾ ਕਿ ਮੈਂ ਆਪਣਾ ਹਿੱਸਾ ਛੱਡਿਆ ਤੂੰ ਡੰਗਰਾਂ ਪਸ਼ੂਆਂ ਨੂੰ ਨਾ ਮਾਰਿਆ ਕਰ , ਨਾ ਰੋਕਿਆ ਕਰ । ਉਸ ਨੇ ਖਿਮਾ ਮੰਗੀ । ਹੁਣ ਉਸ ਨੇ ਪਸ਼ੂਆਂ ਨੂੰ ਰੋਕਣਾ ਬੰਦ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਖੁਦਾ ਦੀ ਕਰਨੀ ਜਿਸ ਪੈਲੀ ਵਿਚੋਂ ਡੰਗਰ ਖਾ ਜਾਂਦੇ ਉਹ ਸਗੋਂ ਹੋਰ ਸੰਘਣੀ ਹੋ ਜਾਦੀ। ਬੁੱਧੂ ਸ਼ਾਹ , ਪੀਰ ਭੀਖਨ ਸ਼ਾਹ ਜੋ ਬਾਲਕ ਗੁਰੂ ਜੀ ਦੇ ਦਰਸ਼ਨ ਕਰਨ ਗਿਆ ਸੀ , ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਦਰਸ਼ਨ ਕਰਨ ਘੁੜਾਮ ਕਈ ਵਾਰ ਗਿਆ । ਸੈਫਾਬਾਦ ( ਪਟਿਆਲੇ ) ਇੱਕ ਵਾਰ ਪੀਰ ਫਕੀਰ ਸੈਫੁਲ ਦੀਨ ਨੂੰ ਮਿਲਣ ਗਿਆ ਤਾਂ ਉਥੇ ਗੁਰੂ ਤੇਗ ਬਹਾਦਰ ਜੀ ਦੇ ਦਰਸ਼ਨ ਕਰਕੇ ਨਿਹਾਲ ਹੋਇਆ । ਬਾਲਕ ਗੁਰੂ ਜਦੋਂ ਪਟਨੇ ਤੋਂ ਅਨੰਦਪੁਰ ਸਾਹਿਬ ਆਉਂਦਿਆਂ ਲਖਨਊ ਮਾਤਾ ਗੁਜਰੀ ਜੀ ਦੇ ਜੱਦੀ ਪੇਕੇ ਪਿੰਡ ਭੀਖਨ ਸ਼ਾਹ ਤੇ ਪੀਰ ਬੁੱਧੂ ਸ਼ਾਹ ਦੋਹਾਂ ਨੇ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਦਰਸ਼ਨ ਕੀਤੇ ਸਨ । ਜਦੋਂ ਭੀਖਨ ਸ਼ਾਹ ਨੇ ਪੀਰ ਬੁੱਧੂ ਸ਼ਾਹ ਨੂੰ ਕੁੱਜੀਆਂ ਵਾਲੀ ਪਰਖ ਦੀ ਕਹਾਣੀ ਸੁਣਾਈ ਤਾਂ ਇਹ ਗੁਰੂ ਜੀ ਦਾ ਪੂਰਾ ਸ਼ਰਧਾਲੂ ਬਣ ਗਿਆ । ਉਹਨਾਂ ਲਈ ਪੂਰਾ ਸਤਿਕਾਰ ਮਨ ਵਿੱਚ ਬਣਾ ਲਿਆ । ਪੀਰ ਬੁੱਧੂ ਸ਼ਾਹ ਕੁਝ ਚਿਰ ਲਈ ਘਰ ਬਾਰ ਛੱਡ ਕੇ ਦਿੱਲੀ ਆ ਗਿਆ ਤੇ ਉਥੇ ਵਾਸਾ ਕਰ ਲਿਆ । ਉਥੇ ਕਾਫੀ ਤਪੱਸਿਆ ਕੀਤੀ ਪਰ ਉਥੇ ਦਿਲ ਨਾ ਲੱਗਾ । ਜਦੋਂ ਗੁਰੂ ਜੀ ਦਾ ਪਾਉਂਟੇ ਆਉਣਾ ਸੁਣਿਆ ਤਾਂ ਪੀਰ ਬੁੱਧੂ ਸ਼ਾਹ ਗੁਰੂ ਜੀ ਦੇ ਦਰਸ਼ਨਾਂ ਨੂੰ ਉਥੇ ਪੁੱਜਿਆ । ਗੁਰੂ ਜੀ ਨੂੰ ਮਿਲਦਿਆਂ ਹੀ ਕਹਿਣ ਲੱਗਾ , “ ਮਹਾਰਾਜ ਮੇਰੀ ਤ੍ਰਿਪਤ ਬੁਝਾਉ । ‘ ‘ ਗੁਰੂ ਜੀ ਨੇ ਬਚਨ ਕੀਤਾ , “ ਭਟਕਣਾ ਛੱਡ ਕੇ ਟਿਕ ਕੇ ਬੈਠ ਜਾਉ । ‘ ‘ ਫਿਰ ਪੁਛਿਆ “ ਸੱਚੇ ਪਾਤਸ਼ਾਹ ਖੁਦਾ ਨੂੰ ਕਿਵੇਂ ਪਾਈਏ ? ” ਗੁਰੂ ਜੀ ਦੇ ਬਚਨ ਸਨ : “ ਖੁਦਾ ਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਲਈ ਅਗਿਆਨਤਾ ਤੇ ਤੰਗ – ਦਿਲੀ ਹੀ ਰੋੜੇ ਦਾ ਕੰਮ ਕਰਦੇ ਹਨ । ਅਗਿਆਨਤਾ ਕਰਕੇ ਸੰਸਾਰੀ ਪਦਾਰਥ ਤੇ ਧੀਆਂ ਪੁੱਤਰ , ਮਹਿਲ ਮਾੜੀਆਂ ਆਪਣੀਆਂ ਦਿਸਦੀਆਂ ਹਨ । ਮਨੁੱਖ ਤੰਗ ਦਾਇਰੇ ਵਿੱਚ ਫਸ ਜਾਂਦਾ ਹੈ । ਇਹਨਾਂ ਸੰਸਾਰਕ ਬੰਧਨਾਂ ਤੋਂ ਛੁਟਕਾਰਾ ਪਾ ਕੇ ਹੀ ਖੁਦਾ ਦੇ ਦਰਸ਼ਨ ਹੋ ਸਕਦੇ ਹਨ । ਜਦੋਂ ਪ੍ਰਭਾਤ ਆਉਂਦੀ ਹੈ ਤਾਂ ਰਾਤ ਪਿਛੇ ਰਹਿ ਜਾਂਦੀ ਹੈ । ਖੁਦਾ ਨੂੰ ਮਿਲਣਾ ਇਵੇਂ ਹੈ ਜਿਵੇਂ ਰਾਤ ਦਿਨ ਨੂੰ ਮਿਲਦੀ ਹੈ । ਜਦੋਂ ਸਚਾਈ ਦਾ ਗਿਆਨ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਆਪਾ ਮਿਟ ਜਾਂਦਾ ਹੈ । ਜਦੋਂ ਪੀਰ ਜੀ ਨੇ ਪੁਛਿਆ ਕਿ “ ਖੁਦਾ ਨਾਲ ਮਿਲਾਪ ਹੋਇਆ ਤਾਂ ਕਿਵੇਂ ਅਨੁਭਵ ਕਰੀਏ ਤਾਂ ਗੁਰੂ ਜੀ ਨੇ ਬਚਨ ਕੀਤਾ ਕਿ ” ਨੂਰਾਨੀ ਉਜਾਲਾ ਹੁੰਦਿਆਂ ਆਪੇ ਹੀ ਹਉਮੈ ਖਤਮ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ਆਪਣੀ ਹੋਂਦ ਦਾ ਖਿਆਲ ਹੀ ਮਿਟ ਜਾਂਦਾ ਹੈ । ਸਚਾਈ ਸਾਹਮਣੇ ਆ ਜਾਂਦੀ ਹੈ । ਤ੍ਰਿਸ਼ਨਾ , ਭੇਖ , ਪਾਖੰਡ ਖ਼ਤਮ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਨ ਤੇ ਸਾਰਾ ਮੁਲੰਮਾ ਉਤਰ ਜਾਂਦਾ ਹੈ । ਫਿਰ ਗੁਰੂ ਜੀ ਨੇ ਪੀਰ ਜੀ ਨੂੰ ਮੁਖਾਤਬ ਕਰਦਿਆਂ ਬਚਨ ਕੀਤਾ “ ਮਨ ਨੂੰ ਕਾਬੂ ਕਰਨ ਲਈ ਤੁਸੀਂ ਤਪੱਸਿਆ ਕੀਤੀ ਤੁਸੀਂ ਸਫਲ ਨਹੀਂ ਹੋਏ । ਤਪ ਹੀ ਹਉਮੈ ਦੀ ਖੁਰਾਕ ਬਣ ਜਾਂਦੀ ਹੈ । ਉਸ ਪਾਸ ਪੁੱਜਣ ਦਾ ਰਸਤਾ ਕੇਵਲ ਉਸ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਵਿਚ ਰਹਿਣਾ ਹੀ ਹੈ । ਇਹ ਬਚਨ ਸੁਣ ਕੇ ਪੀਰ ਜੀ ਨੂੰ ਜੀਵਨ ਦਾ ਭੇਦ ਮਿਲ ਗਿਆ । ਸੂਰਜ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ ਗ੍ਰੰਥ ਦੇ ਕਰਤਾ ਨੇ ਵੀ ਪੀਰ ਬੁੱਧੂ ਸ਼ਾਹ ਦੇ ਗੁਰੂ ਜੀ ਨਾਲ ਹੋਏ । ਮਿਲਾਪ ਦਾ ਵਰਨਣ ਕੀਤਾ ਹੈ । ਉਸ ਨੇ ਲਿਖਿਆ ਹੈ ਗੁਰੂ ਜੀ ਨੇ ਜਦ ਪੁਛਿਆ “ ਕਿਸ ਕਾਰਜ ਤੇ ਆਵਨ ਇਹਾ ? ‘ ਅੱਗੋਂ ਬੁੱਧੂ ਸ਼ਾਹ ਬੋਲਿਆ , ਮਨ ਨਹੀਂ ਸੀ ਟਿਕਦਾ ਤੁਹਾਡੇ ਦੀਦਾਰ ਨੂੰ ਆਇਆ ਸੀ , ਪਰ ਆਪ ਦੇ ਮੁਖੋਂ ਕੁਝ ਬੋਲ ਤੇ ਤੇਰੇ ਦੀਦਾਰ ਪਾ ਕੇ ਮਨ ਦਾ ਦੇਣਾ ਹੋ ਗਿਆ । ਸਭ ਭਟਕਣਾਂ ਮੁੱਕ ਗਈਆਂ ਹਨ । ਮਨ ਉਡਾਰੀਆਂ ਲਾਉਣੋਂ ਹੱਟ ਗਿਆ ਹੈ । “ ਐਸੀ ਮਿਲਣੀ ਅਬਿ ਮਲਿ ਗਾਯੋ ॥ ਲੈ ਦਰਸ਼ਨ ਮਨ ਦੇ ਦਿਯੋ ॥ ਅਸ ਬਿਵਹਾਰ ਬਿਨ ਮੁੱਖ ਬੋਲੇ । ਹੋਇ ਚੁਕਯੋ ਤੁਰਨ ਬਿਨ ਤੋਲੇ ॥੧੭ ॥ ਜਿਸ ਤੇ ਫੇਰ ਨਾ ਫਿਰਨਾ ਹੋਏ ॥ ਬਹੁਤ ਦਿਨ ਕੇ ਦਾਰਿਦ ਦੁਖ ਖੋਇ ॥ ‘ ਗੁਰੂ ਜੀ ਦੇ ਬਚਨ ਸੁਣ ਕੇ ਪੀਰ ਜੀ ਨਿਹਾਲ ਮੁਗਧ ਹੋ ਗਏ । ਉਧਰ ਗੁਰੂ ਜੀ ਨੇ ਬਹੁਤ ਆਦਰ ਮਾਣ ਦਿੱਤਾ ਤੇ ਸਿੱਖਾਂ ਨੂੰ ਆਦੇਸ਼ ਦਿੱਤਾ ਕਿ ਪੀਰ ਜੀ ਨੂੰ ਬੜੇ ਸਨਮਾਨ ਨਾਲ ਰੱਖਿਆ ਜਾਵੇ । ਪੀਰ ਜੀ ਬਹੁਤ ਦੇਰ ਪਾਉਂਟਾ ਸਾਹਿਬ ਟਿਕੇ ਰਹੇ , ਖੁਦਾ ਦਾ ਰਾਹ ਮਿਲ ਗਿਆ । ਜਾਣ ਲੱਗਿਆਂ ਪੀਰ ਜੀ ਨੂੰ ਬੜੇ ਸਤਿਕਾਰ ਨਾਲ ਵਿਦਾਇਗੀ ਦਿੱਤੀ ਤੇ ਸਿਰੋਪਾ ਬਖਸ਼ਿਆ । ਉਧਰ ਪੀਰ ਜੀ ਨੇ ਆਪਣੀ ਉਮਰ ਦੀ ਪਰਵਾਹ ਨਾ ਕਰਦੇ ਨਿਮਰਤਾ ਦਿਖਾਉਂਦਿਆਂ ਸਿਰੋਪਾ ਗੁਰੂ ਜੀ ਦੇ ਚਰਨਾਂ ਨੂੰ ਛੁਹਾ ਕੇ ਆਪਣੇ ਸਿਰ ਤੇ ਰੱਖ ਲਿਆ । “ ਸਿਰੋ ਪਾਓ ਤਓ ਪ੍ਰਭੂ ਦਿਵਾਸੇ ॥ ਪਗ ਛੁਹਾ ਲੈ ਸੀਸ ਚੱਢਾਯੋ ॥ ਇਸ ਪਿਛੋਂ ਕਈ ਵਾਰ ਪੀਰ ਜੀ ਪਾਉਂਟਾ ਸਾਹਿਬ ਆ ਗੁਰੂ ਜੀ ਦੀ ਸੰਗਤ ਕਰਦੇ ਰਹੇ । ਜਦੋਂ ਕੁਝ ਪਠਾਣਾਂ ਨੂੰ ਔਰੰਗਜ਼ੇਬ ਨੇ ਫੌਜ ਵਿਚੋਂ ਕੱਢ ਦਿੱਤਾ ਤਾਂ ਪੀਰ ਜੀ ਨੇ ਇਹਨਾਂ ਨੂੰ ਨਾਲ ਲੈ ਕੇ ਗੁਰੂ ਜੀ ਪਾਸ ਭਰਤੀ ਕਰਾ ਦਿੱਤਾ । ਜਦੋਂ ਯੁੱਧ ਦੇ ਨਗਾਰੇ ਖੜਕੇ ਤਾਂ ਇਹਨਾਂ ਪਠਾਣਾਂ ‘ ਚੋਂ ਚਾਰ ਸੌ ਪਠਾਣ ਭਗੌੜੇ ਹੋ ਗਏ । ਪੈਸੇ ਦੇ ਲਾਲਚ ਵਿੱਚ ਆਂ ਗਏ ਕੇਵਲ ਕਾਲੇ ਖਾਨ ਹੀ ਗੁਰੂ ਜੀ ਨਾਲ ਰਹਿ ਗਿਆ ਜਿਸ ਪਾਸ ਸੌ ਕੁ ਪਠਾਣ ਸਨ । ਜਦੋਂ ਪੀਰ ਬੁੱਧੂ ਸ਼ਾਹ ਨੂੰ ਇਹਨਾਂ ਪਠਾਣਾਂ ਦੇ ਭੱਜਣ ਦਾ ਪਤਾ ਲੱਗਾ ਤਾਂ ਝੱਟ ਆਪਣੇ ਚਾਰ ਪੁੱਤਰਾਂ , ਦੋ ਭਰਾਵਾਂ ਅਤੇ ਸੱਤ ਸੌ ਮੁਰੀਦਾਂ ਨਾਲ ਗੁਰੂ ਜੀ ਦੀ ਸਹਾਇਤਾ ਲਈ ਯੁੱਧ ਵਿੱਚ ਪੁੱਜ ਗਿਆ । ਘੋਰ ਯੁੱਧ ਵਿੱਚ ਜੂਝ ਪਿਆ । ਜਦ ਸਤਿਗੁਰੂ ਜੀ ਨੂੰ ਪੀਰ ਜੀ ਦੇ ਪੁੱਤਰ ਸ਼ਹੀਦ ਹੋਣ ਦੀ ਸੂਚਨਾ ਮਿਲੀ ਤਾਂ ਸ਼ਾਯਦ ਅਸ਼ਰਫ ਦੀ ਸੂਰਮਤਾਈ ਦੀ ਬੜੀ ਸਿਫਤ ਕੀਤੀ ਤੇ ਬੁੱਧੂ ਸ਼ਾਹ ਜੀ ਨੂੰ ਕਿਹਾ , ਉਸ ਨੇ ਆਪਣੀ ਲਾਜ ਰੱਖ ਵਖਾਲੀ ਹੈ : “ ਸਾਧ ਸਾਧ ਬੁੱਧੂ ਸਭਟ ਜਿਨ ਰਾਖੀ ਨਿਜ ਆਨਿ । ਪਹਿਲੇ ਪੁੱਤਰ ਸ਼ਹੀਦ ਹੋਣ ਕਰਕੇ ਪੀਰ ਜੀ ਨੇ ਹੌਸਲਾ ਨਾ ਛੱਡਿਆ ਸਗੋਂ ਆਪ ਦੇ ਪੁੱਤਰਾਂ ਤੇ ਭਰਾਵਾਂ ਨਾਲ ਸੰਗੋ ਸ਼ਾਹ ਦੀ ਸਹਾਇਤਾ ਲਈ ਅੱਗੇ ਵਧਿਆ । ਚੰਦੋਲ ਦਾ ਰਾਜਾ ਮੁਧਕਰ ਪਹਾੜੀਆਂ ਦੀ ਸਹਾਇਤਾ ਨਾਲ ਅੱਗੇ ਵਧਿਆ ਅਤੇ ਤੀਰਾਂ ਦਾ ਮੀਂਹ ਵਰਸਾਉਣ ਲੱਗਾ । ਇਸ ਦੇ ਇਕ ਤੀਰ ਨਾਲ ਪੀਰ ਜੀ ਦਾ ਦੂਜਾ ਪੁੱਤਰ ਸਯਦ ਮੁਹੰਮਦ ਸ਼ਾਹ ਵੀ ਵੀਰ ਗਤੀ ਪਾ ਗਿਆ । ਹਲਵਾਈ ਲਾਲ ਚੰਦ ਹੱਥੋਂ ਮੀਰ ਖਾਂ ਤੋਂ ਮਹੰਤ ਕਿਰਪਾਲ ਦਾਸ ਨੇ ਹਯਾਤ ਖਾਨ ਦਾ ਸਿਰ ਗੰਢੇ ਵਾਂਗ ਫੇਹ ਦਿੱਤਾ । ਉਧਰ ਹਰੀ ਖਾਂ ਦੀ ਮੌਤ ਨੇ ਯੁੱਧ ਜਿੱਤ ਵਿੱਚ ਬਦਲ ਦਿੱਤਾ । ਜਿੱਤ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਉਪਰੰਤ ਜਦੋਂ ਸਾਰੇ ਪਾਉਂਟਾ ਸਾਹਿਬ ਆਏ ਤਾਂ ਆਪਣੀ ਆਪਣੀ ਵਿਥਿਆ ਦੱਸਣ ਲੱਗੇ । ਪੀਰ ਜੀ ਨੂੰ ਸਭ ਤੋਂ ਪਿਛੇ ਬੈਠਿਆਂ ਨੂੰ ਗੁਰੂ ਜੀ ਨੇ ਲਾਗੇ ਸੱਦਿਆ ਤੇ ਬਚਨ ਕੀਤਾ ਕਿ ਤੁਸੀਂ ਸੱਚੇ ਪੀਰ ਹੋ । ” ਤਾਂ ਅੱਗੋਂ ਪੀਰ ਜੀ ਦਾ ਬੜਾ ਹੌਸਲਾ ਸੀ । ਉਤਰ ਸੀ “ ਮਰਨਾ ਸਭ ਨੇ ਹੈ ਪਰ ਉਹ ਧੰਨ ਹੈ ਜਿਸ ਦੇ ਪੁੱਤਰ ਸੁੱਭ ਕਾਰਜ ਲਈ ਯੁੱਧ ਵਿੱਚ ਸ਼ਹੀਦ ਹੋਏ ਹਨ । ਇਸ ਗੱਲ ਦਾ ਮੈਨੂੰ ਰਤਾ ਵੀ ਅਫਸੋਸ ਨਹੀਂ ਹੈ । ਗੁਰੂ ਜੀ ਨੇ ਸਿਰੋਪਾ ਤੇ ਪੀਰ ਜੀ ਦੀ ਮੰਗ ਤੇ ਕੇਸਾਂ ਸਮੇਤ ਕੰਘਾ ਬਖਸ਼ਿਸ਼ ਕੀਤਾ । ਇਹ ਦੋਵੇਂ ਵਸਤੂਆਂ ਲੈ ਕੇ ਘਰ ਆਇਆ ਤਾਂ ਬੀਬੀ ਨਸੀਰਾਂ ਨੇ ਪੀਰ ਜੀ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਦੋ ਬੱਚਿਆਂ ਤੇ ਉਸ ਦੇ ( ਪੀਰ ) ਦੇ ਭਰਾਵਾਂ ਦੇ ਘਰ ਨਾ ਪਰਤਨ ਬਾਰੇ ਪੁੱਛਿਆ ਤਾਂ ਪੀਰ ਜੀ ਨੇ ਕਿਹਾ “ ਨਸੀਰਾਂ ਨੂੰ ਧਾਰਮਿਕ ਰੁਚੀ ਰਖਦੀ ਹੈ ਇਹ ਚਾਰੇ ਹੀ ਧਰਮ ਤੇ ਸੱਚ ਤੇ ਪਹਿਰਾ ਦੇਂਦਿਆਂ ਸ਼ਹੀਦ ਹੋਏ ਹਨ ਜਿਵੇਂ ਆਪਣੇ ਵਡਿਕੇ ਕਰਬਲਾ ਦੇ ਥਾਂ ਤੇ ਆਪਣੇ ਧਰਮ ਤੋਂ ਕੁਰਬਾਨ ਹੋਏ ਸਨ । ਬੀਬੀ ਲਗੀ ਰੋਣ ਕੁਰਲਾਉਣ । ਕੁਝ ਚਿਰ ਬਾਅਦ ਰੋ ਕੇ ਹਾਰ ਕੇ ਦਿਲ ਹੌਲਾ ਕਰ ਲਿਆ । ਹੁਣ ਪੀਰ ਜੀ ਨੇ ਹੌਸਲਾ ਤੇ ਧੀਰਜ ਦੇਦਿਆਂ ਕਿਹਾ , “ ਨਸੀਰਾਂ । ਸਿੱਖਾਂ ਦਾ ਪੀਰ ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ਇਕ ਖੁਦਾ ਹੀ ਧਰਤੀ ਤੇ ਆਇਆ ਹੈ । ਤੈਨੂੰ ਪਤਾ ਨਹੀਂ ਹੈ ਕਿ ਜਦੋਂ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਪਟਨੇ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ ਹੋਇਆ ਸੀ ਤਾਂ ਪੀਰ ਭੀਖਣ ਸ਼ਾਹ ਪੁੱਜੇ ਹੋਇਆਂ ਨੇ , ਪੰਜਾਬ ਤੋਂ ਪਟਨੇ ਜਾ ਕੇ ਬਾਲਕ ਦੇ ਦਰਸ਼ਨ ਕੀਤੇ ਸਨ ਤੇ ਕਿਹਾ ਸੀ “ ਖੁਦਾ ਧਰਤੀ ਤੇ ਆਇਆ ਹੈ । ‘ ‘ ਇਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦਰਜਨਾਂ ਮੁਸਲਮਾਨ ਪੀਰ ਫਕੀਰ ਇਸ ਦਾ ਇੱਜ਼ਤ ਤੇ ਮਾਨ ਕਰਦੇ ਹਨ । ਤੁਸੀਂ ਸਮਝੋ ਕਿ ਇਹ ਚਾਰੇ ਖੁਦਾ ਦੇ ਹਵਾਲੇ ਕੀਤੇ ਹਨ । ‘ ‘ ਫਿਰ ਬੀਬੀ ਨੇ ਪੁਛਿਆ ਕਿ “ ਇਹ ਖੁਦਾ ਕਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਹੋਇਆ ? ਖੁਦਾ ਤਾਂ ਆਪਣਾ ਮੁਹੰਮਦ ਸਾਹਿਬ ਵੀ ਨਾ ਬਣ ਸਕਿਆ । ਹੁਣ ਪੀਰ ਜੀ ਨੇ ਬੀਬੀ ਨੂੰ ਪ੍ਰੇਮ ਨਾਲ “ ਵਾਹਿਗੁਰੂ ਵਾਹਿਗੁਰੂ ਦਾ ਜਾਪ ਕਰਨ ਲਈ ਕਿਹਾ । ਪ੍ਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਮਿਹਰ ਹੋ ਗਈ ਹੁਣ ਨਸੀਰਾਂ ਹੌਸਲਾ ਧਾਰ ਕੇ ਅੱਖਾਂ ਮੀਟ ਕੇ ਵਾਹਿਗੁਰੂ ਦਾ ਜਾਪ ਕਰਨ ਲੱਗੀ । ਉਸ ਦੀ ਸੁਰਤ ਉਪਰ ਉਠੀ , ਕੀ ਵੇਖਦੀ ਹੈ ਕਿ ਇਸ ਦੇ ਪੁੱਤਰ ਤੇ ਦੇਵਰ ਸੱਚਖੰਡ ਵਿਚ ਬਿਰਾਜੇ ਹਨ । ਹੁਣ ਜਦੋਂ ਸੁਰਤ ਹੇਠਾਂ ਆਈ ਤੇ ਪੀਰ ਜੀ ਨੂੰ ਕਹਿਣ ਲੱਗੀ “ ਪੀਰ ਜੀ । ਆਪਾਂ ਬੜੇ ਖੁਸ਼ਕਿਸਮਤ ਹਾਂ ਕਿ ਆਪਣੇ ਪੁੱਤਰ ਧਰਮ ਦੇ ਯੁੱਧ ਵਿਚ ਸ਼ਹੀਦ ਹੋਏ ਹਨ । ਕਿਉਂ ਨਾ ਆਪਣੇ ਦੂਜੇ ਪੁੱਤਰ ਵੀ ਇਸੇ ਧਰਮ ਯੁੱਧ ਵਿਚ ਕੁਰਬਾਨ ਹੋ ਗਏ ਹੁੰਦੇ ਤਾਂ ਆਪ ਸੁਰਖਰੂ ਹੋ ਜਾਂਦੇ । ‘ ‘ ਉਪਰੋਕਤ ਚੀਜ਼ਾਂ ਪੀਰ ਜੀ ਨੇ ਸੰਭਾਲ ਕੇ ਇਕ ਸੰਦੂਕੜੀ ਵਿੱਚ ਰੱਖ ਲਈਆਂ ਤੇ ਸਾਰੀ ਉਮਰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਦਰਸ਼ਨ ਕਰਕੇ ਨਿਹਾਲ ਹੁੰਦਾ ਰਿਹਾ । ਇਹ ਵਸਤੂਆਂ ਖਾਲਸਾ ਰਾਜ ਸਮੇਂ ਉਸ ਦੇ ਡੇਰਿਓਂ ਮਿਲੀਆਂ ਸਨ । ਗੁਰੂ ਜੀ ਨੇ ਮੁਰੀਦਾਂ ਨੂੰ ਪੰਜ ਹਜ਼ਾਰ ਰੁਪਏ ਤੇ ਸਿਰੋਪੇ ਬਖਸ਼ੇ । ਪੀਰ ਜੀ ਆਪਣੇ ਡੇਰੇ ਸਢੌਰੇ ਪਰਤ ਆਏ । ਫਿਰ ਵੀ ਅਨੰਦਪੁਰ ਸਾਹਿਬ ਗੁਰੂ ਜੀ ਦੇ ਦਰਸ਼ਨਾਂ ਨੂੰ ਆਉਂਦੇ ਰਹੇ ਤੇ ਪਿਆਰ ਭਰੀਆਂ ਗੋਸ਼ਟੀਆਂ ਹੁੰਦੀਆਂ ਰਹੀਆਂ । ਗੁਰੂ ਜੀ ਦੇ ਅਨੰਦਪੁਰ ਸਾਹਿਬ ਪੁੱਜਣ ਤੇ ਪਹਾੜੀ ਰਾਜਿਆਂ ਵਲੋਂ ਔਰੰਗਜ਼ੇਬ ਕੋਲ ਗੁਰੂ ਜੀ ਵਿਰੁੱਧ ਲਾਈਆਂ ਸ਼ਿਕਾਇਤਾਂ ਕਾਰਨ ਉਸ ਨੇ ਸੈਦ ਖਾਨ ਨੂੰ ਗੁਰੂ ਜੀ ਵਿਰੁੱਧ ਭੇਜਿਆ । ਉਹ ਆਉਂਦਿਆਂ ਪਹਿਲਾਂ ਆਪਣੀ ਭੈਣ ਨਸੀਰਾਂ ਤੇ ਭਣਵਈਏ ਪੀਰ ਬੁੱਧੂ ਸ਼ਾਹ ਕੋਲ ਸਢੌਰੇ ਪੁੱਜਾ । ਦੋਵਾਂ ਜੀਆਂ ਨੇ ਵਾਰੀ ਵਾਰੀ ਸੈਦ ਖਾਨ ਨੂੰ ਸਮਝਾਇਆ । ਭੈਣ ਨੇ ਵੀਰ ਨੂੰ ਸਮਝਾਉਂਦਿਆਂ ਕਿਹਾ “ ਵੀਰਾ ! ਸਿੱਖਾਂ ਦਾ ਪੀਰ ਜਿਸ ਦੇ ਵਿਰੁੱਧ ਤੂੰ ਏਨਾ ਲਾਓ ਲਸ਼ਕਰ ਇਕੱਠਾ ਕਰਕੇ ਲਿਆਇਆ ਹੈਂ ਉਹ ਇਨਸਾਨ ਨਹੀਂ ਸਗੋਂ ਖੁਦਾ ਆਪ ਧਰਤੀ ਤੇ ਆਇਆ ਹੋਇਆ ਹੈ । ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਜਨਮ ਤੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਦਰਸ਼ਨਾਂ ਲਈ ਇਕ ਪੁਜਿਆ ਹੋਇਆ ਫਕੀਰ ਭੀਖਣ ਸ਼ਾਹ ਪੰਜਾਬ ਤੋਂ ਪਟਨੇ ਤੱਕ ਤੁਰ ਕੇ ਗਿਆ । ਹੋਰ ਕਈ ਮੁਸਲਮਾਨ ਫਕੀਰ ਗੁਰੂ ਜੀ ਦੇ ਮਿੱਤਰ ਤੇ ਸ਼ਰਧਾਲੂ ਹਨ । ਸਿੱਖਾਂ ਦਾ ਪੀਰ ਕੋਈ ਜੰਗ ਨਹੀਂ ਲੜਦਾ ਸਗੋਂ ਹਿੰਦੂ ਰਾਜੇ ਤੇ ਮੁਸਲਮਾਨ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਟਿਕਣ ਨਹੀਂ ਦੇਂਦੇ । ਹਾਰ ਕੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਟਾਕਰਾ ਕਰਨਾ ਪੈਂਦਾ ਹੈ । ਇਹ ਸੈਂਕੜਿਆਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ ਨਾਲ ਲੱਖਾਂ ਦਾ ਟਾਕਰਾ ਕਰਦੇ ਹਨ । ਇਹ ਖੁਦਾ ਹੈ ਜਿਹੜਾ ਕਿਸੇ ਦੀ ਪਰਵਾਹ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ ਹਰ ਇਕ ਨੂੰ ਮੂੰਹ ਦੀ ਖਾਣੀ ਪੈਂਦੀ ਹੈ । ਇਹ ਸੱਚ ਤੇ ਪਹਿਰਾ ਦੇਂਦੇ ਧਰਮ ਦਾ ਯੁੱਧ ਲੜਦੇ ਹਨ । ਤੇਰੇ ਭਾਣਜੇ ਇਸ ਧਰਮ ਯੁੱਧ ਵਿਚ ਸ਼ਹੀਦ ਹੋਏ ਹਨ ਦੋ ਤੇਰੇ ਭਣਵਈਏ ਦੇ ਭਰਾ ਸ਼ਹੀਦ ਹੋਏ ਹਨ , ਤੂੰ ਚੁੱਪ ਕਰਕੇ ਵਾਪਸ ਮੁੜ ਜਾ ਰੱਬ ਨਾਲ ਟੱਕਰ ਨਾ ਲੈ । ‘ ‘ ਫਿਰ ਭਣਵਈਏ ਨੇ ਸਮਝਾਉਂਦਿਆਂ ਕਿਹਾ “ ਸੈਦੇ । ਨਾਮੀ ਲੜਾਕੂ ਮੁਸਲਮਾਨ ਸਿੱਖਾਂ ਦੇ ਹਥੋਂ ਮਰਦੇ ਮੈਂ ਆਪ ਵੇਖੇ ਹਨ । ਸਿੱਖਾਂ ਦੇ ਅਗੇ ਇੰਝ ਭਜੋ ਫਿਰਦੇ ਵੇਖੇ ਹਨ ਜਿਵੇਂ ਭੇਡਾਂ ਸ਼ੇਰਾਂ ਅਗੇ ਭੱਜਦੀਆਂ ਹਨ । ਸੈਦ ਖਾਨ ਨੇ ਪੁਛਿਆ “ ਤੁਸੀਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਵਿਚ ਕੀ ਵੇਖਿਆ ਹੈ ? ਭੈਣ ਕਹਿੰਦੀ ਹੈ ਕਿ ” ਵੀਰਾ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਵੇਖੇਗਾ ਤਾਂ ਪਤਾ ਲਗੂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਵਿਚ ਕਿਹੋ ਜਿਹੀ ਕਸ਼ਿਸ਼ ਹੈ । ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਗੱਲਾਂ ਸੁਣਦਿਆਂ ਰੁਕਿਆ ਨਹੀਂ ਅਨੰਦਪੁਰ ਵਲ ਚਲ ਪਿਆ । ਰਾਹ ਵਿਚ ਸੋਚਦਾ ਗਿਆ ਕਿ ਭੈਣ ਤੇ ਭਣਵਈਆ ਗਲਤ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦੇ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਘਰ ਦੇ ਚਾਰ ਜੀਅ ਕੁਰਬਾਨ ਕਰਾ ਦਿੱਤੇ ਫਿਰ ਮੁਸਲਮਾਨ ਫਕੀਰਾਂ ਜਿਹੜੇ ਗੁਰੂ ਜੀ ਦੇ ਮਿਤਰ ਹਨ ਬਾਰੇ ਸੋਚਣ ਲਗਾ । ਉਧਰ ਭੈਣ ਨੂੰ ਵੀ ਨੀਂਦ ਨਾ ਪਈ ਸਾਰੀ ਰਾਤ ਅਰਜ਼ੋਈ ਕਰਦੀ ਰਹੀ ਹੈ ਕਿ ਹੇ ਸੱਚੇ ਪਾਤਸ਼ਾਹ । ਮੇਰੇ ਵੀਰ ਨੂੰ ਜ਼ਾਲਮਾਂ ਨੇ ਤੁਹਾਡੇ ਉਪਰ ਹਮਲਾ ਕਰਨ ਲਈ ਭੇਜ ਦਿੱਤਾ ਹੈ । ਆਪ ਨੇ ਮੇਰੇ ਵੀਰ ਨੂੰ ਤੀਰਾਂ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਮਾਰਨਾ ਸਗੋਂ ਨੈਣਾਂ ਦੇ ਤੀਰ ਮਾਰ ਕੇ ਜਿਤਣਾ ਹੈ । ਇਸ ਨੂੰ ਮਾਫ ਕਰਨਾ ਹੈ । ਸੈਦ ਖਾਨ ਅਨੰਦਪੁਰ ਪੁਜ ਕੇ ਆਪਣੇ ਦਿਲ ਵਿਚ ਕਹਿਣ ਲਗਾ ਕਿ ਜੇ ਉਹ ਦਿਲਾਂ ਦੇ ਜਾਨੀ ਹਨ ਤਾਂ ਸਾਹਮਣੇ ਆਉਣ । ਉਹ ਪਤਾ ਨਹੀਂ ਇੰਝ ਸੋਚਦਾ ਹੈ । ਪੰਥ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ ਅਨੁਸਾਰ ਅੰਤਰਜਾਮੀ ਇਹ ਪੀਰ ॥ ਉਹੀ ਲਹਿ ਪ੍ਰੇਮ ਕੀ ਧੀਰ ॥ ਤੇ ਅਬ ਤੇਜ ਤਰੰਗ ਕੁਦਾਵਹਿ ॥ ਕਲਗੀ ਝੂਲਤ ਰੂਪ ਦਿਖਾਵਹਿ ॥ ਅਬ ਊਤ ਕੰਠਾ ਲਖ ਚਿਤ ਮੇਰੀ ॥ ਏਕ ਵਾਰ ਇਤਿ ਵਾਵਹਿ ਫੇਰੀ ॥ ਮਹਾਰਾਜ ਨੂੰ ਉਸ ਦੇ ਹਿਰਦੇ ਦੀਆਂ ਤਾਰਾਂ ਟੁਣਕਦੀਆਂ ਸੁਣੀਆਂ । ਉਸ ਪਾਸ ਘੋੜੇ ‘ ਤੇ ਸਵਾਰ ਹੋ ਜਾ ਦਰਸ਼ਨ ਦਿੱਤੇ : ਧਨੁਖ ਬਾਣ ਨਿਜ ਪਾਨ ਸੰਭਾਰਾ ॥ ਕੁਏ ਤਰੰਗਮ ਪੁਰ ਅਸਵਾਰਾ ॥ ਕਰਤ ਸ਼ੀਘਰਤਾ ਚਯ ਚਪ ਲਾਏ ॥ ਤਤ ਛਿਨ ਖਾਨ ਖਾਨ ਕੋ ਆਏ ॥ ਦੀਦਾਰ ਕਰਦਿਆਂ ਨਿਹਾਲ ਹੋ ਕੇ ਪੁਕਾਰ ਕੀਤੀ – ਖੁਦਾ ਆਇਦ ਖੁਦਾ ਆਇਦ ॥ ਮੈਂ ਆਇਦ ਖੁਦਾ ਬੰਦਾ ॥ ਹਕੀਕਤ ਦਰ ਮਿਜਾਜ ਆਇਜ ॥ ਭੀ ਮਰਦ ਰਾ ਰੰਦ ਜਿੰਦਾ । ਗੁਰੂ ਜੀ ਨੇ ਜਾ ਕੇ ਕਿਹਾ , ” ਖ਼ਾਨ , ਵਾਰ ਕਰ । ‘ ਖ਼ਾਨ ਘੋੜੇ ਤੋਂ ਥੱਲੇ ਉਤਰ ਆਇਆ ਤੇ ਗੁਰੂ ਜੀ ਦੇ ਚਰਨਾਂ ਤੇ ਸਿਰ ਰੱਖ ਕੇ ਕੁਝ ਨਾ ਬੋਲਿਆ । ਗੁਰੂ ਜੀ ਨੇ ਦਇਆ ਦਿਰਸ਼ਟੀ ਦਾ ਹੱਥ ਸਿਰ ਤੇ ਰੱਖਿਆ । ਸੈਦ ਖਾਂ ਸੈਨਾ ਨੂੰ ਛੱਡ ਕੇ ਉਥੇ ਹੀ ਕਿਸੇ ਪਾਸੇ ਇਬਾਦਤ ਕਰਨ ਨਿਕਲ ਤੁਰਿਆ । ਸੈਨਾ ਉਸਦਾ ਪਿੱਛਾ ਵਿਹੰਦੀ ਰਹਿ ਗਈ । ਕ੍ਰਿਪਾ ਦ੍ਰਿਸ਼ਟ ਕੇ ਪਰਿ ਸਿਰ ਹਾਥਾ ॥ ਤੁਤ ਛਿਨ ਸੇਵ ਕੀਨੀ ਸਨਾਥਾ | ਜਦੋਂ ਸੈਦ ਖਾਨ ਦੇ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਹੋ ਜਾਣ ਦੀ ਔਰੰਗਜ਼ੇਬ ਨੇ ਖਬਰ ਸੁਣੀ ਤਾਂ ਅੱਗ ਬਬੂਲਾ ਹੋ ਗਿਆ ਤੇ ਗੁਰੂ ਜੀ ਨੂੰ ਲਿਖ ਕੇ ਭੇਜਿਆ ਕਿ ਜਾਂ ਤਾਂ ਆਰਾਮ ਨਾਲ ਬੈਠ ਜਾਓ ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਆਤਮ ਸਮਰਪਣ ਕਰ ਦਿਉ । ਇਕ ਵਾਰੀ ਗੁਰੂ ਜੀ ਪੀਰ ਜੀ ਨੂੰ ਮਿਲਣ ਸਢੌਰੇ ਆਏ ਤਾਂ ਉਥੇ ਦੇ ਹਾਕਮ ਉਸਮਾਨ ਖਾਨ ਨੂੰ ਗੁਰੂ ਜੀ ਦੇ ਉਥੇ ਆਉਣ ਦਾ ਪਤਾ ਲੱਗਾ ਤਾਂ ਉਸ ਨੇ ਪੀਰ ਜੀ ਨੂੰ ਕਿਹਾ ਕਿ ਗੁਰੂ ਜੀ ਨੂੰ ਉਸ ਦੇ ਹਵਾਲੇ ਕਰ ਦੇਵੋ । ਪੀਰ ਜੀ ਨੇ ਇਸ ਤੋਂ ਸਾਫ ਇਨਕਾਰ ਕਰ ਦਿੱਤਾ । ਪਰ ਹਾਕਮ ਉਸਮਾਨ ਖਾਨ ਨੂੰ ਇਸ ਗੱਲ ਤੇ ਮਨਾਇਆ ਕਿ ਜੇ ਗੁਰੂ ਜੀ ਦੇ ਖੂਨ ਦਾ ਕਟੋਰਾ ਭਰ ਕੇ ਤੈਨੂੰ ਦੇ ਦਿੱਤਾ ਜਾਵੇ ਤਾਂ ਤੂੰ ਉਹ ਦਿੱਲੀ ਬਾਦਸ਼ਾਹ ਪਾਸ ਭੇਜ ਕੇ ਉਸ ਦੀ ਤਸੱਲੀ ਕਰਾ ਸਕਦਾ ਹੈ । ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਪੀਰ ਜੀ ਨੇ ਗੁਰੂ ਜੀ ਨੂੰ ਉਥੋਂ ਸੁਰੱਖਿਅਤ ਕਢਵਾ ਦਿੱਤਾ । ਪੀਰ ਜੀ ਦੇ ਪੁੱਤਰ ਸਯਦ ਮੁਹੰਮਦ ਨੇ ਵਿਉਂਤ ਦੱਸੀ ਕਿ ਗੁਰੂ ਜੀ ਦੇ ਖੂਨ ਦੇ ਬਦਲੇ ਉਸ ਦਾ ਸਿਰ ਕੱਟ ਕੇ ਖੂਨ ਦਾ ਕਟੋਰਾ ਦਿੱਲੀ ਭੇਜ ਦਿੱਤਾ ਜਾਵੇ । ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਪੀਰ ਜੀ ਨੇ ਆਪਣੇ ਪੁੱਤਰ ਦੇ ਖੂਨ ਦਾ ਕਟੋਰਾ ਭਰ ਕੇ ਦਿੱਲੀ ਭੇਜ ਦਿੱਤਾ ਤੇ ਸਯਦ ਦੀ ਲਾਸ਼ ਡੂੰਘੀ ਕਰਕੇ ਡੇਰੇ ਵਿੱਚ ਹੀ ਦਫਨਾ ਦਿੱਤੀ । ਜਦੋਂ ਖੂਨ ਦਿੱਲੀ ਪਹੁੰਚਾ ਤਾਂ ਸ਼ਾਹੀ ਹਕੀਮ ਨੇ ਖੂਨ ਸੁੰਘ ਕੇ ਕਹਿ ਦਿੱਤਾ ਕਿ ਇਹ ਗੁਰੂ ਜੀ ਦਾ ਖੂਨ ਨਹੀਂ । ਉਸਮਾਨ ਖਾਨ ਨੇ ਬਾਦਸ਼ਾਹ ਸਾਹਮਣੇ ਹੀ ਪੀਰ ਬੁੱਧੂ ਸ਼ਾਹ ਦਾ ਘਾਣ ਬੱਚਾ ਕਰਨ ਦੀ ਕਸਮ ਖਾ ਲਈ । ਇਧਰ ਪੀਰ ਜੀ ਨੂੰ ਵੀ ਖਬਰਾਂ ਪੁੱਜ ਗਈਆਂ । ਇਕ ਬੇਟਾ ਖੂਨ ਦੇਣ ਕਾਰਨ ਸ਼ਹੀਦ ਹੋ ਗਿਆ ਸੀ । ਬਾਕੀ ਇੱਕ ਪੁੱਤਰ ਤੇ ਪੋਤਰੇ ਅਤੇ ਆਪਣੀ ਪਤਨੀ ਸਮੇਤ ਸਾਰਾ ਪਰਿਵਾਰ ਰਾਜਾ ਮੇਦਨੀ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ ਪਾਸ ਸੁਰੱਖਿਆ ਲਈ ਭੇਜ ਦਿੱਤਾ । ਉਸਮਾਨ ਖਾਨ ਨੇ ਉਥੇ ਪੁੱਜਦਿਆਂ ਪੀਰ ਦੀ ਹਵੇਲੀ ਨੂੰ ਅੱਗ ਲਵਾ ਦਿੱਤੀ ਤੇ ਉਸ ਨੂੰ ਜੰਗਲ ਵਿੱਚ ਲਿਜਾ ਕੇ ਸਰੀਰ ਦਾ ਪੁਰਜਾ ਪੁਰਜਾ ਕਰਕੇ ਇੱਲਾਂ ਕਾਵਾਂ ਤੇ ਜੰਗਲੀ ਜਾਨਵਰਾਂ ਦੇ ਖਾਣ ਲਈ ਸੁੱਟ ਦਿੱਤਾ । ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਗੁਰੂ ਘਰ ਦਾ ਪ੍ਰੇਮੀ ਪੀਰ ਬੁੱਧੂ ਸ਼ਾਹ ਆਪਣਾ ਸਰਬੰਸ ਵਾਰ ਕੇ ਆਪ ਵੀ ਸ਼ਹੀਦ ਹੋ ਗਿਆ । ਜਦੋਂ ਉਸਮਾਨ ਖਾਨ ਨੂੰ ਪਤਾ ਲੱਗਾ ਕਿ ਪੀਰ ਜੀ ਦਾ ਪਰਿਵਾਰ ਰਾਜੇ ਮੇਦਨੀ ਪਾਸ ਪੁੱਜ ਗਿਆ ਹੈ ਤਾਂ ਉਹ ਹੋਰ ਸੈਨਾ ਲੈ ਕੇ ਨਾਹਨ ਤੇ ਹਮਲਾ ਕਰਨ ਦੀਆਂ ਤਿਆਰੀਆਂ ਵਿੱਚ ਹੀ ਸੀ ਤਾਂ ਉਸ ਨੂੰ ਪਤਾ ਲੱਗਾ ਕਿ ਪਰਿਵਾਰ ਉਥੋਂ ਅਗੇ ਨਿਕਲ ਗਿਆ ਹੈ । ਨਸੀਰਾਂ ਇਕ ਲੜਕੇ ਤੇ ਪੋਤਰਿਆਂ ਨੂੰ ਲੈ ਕੇ ਸਮਾਨਾ ਪੁੱਜ ਗਈ । ਬੀਬੀ ਨਸੀਰਾਂ ਦੇ ਸਿਖਿਆ ਭਰੇ ਉਪਦੇਸ਼ ਦੁਆਰਾ ਇਸ ਦਾ ਵੀਰ ਸੈਦ ਖਾਨ ਗੁਰੂ ਜੀ ਦਾ ਸ਼ਰਧਾਲੂ ਬਣ ਗਿਆ । ਫਿਰ ਗੁਰੂ ਜੀ ਦੀ ਜਾਨ ਬਚਾਉਣ ਲਈ ਆਪਣੇ ਤੀਜੇ ਪੁੱਤਰ ਦਾ ਕਤਲ ਹੁੰਦਾ ਆਪਣੀ ਅੱਖੀਂ ਡਿੱਠਾ । ਕਿੰਨਾ ਜੇਰਾ ਸਿਦਕ ਤੇ ਹੌਸਲਾ ਹੋਵੇਗਾ ਦੋਹਾਂ ਜੀਆਂ ਦਾ । ਸਗੋਂ ਕਹਿਣ ਲੱਗੀ , “ ਧੰਨ ਭਾਗ ਹੈ ਕਿ ਮੇਰੀ ਕੁੱਖ ਸਫਲ ਹੋਈ ਹੈ । ਤੇ ਗੁਰੂ ਜੀ ਦੀ ਬਚਾਉਣ ਦੇ ਕੰਮ ਆਇਆ ਮੇਰਾ ਪੁੱਤਰ । ‘ ਫਿਰ ਇਸ ਦਾ ਘਰ ਬਾਰ ਸਾੜ ਸੁਟਿਆ । ਸਿਰ ਦਾ ਸਾਈਂ ਕਤਲ ਕਰ ਦਿੱਤਾ । ਕਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਆਪਣੇ ਚੌਥੇ ਪੁੱਤਰ ਪੋਤਰਿਆਂ ਨੂੰ ਬਚਾਇਆ ਕਿੰਨੀ ਗਰੀਬੀ ਤੇ ਕਸ਼ਟ ਝੱਲੇ ਹੋਣਗੇ ? ਸਾਰਾ ਸਿੱਖ ਜਗਤ ਇਸ ਮਾਤਾ ਦਾ ਰਿਣੀ ਹੈ । ਦਾਸ ਮਾਤਾ ਜੀ ਦੀ ਰੂਹ ਅਗੇ ਸਿਰ ਝੁਕਾਉਂਦਿਆਂ ਹੋਇਆਂ ਪ੍ਰਣਾਮ ਕਰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਸ਼ਰਧਾ ਦੇ ਫੁੱਲ ਭੇਟ ਕਰਦਾ ਹੈ ।
ਜੋਰਾਵਰ ਸਿੰਘ ਤਰਸਿੱਕਾ



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ਰਿਆਸਤੀ ਸ਼ਹਿਰ ਪਟਿਆਲਾ ਤੋਂ ਲਗਭਗ 22 ਕਿੱਲੋਮੀਟਰ ਦੂਰੀ ‘ਤੇ ਦੱਖਣ ਵੱਲ ਸਥਿਤ ਪਿੰਡ ਕਰਹਾਲੀ ਸਾਹਿਬ ਵਿਖੇ ਨੌਵੇਂ ਪਾਤਸ਼ਾਹ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਤੇਗ ਬਹਾਦਰ ਸਾਹਿਬ ਜੀ ਦੀ ਚਰਨਛੋਹ ਪ੍ਰਾਪਤ ਗੁਰਦੁਆਰਾ ਸਾਹਿਬ ਸੁਸ਼ੋਭਿਤ ਹੈ | ਗੁਰੂ ਤੇਗ ਬਹਾਦਰ ਸਾਹਿਬ ਜੀ ਪਟਿਆਲਾ ਤੋਂ ਦਿੱਲੀ ਜਾਣ ਸਮੇਂ ਇੱਥੇ ਵਿਸ਼ਰਾਮ ਕਰਨ ਉਪਰੰਤ ਅਗਲੇ ਪੜਾਅ ਲਈ ਚੀਕਾ-ਕੈਥਲ (ਹਰਿਆਣਾ) ਵੱਲ ਰਵਾਨਾ ਹੋਏ ਸਨ | ਨੌਵੇਂ ਪਾਤਸ਼ਾਹ ਜੀ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਪਾਤਸ਼ਾਹੀ ਛੇਵੀਂ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਹਰਗੋਬਿੰਦ ਸਾਹਿਬ ਜੀ ਵੀ ਦਿੱਲੀ ਜਾਣ ਸਮੇਂ ਇੱਥੇ ਰੁਕੇ ਸਨ, ਜਿਸ ਕਾਰਨ ਹੁਣ ਇੱਥੇ ਪਾਤਸ਼ਾਹੀ ਛੇਵੀਂ ਅਤੇ ਪਾਤਸ਼ਾਹੀ ਨੌਵੀਂ ਦੇ ਨਾਂਅ ‘ਤੇ ਗੁਰਦੁਆਰਾ ਸਾਹਿਬ ਸੁਸ਼ੋਭਿਤ ਹੈ | ਇਤਿਹਾਸਕਾਰਾਂ ਅਨੁਸਾਰ ਪਿੰਡ ਦਾ ਇਕ ਸੁਰਮੁੱਖ ਨਾਂਅ ਦਾ ਵਿਅਕਤੀ ਜੋ ਕਿ ਕੋਹੜ ਦੀ ਬਿਮਾਰੀ ਤੋਂ ਪੀੜਤ ਸੀ ਅਤੇ ਪਿੰਡ ਤੋਂ ਬਾਹਰ ਇਕ ਝੀੜੀ (ਛੋਟੀ ਛਪੜੀ) ਨੇੜੇ ਝੁੱਗੀ ਵਿਚ ਰਹਿੰਦਾ ਸੀ ਅਤੇ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਹਰਗੋਬਿੰਦ ਸਾਹਿਬ ਜੀ ਨੇ ਉਸ (ਕੋਹੜੀ) ਨੂੰ ਆਦੇਸ਼ ਦਿੱਤਾ ਕਿ ਉਹ ਛਪੜੀ ਵਿਚ ਇਸ਼ਨਾਨ ਕਰੇ ਅਤੇ ਜਦੋਂ ਸੁਰਮੁੱਖ ਨੇ ਇਸ਼ਨਾਨ ਕੀਤਾ ਤਾਂ ਉਸ ਦਾ ਸਾਰਾ ਕੋਹੜ ਠੀਕ ਹੋ ਗਿਆ ਅਤੇ ਗੁਰੂ ਜੀ ਨੇ ਇਸ ਸਮੇਂ ਵਚਨ ਫ਼ਰਮਾਏ ਸਨ ਕਿ ਜੋ ਵੀ ਵਿਅਕਤੀ ਇੱਥੇ ਇਸ਼ਨਾਨ ਕਰੇਗਾ ਉਸ ਦੇ 18 ਪ੍ਰਕਾਰ ਦੇ ਰੋਗ ਦੂਰ ਹੋਣਗੇ | ਜਿੱਥੇ ਸੰਗਤ ਹਰ ਐਤਵਾਰ ਵਾਲੇ ਦਿਨ ਵੱਡੀ ਗਿਣਤੀ ‘ਚ ਪੁੱਜ ਕੇ ਸਰੋਵਰ ‘ਚ ਇਸ਼ਨਾਨ ਕਰਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਗ੍ਰੰਥ ਸਾਹਿਬ ਜੀ ਅੱਗੇ ਨਤਮਸਤਕ ਹੁੰਦੀ ਹੈ | ਸੰਨ 2010 ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਇਸ ਗੁਰੂਘਰ ਦਾ ਪ੍ਰਬੰਧ ਗੁਰਦੁਆਰਾ ਪ੍ਰਬੰਧਕ ਕਮੇਟੀ ਅੰਮਿ੍ਤਸਰ ਦੀ ਦੇਖ-ਰੇਖ ਹੇਠ ਚੱਲ ਰਿਹਾ ਹੈ | ਗੁਰਦੁਆਰਾ ਦੂਖ ਨਿਵਾਰਨ ਸਾਹਿਬ ਪਟਿਆਲਾ ਤੋਂ ਇਲਾਵਾ ਦੇਹ ਰੋਗਾਂ ਤੋਂ ਪੀੜਿਤ ਖੇਤਰ ਦੇ ਲੋਕ ਵੱਡੀ ਗਿਣਤੀ ‘ਚ ਇਸ ਅਸਥਾਨ ‘ਤੇ ਇਸ਼ਨਾਨ ਕਰਦੇ ਹਨ |



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ਵਾਰ ਮਾਝ ਕੀ ਮਹਲਾ ੧
ਸੰਗੀਤ ਸ਼ਾਸਤਰੀਆਂ ਦੇ ਵਿਚਾਰ ਅਨੁਸਾਰ ਰਾਗ ‘ਮਾਝ’ ਪੰਜਾਬ ਦੇ ਮਾਝੇ ਇਲਾਕੇ ਦੀ ਲੋਕ-ਧੁਨ ਤੋਂ ਵਿਕਸਿਤ ਹੋਇਆ ਹੈ। ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬਾਨ ਦੇ ਸਮਕਾਲੀ ਸੰਗੀਤ ਗ੍ਰੰਥਾਂ ਵਿਚ ਮਾਝ ਰਾਗ ਦਾ ਉਲੇਖ ਬਿਲਕੁਲ ਨਹੀਂ ਮਿਲਦਾ। ਇਸ ਤੋਂ ਇਹ ਸਪਸ਼ਟ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਕਿ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬਾਨ ਨੇ ਜਿੱਥੇ ਲੋਕ-ਕਾਵਿ-ਰੂਪਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਬਾਣੀ ਵਿਚ ਵਰਤਿਆ ਉਥੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਲੋਕ-ਧੁਨਾਂ ’ਤੇ ਆਧਾਰਿਤ ਰਾਗਾਂ ਨੂੰ ਵੀ ਅਪਣਾਇਆ।
ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਦੁਆਰਾ ਲਿਖੀ ਇਸ ਵਾਰ ਵਿਚ ਕੁੱਲ 27 ਪਉੜੀਆਂ ਅਤੇ 63 ਸਲੋਕ ਹਨ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਵਿੱਚੋਂ 46 ਸਲੋਕ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਦੇ ਹਨ ਅਤੇ 12 ਸਲੋਕ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਅੰਗਦ ਦੇਵ ਜੀ ਦੇ ਹਨ, 3 ਸਲੋਕ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਅਮਰਦਾਸ ਜੀ ਦੇ ਅਤੇ 2 ਸਲੋਕ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਰਾਮਦਾਸ ਜੀ ਦੇ ਹਨ। ਇਸ ਵਾਰ ਦੇ ਰਚਨਾ-ਕਾਲ ਅਤੇ ਰਚਨਾ-ਸਥਾਨ ਸੰਬੰਧੀ ਕੋਈ ਪੱਕਾ ਪ੍ਰਮਾਣ ਨਹੀਂ ਮਿਲਦਾ। ਉਂਝ ‘ਪੁਰਾਤਨ ਜਨਮਸਾਖੀ’ ਦੀ ਸਾਖੀ 43 ਵਿਚ ਇਸ ਰਚਨਾ ਨੂੰ ਦੱਖਣ ਦੀ ਉਦਾਸੀ ਸਮੇਂ ਰਚਣ ਦਾ ਜ਼ਿਕਰ ਮਿਲਦਾ ਹੈ। ਇਸ ਵਾਰ ਦੀਆਂ ਪਉੜੀਆਂ ਵਿਚ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਦੇ ਦਾਰਸ਼ਨਿਕ ਅਤੇ ਧਾਰਮਿਕ ਵਿਚਾਰਾਂ ਦਾ ਪ੍ਰਗਟਾਵਾ ਹੋਇਆ ਹੈ। ਇਸ ਵਾਰ ਦੀ ਹਰ ਇਕ ਪਉੜੀ ਅੱਠ-ਅੱਠ ਤੁਕਾਂ ਦੀ ਹੈ, ਪਰ ਇਨ੍ਹਾਂ ਵਿਚ ਮਾਤ੍ਰਾਂ ਸੰਬੰਧੀ ਇਕ-ਰੂਪਤਾ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਸਲੋਕਾਂ ਦੀ ਪਉੜੀ ਅਨੁਸਾਰ ਵੰਡ ਇਕ-ਸਮਾਨ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਦੋ ਤੋਂ ਅੱਠ ਤਕ ਸਲੋਕ ਦਰਜ ਮਿਲਦੇ ਹਨ। ਸਲੋਕਾਂ ਦੀਆਂ ਤੁਕਾਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ ਵੀ ਇੱਕੋ ਜਿਹੀ ਨਹੀਂ ਹੈ। 2 ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ 24 ਤੁਕਾਂ ਦੇ ਸਲੋਕ ਦਰਜ ਹਨ। ਭਾਸ਼ਾ ਦੀ ਦ੍ਰਿਸ਼ਟੀ ਤੋਂ ਇਹ ਵਾਰ ਪੰਜਾਬੀ ਦੇ ਜ਼ਿਆਦਾ ਨੇੜੇ ਹੈ। ਅਰਬੀ ਅਤੇ ਫ਼ਾਰਸੀ ਭਾਸ਼ਾ ਦੀ ਵਰਤੋਂ ਵੀ ਕੀਤੀ ਗਈ ਹੈ।
2. ਆਸਾ ਕੀ ਵਾਰ ਮਹਲਾ ੧
‘ਆਸਾ’ ਪੰਜਾਬ ਦਾ ਪ੍ਰਸਿੱਧ ਅਤੇ ਲੋਕਪ੍ਰਿਯ ਰਾਗ ਹੈ। ਆਸਾ ਰਾਗ ਗੁਰਮਤਿ ਸੰਗੀਤ ਪੱਧਤੀ ਦਾ ਮਹੱਤਵਪੂਰਣ ਰਾਗ ਹੈ। ਸਿੱਖ ਧਰਮ ਵਿਚ ਇਸ ਦੇ ਗਾਇਨ ਦਾ ਸਮਾਂ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਵੇਲੇ (ਸਵੇਰੇ) ਅਤੇ ਸ਼ਾਮ ਹੈ। ਸਵੇਰ ਸਮੇਂ ਇਸ ਰਾਗ ਵਿਚ ‘ਆਸਾ ਕੀ ਵਾਰ’ ਨਾਮਕ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਬਾਣੀ ਦੇ ਗਾਇਨ ਦੀ ਪ੍ਰਥਾ ਹੈ। ਸ਼ਾਮ ਨੂੰ ‘ਸੋ ਦਰੁ ਦੀ ਚੌਕੀ’ ਵਿਚ ‘ਸੋ ਦਰੁ’ ਦਾ ਸ਼ਬਦ ਇਸੇ ਰਾਗ ਵਿਚ ਗਾਇਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਇਥੇ ਇਹ ਤੱਥ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਤੌਰ ’ਤੇ ਵਰਣਨਯੋਗ ਹੈ ਕਿ ਭਾਰਤੀ ਸੰਗੀਤ ਦੀਆਂ ਦੋਵਾਂ ਪੱਧਤੀਆਂ ਵਿਚ ਕੋਈ ਵੀ ਰਾਗ ਸਵੇਰੇ ਅਤੇ ਸ਼ਾਮ ਸਮੇਂ ਨਹੀਂ ਗਾਇਆ ਜਾਂਦਾ (ਮੌਸਮੀ ਰਾਗਾਂ ਨਾਲ ਸੰਬੰਧਿਤ ਮੌਸਮ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ) ਪਰ ਇਸ ਰਾਗ ਦਾ ਗਾਇਨ ਕੇਵਲ ਗੁਰਮਤਿ ਸੰਗੀਤ ਪੱਧਤੀ ਵਿਚ ਹੀ ਦੋਵੇਂ ਸਮੇਂ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ।
