धनासरी महला १ ॥
जीवा तेरै नाइ मनि आनंदु है जीउ ॥ साचो साचा नाउ गुण गोविंदु है जीउ ॥ गुर गिआनु अपारा सिरजणहारा जिनि सिरजी तिनि गोई ॥ परवाणा आइआ हुकमि पठाइआ फेरि न सकै कोई ॥ आपे करि वेखै सिरि सिरि लेखै आपे सुरति बुझाई ॥ नानक साहिबु अगम अगोचरु जीवा सची नाई ॥१॥
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जीवा = जीऊँ, मैं जी पड़ता हूँ, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है।
तेरे नाइ = तेरे नाम में जुड़ के।
जीउ = हे प्रभु जी!
सचो साचा = सदा ही स्थिर रहने वाला।
सिरजी = पैदा की है।
तिनि = उसी प्रभु ने।
गोई = नाश की है।
परवाणा = सदा। हुकमि = हुक्म अनुसार।
पठाइआ = भेजा हुआ।
फेरि न सकै = वापस नहीं कर सकता।
सिरि सिरि = हरेक जीव के सिर पर।
बुझाई = समझाता है।
अगम = अगम्य,पहुँच से दूर। अगोचरु = जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती।
सची नाई = सदा स्थिर रहने वाली महिमा बड़ाई करके।
नाई = बड़ाई, महिमा, उपमा, नाम की मशहूरी।
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अर्थ: हे प्रभु जी! तेरे नाम में जुड़ के मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है, मेरे मन में खुशी पैदा होती है। हे भाई! परमात्मा का नाम सदा स्थिर रहने वाला है, प्रभु गुणों का खजाना है और धरती के जीवों के दिलों की जानने वाला है। गुरु का बख्शा हुआ ज्ञान बताता है कि विधाता प्रभु बेअंत है, जिसने ये सृष्टि पैदा की है, वही इसका नाश करता है। जब उसके हुक्म में भेजा हुआ आमंत्रण आता है तो कोई भी जीव उसके बुलावे को रोक नहीं सकता। परमात्मा स्वयं ही जीवों को पैदा करके आप ही संभाल करता है, आप ही हरेक जीव के सिर पर उसके किए कर्मों के अनुसार लेख लिखता है, खुद ही जीव को सही जीवन-राह की सूझ बख्शता है। मालिक-प्रभु अगम्य पहुँच से परे है, जीवों की ज्ञान-इंद्रिय की उस तक पहुँच नहीं हो सकती। हे नानक! उसके दर पर अरदास कर, और कह: हे प्रभु! तेरी सदा कायम रहने वाली महिमा करके मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है मुझे अपनी महिमा बख्श।१।
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तुम सरि अवरु न कोइ आइआ जाइसी जीउ ॥ हुकमी होइ निबेड़ु भरमु चुकाइसी जीउ ॥ गुरु भरमु चुकाए अकथु कहाए सच महि साचु समाणा ॥ आपि उपाए आपि समाए हुकमी हुकमु पछाणा ॥ सची वडिआई गुर ते पाई तू मनि अंति सखाई ॥ नानक साहिबु अवरु न दूजा नामि तेरै वडिआई ॥२॥
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सरि = बराबर।
जाइसी = चला जाएगा। निबेड़ु = फैसला, खात्मा जनम-मरन के चक्कर का।
भरमु = भटकना।
चुकाए = दूर करता है।
कहाए = महिमा करवाता है।
अकथु = वह प्रभु जिसके गुण बयान नहीं किए जा सकते।
सच महि = सदा स्थिर प्रभु में।
सचु = सदा स्थिर प्रभु।
हुकमी हुकमु = हुक्म के मालिक का हुक्म।
साची = सदा स्थिर रहने वाली।
सखाई = साथी।
वडिआई = आदर।
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अर्थ: हे प्रभु जी! तेरे बराबर का और कोई नहीं है, और जो भी जगत में आया है, वह यहाँ से आखिर चला जाएगा तू ही सदा कायम रहने वाला है। जिस मनुष्य की भटकना गुरु दूर करता है, प्रभु के हुक्म अनुसार उसके जनम-मरण के चक्कर का खात्मा हो जाता है। गुरु जिसकी भटकना दूर करता है, उससे उस परमात्मा की महिमा करवाता है जिसके गुण बयान से परे हैं। वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की याद में रहता है, सदा स्थिर प्रभु उसके हृदय में प्रगट हो जाता है। वह मनुष्य रजा के मालिक प्रभु का हुक्म पहचान लेता है और समझ लेता है कि प्रभु खुद ही पैदा करता है और खुद ही अपने में लीन कर लेता है। हे प्रभु! जिस मनुष्य ने तेरी महिमा की दाति गुरु से प्राप्त कर ली है, तू उसके मन में आ बसता है और अंत के समय भी उसका साथी बनता है। हे नानक! मालिक प्रभु सदा कायम रहने वाला है, उस जैसा कोई और नहीं। उसके दर पर अरदास कर और कह: हे प्रभु! तेरे नाम में जुड़ने से लोक-परलोक में आदर मिलता है।२।
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तू सचा सिरजणहारु अलख सिरंदिआ जीउ ॥ एकु साहिबु दुइ राह वाद वधंदिआ जीउ ॥ दुइ राह चलाए हुकमि सबाए जनमि मुआ संसारा ॥ नाम बिना नाही को बेली बिखु लादी सिरि भारा ॥ हुकमी आइआ हुकमु न बूझै हुकमि सवारणहारा ॥ नानक साहिबु सबदि सिञापै साचा सिरजणहारा ॥३॥
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अलख = हे अदृष्ट!
सिरंदिआ = हे सिरंदे! हे पैदा करने वाले!
वाद = झगड़े।
दुइ राह = दो रास्ते भक्ति और माया।
सबाए = सारे जीव।
सिञापै = पहचाना जाता है।
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अर्थ: हे अदृष्य रचनहार! तू सदा स्थिर रहने वाला है और सब जीवों को पैदा करने वाला है। एक ही विधाता सारे जगत का मालिक है, उसने पैदा होना और मरना दो रास्ते चलाए हैं। उसी की रजा के अनुसार जगत में झगड़े बढ़ते हैं। दोनों रास्ते प्रभु ने ही चलाए हैं, सारे जीव उसी के हुक्म में है सारे जीव उसी के हुक्म में हैं, उसी के हुक्म अनुसार जगत पैदा होता व मरता रहता है। जीव नाम को भुला के माया के मोह का जहर-रूपी भार अपने सिर पर इकट्ठा किए जाता है, और ये नहीं समझता कि परमात्मा के नाम के बिना और कोई भी साथी मित्र नहीं बन सकता। जीव परमात्मा के हुक्म अनुसार जगत में आता है, पर माया के मोह में फंस के उस हुक्म को नहीं समझता। प्रभु आप ही जीवों को अपने हुक्म अनुसार सीधे रास्ते पर डाल के सँवारने में समर्थ है। हे नानक! गुरु के शब्द में जुड़ने से ये पहचान हो जाती है कि जगत का मालिक सदा-स्थिर रहने वाला है और सबको पैदा करने वाला है।३।
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भगत सोहहि दरवारि सबदि सुहाइआ जीउ ॥ बोलहि अम्रित बाणि रसन रसाइआ जीउ ॥ रसन रसाए नामि तिसाए गुर कै सबदि विकाणे ॥ पारसि परसिऐ पारसु होए जा तेरै मनि भाणे ॥ अमरा पदु पाइआ आपु गवाइआ विरला गिआन वीचारी ॥ नानक भगत सोहनि दरि साचै साचे के वापारी ॥४॥
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सोहहि = शोभते हैं।
दरवारि = दरबार में, प्रभु की हजूरी में।
सबदि = गुरु के शब्द से।
रसाइआ = एक सुर।
रसाए = एक सुर कर लेते हैं। तिसाए = प्यासे।
विकाणे = प्रभु के नाम से सदके होते हैं।
परसि परसिऐ = गुरु पारस को छूने से।
पारसु = एक पत्थर जो सब धातुओं को सोना बना देती है ऐसा माना गया है।
अमरा पदु = वह आत्मिक अवस्था जहाँ आत्मिक मौत नहीं फटकती।
आपु = स्वै भाव।
वापारी = वणजारे।
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अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति करने वाले बंदे परमात्मा की हजूरी में शोभते हैं, क्योंकि गुरु के शब्द की इनायत से वह अपने जीवन को सुंदर बना लेते हैं। वह लोग आत्मिक जीवन देने वाली वाणी अपनी जीभ से उचारते रहते हैं, जीव को उस वाणी के साथ एकरस कर लेते हैं। भक्त जन प्रभु के नाम के साथ जीभ को रसित कर लेते हैं, नाम में जुड़ के नाम के वास्ते उनकी प्यास बढ़ती है, गुरु के शब्द से वह प्रभु-नाम से कुर्बान होते हैं, नाम की खातिर और सब शारीरिक सुख कुर्बान करते हैं। हे प्रभु! जब भक्तजन तेरे मन को प्यारे लगते हैं, तो वह गुरु पारस से छू के स्वयं भी पारस बन जाते हैं और लोगों को पवित्र जीवन देने के लायक बन जाते हैं। जो लोग स्वैभाव दूर करते हैं उन्हें वह आत्मिक दर्जा मिल जाता है जहाँ आत्मिक मौत असर नहीं कर सकती। पर ऐसा कोई विरला ही गुरु के दिए ज्ञान की विचार करने वाला सख्श होता है। हे नानक! परमात्मा की भक्ति करने वाले बंदे सदा-स्थिर प्रभु के दर पर शोभा पाते हैं, वह अपने सारे जीवन में सदा-स्थिर प्रभु के नाम का ही व्यापार करते हैं।४।
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भूख पिआसो आथि किउ दरि जाइसा जीउ ॥ सतिगुर पूछउ जाइ नामु धिआइसा जीउ ॥ सचु नामु धिआई साचु चवाई गुरमुखि साचु पछाणा ॥ दीना नाथु दइआलु निरंजनु अनदिनु नामु वखाणा ॥ करणी कार धुरहु फुरमाई आपि मुआ मनु मारी ॥ नानक नामु महा रसु मीठा त्रिसना नामि निवारी ॥५॥२॥
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भूख पिआसो = भूखा प्यासा।
आथि = माया।
धिआसा = ध्याय सां, मैं सिमरूँगा।
धिआई = मैं ध्याऊँगा।
चवाई = मैं उचारूँगा।
गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।
अनदिनु = हर रोज।
वखाणा = मैं उचारूँगा।
करणी कार = करने योग्य काम।
धुरहु = परमात्मा ने अपने हजूरी से।
आपि = वह बँदा खुद।
मुआ = माया के मोह से मर जाता है।
महा रसु = सबसे श्रेष्ठ स्वाद वाला।
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अर्थ: जब तक मैं माया के वास्ते भूखा प्यासा रहता हूँ, तब तक मैं किसी भी तरह प्रभु के दर पर पहुँच नहीं सकता। माया की तृष्णा दूर करने का इलाज मैं जा के अपने गुरु से पूछता हूँ और उसकी शिक्षा के अनुसार मैं परमात्मा का नाम स्मरण करता हूँ नाम ही तृष्णा दूर करता है। गुरु की शरण पड़ कर मैं सदा-स्थिर नाम स्मरण करता हूँ सदा-स्थिर प्रभु की महिमा उचारता हूँ, और सदा स्थिर प्रभु से सांझ पाता हूँ। मैं हर रोज उस प्रभु का नाम मुँह से बोलता हूँ जो दीनों का सहारा है जो दया का श्रोत है और जिस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता। परमात्मा ने जिस मनुष्य को अपनी हजूरी से ही नाम-स्मरण का करणीय कार्य करने का हुक्म दे दिया, वह मनुष्य अपने मन को माया की ओर से मार के तृष्णा के प्रभाव से बच जाता है। हे नानक! उस मनुष्य को प्रभु का नाम ही मीठा व सभी रसों से श्रेष्ठ लगता है, उसने नाम-जपने की इनायत से माया की तृष्णा अपने अंदर से दूर कर ली होती है।५।२।
ਸੰਗਤ ਦੇ ਬੁਲਾਵੇ ਨੂੰ ਧਿਆਨ ਵਿਚ ਰਖਦੇ ਹੋਏ ਗੁਰੂ ਜੀ ਨੇ ਦਿੱਲੀ ਜਾਣ ਦਾ ਇਰਾਦਾ ਕਰ ਲਿਆ ਤੇ ਇਕ ਦੋ ਦਿਨਾਂ ਦੀ ਤਿਆਰੀ ਮਗਰੋਂ ਪਰਿਵਾਰ ਨੂੰ ਨਾਲ ਲੈ ਕੇ ਆਪ ਰਾਜਧਾਨੀ ਵਲ ਚਲ ਪਏ।
ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਸਿੱਖ ਵੀ ਆਪ ਦੇ ਨਾਲ ਹੋ ਤੁਰੇ। ਰਸਤੇ ਵਿਚ ਆਪ ਨਗਰਾਂ ਤੇ ਗਿਰਾਵਾਂ ਵਿਚ ਠਹਿਰਦੇ ਤੇ ਨਾਮ ਦੀ ਬਰਖਾ ਕਰਦੇ ਗਏ। ਜਿਥੇ ਵੀ ਆਪ ਪੜਾਵ ਕਰਦੇ, ਉਥੋਂ ਦੀ ਸੰਗਤ ਆਪ ਦੇ ਨਾਲ ਹੋ ਤੁਰਦੀ।
ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਕਰਨ ਨਾਲ ਸੰਗਤ ਦੀ ਗਿਣਤੀ ਲਗਾਤਾਰ ਵੱਧਦੀ ਗਈ ਤੇ ਥੋੜੇ ਥੋੜੇ ਫ਼ਾਸਲੇ ਤੇ ਪੜਾਅ ਪਾਉਣੇ ਪਏ।
ਤਦ ਅੰਬਾਲੇ ਲਾਗੇ ਪਿੰਡ ਪੰਜੋਖਰੇ ਪੁਜ ਕੇ ਆਪ ਨੇ ਸੰਗਤਾਂ ਨੂੰ ਵਾਪਸ ਮੁੜ ਜਾਣ ਦੀ ਆਗਿਆ ਕਤਿੀ ਅਤੇ ਧਰਤੀ ਉੱਤੇ ਇਕ ਲਕੀਰ ਖਿੱਚ ਕੇ ਹੁਕਮ ਕੀਤਾ ਕਿ ਕੋਈ ਗੁਰਸਿੱਖ ਇਸ ਲਕੀਰ ਨੂੰ ਪਾਰ ਕਾ ਕਰੇ।
ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਆਪ ਨੇ ਆਪਣੇ ਪਰਿਵਾਰ ਤੇ ਕੁਝ ਹਜ਼ੂਰੀ ਸਿੱਖਾਂ ਨੂੰ ਛੱਡ ਕੇ ਬਾਕੀ ਸਾਰੀ ਸੰਗਤ ਨੂੰ ਪਿਛਾਂਹ ਮੋੜ ਦਿੱਤਾ।
ਭਗਤ ਧੰਨਾ ਜੀ ਇਕ ਦਿਨ ਸੁੱਤੇ ਸਿਧ ਜੰਗਲ ਦੇ ਵਿਚ ਟਹਿਲਦੇ ਹੋਏ ਇਕ ਪਗਡੰਡੀ ਤੋਂ ਨਿਕਲ ਰਹੇ ਨੇ। ਆਪ ਦੇ ਪੈਰਾਂ ਨਾਲ ਮਿੱਟੀ ਦਾ ਬਹੁਤ ਸਖ਼ਤ ਢੇਲਾ ਠੋਕਰ ਖਾ ਕੇ ਟੁੱਟ ਗਿਅੈ।
ਓਸ ਟੁੱਟੇ ਹੋਏ ਢੇਲੇ ਵਿਚ ਭਗਤ ਜੀ ਕੀ ਦੇਖਦੇ ਨੇ,ਇਕ ਕੀੜਾ ਏ,ਔਰ ਉਸ ਕੀੜੇ ਦੇ ਮੂੰਹ ਵਿਚ ਬੇਰ ਦਾ ਪੱਤਾ ਏ, ਉਹ ਟੁੱਕ ਟੁੱਕ ਕੇ ਖਾਈ ਜਾ ਰਿਹੈ। ਆਪ ਜੀ ਦੀ ਅਗੰਮੀ ਦ੍ਰਿਸ਼ਟੀ, ਅਧਿਆਤਮਕ ਸੁਰਤ,ਇਕ ਦਮ ਵਿਸਮਾਦ ਦੇ ਮੰਡਲਾਂ ਦੇ ਵਿਚ ਖੋਹ ਗਈ।
ਆਪ ਕਹਿੰਦੇ ਨੇ :-
“ਪਾਖਾਣਿ ਕੀਟੁ ਗੁਪਤੁ ਹੋਇ ਰਹਤਾ ਤਾ ਚੋ ਮਾਰਗੁ ਨਾਹੀ॥
ਕਹੈ ਧੰਨਾ ਪੂਰਨ ਤਾਹੂ ਕੋ ਮਤ ਰੇ ਜੀਅ ਡਰਾਂਹੀ॥”
{ਅੰਗ ੪੮੮}
ਕੋਈ ਰਸਤਾ ਨਹੀਂ, ਕੋਈ ਮਾਰਗ ਨਹੀਂ, ਇਸ ਗੁਪਤ ਰਹਿੰਦੇ ਕੀੜੇ ਨੂੰ, ਗੁਪਤ ਰੂਪ ਦੇ ਵਿਚ ਰਿਜ਼ਕ ਪਹੁੰਚ ਗਿਅੈ, ਰੋਜ਼ੀ ਪਹੁੰਚ ਗਈ ਏ।ਮਨੁੱਖ ਦੇ ਜਿਹਨ ਦੇ ਉੱਤੇ ਹਰ ਵਕਤ ਜਿਹੜਾ ਬੋਝ ਤੇ ਤਨਾਉ ਹੈ, ਇਹ ਰੋਜ਼ੀ ਦਾ ਹੈ। ਕਹਿੰਦੇ ਨੇ ਇਹ ਤਨਾਉ ਪਛੂ, ਪੰਛੀਆਂ ਦੇ ਜਗਤ ਵਿਚ ਨਹੀਂ ਹੈ।
ਸਾਹਿਬ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਮਹਾਰਾਜ ਤੇ ਅੈਸਾ ਫ਼ਰਮਾਨ ਕਰਦੇ ਨੇ :-
“ਪਰੰਦਏ ਨ ਗਿਰਾਹ ਜਰ॥ਦਰਖਤ ਆਬ ਆਸ ਕਰ॥
ਦਿਹੰਦ ਸੂਈ॥ਏਕ ਤੁਈ ਏਕ ਤੁਈ॥੬॥”
{ਅੰਗ ੧੪੪}
सोरठि महला ५ ॥ विचि करता पुरखु खलोआ ॥ वालु न विंगा होआ ॥ मजनु गुर आंदा रासे ॥ जपि हरि हरि किलविख नासे ॥१॥ संतहु रामदास सरोवरु नीका ॥ जो नावै सो कुलु तरावै उधारु होआ है जी का ॥१॥ रहाउ ॥ जै जै कारु जगु गावै ॥ मन चिंदिअड़े फल पावै ॥ सही सलामति नाइ आए ॥ अपणा प्रभू धिआए ॥२॥ संत सरोवर नावै ॥ सो जनु परम गति पावै ॥ मरै न आवै जाई ॥ हरि हरि नामु धिआई ॥३॥ इहु ब्रहम बिचारु सु जानै ॥ जिसु दइआलु होए भगवानै ॥ बाबा नानक प्रभ सरणाई ॥ सभ चिंता गणत मिटाई ॥४॥७॥५७॥
अर्थ: हे संत जनो! साध-संगति (एक) सुंदर (स्थान) है। जो मनुष्य (साध-संगति में) आत्मिक स्नान करता है (मन को नाम-जल से पवित्र करता है), उसके जीवन का (विकारों से) पार-उतारा हो जाता है, वह अपनी सारी कुल को भी (संसार समुंद्र से) पार लंघा लेता है।1। रहाउ।(हे भाई! साध-संगति में जिस मनुष्य का) आत्मिक स्नान गुरू ने सफल कर दिया, वह मनुष्य सदा परमात्मा का नाम जप-जप के (अपने सारे) पाप नाश कर लेता है। सर्व-व्यापक करतार खुद उसकी सहायता करता है, (उसकी आत्मिक राशि-पूँजी का) रक्ती भर भी नुकसान नहीं होता।1।हे भाई! (जो मनुष्य राम के दासों के सरोवर में टिक के) अपने परमात्मा की आराधना करता है, (वह मनुष्य इस सत्संग-सरोवर में आत्मिक) स्नान कर के अपनी आत्मिक जीवन की राशि-पूँजी को पूर्ण-तौर पर बचा लेता है। सारा जगत उसकी शोभा के गीत गाता है, वह मनुष्य मन-वांछित फल हासिल कर लेता है।2।हे भाई! जो मनुष्य संतो के सरोवर में (साध-संगति में) आत्मिक स्नान करता है, वह मनुष्य सबसे उच्च आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है। जो मनुष्य सदा परमात्मा का नाम सिमरता रहता है, वह जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता।3।हे भाई! परमात्मा के मिलाप की इस विचार को वही मनुष्य समझता है जिस पर परमात्मा खुद दयावान होता है। हे नानक! (कह–) हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की शरण पड़ा रहता है, वह अपनी हरेक किस्म की चिंता-फिक्र दूर कर लेता है।4।7।57।
ਅੰਗ : 603
ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੫ ॥ ਵਿਚਿ ਕਰਤਾ ਪੁਰਖੁ ਖਲੋਆ ॥ ਵਾਲੁ ਨ ਵਿੰਗਾ ਹੋਆ ॥ ਮਜਨੁ ਗੁਰ ਆਂਦਾ ਰਾਸੇ ॥ ਜਪਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਕਿਲਵਿਖ ਨਾਸੇ ॥੧॥ ਸੰਤਹੁ ਰਾਮਦਾਸ ਸਰੋਵਰੁ ਨੀਕਾ ॥ ਜੋ ਨਾਵੈ ਸੋ ਕੁਲੁ ਤਰਾਵੈ ਉਧਾਰੁ ਹੋਆ ਹੈ ਜੀ ਕਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ ਜੈ ਜੈ ਕਾਰੁ ਜਗੁ ਗਾਵੈ ॥ ਮਨ ਚਿੰਦਿਅੜੇ ਫਲ ਪਾਵੈ ॥ ਸਹੀ ਸਲਾਮਤਿ ਨਾਇ ਆਏ ॥ ਅਪਣਾ ਪ੍ਰਭੂ ਧਿਆਏ ॥੨॥ ਸੰਤ ਸਰੋਵਰ ਨਾਵੈ ॥ ਸੋ ਜਨੁ ਪਰਮ ਗਤਿ ਪਾਵੈ ॥ ਮਰੈ ਨ ਆਵੈ ਜਾਈ ॥ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਈ ॥੩॥ ਇਹੁ ਬ੍ਰਹਮ ਬਿਚਾਰੁ ਸੁ ਜਾਨੈ ॥ ਜਿਸੁ ਦਇਆਲੁ ਹੋਇ ਭਗਵਾਨੈ ॥ ਬਾਬਾ ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਭ ਸਰਣਾਈ ॥ ਸਭ ਚਿੰਤਾ ਗਣਤ ਮਿਟਾਈ ॥੪॥੭॥੫੭॥
ਅਰਥ: ਹੇ ਸੰਤ ਜਨੋ! ਸਾਧ ਸੰਗਤਿ (ਇਕ) ਸੁੰਦਰ (ਅਸਥਾਨ) ਹੈ। ਜੇਹੜਾ ਮਨੁੱਖ (ਸਾਧ ਸੰਗਤਿ ਵਿਚ) ਆਤਮਕ ਇਸ਼ਨਾਨ ਕਰਦਾ ਹੈ (ਮਨ ਨੂੰ ਨਾਮ-ਜਲ ਨਾਲ ਪਵਿਤ੍ਰ ਕਰਦਾ ਹੈ) , ਉਸ ਦੀ ਜਿੰਦ ਦਾ (ਵਿਕਾਰਾਂ ਤੋਂ) ਪਾਰ-ਉਤਾਰਾ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਆਪਣੀ ਸਾਰੀ ਕੁਲ ਨੂੰ ਭੀ (ਸੰਸਾਰ-ਸਮੁੰਦਰ ਤੋਂ) ਪਾਰ ਲੰਘਾ ਲੈਂਦਾ ਹੈ।੧।ਰਹਾਉ।(ਹੇ ਭਾਈ! ਸਾਧ ਸੰਗਤਿ ਵਿਚ ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਦਾ) ਆਤਮਕ ਇਸ਼ਨਾਨ ਗੁਰੂ ਨੇ ਸਫਲ ਕਰ ਦਿੱਤਾ, ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਸਦਾ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ ਜਪ ਜਪ ਕੇ (ਆਪਣੇ ਸਾਰੇ) ਪਾਪ ਨਾਸ ਕਰ ਲੈਂਦਾ ਹੈ। ਸਰਬ-ਵਿਆਪਕ ਕਰਤਾਰ ਆਪ ਉਸ ਦੀ ਸਹੈਤਾ ਕਰਦਾ ਹੈ, (ਉਸ ਦੀ ਆਤਮਕ ਰਾਸਿ-ਪੂੰਜੀ ਦਾ) ਰਤਾ ਭਰ ਭੀ ਨੁਕਸਾਨ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ।੧।ਹੇ ਭਾਈ! ਜੇਹੜਾ ਮਨੁੱਖ ਰਾਮ ਦੇ ਦਾਸਾਂ ਦੇ ਸਰੋਵਰ ਵਿਚ ਟਿਕ ਕੇ) ਆਪਣੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਆਰਾਧਨ ਕਰਦਾ ਹੈ, (ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਇਸ ਸਤਸੰਗ-ਸਰੋਵਰ ਵਿਚ ਆਤਮਕ) ਇਸ਼ਨਾਨ ਕਰ ਕੇ ਆਪਣੀ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਦੀ ਰਾਸਿ-ਪੂੰਜੀ ਨੂੰ ਪੂਰਨ ਤੌਰ ਤੇ ਬਚਾ ਲੈਂਦਾ ਹੈ। ਸਾਰਾ ਜਗਤ ਉਸ ਦੀ ਸੋਭਾ ਦਾ ਗੀਤ ਗਾਂਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਮਨ-ਚਿਤਵੇ ਫਲ ਹਾਸਲ ਕਰ ਲੈਂਦਾ ਹੈ।੨।ਹੇ ਭਾਈ! ਜੇਹੜਾ ਮਨੁੱਖ ਸੰਤਾਂ ਦੇ ਸਰੋਵਰ ਵਿਚ (ਸਾਧ ਸੰਗਤਿ ਵਿਚ) ਆਤਮਕ ਇਸ਼ਨਾਨ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਸਭ ਤੋਂ ਆਤਮਕ ਅਵਸਥਾ ਹਾਸਲ ਕਰ ਲੈਂਦਾ ਹੈ। ਜੇਹੜਾ ਮਨੁੱਖ ਸਦਾ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ ਸਿਮਰਦਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਜਨਮ ਮਰਨ ਦੇ ਗੇੜ ਵਿਚ ਨਹੀਂ ਪੈਂਦਾ।੩।ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਨਾਲ ਮਿਲਾਪ ਦੀ ਇਸ ਵਿਚਾਰ ਨੂੰ ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਸਮਝਦਾ ਹੈ, ਜਿਸ ਉੱਤੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਆਪ ਦਇਆਵਾਨ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਹੇ ਨਾਨਕ! (ਆਖ-) ਹੇ ਭਾਈ! ਜੇਹੜਾ ਮਨੁੱਖ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਸ਼ਰਨ ਪਿਆ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਆਪਣਾ ਹਰੇਕ ਕਿਸਮ ਦਾ ਚਿੰਤਾ-ਫ਼ਿਕਰ ਦੂਰ ਕਰ ਲੈਂਦਾ ਹੈ।੪।੭।੫੭।
ਇਸ ਵਿਸ਼ੇ ’ਤੇ ਕਾਫ਼ੀ ਗਲਤ ਫੈਹਿਮੀਆਂ ਚੱਲ ਰਹੀਆਂ ਹਨ। ਇਸ ਕਰਕੇ, ਮੈਂ ਇਸਦਾ ਥੋੜ੍ਹਾ ਵਿਸ਼ਲੇਸ਼ਣ ਕੀਤਾ।
ਤਨਖਾਹ ਦੇ ਪੂਰੇ ਹਵਾਲੇ ਭਾਈ ਨੰਦ ਲਾਲ ਦੁਆਰਾ ਲਿਖੇ ਤਨਖਾਹਨਾਮੇ ਵਿੱਚ ਮਿਲਦੇ ਹਨ। ਉਹ ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ਦੇ ਦਰਬਾਰੀ ਕਵੀ ਸਨ। ਤਨਖਾਹ ਦਾ ਮੁੱਖ ਉਦੇਸ਼ – ਭੁੱਲ ਬਖ਼ਸ਼ਾਉਣ – ਦੱਸਣ ਲਈ ਭਾਈ ਦਇਆ ਸਿੰਘ, ਭਾਈ ਚੌਪਾ ਸਿੰਘ ਅਤੇ ਗੁਰੂ ਰਤਨ ਮਾਲ ਵਿੱਚ ਲਿਖੇ ਰਹਿਤਨਾਮਿਆਂ ਨੂੰ ਵੀ ਹਵਾਲੇ ਵਜੋਂ ਪੜ੍ਹਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਦਿਲਚਸਪ ਗੱਲ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਪਹਿਲੀ ਤਨਖਾਹ ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ਨੂੰ ਹੀ ਸਿੱਖਾਂ ਵੱਲੋਂ ਦਿੱਤੀ ਗਈ ਸੀ, ਜਦੋਂ ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਸਾਧੂ ਦਾਦੂ ਦੇ ਦਾਦੂਦਵਾਰੇ ਨੂੰ ਨਮਸਕਾਰ ਕੀਤਾ ਸੀ।
ਇੱਥੇ ਤਨਖਾਹ ਦੇ ਰਿਕਾਰਡ ਕੀਤੇ ਗਏ ਪ੍ਰਸੰਗਾਂ ਦੀ ਕ੍ਰਮਵਾਰ ਸੂਚੀ ਹੈ:
1. 1699-1708 (ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ) – ਸਾਧੂ ਦਾਦੂ ਦੇ ਮਜ਼ਾਰ ਨੂੰ ਨਮਸਕਾਰ ਕਰਨ ਕਾਰਨ ਤਨਖਾਹ। ਇਹ ਗੁਰੂ ਦੇ ਹੁਕਮ ਦੇ ਉਲਟ ਸੀ ਕਿ ਕਬਰਾਂ ਜਾਂ ਮਜ਼ਾਰਾਂ ਦੀ ਪੂਜਾ ਨਾ ਕੀਤੀ ਜਾਵੇ। ਸਿੱਖਾਂ ਵੱਲੋਂ ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ਸਾਹਿਬ ਤੇ ਲੱਗੀ ਤਨਖਾਹ ਰੁ.125 ਸੀ, ਜੋ ਗੁਰੂ ਕਾ ਲੰਗਰ ਲਈ ਤੰਬੂ ਖਰੀਦਣ ’ਤੇ ਖਰਚੀ ਗਈ।
2. 1733 (ਭਾਈ ਸੁਬੇਗ ਸਿੰਘ) – ਮੁਗਲ ਸਰਕਾਰ ਦੀ ਸੇਵਾ ਕਰਨ ਲਈ ਤਨਖਾਹੀਆ ਐਲਾਨੇ ਗਏ। ਇਸ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਉਹ ਖਾਲਸੇ ਨਾਲ ਸ਼ਾਂਤੀ ਵਾਰਤਾ ਕਰਨ ਯੋਗ ਮੰਨੇ ਗਏ।
3. ਸ਼ੁਰੂਆਤੀ 19ਵੀਂ ਸਦੀ (ਮਹਾਰਾਜਾ ਰਣਜੀਤ ਸਿੰਘ) – ਨੈਤਿਕ ਅਤੇ ਧਾਰਮਿਕ ਗਲਤੀਆਂ ਲਈ ਤਨਖਾਹ। ਅਕਾਲ ਤਖ਼ਤ ਨੇ ਕੋੜਿਆਂ ਦੀ ਸਜ਼ਾ ਵੀ ਦਿੱਤੀ, ਪਰ ਅਕਾਲੀ ਫੂਲਾ ਸਿੰਘ ਨੇ ਸਰੀਰਕ ਸਜ਼ਾ ਮਾਫ ਕਰ ਦਿੱਤੀ।
4. 1921 (ਬਾਬਾ ਕਰਤਾਰ ਸਿੰਘ ਬੇਦੀ) – ਮਹੰਤ ਨਰਾਇਣ ਦਾਸ ਦੇ ਸਮਰਥਨ ਲਈ ਤਨਖਾਹ। ਇਹ ਪ੍ਰਸੰਗ ਨਨਕਾਣਾ ਸਾਹਿਬ ਕਤਲੇਆਮ ’ਤੇ ਸਮਾਪਤ ਹੋਇਆ।
5. 1923 (ਜਥੇਦਾਰ ਤੇਜਾ ਸਿੰਘ ਭੁੱਚਰ) – ਅਮ੍ਰਿਤਸਰ ਦੇ ਪਵਿੱਤਰ ਸਰੋਵਰ ਦੀ ਕਾਰਸੇਵਾ ਦੌਰਾਨ ਪੰਜ ਪਿਆਰਿਆਂ ਦੀ ਬੇਹੁਰਮਤੀ ਕਰਨ ਲਈ ਤਨਖਾਹ।
6. 1928 (ਬਾਬੂ ਤੇਜਾ ਸਿੰਘ ਅਤੇ ਪਤਨੀ) – ਗੁਰਬਾਣੀ ਦੇ ਸ਼ਬਦ ਬਦਲਣ ਅਤੇ ਗੁਰਮੰਤਰ ਅਤੇ ਅਰਦਾਸ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਤਬਦੀਲੀ ਕਰਨ ਲਈ ਤਨਖਾਹ।
7. 1961 (ਮਾਸਟਰ ਤਾਰਾ ਸਿੰਘ) – ਰਾਜਨੀਤਿਕ ਪ੍ਰਦਰਸ਼ਨ ਦੌਰਾਨ ਧਾਰਮਿਕ ਕਸਮ ਤੋੜਨ ਲਈ ਤਨਖਾਹ। ਇਸ ਵਿੱਚ ਅਖੰਡ ਪਾਠ, ਜਪੁ ਸਾਹਿਬ ਦੀ ਰੋਜ਼ਾਨਾ ਪਾਠ, ਰੁ.125 ਦਾ ਕੜਾਹ ਪ੍ਰਸ਼ਾਦ, ਅਤੇ ਪੰਜ ਦਿਨ ਲੰਗਰ ਵਿੱਚ ਜੁੱਤੀਆਂ ਅਤੇ ਭਾਂਡਿਆਂ ਦੀ ਸਫਾਈ ਸ਼ਾਮਲ ਸੀ।
8. 1961 (ਸੰਤ ਫਤਹਿ ਸਿੰਘ ਅਤੇ ਹੋਰ) – ਮਾਸਟਰ ਤਾਰਾ ਸਿੰਘ ਦੀ ਭੁੱਖ ਹੜਤਾਲ ਤੋੜਨ ਲਈ ਤਨਖਾਹ। ਸੰਤ ਫਤਹਿ ਸਿੰਘ ਨੂੰ ਜਪੁ ਸਾਹਿਬ ਦੀ ਵਾਧੂ ਪਾਠ ਅਤੇ ਪੰਜ ਦਿਨਾਂ ਲਈ ਭਾਂਡੇ ਧੋਣੇ ਦੇ ਨਿਰਦੇਸ਼ ਦਿੱਤੇ ਗਏ।
9. 1984 (ਗਿਆਨੀ ਜੈਲ ਸਿੰਘ) – ਜੂਨ 1984 ਵਿੱਚ ਦਰਬਾਰ ਸਾਹਿਬ ਵਿੱਚ ਫੌਜ ਦਾ ਦਾਖਲਾ ਸਵੀਕਾਰ ਕਰਨ ਲਈ ਤਨਖਾਹ। ਉਹ ਪੰਜ ਪਿਆਰਿਆਂ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਬੇਕਸੂਰੀ ਸਾਬਿਤ ਕਰ ਸਕੇ ਅਤੇ ਮਾਫ਼ ਹੋਏ।
10. 1984 (ਬੂਟਾ ਸਿੰਘ ਅਤੇ ਸੰਤਾ ਸਿੰਘ) – ਬਿਨਾ ਮਨਜ਼ੂਰੀ ਸਰਬੱਤ ਖਾਲਸਾ ਸੱਦਣ ਅਤੇ ਅਕਾਲ ਤਖ਼ਤ ਦੀ ਇਮਾਰਤ ਬਣਾਉਣ ਲਈ ਤਨਖਾਹ। ਦੋਹਾਂ ਨੂੰ ਪੰਥ ਚੋਂ ਛੇਕ ਬਾਹਰ ਕੱਢ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ।
ਤਨਖਾਹ ਦੇ ਨਿਯਮ:
ਇਤਿਹਾਸਕ ਤੌਰ ’ਤੇ, ਅਕਾਲ ਤਖ਼ਤ ਵੱਲੋਂ ਜਾਰੀ ਕੀਤੀਆਂ ਸਾਰੀਆਂ ਤਨਖਾਹਾਂ, ਚਾਹੇ ਉਹ ਭਾਈ ਸੁਬੇਗ ਸਿੰਘ ਨੂੰ ਦਿੱਤੀਆਂ ਗਈਆਂ ਹੋਣ ਜਾਂ ਬੂਟਾ ਸਿੰਘ ਨੂੰ, ਵਿਅਕਤੀਗਤ ਚਾਲ-ਚਲਨ ਵਿੱਚ ਗਲਤੀਆਂ ਨੂੰ ਸੰਬੋਧਿਤ ਕਰਨ ਲਈ ਹੁੰਦੀਆਂ ਸਨ। ਸਿੱਖ ਇਤਿਹਾਸ ਵਿੱਚ ਕਦੇ ਵੀ ਤਨਖਾਹ ਇਸ ਲਈ ਨਹੀਂ ਦਿੱਤੀ ਗਈ ਕਿ ਕਿਸੇ ਵਿਅਕਤੀ ਨੇ ਗੁਰੂ ਦੀ ਬੇਅਦਬੀ ਕਰਨ ਦੀ ਕਬੂਲੀ ਕੀਤੀ ਹੋਵੇ। ਦਿਲਚਸਪ ਗੱਲ ਹੈ ਕਿ ਇਹੋ ਜਿਹਾ ਪ੍ਰਸੰਗ ਤਨਖਾਹਨਾਮੇ ਵਿੱਚ ਦੱਸਿਆ ਗਿਆ ਹੈ:
