सलोक मः २ ॥ नानक अंधा होइ कै रतना परखण जाइ ॥ रतना सार न जाणई आवै आपु लखाइ ॥१॥ मः २ ॥ रतना केरी गुथली रतनी खोली आइ ॥ वखर तै वणजारिआ दुहा रही समाइ ॥ जिन गुणु पलै नानका माणक वणजहि सेइ ॥ रतना सार न जाणनी अंधे वतहि लोइ ॥२॥ पउड़ी ॥ नउ दरवाजे काइआ कोटु है दसवै गुपतु रखीजै ॥ बजर कपाट न खुलनी गुर सबदि खुलीजै ॥ अनहद वाजे धुनि वजदे गुर सबदि सुणीजै ॥ तितु घट अंतरि चानणा करि भगति मिलीजै ॥ सभ महि एकु वरतदा जिनि आपे रचन रचाई ॥१५॥ सलोक मः २ ॥ अंधे कै राहि दसिऐ अंधा होइ सु जाइ ॥ होइ सुजाखा नानका सो किउ उझड़ि पाइ ॥ अंधे एहि न आखीअनि जिन मुखि लोइण नाहि ॥ अंधे सेई नानका खसमहु घुथे जाहि ॥१॥ मः २ ॥ साहिबि अंधा जो कीआ करे सुजाखा होइ ॥ जेहा जाणै तेहो वरतै जे सउ आखै कोइ ॥ जिथै सु वसतु न जापई आपे वरतउ जाणि ॥ नानक गाहकु किउ लए सकै न वसतु पछाणि ॥२॥ मः २ ॥ सो किउ अंधा आखीऐ जि हुकमहु अंधा होइ ॥ नानक हुकमु न बुझई अंधा कहीऐ सोइ ॥३॥ पउड़ी ॥ काइआ अंदरि गड़ु कोटु है सभि दिसंतर देसा ॥ आपे ताड़ी लाईअनु सभ महि परवेसा ॥ आपे स्रिसटि साजीअनु आपि गुपतु रखेसा ॥ गुर सेवा ते जाणिआ सचु परगटीएसा ॥ सभु किछु सचो सचु है गुरि सोझी पाई ॥१६॥
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य खुद अंधा हो और चल पड़े रत्न परखने, वह रत्नों की कद्र तो जानता नहीं, पर अपने आप को उजागर करा आता है (भाव, अपना अंधापन जाहिर कर आता है)।1। प्रभु के गुण रूपी थैली सतिगुरु ने आ के खोली है, से गुत्थी बेचने वाले सतिगुरु और लेने वाले गुरमुख दोनों के हृदय में टिक रही है (भाव, दोनों को ये गुण प्यारे लग रहे हैं)। हे नानक! जिनके पास (भाव, हृदय में) प्रभु की महिमा के गुण मौजूद हैं वही मनुष्य ही नाम-रत्न का लेन-देन (व्यापार) करते हैं; पर जो इन रत्नों की कद्र नहीं जानते वे अंधों की तरह जगत में फिरते हैं।2। शरीर (मानो एक) किला है, इसकी नौ इन्द्रियों के रूप में गुप्त दरवाजे (प्रकट) हैं, और दसवाँ द्वार गुप्त रखा हुआ है; (उस दसवें दरवाजे के) किवाड़ बड़े कठोर हैं खुलते नहीं, खुलते (केवल) सतिगुरु के शब्द से ही हैं, (जब ये कठोर किवाड़ खुल जाते हैं तो, मानो,) एक-रस वाले बाजे बज पड़ते हैं जो सतिगुरु के शब्द के द्वारा सुने जाते हैं। (जिस हृदय में ये आनंद पैदा होता है) उस हृदय में (ज्ञान का) प्रकाश हो जाता है, प्रभु की भक्ति करके वह मनुष्य प्रभु में मिल जाता है। जिस प्रभु ने यह सारी रचना रची है वह सारे जीवों में व्यापक है (पर उस से मेल गुरु के द्वारा ही होता है)।15। अगर कोई अंधा मनुष्य (किसी और को) राह बताए तो (उस राह पर) वही चलता है जो खुद अंधा हो; हे नानक! आँख वाला मनुष्य (अंधे के कहने पर) गलत राह पर नहीं पड़ता। (पर आत्मिक जीवन में) ऐसे लोगों को अंधे नहीं कहा जाता जिनके मुँह पर आँखें नहीं हैं, हे नानक! अंधे वही हैं जो मालिक प्रभु से टूटे हुए हैं।1। जिस मनुष्य को मालिक-प्रभु ने स्वयं अंधा कर दिया है वह तब ही आँख वाला हो सकता है यदि प्रभु स्वयं (आँख वाला) बनाए, (नहीं तो, अंधा मनुष्य तो) जिस तरह की समझ रखता है उसी तरह किए जाता है चाहे उसको कोई सौ बार समझाए। जिस मनुष्य के अंदर ‘नाम’-रूप पदार्थ की समझ नहीं वहाँ अहंकार वाला व्यवहार ही समझो, (क्योंकि) हे नानक! गाहक जिस सौदे को पहचान ही नहीं सकता उसका वह वणज ही कैसे करे?।2। जो मनुष्य प्रभु की रजा में नेत्र-हीन हो गया उसको हम अंधा नहीं कहते, हे नानक! वह मनुष्य अंधा कहा जाता है जो रजा को समझता नहीं।3। (मनुष्य का) शरीर के अंदर (मनुष्य का हृदय-रूप) जिस प्रभु का किला है गढ़ है वह प्रभु सारे देश-देशांतरों में मौजूद है, सारे जीवों के अंदर परवेश करके उसने खुद ही (जीवों के अंदर) समाधि (ताड़ी) लगाई हुई है (वह खुद ही जीवों के अंदर टिका हुआ है)। प्रभु ने खुद ही सृष्टि रची है और खुद ही (उस सृष्टि में उसने अपने आप को) छुपाया हुआ है। उस प्रभु की सूझ सतिगुरु के हुक्म में चलने से आती है (तब ही) सच्चा प्रभु प्रकट होता है। है तो हर जगह सच्चा प्रभु खुद ही खुद, पर ये समझ सतिगुरु के द्वारा ही आती है।16।
ਅੰਗ : 954