ਇਸ ਦਾ ਪੰਜਾਬ ਦੀ ਲੋਕ ਧੁਨ ‘ਟੁੰਡੇ ਅਸਰਾਜ ਦੀ ਧੁਨੀ’ ਨਾਲ ਨਿਕਟ ਸੰਬੰਧ ਮੰਨਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬਾਨ ਨੇ ਇਸ ਨੂੰ ਮੁੱਖ ਰਾਗ ਵਜੋਂ ਅੰਕਿਤ ਕੀਤਾ ਹੈ। ‘ਆਸਾ ਕੀ ਵਾਰ’ ਵਿਚ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਨੇ ਆਪਣੇ ਸਮੇਂ ਦੇ ਰਾਜਸੀ, ਧਾਰਮਿਕ ਹਾਲਤਾਂ ਸੰਬੰਧੀ ਆਪਣਾ ਅਨੁਭਵ ਪ੍ਰਗਟ ਕੀਤਾ ਹੈ। ਇਹ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਵੱਲੋਂ ਉਚਾਰਨ ਕੀਤੀਆਂ ਲੰਬੀਆਂ ਬਾਣੀਆਂ ਵਿੱਚੋਂ ਇਕ ਹੈ। ਇਸ ਵਾਰ ਦੀਆਂ 24 ਪਉੜੀਆਂ ਹਨ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਪਉੜੀਆਂ ਨੂੰ ਸਮਝਣ ਲਈ ਨਾਲ 59 ਸਲੋਕ ਦਰਜ ਕੀਤੇ ਗਏ ਹਨ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਲੋਕਾਂ ਵਿੱਚੋਂ 44 ਸਲੋਕ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਦੇ ਹਨ ਅਤੇ 15 ਸਲੋਕ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਅੰਗਦ ਸਾਹਿਬ ਜੀ ਦੇ ਹਨ। ਇਸ ਵਾਰ ਰਾਹੀਂ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਨੇ ਦੱਸਿਆ ਹੈ ਕਿ ਮਨੁੱਖ ਦੇ ਅੰਦਰ ਪੰਜ ਵਿਕਾਰਾਂ (ਕਾਮ, ਕ੍ਰੋਧ, ਲੋਭ, ਮੋਹ, ਹੰਕਾਰ) ਦੀ ਹਮੇਸ਼ਾ ਲੜਾਈ ਹੁੰਦੀ ਰਹਿੰਦੀ ਹੈ। ਇਸ ਵਾਰ ਵਿਚ ਦਿੱਤੇ ਸਲੋਕਾਂ ਰਾਹੀਂ ਗੁਰੂ ਜੀ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਚੰਗਾ ਮਨੁੱਖ ਬਣਨ ਦੀ ਪ੍ਰੇਰਨਾ ਦਿੰਦੇ ਹਨ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਲੋਕਾਂ ਵਿਚ ਕੁਦਰਤ ਅਤੇ ਸ੍ਰਿਸ਼ਟੀ ਦਾ ਵਿਵਰਣ ਪੇਸ਼ ਕਰ ਕੇ ਮਨੁੱਖ ਦੀ ਆਤਮਿਕ ਬੁੱਧੀ ਉੁੱਤੇ ਬਲ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ ਹੈ। ਪਾਖੰਡਵਾਦ ਉੁੱਪਰ ਭਾਰੀ ਚੋਟ ਕੀਤੀ ਗਈ ਹੈ। ‘ਆਸਾ ਕੀ ਵਾਰ’ ਅਨੁਸਾਰ ਸਮਾਜ ਅਜਿਹਾ ਹੋਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ਜਿਸ ਵਿਚ ਸਾਰੇ ਲੋਕ ਹਰ ਪ੍ਰਕਾਰ ਦਾ ਕੰਮ-ਕਾਰ ਕਰ ਸਕਦੇ ਹੋਣ। ਕੰਮਾਂ ਦੀ ਵੰਡ ਜਨਮ ’ਤੇ ਆਧਾਰਿਤ ਨਾ ਹੋਵੇ ਤਾਂ ਕਿ ਜਾਤ-ਪਾਤ ਦੀ ਤੰਗਦਿਲੀ ਤੋਂ ਉੁੱਪਰ ਉੁੱਠਿਆ ਜਾ ਸਕੇ। ਜਤ-ਸਤ ਨੂੰ ਧਾਰਨ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਸਮਾਜ ਹੋਵੇ ਜਿਸ ਵਿਚ ਇਸਤਰੀ ਨੂੰ ਪੂਰਾ ਸਨਮਾਨ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਵੇ। ‘ਆਸਾ ਕੀ ਵਾਰ’ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਸਚਿਆਰਾ ਜੀਵਨ ਜੀਣ ਦੀ ਜਾਚ ਦੱਸਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਵਹਿਮਾਂ-ਭਰਮਾਂ ਦਾ ਖੰਡਨ ਕਰ ਕੇ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਇਨ੍ਹਾਂ ਤੋਂ ਆਜ਼ਾਦ ਹੋ ਚੱਲਣ ਦਾ ਸਹੀ ਰਾਹ ਦੱਸਦੀ ਹੈ।
(ਚਲਦਾ)



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ਵਾਰ’ ਪੰਜਾਬੀ ਲੋਕ ਸਾਹਿੱਤ ਦੇ ਕਾਵਿ-ਰੂਪ ਦਾ ਅਨਿੱਖੜਵਾਂ ਅੰਗ ਹੈ। ਇਹ ਪੰਜਾਬੀਆਂ ਦਾ ਮਨਭਾਉਂਦਾ ਸਾਹਿੱਤ ਹੈ। ਸੈਨਿਕਾਂ, ਯੋਧਿਆਂ ਵਿਚ ਬੀਰ ਰਸ ਪੈਦਾ ਕਰਨ ਲਈ ਇਸ ਸਾਹਿੱਤ ਦਾ ਬਹੁਤ ਹੱਥ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਭੱਟਾਂ ਅਤੇ ਕਵੀਆਂ ਦੁਆਰਾ ਰਚਿਤ ਵਾਰਾਂ ਨੂੰ ਢਾਡੀ ਬੜੇ ਹੀ ਜੋਸ਼ੀਲੇ ਢੰਗ ਨਾਲ ਗਾਉਂਦੇ ਹਨ ਜਿਸ ਦੇ ਸੁਣਨ ਨਾਲ ਮਨੁੱਖ ਜੋਸ਼ ਨਾਲ ਭਰ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਉਹ ਨਿਡਰ ਹੋ ਕੇ ਸ਼ੇਰ ਵਾਂਗ ਰਣ-ਤੱਤੇ ਵਿਚ ਜਾ ਗੱਜਦਾ ਹੈ। ਪਰੰਪਰਾ ਅਨੁਸਾਰ ਵਾਰਾਂ ਪਉੜੀਆਂ ਵਿਚ ਲਿਖੀਆਂ ਜਾਂਦੀਆਂ ਸਨ। ਪਉੜੀ ਦੇ ਦੋ ਰੂਪ ਵਰਤੇ ਜਾਂਦੇ ਹਨ- ਨਿਸ਼ਾਨੀ ਛੰਦ ਵਾਲਾ ਅਤੇ ਸਿਰਖੰਡੀ ਛੰਦ ਵਾਲਾ। ਇਸ ਦੀ ਭਾਸ਼ਾ ਜਨ-ਪੱਧਰ ਦੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਯੁੱਧ ਦਾ ਵਾਤਾਵਰਨ ਸਿਰਜਣ ਲਈ ਤਲਖ ਤੇ ਕਠੋਰ ਧੁਨੀਆਂ ਵਾਲੇ ਵਰਣਾਂ ਦਾ ਪ੍ਰਯੋਗ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਇਸ ਕਾਵਿ-ਰੂਪ ਦਾ ਅਰੰਭ ਕਦੋਂ ਹੋਇਆ ਇਸ ਬਾਰੇ ਕੁਝ ਵੀ ਕਹਿਣਾ ਮੁਸ਼ਕਿਲ ਹੈ। ਇਸ ਦੇ ਪੁਰਾਤਨ ਹੋਣ ਦਾ ਪ੍ਰਮਾਣ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਗ੍ਰੰਥ ਸਾਹਿਬ ਜੀ ਤੋਂ ਮਿਲ ਜਾਂਦਾ ਹੈ।