ਗੁਰ ਕੀ ਨਿੰਦਾ ਸੁਨੈ ਨ ਕਾਨ
ਭੇਟਨ ਕਰੈ ਸੰਗਿ ਕ੍ਰਿਪਾਨ॥
– ਤਨਖਾਹਨਾਮਾ ਭਾਈ ਨੰਦ ਲਾਲ
ਇਹ ਪਹਿਲਾ ਦਰਜ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਮਾਮਲਾ ਹੈ ਜਿੱਥੇ ਗੁਰੂ ਗ੍ਰੰਥ ਸਾਹਿਬ ਦੀ ਬੇਅਦਬੀ ਲਈ ਭੁੱਲ ਬਖ਼ਸ਼ਾਉਣ ਦੀ ਮੰਗ ਕੀਤੀ ਗਈ। ਕਈ ਸਿੱਖਾਂ ਲਈ, ਖਾਸ ਕਰਕੇ ਪੁਰਾਣੇ ਨਿਹੰਗ ਅਕਾਲੀਆਂ ਲਈ, ਗੁਰੂ ਗ੍ਰੰਥ ਸਾਹਿਬ ’ਤੇ ਹਮਲਾ ਸਿਰਫ਼ ਇਕ ਕਿਤਾਬ ’ਤੇ ਹਮਲਾ ਨਹੀਂ ਸਮਝਿਆ ਜਾਂਦਾ, ਸਗੋਂ ਗੁਰੂ ’ਤੇ ਹੀ ਹਮਲਾ ਮੰਨਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਇਹੀ ਕਾਰਨ ਹੈ ਕਿ ਜਦੋਂ ਕੋਈ ਗੁਰੂ ਗ੍ਰੰਥ ਸਾਹਿਬ ਦੀ ਬੇਅਦਬੀ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਅਕਾਲੀ ਨਿਹੰਗ ਇਸ ’ਤੇ ਤਿੱਖੀ ਪ੍ਰਤੀਕ੍ਰਿਆ ਕਰਦੇ ਹਨ।
ਸਿੱਖੀ ਦੇ ਬਾਹਰੀ ਲੋਕਾਂ ਵੱਲੋਂ ਅਕਸਰ ਇੱਕ ਅਹਿਮ ਗੱਲ ਨਜ਼ਰਅੰਦਾਜ਼ ਕੀਤੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ—ਅਕਾਲੀ ਸ਼ਬਦ ਦੀ ਅਹਿਮੀਅਤ। ਬਾਦਲ ਪਾਰਟੀ ਨੇ ਇਸ ਸ਼ਬਦ ਨੂੰ ਗਲਤ ਢੰਗ ਨਾਲ ਵਰਤਿਆ ਹੈ। ਅਸਲ ਵਿੱਚ, “ਅਕਾਲੀ” ਸ਼ਬਦ ਪੁਰਾਣੇ ਨਿਹੰਗ ਸਿੱਖਾਂ ਦੀ ਜਥੇਬੰਦੀ ਲਈ ਵਰਤਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਜੋ ਖੁਦ ਨੂੰ ਸਿਰਫ਼ ਅਕਾਲ (ਅਬਿਨਾਸ਼ੀ ਪਰਮਾਤਮਾ) ਦੇ ਕਾਨੂੰਨਾਂ ਅਧੀਨ ਮੰਨਦੇ ਹਨ। ਇਹ ਖੁਦ ਨੂੰ ਅਕਸਰ ਬਾਗੀ ਜਾਂ ਬਾਦਸ਼ਾਹ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ, ਅਤੇ ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ਦੇ ਪ੍ਰਤੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਸ਼ਰਧਾ ਬੇਹਿਸਾਬ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਜਦੋਂ ਕਿਸੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਕਾਨੂੰਨ, ਪੰਥ ਦੇ ਕਾਨੂੰਨਾਂ ਨਾਲ ਟਕਰਾਉਂਦੇ ਹਨ, ਤਾਂ ਪੁਰਾਣੇ ਅਕਾਲੀ ਅਕਸਰ ਪੰਥ ਨੂੰ ਪਹਿਲ ਦੇਂਦੇ ਹਨ।
ਉਹ ਖੁਦ ਨੂੰ ਪਾਤਸ਼ਾਹ ਮੰਨਦੇ ਹਨ, ਅਤੇ ਜਦੋਂ ਤਖ਼ਤ ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਰਾਜ ਤਖ਼ਤ ਦੇ ਅਧੀਨ ਮੰਨਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਖੁਦਮੁਖਤਿਆਰ ਹੋ ਕੇ ਕੰਮ ਕਰਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਖੁਦ ਨਿਆਂ ਕਰ ਸਕਣ ਦੇ ਹੱਕਦਾਰ ਮੰਨਦੇ ਹਨ।
ਜੋ ਕੁਝ ਕੱਲ੍ਹ ਭਾਈ ਨਰਾਇਣ ਸਿੰਘ ਚੌੜਾ ਤੋਂ ਵੇਖਿਆ ਗਿਆ—ਜੋ ਦਸ ਕਿਤਾਬਾਂ ਦੇ ਲੇਖਕ ਹਨ—ਇਹ ਸ਼ਾਇਦ ਪੁਰਾਣੇ ਅਕਾਲੀ ਵਿਚਰਣ ਦੀ ਇੱਕ ਜਿਉਂਦੀ ਉਦਾਹਰਣ ਸੀ।
ਕਾਪੀ
जैतसरी महला ९ ॥
हरि जू राखि लेहु पति मेरी ॥ जम को त्रास भइओ उर अंतरि सरनि गही किरपा निधि तेरी ॥१॥ रहाउ ॥ महा पतित मुगध लोभी फुनि करत पाप अब हारा ॥ भै मरबे को बिसरत नाहिन तिह चिंता तनु जारा ॥१॥ कीए उपाव मुकति के कारनि दह दिसि कउ उठि धाइआ ॥ घट ही भीतरि बसै निरंजनु ता को मरमु न पाइआ ॥२॥ नाहिन गुनु नाहिन कछु जपु तपु कउनु करमु अब कीजै ॥ नानक हारि परिओ सरनागति अभै दानु प्रभ दीजै ॥३॥२॥
ਅੰਗ : 703
ਜੈਤਸਰੀ ਮਹਲਾ ੯ ॥
ਹਰਿ ਜੂ ਰਾਖਿ ਲੇਹੁ ਪਤਿ ਮੇਰੀ ॥ ਜਮ ਕੋ ਤ੍ਰਾਸ ਭਇਓ ਉਰ ਅੰਤਿਰਿ ਸਰਨਿ ਗਹੀ ਕਿਰਪਾ ਨਿਧਿ ਤੇਰੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ ਮਹਾ ਪਤਿਤ ਮੁਗਧ ਲੋਭੀ ਫੁਨਿ ਕਰਤ ਪਾਪ ਅਬ ਹਾਰਾ ॥ ਭੈ ਮਰਬੇ ਕੋ ਬਿਸਰਤ ਨਾਹਿਨ ਤਿਹ ਚਿੰਤਾ ਤਨੁ ਜਾਰਾ ॥੧॥ ਕੀਏ ਉਪਾਵ ਮੁਕਤਿ ਕੇ ਕਾਰਨਿ ਦਹ ਦਿਸਿ ਕਉ ਉਠਿ ਧਾਇਆ ॥ ਘਟ ਹੀ ਭੀਤਰਿ ਬਸੈ ਨਿਰੰਜਨੁ ਤਾ ਕੋ ਮਰਮੁ ਨ ਪਾਇਆ ॥੨॥ ਨਾਹਿਨ ਗੁਨੁ ਨਾਹਿਨ ਕਛੁ ਜਪੁ ਤਪੁ ਕਉਨੁ ਕਰਮੁ ਅਬ ਕੀਜੈ ॥ ਨਾਨਕ ਹਾਰਿ ਪਰਿਓ ਸਰਨਾਗਤਿ ਅਭੈ ਦਾਨੁ ਪ੍ਰਭ ਦੀਜੈ ॥੩॥੨॥
ਅਰਥ: ਜੈਤਸਰੀ ਮਹਲਾ ੯ ॥
ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ ਜੀ ! ਮੇਰੀ ਇੱਜ਼ਤ ਰੱਖ ਲਵੋ । ਮੇਰੇ ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ ਮੌਤ ਦਾ ਡਰ ਵੱਸ ਰਿਹਾ ਹੈ, (ਇਸ ਤੋਂ ਬਚਣ ਲਈ) ਹੇ ਕਿਰਪਾ ਦੇ ਖ਼ਜ਼ਾਨੇ ਪ੍ਰਭੂ ! ਮੈਂ ਤੇਰਾ ਆਸਰਾ ਲਿਆ ਹੈ ।੧। ਰਹਾਉ। ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ ! ਮੈ ਵੱਡਾ ਵਿਕਾਰੀ ਹਾਂ, ਮੂਰਖ ਹਾਂ, ਲਾਲਚੀ ਭੀ ਹਾਂ, ਪਾਪ ਕਰਦਾ ਕਰਦਾ ਹੁਣ ਮੈਂ ਥੱਕ ਗਿਆ ਹਾਂ ਮੈਨੂੰ ਮਰਨ ਦਾ ਡਰ (ਕਿਸੇ ਵੇਲੇ) ਭੁੱਲਦਾ ਨਹੀਂ, ਇਸ (ਮਰਨ) ਦੀ ਚਿੰਤਾ ਨੇ ਮਰਾ ਸਰੀਰ ਸਾੜ ਦਿੱਤਾ ਹੈ ।੧। ਹੇ ਭਾਈ ! (ਮੌਤ ਦੇ ਇਸ ਸਹਿਮ ਤੋਂ) ਖ਼ਲਾਸੀ ਹਾਸਲ ਕਰਨ ਲਈ ਮੈਂ ਅਨੇਕਾਂ ਹੀਲੇ ਕੀਤੇ ਹਨ, ਦਸੀਂ ਪਾਸੀਂ ਉਠ ਉਠ ਕੇ ਦੌੜਿਆ ਹਾਂ । (ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਤੋਂ) ਨਿਰਲੇਪ ਪਰਮਾਤਮਾ ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ ਵੱਸਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਦਾ ਭੇਤ ਮੈਂ ਨਹੀਂ ਸਮਝੀਆ ।੨। ਹੇ ਨਾਨਕ ! (ਆਖ–ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਸਰਨ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਹੋਰ) ਕੋਈ ਗੁਣ ਨਹੀਂ ਕੋਈ ਜਪ ਤਪ ਨਹੀਂ (ਜੋ ਮੌਤ ਦੇ ਸਹਿਮ ਤੋਂ ਬਚਾ ਲਏ, ਫਿਰ) ਹੁਣ ਕੇਹੜਾ ਕੰਮ ਕੀਤਾ ਜਾਏ? ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ ! (ਹੋਰ ਸਾਧਨਾਂ ਵਲੋਂ) ਹਾਰ ਕੇ ਮੈਂ ਤੇਰੀ ਸਰਨ ਆ ਪਿਆ ਹਾਂ, ਤੂੰ ਮੈਨੂੰ ਮੌਤ ਦੇ ਡਰ ਤੋਂ ਖ਼ਲਾਸੀ ਦਾ ਦਾਨ ਦੇਹ ।੩।੨।
धनासरी महला ४ ॥ हरि हरि बूंद भए हरि सुआमी हम चात्रिक बिलल बिललाती ॥ हरि हरि क्रिपा करहु प्रभ अपनी मुखि देवहु हरि निमखाती ॥१॥ हरि बिनु रहि न सकउ इक राती ॥ जिउ बिनु अमलै अमली मरि जाई है तिउ हरि बिनु हम मरि जाती ॥ रहाउ ॥ तुम हरि सरवर अति अगाह हम लहि न सकहि अंतु माती ॥ तू परै परै अपर्मपरु सुआमी मिति जानहु आपन गाती ॥२॥ हरि के संत जना हरि जपिओ गुर रंगि चलूलै राती ॥ हरि हरि भगति बनी अति सोभा हरि जपिओ ऊतम पाती ॥३॥ आपे ठाकुरु आपे सेवकु आपि बनावै भाती ॥ नानकु जनु तुमरी सरणाई हरि राखहु लाज भगाती ॥४॥५॥