ਸਲੋਕ ਮਃ ੨ ॥ ਅੰਧੇ ਕੈ ਰਾਹਿ ਦਸਿਐ ਅੰਧਾ ਹੋਇ ਸੁ ਜਾਇ ॥ ਹੋਇ ਸੁਜਾਖਾ ਨਾਨਕਾ ਸੋ ਕਿਉ ਉਝੜਿ ਪਾਇ ॥ ਅੰਧੇ ਏਹਿ ਨ ਆਖੀਅਨਿ ਜਿਨ ਮੁਖਿ ਲੋਇਣ ਨਾਹਿ ॥ ਅੰਧੇ ਸੇਈ ਨਾਨਕਾ ਖਸਮਹੁ ਘੁਥੇ ਜਾਹਿ ॥੧॥ ਮਃ ੨ ॥ ਸਾਹਿਬਿ ਅੰਧਾ ਜੋ ਕੀਆ ਕਰੇ ਸੁਜਾਖਾ ਹੋਇ ॥ ਜੇਹਾ ਜਾਣੈ ਤੇਹੋ ਵਰਤੈ ਜੇ ਸਉ ਆਖੈ ਕੋਇ ॥ ਜਿਥੈ ਸੁ ਵਸਤੁ ਨ ਜਾਪਈ ਆਪੇ ਵਰਤਉ ਜਾਣਿ ॥ ਨਾਨਕ ਗਾਹਕੁ ਕਿਉ ਲਏ ਸਕੈ ਨ ਵਸਤੁ ਪਛਾਣਿ ॥੨॥ ਮਃ ੨ ॥ ਸੋ ਕਿਉ ਅੰਧਾ ਆਖੀਐ ਜਿ ਹੁਕਮਹੁ ਅੰਧਾ ਹੋਇ ॥ ਨਾਨਕ ਹੁਕਮੁ ਨ ਬੁਝਈ ਅੰਧਾ ਕਹੀਐ ਸੋਇ ॥੩॥ ਪਉੜੀ ॥ ਕਾਇਆ ਅੰਦਰਿ ਗੜੁ ਕੋਟੁ ਹੈ ਸਭਿ ਦਿਸੰਤਰ ਦੇਸਾ ॥ ਆਪੇ ਤਾੜੀ ਲਾਈਅਨੁ ਸਭ ਮਹਿ ਪਰਵੇਸਾ ॥ ਆਪੇ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਸਾਜੀਅਨੁ ਆਪਿ ਗੁਪਤੁ ਰਖੇਸਾ ॥ ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਤੇ ਜਾਣਿਆ ਸਚੁ ਪਰਗਟੀਏਸਾ ॥ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਸਚੋ ਸਚੁ ਹੈ ਗੁਰਿ ਸੋਝੀ ਪਾਈ ॥੧੬॥
ਅਰਥ: ਜੇ ਕੋਈ ਅੰਨ੍ਹਾ ਮਨੁੱਖ (ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਨੂੰ) ਰਾਹ ਦੱਸੇ ਤਾਂ (ਉਸ ਰਾਹ ਉਤੇ) ਉਹੀ ਤੁਰਦਾ ਹੈ ਜੋ ਆਪ ਅੰਨ੍ਹਾ ਹੋਵੇ; ਹੇ ਨਾਨਕ! ਸੁਜਾਖਾ ਮਨੁੱਖ (ਅੰਨ੍ਹੇ ਦੇ ਆਖੇ) ਕੁਰਾਹੇ ਨਹੀਂ ਪੈਂਦਾ । (ਪਰ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਵਿਚ) ਇਹੋ ਜਿਹੇ ਬੰਦਿਆਂ ਨੂੰ ਅੰਨ੍ਹੇ ਨਹੀਂ ਕਹੀਦਾ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਮੂੰਹ ਉਤੇ ਅੱਖਾਂ ਨਹੀਂ ਹਨ, ਹੇ ਨਾਨਕ! ਅੰਨ੍ਹੇ ਉਹੀ ਹਨ ਜੋ ਮਾਲਕ-ਪ੍ਰਭੂ ਤੋਂ ਖੁੰਝੇ ਜਾ ਰਹੇ ਹਨ ।੧।ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਮਾਲਕ-ਪ੍ਰਭੂ ਨੇ ਆਪ ਅੰਨ੍ਹਾ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਹੈ ਉਹ ਤਾਂ ਹੀ ਸੁਜਾਖਾ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹੈ ਜੇ ਪ੍ਰਭੂ ਆਪ (ਸੁਜਾਖਾ) ਬਣਾਏ, (ਨਹੀਂ ਤਾਂ, ਅੰਨ੍ਹਾ ਮਨੁੱਖ ਤਾਂ) ਜਿਹੋ ਜਿਹੀ ਸਮਝ ਰੱਖਦਾ ਹੈ ਉਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਕਰੀ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਭਾਵੇਂ ਉਸ ਨੂੰ ਕੋਈ ਸੌ ਵਾਰੀ ਸਮਝਾਏ । ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਦੇ ਅੰਦਰ ‘ਨਾਮ’-ਰੂਪ ਪਦਾਰਥ ਦੀ ਸੋਝੀ ਨਹੀਂ ਓਥੇ ਆਪਾ-ਭਾਵ ਦੀ ਵਰਤੋਂ ਹੋ ਰਹੀ ਸਮਝੋ, (ਕਿਉਂਕਿ) ਹੇ ਨਾਨਕ! ਗਾਹਕ ਜਿਸ ਸਉਦੇ ਨੂੰ ਪਛਾਣ ਹੀ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ ਉਸ ਨੂੰ ਉਹ ਵਿਹਾਵੇ ਕਿਵੇਂ? ।੨।ਜੋ ਮਨੁੱਖ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਵਿਚ ਨੇਤ੍ਰ-ਹੀਣ ਹੋ ਗਿਆ ਉਸ ਨੂੰ ਅਸੀਂ ਅੰਨ੍ਹਾ ਨਹੀਂ ਆਖਦੇ, ਹੇ ਨਾਨਕ! ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਅੰਨ੍ਹਾ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਜੋ ਰਜ਼ਾ ਨੂੰ ਸਮਝਦਾ ਨਹੀਂ ।੩।(ਮਨੁੱਖਾ-) ਸਰੀਰ ਦੇ ਅੰਦਰ (ਮਨੁੱਖ ਦਾ ਹਿਰਦਾ-ਰੂਪ) ਜਿਸ ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਕਿਲ੍ਹਾ ਹੈ ਗੜ੍ਹ ਹੈ ਉਹ ਪ੍ਰਭੂ ਸਾਰੇ ਦੇਸ ਦੇਸਾਂਤਰਾਂ ਵਿਚ ਮੌਜੂਦ ਹੈ, ਸਾਰੇ ਜੀਵਾਂ ਦੇ ਅੰਦਰ ਪਰਵੇਸ਼ ਕਰ ਕੇ ਉਸ ਨੇ ਆਪ ਹੀ (ਜੀਵਾਂ ਦੇ ਅੰਦਰ) ਤਾੜੀ ਲਾਈ ਹੋਈ ਹੈ (ਉਹ ਆਪ ਹੀ ਜੀਵਾਂ ਦੇ ਅੰਦਰ ਟਿਕਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ) । ਪ੍ਰਭੂ ਨੇ ਆਪ ਹੀ ਸ੍ਰਿਸ਼ਟੀ ਸਾਜੀ ਹੈ ਤੇ ਆਪ ਹੀ (ਉਸ ਸ੍ਰਿਸ਼ਟੀ ਵਿਚ ਉਸ ਨੇ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ) ਲੁਕਾਇਆ ਹੋਇਆ ਹੈ । ਉਸ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਸੂਝ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦੇ ਹੁਕਮ ਵਿਚ ਤੁਰਿਆਂ ਆਉਂਦੀ ਹੈ (ਤਾਂ ਹੀ) ਸੱਚਾ ਪ੍ਰਭੂ ਪਰਗਟ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ।ਹੈ ਤਾਂ ਹਰ ਥਾਂ ਸੱਚਾ ਪ੍ਰਭੂ ਆਪ ਹੀ ਆਪ, ਪਰ ਇਹ ਸਮਝ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦੀ ਰਾਹੀਂ ਹੀ ਪੈਂਦੀ ਹੈ ।੧੬।
वडहंसु महला १ ॥ जिनि जगु सिरजि समाइआ सो साहिबु कुदरति जाणोवा ॥ सचड़ा दूरि न भालीऐ घटि घटि सबदु पछाणोवा ॥ सचु सबदु पछाणहु दूरि न जाणहु जिनि एह रचना राची ॥ नामु धिआए ता सुखु पाए बिनु नावै पिड़ काची ॥ जिनि थापी बिधि जाणै सोई किआ को कहै वखाणो ॥ जिनि जगु थापि वताइआ जालुो सो साहिबु परवाणो ॥१॥ बाबा आइआ है उठि चलणा अध पंधै है संसारोवा ॥ सिरि सिरि सचड़ै लिखिआ दुखु सुखु पुरबि वीचारोवा ॥ दुखु सुखु दीआ जेहा कीआ सो निबहै जीअ नाले ॥ जेहे करम कराए करता दूजी कार न भाले ॥ आपि निरालमु धंधै बाधी करि हुकमु छडावणहारो ॥ अजु कलि करदिआ कालु बिआपै दूजै भाइ विकारो ॥२॥ जम मारग पंथु न सुझई उझड़ु अंध गुबारोवा ॥ ना जलु लेफ तुलाईआ ना भोजन परकारोवा ॥ भोजन भाउ न ठंढा पाणी ना कापड़ु सीगारो ॥ गलि संगलु सिरि मारे ऊभौ ना दीसै घर बारो ॥ इब के राहे जमनि नाही पछुताणे सिरि भारो ॥ बिनु साचे को बेली नाही साचा एहु बीचारो ॥३॥ बाबा रोवहि रवहि सु जाणीअहि मिलि रोवै गुण सारेवा ॥ रोवै माइआ मुठड़ी धंधड़ा रोवणहारेवा ॥ धंधा रोवै मैलु न धोवै सुपनंतरु संसारो ॥ जिउ बाजीगरु भरमै भूलै झूठि मुठी अहंकारो ॥ आपे मारगि पावणहारा आपे करम कमाए ॥ नामि रते गुरि पूरै राखे नानक सहजि सुभाए ॥४॥४॥