ਸੂਰਬੀਰ ਯੋਧਿਆਂ ਦੇ ਜੰਗ-ਏ-ਮੈਦਾਨ ਵਿਚ ਕੀਤੇ ਵੀਰਤਾ-ਭਰਪੂਰ ਕਿਸੇ ਇਕ ਕਾਰਨਾਮੇ ਨੂੰ ਦਿਲਖਿਚਵੀਂ ਕਵਿਤਾ ਰਾਹੀਂ ਪੇਸ਼ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਆ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਵਾਰ ਵਿਚ ਕਿਸੇ ਯੋਧੇ ਦੇ ਸਾਰੇ ਜੀਵਨ ਨੂੰ ਬਿਆਨ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਸਗੋਂ ਕਿਸੇ ਇਕ ਘਟਨਾ ਨੂੰ ਹੀ ਬਿਆਨ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਵਾਰ ਦਾ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਗੁਣ ਇਹ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਕਿ ਇਸ ਵਿਚ ਦੋ ਵਿਰੋਧੀ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਦੀ ਟੱਕਰ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਲੋਕ-ਵਾਰਾਂ ਵਿਚ ਜਿੱਥੇ ਇਹ ਟੱਕਰ ਬਾਹਰਮੁਖੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਅਰਥਾਤ ਦੋ ਯੋਧਿਆਂ ਵਿਚ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਉਥੇ ਇਹ ਟੱਕਰ ਅਧਿਆਤਮਿਕ ਵਾਰਾਂ ਵਿਚ ਅੰਤਰਮੁਖੀ ਅਰਥਾਤ ਮਨੁੱਖ ਅੰਦਰ ਚੱਲ ਰਹੀਆਂ ਬੁਰਾਈਆਂ ਨੂੰ ਫਤਿਹ ਕਰਨ ਲਈ ਦਰਸਾਈ ਗਈ ਹੈ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਅਧਿਆਤਮਿਕ ਵਾਰਾਂ ਵਿਚ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਸਮਾਜਿਕ, ਰਾਜਨੀਤਿਕ ਅਤੇ ਸਭਿਆਚਾਰਕ ਪ੍ਰਕਰਣ ਵਿਚ ਸਹੀ ਸੇਧ ਪ੍ਰਦਾਨ ਕਰ ਕੇ ਉਸ ਦੇ ਇਖਲਾਕੀ ਜੀਵਨ ਨੂੰ ਉੱਚਾ ਚੁੱਕਿਆ ਗਿਆ ਹੈ।
ਸਿੱਖ ਸਾਹਿੱਤ ਵਿਚ ਇਹ ਕਾਵਿ-ਰੂਪ ਬਹੁਤ ਪ੍ਰਚਲਿਤ ਹੈ। ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਗ੍ਰੰਥ ਸਾਹਿਬ ਵਿਚ 22 ਵਾਰਾਂ ਦਰਜ ਹਨ। ਗੁਰਮਤਿ ਵਿਚ ਵਾਰਾਂ ਦਾ ਮੁੱਢ ਸਿੱਖ ਧਰਮ ਦੇ ਸੰਸਥਾਪਕ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਨੇ ਬੰਨ੍ਹਿਆ ਹੈ। ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਦੁਆਰਾ ਰਚਿਤ 3 ਵਾਰਾਂ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਗ੍ਰੰਥ ਸਾਹਿਬ ਜੀ ਵਿਚ ਦਰਜ ਹਨ। ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਦੇ ਸਮੇਂ ਭਾਰਤ ਦੀ ਜਨਤਾ ਹਾਕਮਾਂ ਦੇ ਜ਼ੁਲਮ ਸਹਿ-ਸਹਿ ਕੇ ਬੁਜ਼ਦਿਲ ਤੇ ਨਿਰਬਲ ਹੋ ਚੁੱਕੀ ਸੀ। ਕਾਬਲ ਤੋਂ ਛੋਟੇ-ਛੋਟੇ ਜਥਿਆਂ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਹਮਲਾਵਰ ਆ ਕੇ ਹਿੰਦੋਸਤਾਨ ਵਿਚ ਲੁੱਟ-ਮਾਰ ਕਰ ਰਹੇ ਸਨ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਰੋਕਣ ਦੀ ਕਿਸੇ ਵਿਚ ਕੋਈ ਹਿੰਮਤ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਖੱਤਰੀ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਧਰਮ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਰੱਖਿਆ ਕਰਨਾ ਸੀ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਆਪਣਾ ਧਰਮ ਛੱਡ ਕੇ ਮਲੇਛਾਂ ਵਾਂਗ ਰਵੱਈਆ ਬਣਾ ਲਿਆ ਸੀ:
ਖਤ੍ਰੀਆ ਤ ਧਰਮੁ ਛੋਡਿਆ ਮਲੇਛ ਭਾਖਿਆ ਗਹੀ॥ (ਪੰਨਾ 663)
ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਇਸ ਗੱਲ ਤੋਂ ਭਲੀ-ਭਾਂਤ ਜਾਣੂ ਸਨ ਕਿ ਹਿੰਦੋਸਤਾਨੀਆਂ ਨੂੰ ਬਹਾਦਰ ਬਣਾ ਕੇ ਜ਼ੁਲਮ ਦਾ ਟਾਕਰਾ ਕਰਨਾ ਪਵੇਗਾ। ਇਸ ਲਈ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਨੇ ਸਿੱਖਾਂ ਨੂੰ ਉਪਦੇਸ਼ ਦਿੱਤਾ:
ਜਉ ਤਉ ਪ੍ਰੇਮ ਖੇਲਣ ਕਾ ਚਾਉ॥
ਸਿਰੁ ਧਰਿ ਤਲੀ ਗਲੀ ਮੇਰੀ ਆਉ॥
ਇਤੁ ਮਾਰਗਿ ਪੈਰੁ ਧਰੀਜੈ॥
ਸਿਰੁ ਦੀਜੈ ਕਾਣਿ ਨ ਕੀਜੈ॥ (ਪੰਨਾ 1412)
ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਨੇ ਸਿੱਖਾਂ ਵਿਚ ਬੀਰ ਰਸ ਪੈਦਾ ਕਰਨ ਲਈ ਸਮੇਂ ਦੇ ਅਨੁਕੂਲ 3 ਵਾਰਾਂ ਦੀ ਗੁਰਬਾਣੀ ਵਿਚ ਰਚਨਾ ਕੀਤੀ। ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਅਮਰਦਾਸ ਜੀ ਨੇ 4 ਵਾਰਾਂ, ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਰਾਮਦਾਸ ਜੀ ਨੇ 8 ਵਾਰਾਂ ਅਤੇ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਅਰਜਨ ਦੇਵ ਜੀ ਨੇ 6 ਵਾਰਾਂ ਅਤੇ ਇਕ ਵਾਰ ਭਾਈ ਸੱਤਾ ਜੀ ਅਤੇ ਭਾਈ ਬਲਵੰਡ ਜੀ ਨੇ ਰਲ ਕੇ ਲਿਖੀ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਵਾਰਾਂ ਵਿੱਚੋਂ ‘ਬਸੰਤ ਕੀ ਵਾਰ ਮਹਲ 5’ ਅਤੇ ‘ਸਤੇ ਬਲਵੰਡ ਕੀ ਵਾਰ’ ਨੂੰ ਛੱਡ ਕੇ ਬਾਕੀ ਸਾਰੀਆਂ ਵਾਰਾਂ ਵਿਚ ਪਉੜੀਆਂ ਦੇ ਨਾਲ ਸਲੋਕ ਭੀ ਹਨ ਜਿਹੜੇ ਪਉੜੀ ਦੇ ਭਾਵ-ਅਰਥ ਨਾਲ ਮਿਲਦੇ-ਜੁਲਦੇ ਹਨ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਵਾਰਾਂ ਦੇ ਸਿਰਲੇਖ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਨੇ ਰਾਗਾਂ ਦੇ ਨਾਂ ’ਤੇ ਦਿੱਤੇ ਹਨ ਜਿਸ ਤੋਂ ਭਾਵ ਹੈ ਕਿ ਇਸ ਵਾਰ ਨੂੰ ਇਸ ਰਾਗ ਵਿਚ ਗਾਉਣਾ ਹੈ।
( ਚਲਦਾ )



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25 ਮਈ 1886 ਨੂੰ ਸ਼ੇਰੇ ਪੰਜਾਬ ਮਹਾਰਾਜਾ ਰਣਜੀਤ ਸਿੰਘ ਦੇ ਸਭ ਤੋਂ ਛੋਟੇ ਪੁਤਰ ਮਹਾਰਾਜਾ ਦਲੀਪ ਸਿੰਘ ਨੇ ਅਦਲ ਚ ਪੰਜ ਪਿਆਰਿਆਂ ਤੋ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਛਕ ਕੇ ਮੁੜ ਗੁਰਸਿੱਖੀ ਨੂੰ ਧਾਰਨ ਕੀਤਾ।