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना मैं रक्ती भर समय के लिए भी नहीं रह सकता। जैसे (अफीम आदि) नशे के बिना अमली (नशे का आदी) मनुष्य तड़प उठता है, वैसे ही परमात्मा के नाम के बिना मैं घबरा जाता हूँ। रहाउ।हे हरी! हे स्वामी! मैं पपीहा तेरे नाम की बूँद के लिए तड़प रहा हूँ। (मेहर कर), तेरा नाम मेरे वास्ते (स्वाति) बूँद बन जाए। हे हरी! हे प्रभू !अपनी मेहर कर, आँख झपकने जितने समय के लिए ही मेरे मुँह में (अपने नाम की स्वाति) बूँद डाल दे।1।हे प्रभू! तू (गुणों का) बड़ा ही गहरा समुंद्र है, हम तेरी गहराई का अंत रक्ती भर भी नहीं पा सकते। तू परे से परे है, तू बेअंत है। हे स्वामी! तू कैसा है और कितना बड़ा है– ये भेद तू खुद ही जानता है।2।हे भाई! परमात्मा के जिन संत जनों ने परमात्मा का नाम जपा, वे गुरू के (बख्शे हुए) गाढ़े प्रेम-रंग में रंगे गए, उनके अंदर परमात्मा की भक्ति का रंग बन गया, उनको (लोक-परलोक में) बड़ी शोभा मिली। जिन्होंने प्रभू का नाम जपा, उन्हें श्रेष्ठ सम्मान प्राप्त हुआ।3।पर, हे भाई! भक्ति करने की विधि प्रभू खुद ही बनाता है (खुद ही सबब बनाता है), वह खुद ही मालिक है खुद ही सेवक है। हे प्रभू! तेरा दास नानक तेरी शरण आया है। तू खुद ही अपने भक्तों की इज्जत रखता है।4।5।
ਅੰਗ : 668
ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੪ ॥ ਹਰਿ ਹਰਿ ਬੂੰਦ ਭਏ ਹਰਿ ਸੁਆਮੀ ਹਮ ਚਾਤ੍ਰਿਕ ਬਿਲਲ ਬਿਲਲਾਤੀ ॥ ਹਰਿ ਹਰਿ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰਹੁ ਪ੍ਰਭ ਅਪਨੀ ਮੁਖਿ ਦੇਵਹੁ ਹਰਿ ਨਿਮਖਾਤੀ ॥੧॥ ਹਰਿ ਬਿਨੁ ਰਹਿ ਨ ਸਕਉ ਇਕ ਰਾਤੀ ॥ ਜਿਉ ਬਿਨੁ ਅਮਲੈ ਅਮਲੀ ਮਰਿ ਜਾਈ ਹੈ ਤਿਉ ਹਰਿ ਬਿਨੁ ਹਮ ਮਰਿ ਜਾਤੀ ॥ ਰਹਾਉ ॥ ਤੁਮ ਹਰਿ ਸਰਵਰ ਅਤਿ ਅਗਾਹ ਹਮ ਲਹਿ ਨ ਸਕਹਿ ਅੰਤੁ ਮਾਤੀ ॥ ਤੂ ਪਰੈ ਪਰੈ ਅਪਰੰਪਰੁ ਸੁਆਮੀ ਮਿਤਿ ਜਾਨਹੁ ਆਪਨ ਗਾਤੀ ॥੨॥ ਹਰਿ ਕੇ ਸੰਤ ਜਨਾ ਹਰਿ ਜਪਿਓ ਗੁਰ ਰੰਗਿ ਚਲੂਲੈ ਰਾਤੀ ॥ ਹਰਿ ਹਰਿ ਭਗਤਿ ਬਨੀ ਅਤਿ ਸੋਭਾ ਹਰਿ ਜਪਿਓ ਊਤਮ ਪਾਤੀ ॥੩॥ ਆਪੇ ਠਾਕੁਰੁ ਆਪੇ ਸੇਵਕੁ ਆਪਿ ਬਨਾਵੈ ਭਾਤੀ ॥ ਨਾਨਕੁ ਜਨੁ ਤੁਮਰੀ ਸਰਣਾਈ ਹਰਿ ਰਾਖਹੁ ਲਾਜ ਭਗਾਤੀ ॥੪॥੫॥
ਅਰਥ: ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਨਾਮ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਮੈਂ ਰਤਾ ਭਰ ਸਮੇ ਲਈ ਭੀ ਰਹਿ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ। ਜਿਵੇਂ (ਅਫ਼ੀਮ ਆਦਿਕ) ਨਸ਼ੇ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਅਮਲੀ (ਨਸ਼ੇ ਦਾ ਆਦੀ) ਮਨੁੱਖ ਤੜਫ਼ ਉੱਠਦਾ ਹੈ, ਤਿਵੇਂ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਨਾਮ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਮੈਂ ਘਬਰਾ ਜਾਂਦਾ ਹਾਂ।ਰਹਾਉ।ਹੇ ਹਰੀ! ਹੇ ਸੁਆਮੀ! ਮੈਂ ਪਪੀਹਾ ਤੇਰੇ ਨਾਮ-ਬੂੰਦ ਵਾਸਤੇ ਤੜਫ਼ ਰਿਹਾ ਹਾਂ। (ਮੇਹਰ ਕਰ) , ਤੇਰਾ ਨਾਮ ਮੇਰੇ ਵਾਸਤੇ (ਸ੍ਵਾਂਤੀ-) ਬੂੰਦ ਬਣ ਜਾਏ। ਹੇ ਹਰੀ! ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਆਪਣੀ ਮੇਹਰ ਕਰ, ਅੱਖ ਦੇ ਝਮਕਣ ਜਿਤਨੇ ਸਮੇ ਵਾਸਤੇ ਹੀ ਮੇਰੇ ਮੂੰਹ ਵਿਚ (ਆਪਣੀ ਨਾਮ ਦੀ ਸ੍ਵਾਂਤੀ) ਬੂੰਦ ਪਾ ਦੇ।੧।ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਤੂੰ (ਗੁਣਾਂ ਦਾ) ਬੜਾ ਹੀ ਡੂੰਘਾ ਸਮੁੰਦਰ ਹੈਂ, ਅਸੀ ਤੇਰੀ ਡੂੰਘਾਈ ਦਾ ਅੰਤ ਰਤਾ ਭਰ ਭੀ ਨਹੀਂ ਲੱਭ ਸਕਦੇ। ਤੂੰ ਪਰੇ ਤੋਂ ਪਰੇ ਹੈਂ, ਤੂੰ ਬੇਅੰਤ ਹੈਂ। ਹੇ ਸੁਆਮੀ! ਤੂੰ ਕਿਹੋ ਜਿਹਾ ਹੈਂ ਤੇ ਕਿਤਨਾ ਵੱਡਾ ਹੈਂ-ਇਹ ਭੇਤ ਤੂੰ ਆਪ ਹੀ ਜਾਣਦਾ ਹੈਂ।੨।ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਸੰਤ ਜਨਾਂ ਨੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ ਜਪਿਆ, ਉਹ ਗੁਰੂ ਦੇ (ਬਖ਼ਸ਼ੇ ਹੋਏ) ਗੂੜ੍ਹੇ ਪ੍ਰੇਮ-ਰੰਗ ਵਿਚ ਰੰਗੇ ਗਏ, ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਅੰਦਰ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਭਗਤੀ ਦਾ ਰੰਗ ਬਣ ਗਿਆ, ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ (ਲੋਕ ਪਰਲੋਕ ਵਿਚ) ਬੜੀ ਸੋਭਾ ਮਿਲੀ। ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਨਾਮ ਜਪਿਆ, ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਉੱਤਮ ਇੱਜ਼ਤ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਈ।੩।ਪਰ, ਹੇ ਭਾਈ! ਭਗਤੀ ਕਰਨ ਦੀ ਵਿਓਂਤ ਪ੍ਰਭੂ ਆਪ ਹੀ ਬਣਾਂਦਾ ਹੈ (ਢੋ ਆਪ ਹੀ ਢੁਕਾਂਦਾ ਹੈ) , ਉਹ ਆਪ ਹੀ ਮਾਲਕ ਹੈ ਆਪ ਹੀ ਸੇਵਕ ਹੈ। ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਤੇਰਾ ਦਾਸ ਨਾਨਕ ਤੇਰੀ ਸਰਨ ਆਇਆ ਹੈ। ਤੂੰ ਆਪ ਹੀ ਆਪਣੇ ਭਗਤਾਂ ਦੀ ਇੱਜ਼ਤ ਰੱਖਦਾ ਹੈਂ।੪।੫।
जैतसरी महला ४ घरु १ चउपदे ੴसतिगुर प्रसादि ॥ मेरै हीअरै रतनु नामु हरि बसिआ गुरि हाथु धरिओ मेरै माथा ॥ जनम जनम के किलबिख दुख उतरे गुरि नामु दीओ रिनु लाथा ॥१॥ मेरे मन भजु राम नामु सभि अरथा ॥ गुरि पूरै हरि नामु दि्रड़ाइआ बिनु नावै जीवनु बिरथा ॥ रहाउ ॥ बिनु गुर मूड़ भए है मनमुख ते मोह माइआ नित फाथा ॥ तिन साधू चरण न सेवे कबहू तिन सभु जनमु अकाथा ॥२॥ जिन साधू चरण साध पग सेवे तिन सफलिओ जनमु सनाथा ॥ मो कउ कीजै दासु दास दासन को हरि दइआ धारि जगंनाथा ॥३॥ हम अंधुले गिआनहीन अगिआनी किउ चालह मारगि पंथा ॥ हम अंधुले कउ गुर अंचलु दीजै जन नानक चलह मिलंथा ॥४॥१॥