अर्थ: ( हे भाई!) जिस परमात्मा ने जगत पैदा करके इसको अपने आप में लीन करने की ताकत भी अपने पास रखी है उस मालिक को इस कुदरति में बसता समझ। (हे भाई!) सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा को (रची कुदरत से) दूर (किसी और जगह) तलाशने का यत्न नहीं करना चाहिए। हरेक शरीर में उसी का हुकम बरतता पहचान। (हे भाई!) जिस परमात्मा ने ये रचना रची है उसको इससे दूर (कहीं अलग) ना समझो, (हरेक शरीर में) उसका अटॅल हुकम बरतता पहचानो। जब मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरता है तब आत्मिक आनंद पाता है (और विकारों का जोर भी इस पर नहीं पड़ सकता, पर) प्रभू के नाम के बिना दुनिया विकारों से मुकाबला जीतने में असमर्थ हो जाती है। जिस परमात्मा ने रचना रची है वही इसकी रक्षा की विधि भी जानता है, कोई जीव (उसके उलट) कोई (और) उपदेश नहीं कर सकता। जिस प्रभू ने जगत पैदा करके (इसके ऊपर माया के मोह का) जाल बिछा रखा है वही जाना-माना मालिक है (और वही इस जाल में से जीवों को बचाने के समर्थ है)।1। हे भाई! जो भी जीव (जगत में जन्म ले के) आया है उसने जरूर (यहाँ से) चले जाना है (जीव आया है यहाँ प्रभू का नाम-धन का व्यापार करने। नाम के बिना) जगत जन्म-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है। सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा ने हरेक जीव के सिर पर उसके पूर्बले समय के किए कर्मों के विचार अनुसार दुख और सुख (भोगने) के लेख लिख दिए हैं। जैसा कर्म जीव ने किया वैसा ही सुख और दुख उसको परमात्मा ने दे दिया है। हरेक जीव के किए कर्मों का समूह उसके साथ ही निभता है। (पर जीवों के भी क्या वश?) ईश्वर स्वयं ही जैसे कर्म जीवों से करवाता है (वैसे ही कर्म जीव करते हैं) कोई भी जीव (प्रभू की मर्जी से बाहर जा के) कोई और कर्म नहीं कर सकता। परमात्मा खुद तो (कर्मों से) निर्लिप है, दुनिया (अपने-अपने किए कर्मों के मुताबिक माया के) आहर में बँधी हुई है। (माया के इन बँधनों से भी) परमात्मा खुद ही हुकम करके छुड़वाने के समर्थ है। (जीव माया के प्रभाव में नाम-सिमरन से आलस करता रहता है) आज सिमरन करते हैं, सवेरे करेंगे (यही टाल-मटोल) करते मौत आ दबोचती है। (प्रभू को बिसार के) और ही मोह में फंसा हुआ व्यर्थ के काम करता रहता है।2। (सारी उम्र माया की दौड़-भाग में रह के परमात्मा का नाम भुलाने के कारण आखिर मौत आने पर) जीव यम वाला रास्ता पकड़ता है (जो इसके लिए) उजाड़ ही उजाड़ है जहाँ इसे घोर अंधकार प्रतीत होता है, जीव को कुछ नहीं सूझता (कि इस बिपता में से कैसे निकलूँ)। (सारी उम्र दुनिया के पदार्थ एकत्र करता रहा, पर यम के राह पर पड़ के) ना पानी, ना लेफ, ना तुलाई, ना किसी किस्म का भोजन, ना ठंडा पानी, ना ही सुंदर कपड़ा (ये सारे पदार्थ मौत ने छीन लिए, दुनिया में ही धरे रह गए)। जमराज जीव के गले में (माया के मोह का) संगल डाल के इसके सिर पर खड़ा चोटें मारता है, (इन चोटों से बचने के लिए) इसको कोई आसरा नहीं दिखाई देता। (जब जम की चोटें पड़ रही होती हैं) उस वक्त बीजे हुए (सिमरन सेवा आदि के बीज) उग नहीं सकते। तब पछताता है, किए पापों का भार सिर पर पड़ा है (जो उतर नहीं सकता)। हे भाई! इस अॅटल सच्चाई को याद रखो कि सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के बिना और कोई साथी नहीं बनता।3। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरते हैं और वैरागवान होते हैं वह (लोक-परलोक में) आदर पाते हैं। जो भी जीव साध-संगति में मिल के प्रभू के गुण हृदय में बसाता है और वैरागवान होता है (वह आदर पाता है)। पर जिस जीव-स्त्री को माया के मोह ने लूट लिया है वही दुखी होती है। (मोह में फसे हुए जीव सारी उम्र) धंधा ही पिटते हें और दुखी होते हैं। जो जीव (सारी उम्र) माया का आहर करता ही दुखी रहता है, और कभी (अपने मन की) माया की मैल नहीं धोता, उसके वास्ते संसार (भाव, सारी ही उम्र) एक सपना ही बना रहा (भाव उसने यहाँ कमाया कुछ भी नहीं, जैसे मनुष्य सपने में दौड़-भाग तो करता है पर जाग आने पर उसके पल्ले कुछ भी नहीं रहता)। जैसे बाजीगर (तमाशा दिखाता है, देखने वाला दर्शक उसके तमाशे में खो जाता है, वैसे ही) झूठे मोह में ठॅगी हुई (खोई हुई) जीव स्त्री भटकन में पड़ कर गलत रास्ते पड़ी रहती है, (झूठी माया का) मान करती है। (पर, जीवों के भी कया वश?) परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) सही राह पर डालने वाला है, स्वयं ही (जीवों में व्याप के) कर्म कर रहा है। हे नानक! जो लोग परमात्मा के नाम-रंग में रंगे रहते हैं, उन्हें पूरे गुरू ने (माया के मोह से) बचा लिया है, वे आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं, वे प्रभू के प्रेम में जुड़े रहते हैं।4।4।