1849 ਵਿਚ ਜਦੋ ਅੰਗਰੇਜ ਨੇ ਧੋਖੇ ਨਾਲ ਪੰਜਾਬ ਤੇ ਕਬਜਾ ਕੀਤਾ ਤੇ ਨਾਲ ਹੀ ਡੂੰਘੀ ਸਾਜਿਸ਼ ਤਹਿਤ ਮਹਾਰਾਜਾ ਦਲੀਪ ਸਿੰਘ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਕਬਜ਼ੇ ਵਿੱਚ ਰੱਖ ਸਦਾ ਲਈ ਪੰਜਾਬ ਤੋ ਬਾਹਰ ਲੈ ਗਏ , ਤੇ ਬਾਲਪਣ ਚ ਉਸ ਨੂੰ 4 ਸਾਲ ਵਰਗਲਾ ਕੇ 1853 ਚ ਧੋਖੇ ਨਾਲ ਈਸਾਈ ਬਣਾ ਲਿਆ ਸੀ। ਫਿਰ ਕਈ ਸਾਲ ਬਾਦ 1861 ਚ ਆਪਣੀ ਮਾਂ ਮਹਾਰਾਣੀ ਜਿੰਦ ਕੌਰ ਨੂੰ ਮਿਲਿਆ। ਕੈਦੀ ਚ ਪਈ ਮਾਂ , ਦੁਖਾਂ ਦੀ ਮਾਰੀ ਰੋ ਰੋ ਕੇ ਅੰਨੀ ਹੋ ਚੁਕੀ ਸੀ। ਇਸ ਲਈ ਪੁੱਤ ਦੀ ਸ਼ਕਲ ਤੇ ਨ ਦੇਖ ਸਕੀ। ਪਰ ਜਦੋਂ ਮਾਂ ਨੇ ਲਾਡ ਨਾਲ ਸਿਰ ਤੇ ਹੱਥ ਫੇਰਿਆ ਤਾਂ ਕੁਰਲਾ ਉੱਠੀ , ਕਹਿੰਦੇ , “ਹੇ ਤਕਦੀਰੇ ਤੂ ਮੇਰੇ ਸਿਰ ਦਾ ਸਾਈਂ , ਜਨਮ ਭੂਮੀ ਸੋਹਣਾ ਪੰਜਾਬ ਖੋਹਿਆ, ਰਾਜ ਭਾਗ ਖੋਹਿਆ , ਤੂ ਮੇਰੇ ਘਰੋ ਸਿੱਖੀ ਵੀ ਖੋਹ ਲਈ….. ਪੁੱਤ ਮੈਨੂੰ ਰਾਜ ਜਾਣ ਦਾ ਇੰਨਾ ਦੁਖ ਨਹੀਂ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਤੇਰੇ ਸਿੱਖੀ ਤੋਂ ਦੂਰ ਜਾਣ ਦਾ ਹੋਇਆ।
ਦਲੀਪ ਸਿੰਘ ਨੂੰ ਜਦੋ ਸਭ ਸੋਝੀ ਆਈ ਕੇ ਮੇਰੇ ਨਾਲ ਕੀ ਕੀ ਛਲ ਧੋਖੇ ਕੀਤਾ ਆ ਤਾਂ ਮਾਂ ਨਾਲ ਪ੍ਰਣ ਕੀਤਾ, ਮਾਂ ਮੈ ਏ ਵਾਅਦਾ ਤੇ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ ਕਿ ਤੇਰੀ ਉਝੜੀ ਦੁਨੀਆਂ ਵਸਾ ਸਕਾਂਗਾ ਜਾਂ ਖਾਲਸਾ ਰਾਜ ਵਾਪਸ ਲਿਆਵਾਂਗਾ ਪਰ ਤੇਰੇ ਘਰ ਚ ਸਿੱਖੀ ਜਰੂਰ ਵਾਪਸ ਆਵੇਗੀ। ਮਾਂ ਨਾਲ ਕੀਤਾ ਪ੍ਰਣ , 25 -5-1886 ਖੰਡੇ ਦੀ ਪਾਹੁਲ ਛਕ ਕੇ ਮਹਾਰਾਜਾ ਦਲੀਪ ਸਿੰਘ ਨੇ ਪੂਰਾ ਕੀਤਾ ਤੇ 23 ਸਾਲ ਬਾਦ ਮੁੜ ਗੁਰੂ ਦੇ ਲੜ ਲੱਗਾ। ਅੰਗਰੇਜ ਸਰਕਾਰ ਏ ਖਬਰ ਸੁਣ ਡਰ ਗਈ ਤੇ ਉਸੇ ਵੇਲੇ ਮਹਾਰਾਜੇ ਨੂੰ ਅਦਲ ਤੋ ਪੈਰਿਸ ਬੁਲਾ ਲਿਆ।
ਮੇਜਰ ਸਿੰਘ
ਗੁਰੂ ਕਿਰਪਾ ਕਰੇ



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धनासरी महला ३ घरु २ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ इहु धनु अखुटु न निखुटै न जाइ ॥ पूरै सतिगुरि दीआ दिखाइ ॥ अपुने सतिगुर कउ सद बलि जाई ॥ गुर किरपा ते हरि मंनि वसाई ॥१॥ से धनवंत हरि नामि लिव लाइ ॥ गुरि पूरै हरि धनु परगासिआ हरि किरपा ते वसै मनि आइ ॥ रहाउ ॥ अवगुण काटि गुण रिदै समाइ ॥ पूरे गुर कै सहजि सुभाइ ॥ पूरे गुर की साची बाणी ॥ सुख मन अंतरि सहजि समाणी ॥२॥ एकु अचरजु जन देखहु भाई ॥ दुबिधा मारि हरि मंनि वसाई ॥ नामु अमोलकु न पाइआ जाइ ॥ गुर परसादि वसै मनि आइ ॥३॥ सभ महि वसै प्रभु एको सोइ ॥ गुरमती घटि परगटु होइ ॥ सहजे जिनि प्रभु जाणि पछाणिआ ॥ नानक नामु मिलै मनु मानिआ ॥४॥१॥

अर्थ: राग धनासरी, घर २ में गुरू अमरदास जी की चार-बंदों वाली बाणी। अकाल पुरख एक है और सतिगुरू की कृपा से मिलता है। हे भाई! यह नाम-खजाना कभी खत्म होने वाला नहीं, ना यह (खर्च करने से) खत्म होता है, ना यह गुम होता है। (इस धन की यह सिफ़त मुझे) पूरे गुरु ने दिखा दी है। (हे भाई!) मैं अपने गुरु से सदा सदके जाता हूँ, गुरु की कृपा के साथ परमात्मा (का नाम-धन आपने) मन में बसाता हूँ ॥१॥ (हे भाई! जिन मनुष्यों के मन में) पूरे गुरु ने परमात्मा के नाम का धन प्रकट कर दिया, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में सुरति जोड़ के (आतमिक जीवन के) शाह बन गए। हे भाई! यह नाम-धन परमात्मा की कृपा के साथ मन में आ के बसता है ॥ रहाउ ॥ (हे भाई! गुरु शरण आ मनुष्य के) औगुण दूर कर के परमात्मा की सिफ़त-सालाह (उस के) हृदय में वसा देता है। (हे भाई!) पूरे गुरु की (उचारी हुई) सदा-थिर भगवान की सिफ़त-सालाह वाली बाणी (मनुष्य के) मन में आतमिक हुलारे पैदा करती है। (इस बाणी की बरकत के साथ) आतमिक अढ़ोलता हृदय में समाई हुई रहती है ॥२॥ हे भाई जनों! एक हैरान करन वाला तमाश़ा देखो। (गुरू मनुष्य के अंदरों) तेर-मेर मिटा के परमात्मा (का नाम उस के) मन में वसा देता है। हे भाई! परमात्मा का नाम अमुल्य है, (किसे भी दुनियावी कीमत से) नहीं मिल सकता। गुरू की कृपा से मन में आ वसता है ॥३॥ (हे भाई! जाहे) वह एक परमात्मा आप ही सब में वसता है, (पर) गुरू की मत पर चलिया ही (मनुष के) हिरदे में प्रगट होता है। आतमिक अडोलता में टिक के जिस मनुष्य ने प्रभू से गहरी सांझ पा कर (उस को अपने अंदर वसता) पछाण लिया है, नानक जी! उस को परमात्मा का नाम (सदा के लिए) प्रापत हो जाता है, उस का मन (परमात्मा की याद में) लगा रहता है ॥४॥१॥



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