अर्थ: राग जैतसरी, घर १ में गुरु रामदास जी की चार-बन्दों वाली बाणी। अकाल पुरख एक है और सतिगुरु की कृपा द्वारा मिलता है। (हे भाई! जब) गुरु ने मेरे सिर ऊपर अपना हाथ रखा, तो मेरे हृदय में परमात्मा का रत्न (जैसा कीमती) नाम आ वसा। (हे भाई! जिस भी मनुष्य को) गुरु ने परमात्मा का नाम दिया, उस के अनकों जन्मों के पाप दुःख दूर हो गए, (उस के सिर से पापों का कर्ज) उतर गया ॥१॥ हे मेरे मन! (सदा) परमात्मा का नाम सिमरिया कर, (परमात्मा) सारे पदार्थ (देने वाला है)। (हे मन! गुरु की सरन में ही रह) पूरे गुरु ने (ही) परमात्मा का नाम (ह्रदय में) पक्का किया है। और, नाम के बिना मनुष्य जीवन व्यर्थ चला जाता है ॥ रहाउ ॥ हे भाई! जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलते है वह गुरु (की सरन) के बिना मुर्ख हुए रहते हैं, वह सदा माया के मोह में फसे रहते है। उन्होंने कभी भी गुरु का सहारा नहीं लिया, उनका सारा जीवन व्यर्थ चला जाता है ॥२॥ हे भाई! जो मनुष्य गुरू के चरनो का आसरा लेते हैं, वह गुरू वालेे बन जाते हैं, उनकी जिदंगी सफल हो जाती है। हे हरी! हे जगत के नाथ! मेरे पर मेहर कर, मुझे अपने दासों के दासों का दास बना ले ॥३॥ हे गुरू! हम माया मे अँधे हो रहे हैं, हम आतमिक जीवन की सूझ से अनजान हैं, हमे सही जीवन की सूझ नही है, हम आपके बताए हुए जीवन-राह पर चल नही सकते। दास नानक जी!(कहो-) हे गुरू! हम अँधियों के अपना पला दीजिए जिस से हम आपके बताए हुए रास्ते पर चल सकें ॥४॥१॥
ਅੰਗ : 696
ਜੈਤਸਰੀ ਮਹਲਾ ੪ ਘਰੁ ੧ ਚਉਪਦੇ ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ਮੇਰੈ ਹੀਅਰੈ ਰਤਨੁ ਨਾਮੁ ਹਰਿ ਬਸਿਆ ਗੁਰਿ ਹਾਥੁ ਧਰਿਓ ਮੇਰੈ ਮਾਥਾ ॥ ਜਨਮ ਜਨਮ ਕੇ ਕਿਲਬਿਖ ਦੁਖ ਉਤਰੇ ਗੁਰਿ ਨਾਮੁ ਦੀਓ ਰਿਨੁ ਲਾਥਾ ॥੧॥ ਮੇਰੇ ਮਨ ਭਜੁ ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਸਭਿ ਅਰਥਾ ॥ ਗੁਰਿ ਪੂਰੈ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਦ੍ਰਿੜਾਇਆ ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਜੀਵਨੁ ਬਿਰਥਾ ॥ ਰਹਾਉ ॥ ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਮੂੜ ਭਏ ਹੈ ਮਨਮੁਖ ਤੇ ਮੋਹ ਮਾਇਆ ਨਿਤ ਫਾਥਾ ॥ ਤਿਨ ਸਾਧੂ ਚਰਣ ਨ ਸੇਵੇ ਕਬਹੂ ਤਿਨ ਸਭੁ ਜਨਮੁ ਅਕਾਥਾ ॥੨॥ ਜਿਨ ਸਾਧੂ ਚਰਣ ਸਾਧ ਪਗ ਸੇਵੇ ਤਿਨ ਸਫਲਿਓ ਜਨਮੁ ਸਨਾਥਾ ॥ ਮੋ ਕਉ ਕੀਜੈ ਦਾਸੁ ਦਾਸ ਦਾਸਨ ਕੋ ਹਰਿ ਦਇਆ ਧਾਰਿ ਜਗੰਨਾਥਾ ॥੩॥ ਹਮ ਅੰਧੁਲੇ ਗਿਆਨਹੀਨ ਅਗਿਆਨੀ ਕਿਉ ਚਾਲਹ ਮਾਰਗਿ ਪੰਥਾ ॥ ਹਮ ਅੰਧੁਲੇ ਕਉ ਗੁਰ ਅੰਚਲੁ ਦੀਜੈ ਜਨ ਨਾਨਕ ਚਲਹ ਮਿਲੰਥਾ ॥੪॥੧॥
ਅਰਥ: ਰਾਗ ਜੈਤਸਰੀ, ਘਰ ੧ ਵਿੱਚ ਗੁਰੂ ਰਾਮਦਾਸ ਜੀ ਦੀ ਚਾਰ-ਬੰਦਾਂ ਵਾਲੀ ਬਾਣੀ। ਅਕਾਲ ਪੁਰਖ ਇੱਕ ਹੈ ਅਤੇ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦੀ ਕਿਰਪਾ ਨਾਲ ਮਿਲਦਾ ਹੈ। (ਹੇ ਭਾਈ! ਜਦੋਂ) ਗੁਰੂ ਨੇ ਮੇਰੇ ਸਿਰ ਉੱਤੇ ਆਪਣਾ ਹੱਥ ਰੱਖਿਆ, ਤਾਂ ਮੇਰੇ ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਰਤਨ (ਵਰਗਾ ਕੀਮਤੀ) ਨਾਮ ਆ ਵੱਸਿਆ। (ਹੇ ਭਾਈ! ਜਿਸ ਭੀ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ) ਗੁਰੂ ਨੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ ਦਿੱਤਾ, ਉਸ ਦੇ ਅਨੇਕਾਂ ਜਨਮਾਂ ਦੇ ਪਾਪ ਦੁੱਖ ਦੂਰ ਹੋ ਗਏ, (ਉਸ ਦੇ ਸਿਰੋਂ ਪਾਪਾਂ ਦਾ) ਕਰਜ਼ਾ ਉਤਰ ਗਿਆ ॥੧॥ ਹੇ ਮੇਰੇ ਮਨ! (ਸਦਾ) ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ ਸਿਮਰਿਆ ਕਰ, (ਪਰਮਾਤਮਾ) ਸਾਰੇ ਪਦਾਰਥ (ਦੇਣ ਵਾਲਾ ਹੈ)। (ਹੇ ਮਨ! ਗੁਰੂ ਦੀ ਸਰਨ ਪਿਆ ਰਹੁ) ਪੂਰੇ ਗੁਰੂ ਨੇ (ਹੀ) ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ (ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ) ਪੱਕਾ ਕੀਤਾ ਹੈ। ਤੇ, ਨਾਮ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਮਨੁੱਖਾ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿਅਰਥ ਚਲੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ॥ ਰਹਾਉ ॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਜੇਹੜੇ ਮਨੁੱਖ ਆਪਣੇ ਮਨ ਦੇ ਪਿੱਛੇ ਤੁਰਦੇ ਹਨ ਉਹ ਗੁਰੂ (ਦੀ ਸਰਨ) ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਮੂਰਖ ਹੋਏ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ, ਉਹ ਸਦਾ ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਵਿਚ ਫਸੇ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ। ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਕਦੇ ਭੀ ਗੁਰੂ ਦਾ ਆਸਰਾ ਨਹੀਂ ਲਿਆ, ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਸਾਰਾ ਜੀਵਨ ਵਿਅਰਥ ਚਲਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ॥੨॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਜੇਹੜੇ ਮਨੁੱਖ ਗੁਰੂ ਦੇ ਚਰਨਾਂ ਦੀ ਓਟ ਲੈਂਦੇ ਹਨ, ਉਹ ਖਸਮ ਵਾਲੇ ਬਣ ਜਾਂਦੇ ਹਨ, ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਕਾਮਯਾਬ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ। ਹੇ ਹਰੀ! ਹੇ ਜਗਤ ਦੇ ਨਾਥ! ਮੇਰੇ ਉੱਤੇ ਮੇਹਰ ਕਰ, ਮੈਨੂੰ ਆਪਣੇ ਦਾਸਾਂ ਦੇ ਦਾਸਾਂ ਦਾ ਦਾਸ ਬਣਾ ਲੈ ॥੩॥ ਹੇ ਗੁਰੂ! ਅਸੀ ਮਾਇਆ ਵਿਚ ਅੰਨ੍ਹੇ ਹੋ ਰਹੇ ਹਾਂ, ਅਸੀਂ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਦੀ ਸੂਝ ਤੋਂ ਸੱਖਣੇ ਹਾਂ, ਸਾਨੂੰ ਸਹੀ ਜੀਵਨ-ਜੁਗਤਿ ਦੀ ਸੂਝ ਨਹੀਂ ਹੈ, ਅਸੀ ਤੇਰੇ ਦੱਸੇ ਹੋਏ ਜੀਵਨ-ਰਾਹ ਉੱਤੇ ਤੁਰ ਨਹੀਂ ਸਕਦੇ। ਦਾਸ ਨਾਨਕ ਜੀ! (ਆਖੋ—) ਹੇ ਗੁਰੂ! ਸਾਨੂੰ ਅੰਨ੍ਹਿਆਂ ਨੂੰ ਆਪਣਾ ਪੱਲਾ ਫੜਾ, ਤਾਂ ਕਿ ਤੇਰੇ ਪੱਲੇ ਲੱਗ ਕੇ ਅਸੀ ਤੇਰੇ ਦੱਸੇ ਹੋਏ ਰਸਤੇ ਉਤੇ ਤੁਰ ਸਕੀਏ ॥੪॥੧॥
धनासरी महला ५ ॥ नामु गुरि दीओ है अपुनै जा कै मसतकि करमा ॥ नामु द्रिड़ावै नामु जपावै ता का जुग महि धरमा ॥१॥ जन कउ नामु वडाई सोभ ॥ नामो गति नामो पति जन की मानै जो जो होग ॥१॥ रहाउ ॥ नाम धनु जिसु जन कै पालै सोई पूरा साहा ॥ नामु बिउहारा नानक आधारा नामु परापति लाहा ॥२॥६॥३७॥