ਅੰਗ : 581
ਵਡਹੰਸੁ ਮਹਲਾ ੧ ॥ ਜਿਨਿ ਜਗੁ ਸਿਰਜਿ ਸਮਾਇਆ ਸੋ ਸਾਹਿਬੁ ਕੁਦਰਤਿ ਜਾਣੋਵਾ ॥ ਸਚੜਾ ਦੂਰਿ ਨ ਭਾਲੀਐ ਘਟਿ ਘਟਿ ਸਬਦੁ ਪਛਾਣੋਵਾ ॥ ਸਚੁ ਸਬਦੁ ਪਛਾਣਹੁ ਦੂਰਿ ਨ ਜਾਣਹੁ ਜਿਨਿ ਏਹ ਰਚਨਾ ਰਾਚੀ ॥ ਨਾਮੁ ਧਿਆਏ ਤਾ ਸੁਖੁ ਪਾਏ ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਪਿੜ ਕਾਚੀ ॥ ਜਿਨਿ ਥਾਪੀ ਬਿਧਿ ਜਾਣੈ ਸੋਈ ਕਿਆ ਕੋ ਕਹੈ ਵਖਾਣੋ ॥ ਜਿਨਿ ਜਗੁ ਥਾਪਿ ਵਤਾਇਆ ਜਾਲੋੁ ਸੋ ਸਾਹਿਬੁ ਪਰਵਾਣੋ ॥੧॥ ਬਾਬਾ ਆਇਆ ਹੈ ਉਠਿ ਚਲਣਾ ਅਧ ਪੰਧੈ ਹੈ ਸੰਸਾਰੋਵਾ ॥ ਸਿਰਿ ਸਿਰਿ ਸਚੜੈ ਲਿਖਿਆ ਦੁਖੁ ਸੁਖੁ ਪੁਰਬਿ ਵੀਚਾਰੋਵਾ ॥ ਦੁਖੁ ਸੁਖੁ ਦੀਆ ਜੇਹਾ ਕੀਆ ਸੋ ਨਿਬਹੈ ਜੀਅ ਨਾਲੇ ॥ ਜੇਹੇ ਕਰਮ ਕਰਾਏ ਕਰਤਾ ਦੂਜੀ ਕਾਰ ਨ ਭਾਲੇ ॥ ਆਪਿ ਨਿਰਾਲਮੁ ਧੰਧੈ ਬਾਧੀ ਕਰਿ ਹੁਕਮੁ ਛਡਾਵਣਹਾਰੋ ॥ ਅਜੁ ਕਲਿ ਕਰਦਿਆ ਕਾਲੁ ਬਿਆਪੈ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਵਿਕਾਰੋ ॥੨॥ ਜਮ ਮਾਰਗ ਪੰਥੁ ਨ ਸੁਝਈ ਉਝੜੁ ਅੰਧ ਗੁਬਾਰੋਵਾ ॥ ਨਾ ਜਲੁ ਲੇਫ ਤੁਲਾਈਆ ਨਾ ਭੋਜਨ ਪਰਕਾਰੋਵਾ ॥ ਭੋਜਨ ਭਾਉ ਨ ਠੰਢਾ ਪਾਣੀ ਨਾ ਕਾਪੜੁ ਸੀਗਾਰੋ ॥ ਗਲਿ ਸੰਗਲੁ ਸਿਰਿ ਮਾਰੇ ਊਭੌ ਨਾ ਦੀਸੈ ਘਰ ਬਾਰੋ ॥ ਇਬ ਕੇ ਰਾਹੇ ਜੰਮਨਿ ਨਾਹੀ ਪਛੁਤਾਣੇ ਸਿਰਿ ਭਾਰੋ ॥ ਬਿਨੁ ਸਾਚੇ ਕੋ ਬੇਲੀ ਨਾਹੀ ਸਾਚਾ ਏਹੁ ਬੀਚਾਰੋ ॥੩॥ ਬਾਬਾ ਰੋਵਹਿ ਰਵਹਿ ਸੁ ਜਾਣੀਅਹਿ ਮਿਲਿ ਰੋਵੈ ਗੁਣ ਸਾਰੇਵਾ ॥ ਰੋਵੈ ਮਾਇਆ ਮੁਠੜੀ ਧੰਧੜਾ ਰੋਵਣਹਾਰੇਵਾ ॥ ਧੰਧਾ ਰੋਵੈ ਮੈਲੁ ਨ ਧੋਵੈ ਸੁਪਨੰਤਰੁ ਸੰਸਾਰੋ ॥ ਜਿਉ ਬਾਜੀਗਰੁ ਭਰਮੈ ਭੂਲੈ ਝੂਠਿ ਮੁਠੀ ਅਹੰਕਾਰੋ ॥ ਆਪੇ ਮਾਰਗਿ ਪਾਵਣਹਾਰਾ ਆਪੇ ਕਰਮ ਕਮਾਏ ॥ ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਗੁਰਿ ਪੂਰੈ ਰਾਖੇ ਨਾਨਕ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਏ ॥੪॥੪॥
ਅਰਥ: ਜਿਸ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨੇ ਜਗਤ ਪੈਦਾ ਕਰ ਕੇ ਇਸ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਆਪ ਵਿਚ ਲੀਨ ਕਰਨ ਦੀ ਤਾਕਤ ਭੀ ਆਪਣੇ ਪਾਸ ਰੱਖੀ ਹੋਈ ਹੈ ਉਸ ਮਾਲਕ ਨੂੰ ਇਸ ਕੁਦਰਤਿ ਵਿਚ ਵੱਸਦਾ ਸਮਝ। ਸਦਾ-ਥਿਰ ਰਹਿਣ ਵਾਲੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨੂੰ (ਰਚੀ ਕੁਦਰਤਿ ਤੋਂ) ਦੂਰ (ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਥਾਂ) ਲੱਭਣ ਦਾ ਜਤਨ ਨਹੀਂ ਕਰਨਾ ਚਾਹੀਦਾ। ਹਰੇਕ ਸਰੀਰ ਵਿਚ ਉਸੇ ਦਾ ਹੁਕਮ ਵਰਤਦਾ ਪਛਾਣ। ਜਿਸ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨੇ ਇਹ ਰਚਨਾ ਰਚੀ ਹੈ ਉਸ ਨੂੰ ਇਸ ਤੋਂ ਦੂਰ (ਕਿਤੇ ਵੱਖਰਾ) ਨਾਹ ਸਮਝੋ, (ਹਰੇਕ ਸਰੀਰ ਵਿਚ) ਉਸ ਦਾ ਅਟੱਲ ਹੁਕਮ ਵਰਤਦਾ ਪਛਾਣੋ। ਜਦੋਂ ਮਨੁੱਖ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ ਸਿਮਰਦਾ ਹੈ ਤਦੋਂ ਆਤਮਕ ਆਨੰਦ ਮਾਣਦਾ ਹੈ। ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਨਾਮ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਲੁਕਾਈ ਅਸਮਰਥ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ। ਜਿਸ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨੇ ਰਚਨਾ ਰਚੀ ਹੈ ਉਹੀ ਇਸ ਦੀ ਰੱਖਿਆ ਦੀ ਵਿਧੀ ਭੀ ਜਾਣਦਾ ਹੈ, ਹੋਰ ਕੋਈ ਜੋ ਮਰਜੀ ਕਹੇ। ਜਿਸ ਪ੍ਰਭੂ ਨੇ ਜਗਤ ਪੈਦਾ ਕਰ ਕੇ (ਇਸ ਦੇ ਉਪਰ ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਦਾ) ਜਾਲ ਵਿਛਾ ਰੱਖਿਆ ਹੈ ਉਹੀ ਮੰਨਿਆ-ਪ੍ਰਮੰਨਿਆ ਮਾਲਕ ਹੈ ॥੧॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਜੇਹੜਾ ਵੀ ਜੀਵ (ਜਗਤ ਵਿਚ ਜਨਮ ਲੈ ਕੇ) ਆਇਆ ਹੈ ਉਸ ਨੇ ਜ਼ਰੂਰ (ਇਥੋਂ) ਚਲੇ ਜਾਣਾ ਹੈ, ਜਗਤ ਤਾਂ ਆਉਣ ਜਾਣ (ਜਨਮ ਮਰਨ) ਦੇ ਚਕਰ ਵਿਚ ਹੈ। ਸਦਾ-ਥਿਰ ਰਹਿਣ ਵਾਲੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨੇ ਹਰੇਕ ਜੀਵ ਦੇ ਸਿਰ ਉਤੇ ਉਸ ਦੇ ਪੂਰਬਲੇ ਸਮੇ ਵਿਚ ਕੀਤੇ ਕਰਮਾਂ ਦੇ ਵਿਚਾਰ ਅਨੁਸਾਰ ਦੁੱਖ ਅਤੇ ਸੁਖ (ਭੋਗਣ) ਦੇ ਲੇਖ ਲਿਖ ਦਿੱਤੇ ਹਨ। ਜਿਹੋ ਜਿਹਾ ਕਰਮ ਜੀਵ ਨੇ ਕੀਤਾ ਉਹੋ ਜਿਹਾ ਦੁੱਖ ਤੇ ਸੁਖ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨੇ ਉਸ ਨੂੰ ਦੇ ਦਿੱਤਾ ਹੈ। ਹਰੇਕ ਜੀਵ ਦੇ ਕੀਤੇ ਕਰਮਾਂ ਦਾ ਸਮੂਹ ਉਸ ਦੇ ਨਾਲ ਹੀ ਨਿਭਦਾ ਹੈ। (ਪਰ ਜੀਵਾਂ ਦੇ ਭੀ ਕੀਹ ਵੱਸ ?) ਕਰਤਾਰ ਆਪ ਹੀ ਜਿਹੋ ਜਿਹੇ ਕਰਮ ਜੀਵਾਂ ਪਾਸੋਂ ਕਰਾਂਦਾ ਹੈ (ਉਹੋ ਜਿਹੇ ਕਰਮ ਜੀਵ ਕਰਦੇ ਹਨ) ਕੋਈ ਭੀ ਜੀਵ (ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਤੋਂ ਲਾਂਭੇ ਜਾ ਕੇ) ਕੋਈ ਹੋਰ ਕੰਮ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦਾ। ਪਰਮਾਤਮਾ ਆਪ ਤਾਂ (ਕਰਮਾਂ ਤੋਂ) ਨਿਰਲੇਪ ਹੈ, ਲੁਕਾਈ ਉਸ ਦੇ ਹੁਕਮ ਅਨੁਸਾਰ (ਮਾਇਆ ਦੇ) ਆਹਰ ਵਿਚ ਬੱਝੀ ਪਈ ਹੈ। (ਮਾਇਆ ਦੇ ਇਹਨਾਂ ਬੰਧਨਾਂ ਤੋਂ ਭੀ) ਪਰਮਾਤਮਾ ਆਪ ਹੀ ਹੁਕਮ ਕਰ ਕੇ ਛੁਡਾਣ ਦੇ ਸਮਰੱਥ ਹੈ। ਅੱਜ (ਸਿਮਰਨ) ਕਰਦਾ ਹਾਂ, ਭਲਕੇ ਕਰਾਂਗਾ (ਇਹੀ ਟਾਲ-ਮਟੋਲੇ) ਕਰਦੇ ਨੂੰ ਮੌਤ ਆ ਦਬਾਂਦੀ ਹੈ। (ਪ੍ਰਭੂ ਨੂੰ ਵਿਸਾਰ ਕੇ) ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਵਿਚ ਫਸਿਆ ਵਿਅਰਥ ਕੰਮ ਕਰਦਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ ॥੨॥ ਜੀਵ ਜਮ ਵਾਲਾ ਰਸਤਾ ਫੜਦਾ ਹੈ, ਤੇ ਉਸ ਨੂੰ ਆਤਮਿਕ ਜੀਵਨ ਦੀ ਸੋਝ ਨਹੀਂ ਆਉਂਦੀ, ਉਜਾੜ ਤੇ ਘੁੱਪ ਹਨੇਰੇ ਵਿਚ ਹੀ ਫਸਿਆ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ। (ਆਖਰ ਵੇਲੇ) ਨਾਹ ਪਾਣੀ, ਨਾਹ ਲੇਫ, ਨਾਹ ਤੁਲਾਈ ਨਾ ਕਿਸੇ ਕਿਸਮ ਦਾ ਭੋਜਨ, ਭੋਜਨ ਭਾਉ ਨਹੀਂ, ਨਾਹ ਠੰਢਾ ਪਾਣੀ, ਨਾਹ ਕੋਈ ਸੋਹਣਾ ਕੱਪੜਾ, ਨਾਹ ਹੋਰ ਸਿੰਗਾਰ (ਨਾਲ ਜਾਂਦਾ ਹੈ)। ਜਮਰਾਜ ਜੀਵ ਦੇ ਗਲ ਵਿਚ (ਮੋਹ ਦਾ) ਸੰਗਲ ਪਾ ਕੇ ਇਸ ਦੇ ਸਿਰ ਉਤੇ ਖਲੋਤਾ ਚੋਟਾਂ ਮਾਰਦਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਇਸ ਨੂੰ ਕੋਈ ਘਰ-ਬਾਹਰ ਨਹੀਂ ਦਿੱਸਦਾ। ਉਸ (ਮੌਤ) ਵੇਲੇ ਦੇ ਬੀਜੇ ਹੋਏ (ਸਿਮਰਨ ਸੇਵਾ ਆਦਿਕ ਦੇ ਬੀਜ) ਉੱਗ ਨਹੀਂ ਸਕਦੇ। ਤਦੋਂ ਪਛੁਤਾਂਦਾ ਹੈ ਕਿਉਂਕਿ ਕੀਤੇ ਪਾਪਾਂ ਦਾ ਭਾਰ ਸਿਰ ਉਤੇ ਪਿਆ ਹੈ (ਜੋ ਲਹਿ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ)। ਇਸ ਅਟੱਲ ਵਿਚਾਰ ਨੂੰ ਚੇਤੇ ਰੱਖੋ ਕਿ ਸਦਾ-ਥਿਰ ਰਹਿਣ ਵਾਲੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਹੋਰ ਕੋਈ ਸਾਥੀ ਨਹੀਂ ਬਣਦਾ ॥੩॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਜੇਹੜੇ ਮਨੁੱਖ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ ਸਿਮਰਦੇ ਹਨ ਤੇ ਵੈਰਾਗਵਾਨ ਹੁੰਦੇ ਹਨ ਉਹ (ਲੋਕ ਪਰਲੋਕ ਵਿਚ) ਆਦਰ ਪਾਂਦੇ ਹਨ। ਪਰ ਜਿਸ ਜੀਵ-ਇਸਤ੍ਰੀ ਨੂੰ ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਨੇ ਲੁੱਟ ਲਿਆ ਹੈ ਉਹ ਦੁੱਖੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਜੀਵ (ਸਾਰੀ ਉਮਰ ਮਾਇਆ ਦਾ) ਧੰਧਾ ਹੀ ਪਿੱਟਦੇ ਹਨ ਤੇ ਇੰਜ ਕਰਮਾ ਦੀ ਮੈਲ ਨਹੀਂ ਲਾਹੁੰਦੇ, ਉਹਨ੍ਹਾਂ ਲਈ ਸੰਸਾਰ ਇਕ ਸੁਪਨਾ ਹੀ ਬਣਿਆ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ। ਜਿਵੇਂ ਬਾਜ਼ੀਗਰ (ਤਮਾਸ਼ਾ ਵਿਖਾਂਦਾ ਹੈ, ਵੇਖਣ ਵਾਲਾ ਜੀਵ ਉਸ ਦੇ ਤਮਾਸ਼ੇ ਵਿਚ ਰੁੱਝਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ, ਤਿਵੇਂ) ਕੂੜੇ ਮੋਹ ਦੀ ਠਗੀ ਹੋਈ ਜੀਵ-ਇਸਤ੍ਰੀ ਭਟਕਣਾ ਵਿਚ ਪੈ ਕੇ ਕੁਰਾਹੇ ਪਈ ਰਹਿੰਦੀ ਹੈ ਤੇ (ਕੂੜੀ ਮਾਇਆ ਦਾ) ਮਾਣ ਕਰਦੀ ਹੈ। ਪਰ ਪਰਮਾਤਮਾ ਆਪ ਹੀ (ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ) ਸਹੀ ਰਸਤੇ ਤੇ ਪਾਣ ਵਾਲਾ ਹੈ ਤੇ ਆਪ ਹੀ (ਜੀਵਾਂ ਵਿਚ ਵਿਆਪਕ ਹੋ ਕੇ) ਕਰਮ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਹੇ ਨਾਨਕ ਜੀ! ਜੇਹੜੇ ਆਤਮਕ ਅਡੋਲਤਾ ਵਿਚ ਟਿਕੇ ਰਹਿ ਕੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਨਾਮ-ਰੰਗ ਵਿਚ ਰੰਗੇ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ, ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਪੂਰੇ ਗੁਰੂ ਨੇ (ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਤੋਂ) ਬਚਾ ਲਿਆ ਹੈ ॥੪॥੪॥
13 ਪੋਹ ਸਿਆਲਾਂ ਦੀਆਂ ਤਾਂ ਰਾਤਾਂ ਹੀ ਐਨੀਆਂ ਲੰਬੀਆਂ ਹੁੰਦੀਆਂ ਨੇ ਕਿ ਮੁੱਕਣ ਤੇ ਨਹੀਂ ਆਉਂਦੀਆਂ, ਉਹ ਵੀ ਜਦ ਬਾਹਰ ਬੈਠੇ ਹੋਈਏ, ਹਥ ਪੈਰ ਸੁੰਨ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਨੇ, ਕੜਾਕੇ ਦੀ ਠੰਡ ਵਿੱਚ ਤਾਂ ਬਿਨਾਂ ਅੱਗ ਦੇ ਤਾਂ ਹਥ ਪੈਰ ਵੀ ਸਿੱਧੇ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੇ, ਧੰਨ ਹਨ ਸਾਹਿਬਜ਼ਾਦੇ ਜੋ ਨਿੱਕੀਆਂ ਨਿੱਕੀਆਂ ਉਮਰਾਂ ਵਿੱਚ ਵੀ ਜ਼ਰਾ ਜਿਹਾ ਵੀ ਡੋਲੇ ਨਹੀਂ, ਡੋਲਣ ਵੀ ਕਿਵੇਂ, ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਵਿੱਚ ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ਜੀ ਦਾ ਖੂਨ ਅਤੇ ਰਗਾਂ ਵਿੱਚ ਦਾਦੇ ਦੀ ਸ਼ਹਾਦਤ, ਦਾਦੀ ਦੀ ਸਿੱਖਿਆ ਅਤੇ ਰੋਮ ਰੋਮ ਵਿੱਚ ਗੁਰਬਾਣੀ ਵੱਸੀ ਹੋਈ ਹੈ !!ਸਰਬੰਸ ਦਾਨੀ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ਜੀ ਦੇ ਛੋਟੇ ਸਾਹਿਬਜ਼ਾਦੇ ਬਾਬਾ ਜ਼ੋਰਾਵਰ ਸਿੰਘ ਜੀ, ਬਾਬਾ ਫ਼ਤਹਿ ਸਿੰਘ ਜੀ ਅਤੇ ਮਾਤਾ ਗੁਜਰੀ ਜੀ ਦੇ ਸ਼ਹੀਦੀ ਦਿਹਾੜੇ ‘ਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਸ਼ਹਾਦਤ ਨੂੰ ਕੋਟਿ-ਕੋਟਿ ਪ੍ਰਣਾਮ। ਸਿੱਦਕ, ਸਬਰ ਅਤੇ ਜਜ਼ਬੇ ਦਾ ਇਤਿਹਾਸ ਰਚਣ ਵਾਲੀ ਇਹ ਵੀਰ ਗਾਥਾ ਸਾਨੂੰ ਹਮੇਸ਼ਾ ਪ੍ਰੇਰਿਤ ਕਰਦੀ ਰਹੇਗੀ।
सोरठि महला ५ ॥ गुण गावहु पूरन अबिनासी काम क्रोध बिखु जारे ॥ महा बिखमु अगनि को सागरु साधू संगि उधारे ॥१॥ पूरै गुरि मेटिओ भरमु अंधेरा ॥ भजु प्रेम भगति प्रभु नेरा ॥ रहाउ ॥ हरि हरि नामु निधान रसु पीआ मन तन रहे अघाई ॥ जत कत पूरि रहिओ परमेसरु कत आवै कत जाई ॥२॥ जप तप संजम गिआन तत बेता जिसु मनि वसै गोपाला ॥ नामु रतनु जिनि गुरमुखि पाइआ ता की पूरन घाला ॥३॥ कलि कलेस मिटे दुख सगले काटी जम की फासा ॥ कहु नानक प्रभि किरपा धारी मन तन भए बिगासा ॥४॥१२॥२३॥
अर्थ: (हे भाई! पूरे गुरु की सरन आ कर) सरब व्यापक नाश रहित प्रभू के गुण गाया कर। (जो मनुष्य यह उदम करता है गुरु उस* *के अंदर से आतमिक मौत लाने वाले) काम क्रोध (आदि का) जहर जला देता है। (यह जगत विकारों की) आग का समुंदर (है, इस में से पार निकलना) बहुत कठिन है (सिफत-सलाह के गीत गाने वाले मनुष्य को गुरु) साध संगत में (रख के, इस सागर से) पार निकल देता है ॥१॥ (हे भाई! पूरे गुरु की सरन पड़। जो मनुष्य पूरे गुरु की सरन पड़ा) पूरे गुरु ने (उस का) भ्रम मिटा दिया, (उस का माया के मोह का) अन्धकार दूर कर दिया। (हे भाई! तूँ भी गुरु की सरन आ के) प्रेम-भरी भक्ति से प्रभू का भजन कर, (तुझे) प्रभू अंग-संग (दिखाई पड़ेगा) ॥ रहाउ ॥ हे भाई! परमात्मा का नाम (सारे रसों का खज़ाना है, जो मनुष्य गुरु की सरन आ के इस) खजाने का रस पीता है, उस का मन उस का तन (माया के रसों से) भर जाता है। उस को हर जगह परमात्मा व्यापक दिख जाता है। वह मनुष्य फिर न पैदा होता है न ही मरता है ॥२॥ हे भाई! (गुरू के द्वारा) जिस मनुष्य के मन में सिृष्टी का पालन-हार आ वसता है, वह मनुष्य असली जप तप संजम का भेद समझने वाला हो जाता है वह मनुष्य आतमिक जीवन की सूझ का ज्ञानवान हो जाता है। जिस मनुष्य ने गुरू की सरन पड़ कर नाम रतन ढूंढ लिया, उस की (आतमिक जीवन वाली) मेहनत कामयाब हो गई ॥३॥ उस मनुष्य की जमों वाली फांसी कट गई (उस के गलों माया के मोह की फांसी कट गई जो आतमिक मौत लिया के जमों का वस पाती है, उस के सारे दुःख क्लेश कष्ट दूर हो गए, नानक जी कहते हैं – जिस मनुष्य पर प्रभू ने मेहर की (उस को प्रभू ने गुरू मिला दिया, और) उस का मन उस का तन आतमिक आनंद से प्रसन्न हो गया ॥४॥१२॥२३॥
ਅੰਗ : 615
ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੫ ॥ ਗੁਣ ਗਾਵਹੁ ਪੂਰਨ ਅਬਿਨਾਸੀ ਕਾਮ ਕ੍ਰੋਧ ਬਿਖੁ ਜਾਰੇ ॥ ਮਹਾ ਬਿਖਮੁ ਅਗਨਿ ਕੋ ਸਾਗਰੁ ਸਾਧੂ ਸੰਗਿ ਉਧਾਰੇ ॥੧॥ ਪੂਰੈ ਗੁਰਿ ਮੇਟਿਓ ਭਰਮੁ ਅੰਧੇਰਾ ॥ ਭਜੁ ਪ੍ਰੇਮ ਭਗਤਿ ਪ੍ਰਭੁ ਨੇਰਾ ॥ ਰਹਾਉ ॥ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨ ਰਸੁ ਪੀਆ ਮਨ ਤਨ ਰਹੇ ਅਘਾਈ ॥ ਜਤ ਕਤ ਪੂਰਿ ਰਹਿਓ ਪਰਮੇਸਰੁ ਕਤ ਆਵੈ ਕਤ ਜਾਈ ॥੨॥ ਜਪ ਤਪ ਸੰਜਮ ਗਿਆਨ ਤਤ ਬੇਤਾ ਜਿਸੁ ਮਨਿ ਵਸੈ ਗੋਪਾਲਾ ॥ ਨਾਮੁ ਰਤਨੁ ਜਿਨਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਇਆ ਤਾ ਕੀ ਪੂਰਨ ਘਾਲਾ ॥੩॥ ਕਲਿ ਕਲੇਸ ਮਿਟੇ ਦੁਖ ਸਗਲੇ ਕਾਟੀ ਜਮ ਕੀ ਫਾਸਾ ॥ ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਭਿ ਕਿਰਪਾ ਧਾਰੀ ਮਨ ਤਨ ਭਏ ਬਿਗਾਸਾ ॥੪॥੧੨॥੨੩॥
ਅਰਥ: (ਹੇ ਭਾਈ! ਪੂਰੇ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸਰਨ ਪੈ ਕੇ) ਸਰਬ-ਵਿਆਪਕ ਨਾਸ-ਰਹਿਤ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਗੁਣ ਗਾਇਆ ਕਰ। (ਜੇਹੜਾ ਮਨੁੱਖ ਇਹ ਉੱਦਮ ਕਰਦਾ ਹੈ ਗੁਰੂ ਉਸ ਦੇ ਅੰਦਰੋਂ ਆਤਮਕ ਮੌਤ ਲਿਆਉਣ ਵਾਲੇ) ਕਾਮ ਕ੍ਰੋਧ (ਆਦਿਕ ਦੀ) ਜ਼ਹਰ ਸਾੜ ਦੇਂਦਾ ਹੈ। (ਇਹ ਜਗਤ ਵਿਕਾਰਾਂ ਦੀ) ਅੱਗ ਦਾ ਸਮੁੰਦਰ (ਹੈ, ਇਸ ਵਿਚੋਂ ਪਾਰ ਲੰਘਣਾ) ਬਹੁਤ ਕਠਨ ਹੈ (ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਦੇ ਗੀਤ ਗਾਣ ਵਾਲੇ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਗੁਰੂ) ਸਾਧ ਸੰਗਤਿ ਵਿਚ (ਰੱਖ ਕੇ, ਇਸ ਸਮੁੰਦਰ ਵਿਚੋਂ) ਪਾਰ ਲੰਘਾ ਦੇਂਦਾ ਹੈ ॥੧॥ (ਹੇ ਭਾਈ! ਪੂਰੇ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸਰਨ ਪਉ। ਜੇਹੜਾ ਮਨੁੱਖ ਪੂਰੇ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸਰਨ ਪਿਆ) ਪੂਰੇ ਗੁਰੂ ਨੇ (ਉਸ ਦਾ) ਭਰਮ ਮਿਟਾ ਦਿੱਤਾ, (ਉਸ ਦਾ ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਦਾ) ਹਨੇਰਾ ਦੂਰ ਕਰ ਦਿੱਤਾ। (ਹੇ ਭਾਈ! ਤੂੰ ਭੀ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸਰਨ ਪੈ ਕੇ) ਪ੍ਰੇਮ-ਭਰੀ ਭਗਤੀ ਨਾਲ ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਭਜਨ ਕਰਿਆ ਕਰ, (ਤੈਨੂੰ) ਪ੍ਰਭੂ ਅੰਗ-ਸੰਗ (ਦਿੱਸ ਪਏਗਾ) ॥ ਰਹਾਉ ॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ (ਸਾਰੇ ਰਸਾਂ ਦਾ ਖ਼ਜ਼ਾਨਾ ਹੈ, ਜੇਹੜਾ ਮਨੁੱਖ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸਰਨ ਪੈ ਕੇ ਇਸ) ਖ਼ਜ਼ਾਨੇ ਦਾ ਰਸ ਪੀਂਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਦਾ ਮਨ ਉਸ ਦਾ ਤਨ (ਮਾਇਆ ਦੇ ਰਸਾਂ ਵਲੋਂ) ਰੱਜ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਉਸ ਨੂੰ ਹਰ ਥਾਂ ਪਰਮਾਤਮਾ ਵਿਆਪਕ ਦਿੱਸ ਪੈਂਦਾ ਹੈ। ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਫਿਰ ਨਾਹ ਜੰਮਦਾ ਹੈ ਨਾਹ ਮਰਦਾ ਹੈ ॥੨॥ ਹੇ ਭਾਈ! (ਗੁਰੂ ਦੀ ਰਾਹੀਂ) ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਦੇ ਮਨ ਵਿਚ ਸ੍ਰਿਸ਼ਟੀ ਦਾ ਪਾਲਣ-ਹਾਰ ਆ ਵੱਸਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਅਸਲੀ ਜਪ ਤਪ ਸੰਜਮ ਦਾ ਭੇਤ ਸਮਝਣ ਵਾਲਾ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਦੀ ਸੂਝ ਦਾ ਗਿਆਤਾ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਨੇ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸਰਨ ਪੈ ਕੇ ਨਾਮ ਰਤਨ ਲੱਭ ਲਿਆ, ਉਸ ਦੀ (ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਵਾਲੀ) ਮੇਹਨਤ ਕਾਮਯਾਬ ਹੋ ਗਈ ॥੩॥ ਉਸ ਮਨੁੱਖ ਦੀ ਜਮਾਂ ਵਾਲੀ ਫਾਹੀ ਕੱਟੀ ਗਈ (ਉਸ ਦੇ ਗਲੋਂ ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਦੀ ਫਾਹੀ ਕੱਟੀ ਗਈ ਜੋ ਆਤਮਕ ਮੌਤ ਲਿਆ ਕੇ ਜਮਾਂ ਦੇ ਵੱਸ ਪਾਂਦੀ ਹੈ), ਉਸ ਦੇ ਸਾਰੇ ਦੁੱਖ ਕਲੇਸ਼ ਕਸ਼ਟ ਦੂਰ ਹੋ ਗਏ, ਨਾਨਕ ਜੀ ਆਖਦੇ ਹਨ – ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਉਤੇ ਪ੍ਰਭੂ ਨੇ ਮੇਹਰ ਕੀਤੀ (ਉਸ ਨੂੰ ਪ੍ਰਭੂ ਨੇ ਗੁਰੂ ਮਿਲਾ ਦਿੱਤਾ, ਤੇ) ਉਸ ਦਾ ਮਨ ਉਸ ਦਾ ਤਨ ਆਤਮਕ ਆਨੰਦ ਨਾਲ ਪ੍ਰਫੁਲਤ ਹੋ ਗਿਆ ॥੪॥੧੨॥੨੩॥
14 ਪੋਹ (28 ਦਸੰਬਰ) ਦਾ ਇਤਿਹਾਸ
ਅੱਜ ਦੇ ਦਿਨ ਦੀਵਾਨ ਟੋਡਰ ਮੱਲ ਜੀ ਨੇ ਸੋਨੇ ਦੀਆਂ
ਮੋਹਰਾਂ ਵਿਛਾ ਕੇ ਜ਼ਮੀਨ ਖਰੀਦੀ ਸੀ ਅਤੇ ਛੋਟੇ
ਸਾਹਿਬਜ਼ਾਦਿਆਂ ਅਤੇ ਮਾਤਾ ਗੁਜਰੀ ਜੀ ਦਾ ਬੜੇ ਹੀ
ਅਦਬ ਅਤੇ ਸਤਿਕਾਰ ਨਾਲ ਅੰਤਿਮ ਸੰਸਕਾਰ ਕੀਤਾ ਸੀ
ਗੁਰੂਦਵਾਰਾ ਸ਼੍ਰੀ ਜੋਤੀ ਸਰੂਪ ਸਾਹਿਬ ਜਿਲਾ ਫਤਿਹਗੜ੍ਹ ਸਾਹਿਬ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਹੈ। ਇਹ ਫਤਿਹਗੜ੍ਹ ਮੋਹਾਲੀ ਰੋਡ ‘ਤੇ ਸਥਿਤ ਹੈ। ਇਹ ਗੁਰੂਦਵਾਰਾ ਫਤਹਿਗੜ੍ਹ ਸਾਹਿਬ ਦੇ ਪੂਰਬ ਵੱਲ ਲਗਭਗ ਇੱਕ ਮੀਲ ਦੂਰ ਹੈ। ਦੋ ਗੁਰੂਦਵਾਰਾ ਸਾਹਿਬਾਂ ਨੂੰ ਜੋੜਨ ਵਾਲੀ ਸੜਕ ਦੀਵਾਨ ਟੋਡਰ ਮੱਲ ਮਾਰਗ ਹੈ, ਇਹ ਉਸੇ ਥਾਂ ‘ਤੇ ਸੀ ਜਿੱਥੇ ਹੁਣ ਗੁਰੂਦਵਾਰਾ ਜੋਤੀ ਸਰੂਪ ਸਾਹਿਬ ਸ਼ੁਸ਼ੋਬਿਤ ਹੈ…
ਇਸ ਅਸਥਾਨ ਤੇ ਮਾਤਾ ਗੁਜਰੀ ਜੀ, ਸਾਹਿਬਜ਼ਾਦਾ ਜ਼ੋਰਾਵਰ ਸਿੰਘ ਜੀ ਅਤੇ ਸਾਹਿਬਜ਼ਾਦਾ ਫਤਹਿ ਸਿੰਘ ਜੀ ਦਾ ਸਸਕਾਰ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਸੀ। ਵਜ਼ੀਰ ਖਾਨ ਦੇ ਡਰ ਕਾਰਨ ਸਰਹਿੰਦ ਦੇ ਆਲੇ-ਦੁਆਲੇ ਜ਼ਮੀਨਾਂ ਦੇ ਮਾਲਕਾਂ ਨੇ ਟੋਡਰ ਮੱਲ ਨੂੰ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਦੇ ਪਰਿਵਾਰਕ ਮੈਂਬਰਾਂ ਦੇ ਅੰਤਿਮ ਸੰਸਕਾਰ (ਸਸਕਾਰ) ਕਰਨ ਲਈ ਜ਼ਮੀਨ ਦਾ ਇੱਕ ਟੁਕੜਾ ਵੇਚਣ ਤੋਂ ਇਨਕਾਰ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਸੀ । ਪਰ ਥੋੜੇ ਪੈਸੇ ਕਮਾਉਣ ਦਾ ਮੌਕਾ ਦੇਖ ਕੇ ਇੱਕ ਕਿਸਾਨ ਟੋਡਰ ਮੱਲ ਨੂੰ ਸਿਰਫ ਇੰਨੀ ਜ਼ਮੀਨ ਵੇਚਣ ਲਈ ਤਿਆਰ ਹੋ ਗਿਆ ਜਿਸ ‘ਤੇ ਮਾਤਾ ਜੀ ਅਤੇ ਸਾਹਿਬਜ਼ਾਦਿਆਂ ਦਾ ਅੰਤਿਮ ਸੰਸਕਾਰ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕੇ। ਅੰਤ ਵਿੱਚ ਜ਼ਮੀਨ ਦੇ ਛੋਟੇ ਹਿੱਸੇ ਨੂੰ ਖਰੀਦਣ ਲਈ ਇੱਕ ਸਮਝੌਤਾ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਸੀ. ਟੋਡਰ ਮੱਲ ਨੂੰ ਸੋਨੇ ਦੇ ਸਿੱਕੇ ਵਿਛੌਣੇ ਪਏ ਸੀ ਉਸ ਜਮੀਨ ਦੇ ਟੁਕੜੇ ਨੂੰ ਖਰੀਦਣ ਦੇ ਲਈ .
सोरठि महला ५ ॥ गुण गावहु पूरन अबिनासी काम क्रोध बिखु जारे ॥ महा बिखमु अगनि को सागरु साधू संगि उधारे ॥१॥ पूरै गुरि मेटिओ भरमु अंधेरा ॥ भजु प्रेम भगति प्रभु नेरा ॥ रहाउ ॥ हरि हरि नामु निधान रसु पीआ मन तन रहे अघाई ॥ जत कत पूरि रहिओ परमेसरु कत आवै कत जाई ॥२॥ जप तप संजम गिआन तत बेता जिसु मनि वसै गोपाला ॥ नामु रतनु जिनि गुरमुखि पाइआ ता की पूरन घाला ॥३॥ कलि कलेस मिटे दुख सगले काटी जम की फासा ॥ कहु नानक प्रभि किरपा धारी मन तन भए बिगासा ॥४॥१२॥२३॥
अर्थ: (हे भाई! पूरे गुरु की सरन आ कर) सरब व्यापक नाश रहित प्रभू के गुण गाया कर। (जो मनुष्य यह उदम करता है गुरु उस* *के अंदर से आतमिक मौत लाने वाले) काम क्रोध (आदि का) जहर जला देता है। (यह जगत विकारों की) आग का समुंदर (है, इस में से पार निकलना) बहुत कठिन है (सिफत-सलाह के गीत गाने वाले मनुष्य को गुरु) साध संगत में (रख के, इस सागर से) पार निकल देता है ॥१॥ (हे भाई! पूरे गुरु की सरन पड़। जो मनुष्य पूरे गुरु की सरन पड़ा) पूरे गुरु ने (उस का) भ्रम मिटा दिया, (उस का माया के मोह का) अन्धकार दूर कर दिया। (हे भाई! तूँ भी गुरु की सरन आ के) प्रेम-भरी भक्ति से प्रभू का भजन कर, (तुझे) प्रभू अंग-संग (दिखाई पड़ेगा) ॥ रहाउ ॥ हे भाई! परमात्मा का नाम (सारे रसों का खज़ाना है, जो मनुष्य गुरु की सरन आ के इस) खजाने का रस पीता है, उस का मन उस का तन (माया के रसों से) भर जाता है। उस को हर जगह परमात्मा व्यापक दिख जाता है। वह मनुष्य फिर न पैदा होता है न ही मरता है ॥२॥ हे भाई! (गुरू के द्वारा) जिस मनुष्य के मन में सिृष्टी का पालन-हार आ वसता है, वह मनुष्य असली जप तप संजम का भेद समझने वाला हो जाता है वह मनुष्य आतमिक जीवन की सूझ का ज्ञानवान हो जाता है। जिस मनुष्य ने गुरू की सरन पड़ कर नाम रतन ढूंढ लिया, उस की (आतमिक जीवन वाली) मेहनत कामयाब हो गई ॥३॥ उस मनुष्य की जमों वाली फांसी कट गई (उस के गलों माया के मोह की फांसी कट गई जो आतमिक मौत लिया के जमों का वस पाती है, उस के सारे दुःख क्लेश कष्ट दूर हो गए, नानक जी कहते हैं – जिस मनुष्य पर प्रभू ने मेहर की (उस को प्रभू ने गुरू मिला दिया, और) उस का मन उस का तन आतमिक आनंद से प्रसन्न हो गया ॥४॥१२॥२३॥
ਅੰਗ : 615
ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੫ ॥ ਗੁਣ ਗਾਵਹੁ ਪੂਰਨ ਅਬਿਨਾਸੀ ਕਾਮ ਕ੍ਰੋਧ ਬਿਖੁ ਜਾਰੇ ॥ ਮਹਾ ਬਿਖਮੁ ਅਗਨਿ ਕੋ ਸਾਗਰੁ ਸਾਧੂ ਸੰਗਿ ਉਧਾਰੇ ॥੧॥ ਪੂਰੈ ਗੁਰਿ ਮੇਟਿਓ ਭਰਮੁ ਅੰਧੇਰਾ ॥ ਭਜੁ ਪ੍ਰੇਮ ਭਗਤਿ ਪ੍ਰਭੁ ਨੇਰਾ ॥ ਰਹਾਉ ॥ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨ ਰਸੁ ਪੀਆ ਮਨ ਤਨ ਰਹੇ ਅਘਾਈ ॥ ਜਤ ਕਤ ਪੂਰਿ ਰਹਿਓ ਪਰਮੇਸਰੁ ਕਤ ਆਵੈ ਕਤ ਜਾਈ ॥੨॥ ਜਪ ਤਪ ਸੰਜਮ ਗਿਆਨ ਤਤ ਬੇਤਾ ਜਿਸੁ ਮਨਿ ਵਸੈ ਗੋਪਾਲਾ ॥ ਨਾਮੁ ਰਤਨੁ ਜਿਨਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਇਆ ਤਾ ਕੀ ਪੂਰਨ ਘਾਲਾ ॥੩॥ ਕਲਿ ਕਲੇਸ ਮਿਟੇ ਦੁਖ ਸਗਲੇ ਕਾਟੀ ਜਮ ਕੀ ਫਾਸਾ ॥ ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਭਿ ਕਿਰਪਾ ਧਾਰੀ ਮਨ ਤਨ ਭਏ ਬਿਗਾਸਾ ॥੪॥੧੨॥੨੩॥