हे भाई ! जिस मनुख के मस्तक पर भाग्य (उदय हो) उस को प्यारे गुरु ने परमात्मा का नाम दे दिया। उस मनुख का (फिर) सदा का काम ही जगत में यह बन जाता है कि वह औरों को हरि नाम दृढ़ करता है जपता है (नाम जपने के लिए प्रेरणा करता है।।१।। हे भाई! परमात्मा के सेवक के लिए परमात्मा का नाम (ही) बढ़ाई है नाम ही शोभा है। हरि-नाम ही उस कि आत्मिक अवस्था अहि, नाम ही उस की इज्ज़त है। जो कुछ परमात्मा की रजा में होता है, सेवक उस को (सर माथे पर) मानता है।।१।।रहाउ।। परमात्मा का नाम-धन जिस मनुख के पास है, वोही पूरा साहूकार है। हे नानक! वह मनुख हरि-नाम सुमिरन को ही अपना असली विहार समझता है, नाम का ही उस को सहारा रहता है, नाम की ही वह कमाई खाता है।
ਅੰਗ : 680
ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥ ਨਾਮੁ ਗੁਰਿ ਦੀਓ ਹੈ ਅਪੁਨੈ ਜਾ ਕੈ ਮਸਤਕਿ ਕਰਮਾ ॥ ਨਾਮੁ ਦ੍ਰਿੜਾਵੈ ਨਾਮੁ ਜਪਾਵੈ ਤਾ ਕਾ ਜੁਗ ਮਹਿ ਧਰਮਾ ॥੧॥ ਜਨ ਕਉ ਨਾਮੁ ਵਡਾਈ ਸੋਭ ॥ ਨਾਮੋ ਗਤਿ ਨਾਮੋ ਪਤਿ ਜਨ ਕੀ ਮਾਨੈ ਜੋ ਜੋ ਹੋਗ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ ਨਾਮ ਧਨੁ ਜਿਸੁ ਜਨ ਕੈ ਪਾਲੈ ਸੋਈ ਪੂਰਾ ਸਾਹਾ ॥ ਨਾਮੁ ਬਿਉਹਾਰਾ ਨਾਨਕ ਆਧਾਰਾ ਨਾਮੁ ਪਰਾਪਤਿ ਲਾਹਾ ॥੨॥੬॥੩੭॥
ਅਰਥ: ਹੇ ਭਾਈ ! ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਦੇ ਮੱਥੇ ਉਤੇ ਭਾਗ (ਜਾਗ ਪਏ) ਉਸ ਨੂੰ ਪਿਆਰੇ ਗੁਰੂ ਨੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ ਦੇ ਦਿੱਤਾ। ਉਸ ਮਨੁੱਖ ਦਾ (ਫਿਰ) ਸਦਾ ਦਾ ਕੰਮ ਹੀ ਜਗਤ ਵਿਚ ਇਹ ਬਣ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਕਿ ਉਹ ਹੋਰਨਾਂ ਨੂੰ ਹਰਿ-ਨਾਮ ਦ੍ਰਿੜ੍ਹ ਕਰਾਂਦਾ ਹੈ ਜਪਾਂਦਾ ਹੈ (ਜਪਣ ਲਈ ਪ੍ਰੇਰਨਾ ਕਰਦਾ ਹੈ) ॥੧॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਸੇਵਕ ਦੇ ਵਾਸਤੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ (ਹੀ) ਵਡਿਆਈ ਹੈ ਨਾਮ ਹੀ ਸੋਭਾ ਹੈ। ਹਰਿ-ਨਾਮ ਹੀ ਉਸ ਦੀ ਉੱਚੀ ਆਤਮਕ ਅਵਸਥਾ ਹੈ, ਨਾਮ ਹੀ ਉਸ ਦੀ ਇੱਜ਼ਤ ਹੈ। ਜੋ ਕੁਝ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਵਿਚ ਹੁੰਦਾ ਹੈ, ਸੇਵਕ ਉਸ ਨੂੰ (ਸਿਰ-ਮੱਥੇ ਤੇ) ਮੰਨਦਾ ਹੈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ॥ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ-ਧਨ ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਦੇ ਪਾਸ ਹੈ, ਉਹੀ ਪੂਰਾ ਸਾਹੂਕਾਰ ਹੈ। ਹੇ ਨਾਨਕ! ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਹਰਿ-ਨਾਮ ਸਿਮਰਨ ਨੂੰ ਹੀ ਆਪਣਾ ਅਸਲੀ ਵਿਹਾਰ ਸਮਝਦਾ ਹੈ, ਨਾਮ ਦਾ ਹੀ ਉਸ ਨੂੰ ਆਸਰਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ, ਨਾਮ ਦੀ ਹੀ ਉਹ ਖੱਟੀ ਖੱਟਦਾ ਹੈ ॥੨॥੬॥੩੭॥
6 ਦਸੰਬਰ ਦਾ ਇਤਿਹਾਸ
ਅੱਜ ਧੰਨ ਧੰਨ ਸ਼੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਤੇਗ ਬਹਾਦਰ ਸਾਹਿਬ ਜੀ
ਦਾ ਸ਼ਹੀਦੀ ਦਿਹਾੜਾ ਹੈ ਜੀ ਜਿਹਨਾਂ ਨੂੰ 1675 ਨੂੰ
ਦਿੱਲੀ ਦੇ ਚਾਂਦਨੀ ਚੋਂਕ ਵਿਖੇ ਸ਼ਹੀਦ
ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ ਸੀ
रागु सोरठि बाणी भगत कबीर जी की घरु १ जब जरीऐ तब होइ भसम तनु रहै किरम दल खाई ॥ काची गागरि नीरु परतु है इआ तन की इहै बडाई ॥१॥ काहे भईआ फिरतौ फूलिआ फूलिआ ॥ जब दस मास उरध मुख रहता सो दिनु कैसे भूलिआ ॥१॥ रहाउ ॥ जिउ मधु माखी तिउ सठोरि रसु जोरि जोरि धनु कीआ ॥ मरती बार लेहु लेहु करीऐ भूतु रहन किउ दीआ ॥२॥ देहुरी लउ बरी नारि संगि भई आगै सजन सुहेला ॥ मरघट लउ सभु लोगु कुट्मबु भइओ आगै हंसु अकेला ॥३॥ कहतु कबीर सुनहु रे प्रानी परे काल ग्रस कूआ ॥ झूठी माइआ आपु बंधाइआ जिउ नलनी भ्रमि सूआ ॥४॥२॥
अर्थ: राग सोरठि, घर १ में भगत कबीर जी की बाणी। (मरने के बाद) अगर शरीर (चित्ता में) जलाया जाए तो वह राख हो जाता है, अगर (कबर में) टिका रहे तो चींटियों का दल इस को खा जाता है। (जैसे) कच्चे घड़े में पानी पड़ता है (और घड़ा गल कर पानी बाहर निकल जाता है उसी प्रकार स्वास ख़त्म हो जाने पर शरीर में से भी जिंद बाहर निकल जाती है, सो,) इस शरीर का इतना सा ही मान है (जितना कच्चे घड़े का) ॥१॥ हे भाई! तूँ किस बात के अहंकार में भरा फिरता हैं ? तुझे वह समय क्यों भूल गया है जब तूँ (माँ के पेट में) दस महीने उल्टा टिका रहा था ॥१॥ रहाउ ॥ जैसे मक्खी (फूलों का) रस जोड़ जोड़ कर शहद इकट्ठा करती है, उसी प्रकार मूर्ख व्यक्ति उत्तसुक्ता कर कर के धन जोड़ता है (परन्तु आखिर वह बेगाना ही हो गया)। मौत आई, तो सब यही कहते हैं – ले चलो, ले चलो, अब यह बीत चूका है, बहुता समय घर रखने से कोई लाभ नहीं ॥२॥ घर की (बाहरी) दहलीज़ तक पत्नी (उस मुर्दे के) साथ जाती है, आगे सज्जन मित्र चुक लेते हैं, श्मशान तक परिवार के बन्दे और अन्य लोग जाते हैं, परन्तु परलोक में तो जीव-आत्मा अकेली ही जाती है ॥३॥ कबीर जी कहते हैं – हे बन्दे! सुन, तूँ उस खूह में गिरा पड़ा हैं जिस को मौत ने घेरा हुआ है (भावार्थ, मौत अवश्य आती है)। परन्तु, तूँ अपने आप को इस माया से बाँध रखा है जिस से साथ नहीं निभना, जैसे तोता मौत के डर से अपने आप को नलनी से चंबोड रखता है (टिप्पणी: नलनी साथ चिंबड़ना तोते की फांसी का कारण बनता, माया के साथ चिंबड़े रहना मनुष्य की आत्मिक मौत का कारण बनता है) ॥४॥२॥