ਅਰਥ: (ਹੇ ਭਾਈ! ਪੂਰੇ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸਰਨ ਪੈ ਕੇ) ਸਰਬ-ਵਿਆਪਕ ਨਾਸ-ਰਹਿਤ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਗੁਣ ਗਾਇਆ ਕਰ। (ਜੇਹੜਾ ਮਨੁੱਖ ਇਹ ਉੱਦਮ ਕਰਦਾ ਹੈ ਗੁਰੂ ਉਸ ਦੇ ਅੰਦਰੋਂ ਆਤਮਕ ਮੌਤ ਲਿਆਉਣ ਵਾਲੇ) ਕਾਮ ਕ੍ਰੋਧ (ਆਦਿਕ ਦੀ) ਜ਼ਹਰ ਸਾੜ ਦੇਂਦਾ ਹੈ। (ਇਹ ਜਗਤ ਵਿਕਾਰਾਂ ਦੀ) ਅੱਗ ਦਾ ਸਮੁੰਦਰ (ਹੈ, ਇਸ ਵਿਚੋਂ ਪਾਰ ਲੰਘਣਾ) ਬਹੁਤ ਕਠਨ ਹੈ (ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਦੇ ਗੀਤ ਗਾਣ ਵਾਲੇ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਗੁਰੂ) ਸਾਧ ਸੰਗਤਿ ਵਿਚ (ਰੱਖ ਕੇ, ਇਸ ਸਮੁੰਦਰ ਵਿਚੋਂ) ਪਾਰ ਲੰਘਾ ਦੇਂਦਾ ਹੈ ॥੧॥ (ਹੇ ਭਾਈ! ਪੂਰੇ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸਰਨ ਪਉ। ਜੇਹੜਾ ਮਨੁੱਖ ਪੂਰੇ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸਰਨ ਪਿਆ) ਪੂਰੇ ਗੁਰੂ ਨੇ (ਉਸ ਦਾ) ਭਰਮ ਮਿਟਾ ਦਿੱਤਾ, (ਉਸ ਦਾ ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਦਾ) ਹਨੇਰਾ ਦੂਰ ਕਰ ਦਿੱਤਾ। (ਹੇ ਭਾਈ! ਤੂੰ ਭੀ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸਰਨ ਪੈ ਕੇ) ਪ੍ਰੇਮ-ਭਰੀ ਭਗਤੀ ਨਾਲ ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਭਜਨ ਕਰਿਆ ਕਰ, (ਤੈਨੂੰ) ਪ੍ਰਭੂ ਅੰਗ-ਸੰਗ (ਦਿੱਸ ਪਏਗਾ) ॥ ਰਹਾਉ ॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ (ਸਾਰੇ ਰਸਾਂ ਦਾ ਖ਼ਜ਼ਾਨਾ ਹੈ, ਜੇਹੜਾ ਮਨੁੱਖ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸਰਨ ਪੈ ਕੇ ਇਸ) ਖ਼ਜ਼ਾਨੇ ਦਾ ਰਸ ਪੀਂਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਦਾ ਮਨ ਉਸ ਦਾ ਤਨ (ਮਾਇਆ ਦੇ ਰਸਾਂ ਵਲੋਂ) ਰੱਜ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਉਸ ਨੂੰ ਹਰ ਥਾਂ ਪਰਮਾਤਮਾ ਵਿਆਪਕ ਦਿੱਸ ਪੈਂਦਾ ਹੈ। ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਫਿਰ ਨਾਹ ਜੰਮਦਾ ਹੈ ਨਾਹ ਮਰਦਾ ਹੈ ॥੨॥ ਹੇ ਭਾਈ! (ਗੁਰੂ ਦੀ ਰਾਹੀਂ) ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਦੇ ਮਨ ਵਿਚ ਸ੍ਰਿਸ਼ਟੀ ਦਾ ਪਾਲਣ-ਹਾਰ ਆ ਵੱਸਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਅਸਲੀ ਜਪ ਤਪ ਸੰਜਮ ਦਾ ਭੇਤ ਸਮਝਣ ਵਾਲਾ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਦੀ ਸੂਝ ਦਾ ਗਿਆਤਾ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਨੇ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸਰਨ ਪੈ ਕੇ ਨਾਮ ਰਤਨ ਲੱਭ ਲਿਆ, ਉਸ ਦੀ (ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਵਾਲੀ) ਮੇਹਨਤ ਕਾਮਯਾਬ ਹੋ ਗਈ ॥੩॥ ਉਸ ਮਨੁੱਖ ਦੀ ਜਮਾਂ ਵਾਲੀ ਫਾਹੀ ਕੱਟੀ ਗਈ (ਉਸ ਦੇ ਗਲੋਂ ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਦੀ ਫਾਹੀ ਕੱਟੀ ਗਈ ਜੋ ਆਤਮਕ ਮੌਤ ਲਿਆ ਕੇ ਜਮਾਂ ਦੇ ਵੱਸ ਪਾਂਦੀ ਹੈ), ਉਸ ਦੇ ਸਾਰੇ ਦੁੱਖ ਕਲੇਸ਼ ਕਸ਼ਟ ਦੂਰ ਹੋ ਗਏ, ਨਾਨਕ ਜੀ ਆਖਦੇ ਹਨ – ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਉਤੇ ਪ੍ਰਭੂ ਨੇ ਮੇਹਰ ਕੀਤੀ (ਉਸ ਨੂੰ ਪ੍ਰਭੂ ਨੇ ਗੁਰੂ ਮਿਲਾ ਦਿੱਤਾ, ਤੇ) ਉਸ ਦਾ ਮਨ ਉਸ ਦਾ ਤਨ ਆਤਮਕ ਆਨੰਦ ਨਾਲ ਪ੍ਰਫੁਲਤ ਹੋ ਗਿਆ ॥੪॥੧੨॥੨੩॥
सलोकु मः ३ ॥ सतिगुर ते जो मुह फिरे से बधे दुख सहाहि ॥ फिरि फिरि मिलणु न पाइनी जमहि तै मरि जाहि ॥ सहसा रोगु न छोडई दुख ही महि दुख पाहि ॥ नानक नदरी बखसि लेहि सबदे मेलि मिलाहि ॥१॥ मः ३ ॥ जो सतिगुर ते मुह फिरे तिना ठउर न ठाउ ॥ जिउ छुटड़ि घरि घरि फिरै दुहचारणि बदनाउ ॥ नानक गुरमुखि बखसीअहि से सतिगुर मेलि मिलाउ ॥२॥ पउड़ी ॥ जो सेवहि सति मुरारि से भवजल तरि गइआ ॥ जो बोलहि हरि हरि नाउ तिन जमु छडि गइआ ॥ से दरगह पैधे जाहि जिना हरि जपि लइआ ॥ हरि सेवहि सेई पुरख जिना हरि तुधु मइआ ॥ गुण गावा पिआरे नित गुरमुखि भ्रम भउ गइआ ॥७॥
अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरू की ओर से मनमुख हैं, वह (अंत में) बँधे दुख सहते हैं, प्रभू को मिल नहीं सकते, बार-बार पैदा होते मरते रहते हैं; उन्हें चिंता का रोग कभी नहीं छोड़ता, सदा दुखी ही रहते है। हे नानक! कृपा-दृष्टि वाला प्रभू अगर उन्हें बख्श ले तो सतिगुरू के शबद के द्वारा उस में मिल जाते हैं।1।जो मनुष्य सतिगुरू से मनमुख हैं उनका ना ठौर ना ठिकाना; वे व्यभचारिन छॅुटड़ स्त्री की भांति हैं, जो घर-घर में बदनाम होती फिरती है। हे नानक! जो गुरू के सन्मुख हो के बख्शे जाते हैं, वे सतिगुरू की संगति में मिल जाते हैं।2। जो मनुष्य सच्चे हरी को सेवते हैं, वे संसार समुंद्र को पार कर लेते हैं; जो मनुष्य हरी का नाम सिमरते हैं, उन्हें जम छोड़ जाता है; जिन्होंने हरी का नाम जपा है, उन्हें दरगाह में आदर मिलता है; (पर) हे हरी! जिन पर तेरी मेहर होती है, वही मनुष्य तेरी भक्ति करते हैं। सतिगुरू के सन्मुख हो के भ्रम और डर दूर हो जाते हैं, (मेहर कर) हे प्यारे! मैं भी सदा तेरे गुण गाऊँ।7।